शनिवार, 8 जुलाई 2023

चूहेदानी से आप को भी कुछ तो याद आएगा....


कुछ दिनों पहले की बात है घर से कबाड़ निकाला जा रहा था ...मुझे तो ऐसे लगने लगा है कि जिन घरों में भी ज़रुरत से ज़्यादा सामान होता है वे कबाड़ी की दुकान जैसे ही लगने लगते हैं ..लेकिन यह भी एक तरह की बीमारी है जो बस लग जाती है , समय रहते इसका इलाज भी ज़रूरी है...खैर, जैसे ही मुझे यह चूहेदानी दिखी तो मुझे तो गुज़रा ज़माना याद आ गया और मैंने इस की फोटो खींच ली...

मैं यही सोचने लगा कि पहले दिनों में कैसे चूहों से निजात पाई जाती थी ...सब से पहले तो मुझे मेरे स्कूल के पांचवी कक्षा के गुरुजी याद आए ...जिन्होंने हमें उन दिनों यह बताया कि अनाज के भंडारण को कैसे किया जाए कि उसके अंदर चूहे दाखिल न हो पाएं...सच में मुझे उन की एक ही बात याद रह गई ...अनाज के भंडारण के लिए वह भड़ोली आदि की बातें कर रहे थे ...यह एक पंजाबी लफ़्ज़ है मेरे ख्याल है ...दरअसल आज से 50-55 बरस पहले क्या होता था कि गांव-कसबे में अनाज के भंडारण के लिए घरों में मिट्टी की बनी भड़ोली का इस्तेमाल होता था ...फिर धीरे धीरे लोहे की बड़ी बड़ी 5-6-8-10 फुट (ज़रूरत के मुताबिक) पेटियों में घरेलू इस्तेमाल के लिए अनाज रखा जाने लगा....

हां, मुद्दा तो आज का चूहेदानी है ....बचपन की याद है मुझे बस इतनी कि पूरे गली-मोहल्ले में दो तीन घरों में ही लकड़ी की चूहेदानी होती थी, वह कभी खराब न होती थी, कभी धोखा न देती थी ...यह भी एक स्टेटस-सिंबल से कम बात न थी कि सोढी के घर में या कपूर के घर में चूहेदानी है। पहले हम लोग घरों में तरह तरह का कबाड़ खाने-पीने-पहनने का .....इक्ट्ठा ही कहां होने देते थे ...साफ़ सफ़ाई टनाटन हुआ करती थी ...और अगर कभी रसोई में चूहा दिख गया तो बस, फिर किसी के घर से वह लकड़ी की चूहेदानी लानी होती थी। और रात में खाने के वक्त चूहा पकड़ने की साज़िश होती थी कि आज चूहेदानी में रोटी लगा के सोना है ...और मां सोने से पहले रोटी का एक टुकड़ा उस के अंदर किल्ली में फँसा कर ही सोती ...सुबह उठते ही अगर तो चूहा उसमें फंसा हुआ मिलता तो सब की खुशी का पारावार कुछ इस तरह का होता जैसा किसी बहुत बड़े पहाड़ पर विजय हासिल कर ली हो...और अगर उसमें रोटी गायब होती और लेकिन चूहेदानी का मुंह खुले का खुला होता तो ऐसे लगता जैसे पता नहीं कौन सी जंग हार गए हैं, पल भर की मायूसी और फिर ठहाकों का दौर ...कि चूहा पिंजरे से भी बच कर निकल गया....रोटी उड़ा कर ले गया....देखा जाए तो उस दौर के सीखे हुए ये सबक थे ...जाको राखे साईंयां मार सके न कोए....

कल मुंबई की बरसात में भी यह साईकिल सवार दिखा ..एक हाथ से साईकिल चला रहा था, दूसरे से छाता थामे हुए था ...

