आते जाते रस्तों पर कुछ मंज़र ऐसे होते हैं जो दिलोदिमाग में जैसे सेव हो जाते हैं..सेव ही नहीं हो जाते....लेकिन बार बार उन की फाइल ख़द-ब-ख़ुद खुलती रहती है दिन में कईं बार ...
आज सुबह जब मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ आई इक्नॉमिक टाइम्स खोली तो मुझे दो पन्नों पर पसरा हुआ एक इश्तिहार नज़र आया....इश्तिहार किसी बहुत बड़े प्राईव्हेट बैंक का था...जिसमें एक बाप अपने बेटे को एक टॉय-मोटर कार में बिठा कर घुमा रहा है ....दोनों इस मस्ती का भरपूर आनंद लेते नज़र आए...
इस इश्तिहार को देखने के बाद मुझे दो दिन पुराना मुंबई सीएसटी स्टेशन का एक मंज़र याद आ गया....याद क्या आ गया, वह दृश्य तो मेरे साथ ही रह गया तब से....
दो दिन पहले मैं बाद दोपहर में मुंबई सीएसटी लोकल स्टेशन पर लोकल-ट्रेन से उतरा और मैं प्लेटफार्म पर चल रहा था तो अचानक मैंने एक खड़खड़ाहट की आवाज़ सुनी....देखते ही देखते लोकल ट्रेन के साथ वाले डिब्बे से एक दिव्यांग युवक ने प्लेटफार्म पर लकड़ी से बना एक जुगाड़ सा निकाला जिस के नीचे पहिए लगे हुए थे ...उसे प्लेटफार्म पर रखते ही, वह भी डिब्बे से बाहर कूदा और झट से उस के ऊपर बैठ कर अपने परिवार के साथ बाहर की तरफ़ चलने लगा...
मैं यह देख रहा था कि उस की भुजाओं में अच्छी शक्ति थी जितने बल से वह उस जुगाड़ को चलाने में उन को इस्तेमाल कर रहा था ...मैं यही सोच रहा था कि सब ईश्वर के रंग हैं, अगर किसी चीज़ की कमी रह जाती है तो दूसरे तरीके से उस की भरपाई करने की कोशिश करता है ....
खैर, अभी दस बीस कदम ही चले होंगे कि मैंने देखा कि उस के साथ चलने वाली महिला (संभवत उस की बीवी ही होगी) उस को कुछ पकड़ाने की कोशिश कर रही थी ...मैं उस तरफ़ ठीक से देख नहीं रहा था, इसलिए मुझे लगा कि थैला, बैग इत्यादि उस को थमा रही होगी....
लेकिन नहीं, मुझे उसी वक्त पता चल गया कि उस ने जो छोटा बालक उठाया हुआ था उसे उसने उस की गोद में दिया है ...मुझे इस बात ने छू लिया....
और मैंने थोड़ा आगे चल कर देखा कि वह अबोध बालक अपने बाप की गोद में भरपूर खुश था ....होता भी क्यों न, बाप की गोद मेंं था ....वह इधर उधर के नज़ारे देखते ही उछल रहा था ...
हर बच्चे के लिए उस के सुपर-डुपर हीरो उस के मां-बाप ही होते हैं जिन की गोद ही काफी है ....मनवा बेपरवाह |
मंज़र तो कुछ ज़्यादा ही दिल को छू लेने वाला था कि एक दिव्यांग बाप जिस की दोनों टांगे कटी हुई हैं, वह एक लकड़े के जुगाड़ की मदद से प्लेटफार्म पर चल रहा है, और साथ में अपने नन्हे बालक को भी उस की सवारी करवा रहा है ...
जैसे ही मैंने इस परिवार को देखा तो मुझे भारतीय रेल की महानता का ख्याल भी आया कि इस भारतीय रेल के कारण ही यह पूरा परिवार इस तरह से सफर करते हुए मुंबई सीएसटी तक पहुंच भी गया और जो भी इन का उस दिन का प्रोग्राम रहेगा, उस के बाद इसी तरह से ये लोग अपने आशियाने में भी सकुशल लौट जाएंगे....जय हो भारतीय रेल मैया की...निःसंदेह यह मां की तरह अपने सभी यात्रियों का ख्याल रखती है..
