मुझे बार बार पूछा जाता है कि तुम्हारी किताब कब आ रही है...क्यों इतनी देर कर रहे हो ...मैं कैसे भी इस तरह के सवालों को टाल जाता हूं कि बस, आलस की बीमारी है ...जी हां, टालने के लिए कह तो देता हूं और फिर जब अपने आप से कहता हूं कि असल बात यह तो नहीं है...दरअसल मैं अपनी पुरानी यादों की गठरीयों को संभालने में ही इतना मसरूफ़ रहता हूं कि यह किताब विताब लिखने के चक्कर में कौन पड़े ....जब कि मैं बड़ी हलीमी से यह लिख रहा हूं कि कोई किताब लिखना भी अब मुश्किल नहीं लगता...एक हफ़्ते भर का काम है, छुट्टी लेकर इत्मीनान से बैठ जाऊं तो लिख लूं एक किताब भी, उतार दूं लोगों के उलाहने भी ... ..लेकिन पिछले बीस बरसों में ऐसा मौका मिला ही नहीं, पता नहीं क्यूं.
मार्च 1963 के फिल्मफेयर में दिखा यह डालडे का डिब्बा जिसने यह पोस्ट लिखने के लिए उकसाया मुझे - स्लोगन देखिए ...माएं जो बच्चों की केयर करती हैं, वे डालडा इस्तेमाल करती हैं .....कुछ सुना सुना नहीं लग रहा ...जैसे वे हाकिंग्ज़ कुकर वाले कहते थे ....जो पत्नी से करते प्यार, वे हॉकिंग से कैसे करें इंकार .... हा हा हा हा 😎
खैर, आज डालडे का ख्याल कहां से आ गया है...लेकिन ख्याल तो उस का आता है जिसे हम कहीं भूल गए हों....जब डालडा बचपन ही से अपनी यादों में बसा हुआ है तो उसे कैसे भूल सकते हैं...लेकिन उस के बारे में लिखने का ख्याल इस लिए आया कि दो दिन पहले मैं 60 बरस पुरानी फिल्मफेयर के पन्ने (मार्च 1963) उलट-पलट रहा था....इसे खरीदा सा कुछ महीने पहले ...तो अचानक मेरी नज़र डालडे के इस इश्तिहार पर टिकी की टिकी रह गईं। लिखने का मेरा मक़सद एक यह भी होता है कि इसी बहाने आज से 50-60 पुराने दौर की यादें एक पैकेज की तरह इक्ट्ठा हो जाती हैं ..एक ब्लॉग पोस्ट की शक्ल के रूप में ...और कोई पढ़े न पढ़े, ख़ुद की डॉयरी पढ़ने से सुख मिलता ही है...😎
डालडे का नाम सुनते ही, इस का पुराना इश्तिहार किसी मेगज़ीन में देखते ही हमें याद आती है मां के चूल्हे-चौके की ...आग धधक रही अंगीठी की, उस पर रखे तवे पर डालडे घी में तैर रहे नमक-अजवायन के लज़ीज़ परांठों की ...जो बिना किसी हिसाब किताब के सिंकते रहते थे....जब तक जब का पेट न भर जाए और जब तक स्कूल-कॉेलेज के लिए भी वे बन कर डिब्बे में बंद न हो जाते ..। हमें याद है कि यही हमारा नाश्ता होता था ..डालडे में तैयार हुए दो परांठे- कभी आलू के, गोभी, मूली के भी, लेकिन डालडे में गडुच्च, साथ होता था आम का अचार और एक दम कड़क और खूब शक्कर वाली चाय....सच में पेट भरने के साथ साथ, नज़रें भी संतुष्ट हो जाती थीं और आत्मा को भी परम सुख की अनुभूति होती थी ...कभी कभी बेसन का पूड़ा (जिसे शायद कहीं कहीं चिल्ला भी कहते हैं), बेसन वाली रोटी (मिस्सी रोटी), दाल वाली रोटी, परांठे के साथ आलू-प्याज़ के पकौड़े भी अकसर होते थे ....और महीने में कभी एक आध बार ब्रेड भी खा लेते थे ...अच्छे से सिकी हुई मलाई और चीनी लगा कर (हमें तो तब यही भी नहीं पता था उसे मलाई सेंडविच कहते हैं😀)....