और जिस घर में चूहा चूहेदानी में फंसा मिलता तो आसपास दो चार लोगों को (खासकर हमारे जैसे शरारती बच्चों को) तो यह पता चल ही जाता और हम आगे की प्रक्रिया सोच कर रोमांचित होते ....मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है कि हमारे घर से चार पांच घर छोड़ कर ही एक शाम लाल नाम के अंकल जी रहते थे ..उन के घर में हर सप्ताह महिलाओं का कीर्तन हुआ करता था दोपहर में ...और एक बात उन के बड़े बेटे को मैंने इतनी बार साईकिल पर चूहेदान को पीछे कैरियर पर रख कर जाते देखा कि मुझे जब भी वह बंदा दिखता तो मुझे यही लगता जैसे वह इसी काम के लिए जा रहा है ....अब हर किसी के साईकिल के पीछे कैरियर तो नहीं होता था ..इसलिए कुछ जां बाज़ लोग एक हाथ में चूहेदानी और एक हाथ से साईकिल चलाते हुए अपनी मंज़िल की तरफ़ निकल पड़ते।

हां, तो यह मंज़िल क्या होती थी, हम को अच्छे से पता होता था ...इसलिए जो भी बच्चे किसी को इस तरह चूहेदानी को थामे या साईकिल के पीछे रखे हुए देख लेते, अपने सभी खेल, कंचे, गुल्ली-डंडा .....सब कुछ छोड़-छाड़ कर हम उस साईकिल वाले के पीछे हो लेते ...कोई ज़्यादा दूर नहीं जाना होता था चूहे को उस की मंज़िल तक पहुंचाने के लिए .....यही कोई चार पांच सौ मीटर पर ही उस की मंज़िल होती थी ...यह दो तरह की होती थी ..एक तो कोई खुला सा बड़ा सा नाला ...या पास में ही मौजूद कोई बडा़ सा खेल का मैदान ...यह उस साईकिल सवार की डिस्क्रिशन होती थी ....अपने आसपास पांच सात बच्चों का जमावड़ा देख कर वह भी अपने आप पर, अपनी बहादुरी पर अंदर ही अंदर इतराता तो ज़रूर होगा...

हमारे लिए वह पल रोमांच से भरा होता था जब चूहेदानी का किवाड़ खुलते ही जनाब चूहा जी फुदक कर बाहर निकलते ...लेकिन अकसर नाली में गिरने की बजाए वह उस के किनारे पर लैंड कर के सरपट दौड कर देखते ही देखते आंखों से ओझिल हो जाता.(हम लोगों के बिंदास ठहाके शुरु हो जाते) ..और उस साईकिल वाले बहादुर का मुंह उतर सा जाता कि अगर फिर से यह उसी के घर में आ गया तो ....लेकिन नाले में गिरने से कौन सा गारंटी होती कि वह वापिस न आएगा....आज सोचता हूं तो यही लगता है कि यह सारी प्रक्रिया बस उतने तक महदूद थी कि इस बला को अपने घर से तो निकालो....वापिस लौट कर कहीं भी जाए....

अभी लिखते लिखते याद आया कि कईं बार ऐसा होता था कि घर में कोई चूहेदानी के साथ साईकिल या पैदल यात्रा करने के लिए राज़ी न होता तो उस चूहेदानी के घर के दरवाजे के बाहर ही खोल दिया जाता ....वह नज़ारा हमें इतना रोमांचक न लगता ..लेकिन कभी कभी उस में भी रोमांच का तड़का लग ही जाता जब चूहा पिंजरे से निकल कर मोहल्ले में किसी दूसरे के घर में घुस जाता और अगर उस घर का कोई सदस्य भी यह देख रहा होता तो खामखां एक तकरार सी हो जाती कि यह क्या बात हुई ....अपने घर से निकाल कर इधर भेज दिया...खैर, वह भी बस थोड़े वक्त के लिए ...(कईं बार तो चूहा वापिस अपने पैतृक घर में ही वापिस लौट जाता) ...