कुछ मंज़र ऐसे होते हैं जो बस उम्र भर याद रह जाते हैं...जून 2007 की बात है, हम लोग कुल्लू-मनाली की यात्रा पर निकले थे...चंडीगढ़ से एक गाड़ी ले ली थी ...उस का ड्राईवर भी छोटी उम्र का ही था...यही कोई 20-22 बरस का रहा होगा....कुल्लू से चले तो मनाली पहुंचने से पहले मनीकरण में एक बहुत ऐतिहासिक गुरूद्वारा है ...कुल्लू से यही कोई एक घंटे का रास्ता होगा....पहाड़ों की सड़कों के बारे में तो आप जानते ही हैं...ऊपर से उस सड़क की मुरम्मत का काम चल रहा था ...जिस की वजह से किनारे एकदम कमज़ोर से ...भुरते हुए ....एकदम शिथिल ...सड़क इतनी संकरी की क्या कहें, लिख नहीं पा रहा हूं ....और सड़क के एक किनारे पर पहाड़ और दूसरी तरफ़ नीचे ब्यास नदी जो पूरे उफान पर थी ...जो पूरे शोर के साथ अपने गन्तव्य की तरफ़ भाग रही थी ....उस रोड़ पर जाते वक्त इतना डर लगा उस दिन कि आज 16-17 बरस हो गए हैं इस बात को ..लेकिन उस के बाद कभी भी किसी रोड़ से डर नहीं लगा....यही लगता है कि अगर उस दिन इतनी जोखिम वाली रोड़ पर ड्राईवर ने गाड़ी चला ली तो दूसरी सड़कों की तो ऐसी की तैसी....यह हुई एक बात...
दूसरी बात यह है कि मैं जिन 7-8 बरसों में लखनऊ में रहा ...वहां के बहुत बड़े बड़े खूबसूरत बाग़ देखने का, उन में सुबह शाम टहलने के बहुत मौके मिले....किसी महिला को वॉकर के साथ सुबह टहलते देखता, किसी को उस की बिल्कुल झुकी हुई रीढ़ की हड्डी के बावजूद भी टहलते देखता तो मैं अचंभित हुए बिना न रह पाता....एक बार तो इतने बुज़ुर्ग को देखा जो चींटी की चाल से चल रहे थे ...85-90 बरस के रहे होंगे ..लेकिन जब मैंने उन से बात की तो उन्होंने बताया कि वे रोज़ाना आते हैं और पूरे बाग का चक्कर काटते हैं....मैं यही सोचता रह गया कि बढ़िया है यह घर से बाहर तो निकलते हैं ..लेकिन कब चक्कर शुरु करते होंगे और कब उसे मुकम्मल कर पाते होंगे...खैर, इस के अलावा भी मैंने बहुत से ऐसे लोगों को देखा जो शायद घुटनों के हालात की वजह से मुश्किल ही से चल पा रहे होते....लेकिन उन का निश्चय पक्का होता.... सुबह की सैर के इन सब किस्सों पर मैंने इस ब्लॉग में दर्जनों पोस्टें भी लिख दीं...केवल इसलिए कि इन यादगार लम्हों को सहेज लिया जाए कैसे भी ...
बंबई में भी लोकल ट्रेनों में 80 बरस से भी ऊपर के बुज़ुर्गों को ट्रेन में आते जाते और खास कर चढ़ते उतरते देख कर अब मुझे हैरानी नहीं होती....क्योंकि यह बात तो मेरी समझ में आ चुकी है कि ये लोग शायद पिछले 60-70 बरस से इन्हीं ट्रेनों पर सफर कर रहे हैं...इन को कौन सेफ्टी समझाएगा...वे इन ट्रेनों के वक्त के बारे में, जिस वक्त इन में भीड़ नहीं रहती, कौन सा लेडीज़, जेंट्स, बुज़ुर्ग डिब्बा किस जगह आएगा और किस में चढ़ना है और कहां से आसानी से बाहर निकलना है, इस पर ये बुज़ुर्ग शोध किए हुए हैं...शारीरिक तौर पर थोडे़ कमज़ोर लगते होेंगे, लेकिन बौद्धिक एवं आत्मिक तौर पर एकदम टनाटन हैं....और कईं वयोवृद्ध महिलाओं पुरूषों ने तो अपनी लाठी के साथ कुछ सामान भी उठाया होता है ....