कुछ बातें सारी पोस्ट लिखने के बाद याद आती हैं जैसे मुझे यह याद आया कि मुझे चीनी के परांठे भी बहुत भाते थे...डालडे में तले ही परांठों की तो बात ही क्या करें....क्या गज़ब महक आती थी। अच्छा, एक मज़ेदार बात और ...मुझे याद है जब मैं छोटा बच्चा था (बड़ी शरारत करता था..), जब अपनी नानी के यहां गया होता तो देर रात में उठ के बैठ जाता ..रोने लगता कि मुझे चीनी के परांठे खाने हैं...नानी तो ठहरी नानी, बेचारी उसी वक्त स्टोव जला कर लग जाती काम और मुझे भी 1-2 चीनी के परांठे खा कर आराम की नींद आती।
हां, कहां मैं भी नाश्ते का पिटारा खोल के बैठ गया....अच्छी भली डालडे और मां के चूल्हे में सिक रहे परांठों की हो रही थीं...एक बात मुझे और बहुत याद आती है ...हमारा एक दोस्त था, अब तो उस का नाम भी नहीं याद ...लेकिन छु्टी वाली दिन मैं अकसर सुबह-सुबह उस के घर चला जाता क्योंकि वहां से हमें ग्रांउड में गिल्ली-डंडा, कंचे, पिट्ठू-सेका ...कुछ भी खेलने जाना होता था ...जब मैं उस के घर में पहुंचता सवेरे तो मैं देखता कि उस के घर में भी डालडे के परांठों बनाने का बदसतूर जारी है ...लेकिन हमारे घर के मुकाबले में बड़े स्तर पर...क्योंकि उन के घर में आठ-दस लोग थे....मंज़र याद करता हूं तो मज़ा आ जाता है ...उन के आंगन में आठ-दस चारपाईयां बिछी हुई हैं....उस दोस्त की झाई (मां) बार बार बच्चों को आवाज़ें लगा रही है कि उठो, नाश्ता कर लो..अंगीठी पर तले जा रहे गर्मागर्म परांठों से जो धुआं निकलता है ना उस खुशनुमा जानलेवा महक को ब्यां कर पाना मेरे बस में नहीं है, यह तो वही समझ सकता है जो उस दौर का साक्षी रहा है....हां, उस दोस्त के घर में जा कर मुझे यह बड़ा अजीब भी लगता और अच्छा भी लगता कि उस दोस्त के भाई-बहन आंखें मलते हुए बिस्तर से उठ रहे हैं और सीधा मां के पास आकर अपनी थाली में परांठे रखते हैं, साथ में चाय का गिलास उठाते हैं और चारपाई पर जा कर इत्मीनान से नाश्ता करने लगते हैं....मैं वहां बैठा बैठा सोच में पड़ जाता कि हमारे घर में तो नियम है कि बिना मुंह हाथ धोए, बिना दांत साफ किए हुए क्यों हम लोग परांठों तक पहुंच नहीं पाते ....
खैर, इसी तरह से डालडे पर हमारी पूरी पीढ़ी पल रही थी ...हम से पिछली पीढ़ी के देशी घी के किस्से सुनते सुनते कि इस डालडे का तो उन्होंने नाम तक न सुना था, सब कुछ ख़ालिस देशी घी में ही बनता था हमारे मां-पिता जी के यहां तो ...देशी घी वेरका तो हमारे यहां भी आता था लेकिन इस्तेमाल कम ही किया जाता था...दाल की कटोरी में डालने के लिए, कभी देशी घी के परांठे बन जाते थे, मक्की की रोटी पर रखे गुड़ को नरम करने के लिए देशी घी लगता था और हलवा बनाने के लिए भी कईं बार वही इस्तेमाल होता था ...कहने का मतलब मेरा यही है कि देशी घी की घर में डिमांड ज़्यादा थी और सप्लाई बहुत कम ...इसलिए बरसों बाद जब मैंने रोटी फिल्म में मुमताज का अपने ढाबे पर वह देशी घी का डॉयलाग सुना तो मुझे बहुत हंसी आई....
डालडा घी को याद करता हूं तो उस डालडे घी से बड़ी मस्ती से चम्मच भर भर के डालडे को निकालती और परांठों पर चुपड़ती मां याद आ जाती है ...ऐसे लगता है जैसे अभी फिर से कहीं से प्रकट हो जाएगी...लेकिन जाने वाले कहां आते हैं, उन की तो यही यादें ही हैं जिन के ज़रिए हम उन खुशनुमा लम्हों को फिर से जी लेते हैं...
डालडे के डिब्बे से जुड़ी कुछ यादें ये हैं कि उस के नए दो किलो या चार किलो के डिब्बे को खोलना भी इतना आसान काम न होता था...उस के ढक्कन के नीचे टीन की सील लगी होती थी। हमारे घर में तो उसे खोलने के लिए एक ओप्नर था....लेकिन फिर भी कभी जिसने भी उस ओप्नर का इस्तेमाल किए बिना उसे खोलना चाहा उसने हाथों पर घाव ही किया ...अच्छा, अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि दो और चार किलो के डालडे के डिब्बे हुआ करते थे ...मुझे अब याद नहीं कि क्या एक किलो का भी होता था कि नहीं...शायद इसलिए नहीं याद कि हमने उसे अपने यहां कभी देखा ही नहीं, क्योंकि उन दिनों घरों में जब डालडे की खपत ही इतनी हो रही थी तो क्यों आएगा एक किलो वाला डिब्बा घरों में....