बाद में चूहेदानीयां लोहे से तैयार हुई भी मिलने लगीं  और कईं बार तो चूहा रोटी ले कर निकल जाता लेकिन उसमें फंस न पाता ...लेकिन कईं बार बहुत मोटा चूहा अगर उस में फंस जाता तो यह साजिश रचने वाले को उतनी ही ज़्यादा खुशी मिलती। फिर कुछ चूहे मारने की दवाई तो आने लगी जिसे रोटी की जगह उस पिजरे में रखा जाने लगा, जिससे वह मर कर उसी में कैद हो जाता  ...हमेें यह देख कर बहुत बुरा लगता कि यह मारने वारने का क्या चक्कर हुआ ...यह तो बहुत बुरी बात है ...हर किसी को जीने का हक है...


बस, पुरानी यादें तो यहीं तक थीं ....फिर धीरे धीरे पता नहीं चूहे के ज़हर के नाम पर क्या क्या आने लगा ....बेचारे चूहों को शर्तिया मारने की बातें होने लगीं.. ....अब तो बाज़ार में आते जाते देखते हैं कि कुछ ऐसे उत्पाद भी आ गये हैं इसी काम के लिए जिनसे हर्बल गैस निकलती है और वह इन चूहों का सफाया कर देती है ...अकसर बाज़ार में ड़ों आते जाते इस तरह के व्यापारी दिख जाते हैं ....लेकिन मैं इन सब खतरनाक जुगाड़ों का हिमायती नहीं हूं बिल्कुल भी ....

आज दोपहर की बात है ...बंबई के फुटपाथ पर एक बंदा आठ दस छोटे छोटे पाउच रखे बैठा था ..उन पर लिखा था ...रैट-प्वाईज़न ....100% प्वाईज़न---फोटो ले लेता अगर उस वक्त मैं बंबई की उमस की वजह से पसीने से लथपथ न होता ...मैं उसे देख कर यह सोचते हुए आगे बढ़ गया कि क्या ज़माना आ गया, ज़हर के लिए भी सौ-फ़ीसदी की शुद्धता की गारंटी देनी पड़ती है ....व्यापारी भी क्या करें, हर तरफ़ मिलावटखोरी का बोलबाला जो है ....

चलिए, मेरा एक काम तो पूरा हुआ....मैं कईं बार लिखता हूं न कि कुछ पुरानी आइट्म, बातें, यादें मुझे लिखने के लिए प्रॉप्स का काम करती हैं, जैसे डॉंसर प्रॉप्स इस्तेमाल करते हैं, कुछ कुछ शायद उसी तरह से ...वैसे चूहेदानी की पुरानी बातों से आप को कुछ तो अपने दिन भी याद आए ही होंगे, अगर ऐसा है तो लिख दीजिए इस ब्लॉग के नीचे कमैंट्स में ...अगर अनानीमस (बेनामी) टिप्पणी भी लिखना चाहें तो लिख दीजिए....दिल को हल्का कर लीजिए...

2 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्कार सर। आपकी यादों का खजाना अद्भुत है। कोई पुरानी चीज देखते हैं और यादों की पोटली खुल जाती है। साथ ही पढने वाले की आंखों के सामने उसकी यादों की पोटली झूलने लगती है। अभी मैं पढ ही रहा था कि यादें पूरा पढ न पाने के लिए उकसा रही थीं। पिंजरे में से निकले चूहे के पीछे दौड़ना हमें बहुत अच्छा लगता था। चार पांच मित्र थे हम और चूहे के पीछे दौड़ना हमारा कर्तव्य था। यह देखते थे कि वह कहां जा रहा है। अगर की ओर लौटे तो शोर मचा कर खेतों की ओर भागवे पर मजबूर करते। अगर खेत में किसी बिल में घुसता तो कुछ देर खड़े होकर देखते कि वापस बाहर तो नहीं आ रहा। कुछ देर इंतज़ार करने के बाद घर चले आते। पर दुसरे दिन फिर खेत में जाकर उस बिल के मुंह पर शोर करके देखते कि चूहा बिल में है या नहीं। पर कभी नहीं मिलता। और हम लोग अपनी मूर्खता पर खूब हँसते।
    यादों के सागर में डुबोने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद सर।

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  2. धन्यवाद सर। चालू हो गया।

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