यह सब मैं क्या लिख रहा हूं...इसलिए लिख रहा हूं कि हम सब इन लोगों से प्रेरणा ले सकें....हम सुबह शाम टहलने न जाना पड़े, इस के लिए नए नए बहाने अपने आप ही से करते हैं अकसर .....लेकिन ऊपर आपने उस दिव्यांग बंदे की चुस्ती-फुर्ती देखी ...अभी उस की फोटो भी लगाऊंगा....सिर्फ इसलिए कि बिना फोटो के आप लोग बात मानते नहीं हो, और अगर फोटो लगी होगी तो सब को प्रेरणा भी मिलेगी कि अगर यह बंदा दुनिया को जीने का अंदाज़ सिखा रहा है, तो हमें तो कुछ भी नहीं हुआ, लेकिन फिर भी हम कभी खुश नहीं रहते ....कभी ईश्वर को कोसते हैं, कभी किसी दूसरे को, कभी तीसरे को ....हर वक्त यही चलता रहता है ....
ओ हो ...यह पोस्ट तो बड़ी भारी भरकम लग रही है ....हां, बार बार उस दिव्यांग का ही ख्याल आ रहा है कि उसने हार नहीं मानी, किसी से गिला-शिकवा नहीं किया, अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ा, अपने नन्हे-मुन्ने को अपनी गोद में लेकर मुंबई दिखाने निकल पड़ा ....जब कि हम अक्सर देखते हैं जो लोग हर तरह से सक्षम होते हैं, साधन-संपन्न होते हैं कईं बार इस तरह के सैर-सपाटे में उन के नौकर-चाकरों ने बाबू को उठाया होता है ....
और इस इश्तिहार की टैग-लाइन पर गौर फरमाईए.... दौलत के सफर की शुरूआत ... |
और हां, यह तस्वीर भी देख लीजिए जो अखबार में दिखी ....ठीक हैं, ये बाप बेटा भी खुश हैं लेकिन जो प्लेटफार्म पर बाप-बेटा एक लकड़ी के पटडे़ पर निकल पडे़ हैं, उन की खुशी..खास कर उस नन्हे बालक की खुशी मुझे किसी तरह से कम न दिखी ...आप को क्या लगता है? कहीं यह मेरी नज़र का धोखा तो नहीं या मुझ से कुछ देखने में छूट रहा है ....
सर जी शुक्रिया, बचपन और पिताजी को खुद का तकलीफ नजर अंदाज कर हमे हर समय प्यार करना यह बेहद दिल छू जाता है, जब हम समझदार होने लगते है। कल की बात है मेरा भाई को पीठ में बहुत दर्द था उनका डेढ़ साल का बेटा उनके गोद में जाने की जिद कर रहा था रो रहा था उसने गोद में लिया तो वह चुप हो गया सर आप का ब्लॉग बेहद रोचक और सचाई था और भी लिखते तो पढ़ते ही जाता नम भरी आखों से....
जवाब देंहटाएंBahut hi accha sir
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंWonderful Sir..... you have touched from mental strength and sense of moral responsibility of a physically disabled person to the spirit and awareness of Senior citizens to lead a happy and healthy life.... Thanks for such an inspiring post...
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत सुंदर....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर। खुशी तो खुशी होती है। बस विज्ञापन में दिखने वाली खुशी कृत्रिम है और बच्चे की खुशी असल। असल खुशी के ज्यादा मायने हैं। विज्ञापन के अनुसार तो पैसे की तरफ जाता रास्ता खुशी का है पर खुशी इस पर निर्भर नहीं करती। प्रेरक प्रसंग साझा किया आपने। आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सर। एक लंबे अरसे बाद पढने को मिला। लंबा अरसा तो पढने में, ब्लॉग तो थोड़ा पहले मिल गया था परंतु पहला फोटो देख कर रुक गया। आज हिम्मत की और पढ ही डाला। लाचार और अभावग्रस्तों के बारे में पढकर अंदर एक सुन्नतआ सी छा जाती है। बहुत कुछ अंदर ही अंदर गुजर जाता है। कभी अभिव्यक्ति दे पाता हूं कभी एकदम मौन। आपके ब्लॉग ने ऐसा ही कुछ किया है।
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