नवीं कक्षा की बात है...हमारे साईंस के अध्यापक श्री सतीश वर्मा जी हमें विज्ञान बड़ी मस्ती से पढ़ाते थे ...उन दिनों मेरे 40 में से 38 अंक आते थे विज्ञान में और कक्षा में मेरी उत्तर-पुस्तिका को घुमाया जाता था ...नवीं कक्षा में जब उन्होंने हमें वनस्पति घी को तैयार करने की विधि समझाई ...Hydogenation of Vegetable Oils ..तो डालडा खाने का और भी मज़ा आने लगा ...वह और भी अपना ही लगने लगा ....ऐसे लगने लगा कि वाह, अब तो हम इसे तैयार करने की विधि भी जानते हैं ...हां, वह सब ट्राई करने के चक्कर में नहीं पड़े, यही गनीमत है लेकिन उस प्रक्रिया को जानना भी कम रोमांचक न था...
डालडे का टीन वाला डिब्बा जो अभी आप ने ऊपर इश्तिहार में देखा वह जब खाली हो जाता तो उस का क्या अंजाम होता था ...वह अकसर तो कबाड़ी को बेच दिया जाता....जैसा कि अभी मैं आप को उस दौर के गीत के ज़रिए दिखाऊंगा जिस में हास्य कलाकार महमूद ने गले में डालडे का खाली डिब्बा डाला हुआ है ... कईं बार उस खाली डिब्बे में चावल-चीनी जैसी खाने पीने के पदार्थ स्टोर किए जाते थे। बहुत बार तो मैं ही अपने कंचे को संभालने के लिए एक दो डिब्बे हथिया लेता था ...एक में पुराने कंचे और दूसरे में नए कंचे....कंचों का मैं किसी ज़माने में चेंपियन था ...क्या निशाना था....शाम को जब कंचों के खेल खत्म हो जाते तो कंचों को उस डालडे के डिब्बे मे ंडाल कर धोना और फिर उन को गिनना, इसी तरह के मेरे शुगल थे ...
एक बात और डालडा डालडा किए जा रहा हूं ....उसी की रट लगा रखी है मैंने ....मैं रथ को कैसे भूल गया ...एक रथ वनस्पति घी भी होता था ...शायद कंपनी ही अलग थी ..कुछ कुछ याद आ रहा है कि घर में कभी डालडे की तारीफ़ करने लग जाते, कभी रथ की ...अच्छा, हम 1975 के आसपास (जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है) ये डालडा और रथ प्लास्टिक के डिब्बों में आने लगे...ये प्लास्टिक के डालडा-रथ के डिब्बे एक किलो के साइज़ के ही आते थे ....मुझे अपने कंचे रखने के लिए वे एक किलो वाले खाली डिब्बे ज़्यादा सुविधाजनक लगते थे ..
अभी हम लोग कालेज जाने लगे थे शायद कि पोस्टमेन घी शुरू हो गया ....यह एक बड़े चोकोर से टीन के आकर्षक डिब्बे में मिलता था ...यह लिक्विड तेल होता था ...मूंगफली का तेल ... इस तेल की घरों में बड़ी इज़्ज़त थी....लेकिन इसे भी कम ही इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि यह महंगा था ...शायद दाल-सब्जी के लिए ही ...और हमारे प्रिय परांठों पर अभी भी रथ और डालडा ही चुपड़ा जा रहा था ...😃
यादें भी बारात की तरह होती हैं, हर याद इस बारात में शामिल होना चाहती हैं लेकिन कोई लिखे भी तो कितना लिखे ...कितना डालडा और रथ खाया, बेहिसाब ...कितना जम गया होगा कितना घुल के बह गया होगा...ये तो ईश्वर ही जानता है लेकिन जो मुझे लगता है कि जितना परिश्रम उस दौर में लोग करते थे अधिकतर तो इस्तेमाल ही हो जाता होगा, यह मेरा कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है....बस मुझे ऐसा लगता है ...क्या है न, जैसे जैसे देश-समाज में सम्पन्नता आई घी और तेल का भी एक बड़ा बाज़ार बन गया ....यह खाओ, यह मत खाओ......कोई विदेशी तेल के लिए कह रहा है ...कोई देशी ...कोई कुछ कोई कुछ ...कोई किसी तेल की तारीफ़ में लगा हुआ है तो कोई किसी मक्खन, घी या किसी दूसरे तेल की ....डाक्टरी पढ़ कर भी हम जैसे लोग भी अगर सच में कंफ्यूज़ ही हैं तो फिर जनसाधारण की तो बात ही क्या करें, उन्हें ताकतवर मार्कीट शक्तियां जो सबक पढ़ाना चाहती हैं, वे देर सवेर उन को अपनी चपेट में ले ही लेती हैं ..कोई भी हथकंडा अपना लेती हैं, डाक्टरों से कहलवा कर, शॉपिंग प्लॉज़ा में एक से साथ एक मुफ्त दे कर ....या और भी बहुत कुछ कर करा के ...सीधे सादे लोगों को झांसे में लेना कोई मुश्किल काम नहीं है ....इश्तिहार बाज़ी का ज़माना है ...सब कुछ मुमकिन है ...ऊपर डालडे के विज्ञापन में ही आपने देखा क्या क्या फ़ायदे गिनवा गए हैं........
खैर, हम लोगों के पास तो कोई विकल्प ही न था, अब परांठे खाने हैं, देशी घी के कनस्तर पहुंच से बाहर हैं तो डालडे-रथ के ही तो खाने पड़ेंगे.....सरसों के तेल के परांठे तो नही न बन सकते....लेकिन यादें तो हैं न हमारी उस से भी जुड़ी हुई ....हमारी मां को कईं चीज़ें सरसों के तेल में भी बनाना अच्छा लगता था ...और उन का ज़ायका भी बहुत अच्छा होता था ...वैसे हमने इतनी उम्र होते होते देखा है कि बहुत से घरों में सरसों का तेल ही इस्तेमाल होता रहा है ...हमारे बड़े-बुज़ुर्ग भी इस की हिमायत करते थे ...क्या था न पहले शुद्धता का कोई इतना मुद्दा भी तो न था...लेकिन सीधे सादे थे अमूमन ...कुछ चीज़ें मुझे याद है हम लोग सरसों के तेल में ही बनी पसंद करते थे ...जैसे कि मेथी आलू...सरसों के तेल में छोंके हुए आंवले, भिंडी इत्यादि ....
ऊब गया हूं इस डालडे के बारे में लिखते लिखते ...चलिए, विषय को थोड़ा बदलते हैं....मैं जब इस 60 साल पुराने फिल्मफेयर के पन्ने उलट-पलट रहा था तो मुझे बहुत से इश्तिहार और भी दिखे जिन को देख कर भी कुछ कुछ याद तो आता रहा ...चलिए, उनमें से कुछ को यहां पेस्ट करता हूं ...आप भी गुज़रे दौर का मज़ा लीजिए...
तर
मुझे आज पता चला कि वाटरबरी के नाम से ठंडी लगने की भी कोई दवा आती थी....मुझे तो इस के बारे में तब पता चला जब नवीं दसवीं क्लास में जब एक बार डा. साहब हमारी सेहत की जांच करने आए...उन को सब ठीक ही लगा लेकिन मैंने बाद में उन से जा कर कहा कि मुझे कमज़ोरी महसूस होती है ...उन्होंने एक पर्ची पर वाटरबरी टॉनिक लिख दिया....पिता जी बाज़ार से लाए और मैं खुद को पहलवान समझने लग गया 😇
आज हम इस तरह के विज्ञापन का तसव्वुर भी नहीं कर सकते ...पढ़िए ज़रा इसे पूरा ...इस तस्वीर पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ पाएंगे ...
फिल्मफेयर के आखिरी पन्ने पर उस दौर के सुपरहिट हीरो बिश्वाजीत की फोटो
अच्छा तो सिने स्टार्ज़ के बारे में जानने के लिए भी किताबें छपती थीं ... नीचे देखिए... फिल्म स्टारों के पोस्टर बेचने की बात लिखी है ...1963 में भी ढाई रुपल्ली में ...😁
मुझे यह समझ नहीं आया कि यह 16 एमएम की फिल्म का क्या फंड़ा था आज से 60 साल पहले ...अगर इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई पाठक इस पर रोशनी डाल सके तो अच्छा होगा...
फिनिक्स मॉल है अब मुंबई में ....वहां जाते हैं ...लेकिन 60 बरस पहले वहां पर फिनिक्स मिल हुआ करती थी, जहां फिनिक्स फैबरिक्स नाम का कपड़ा तैयार होता था ...यह मेरा अनुमान है ...नाम से मैं ऐसा समझ रहा हूं..
वाह .... फिल्मफेयर के पन्ने पर व्ही.शांताराम जैसे महानायक के दीदार भी हो गए....उस ग्रेट फिल्म डा कोटनीस के एक सीन के के ज़रिए ...
क्या कहें अब इस विज्ञापन के बारे में ....यह तो बीते ज़माने की एक बात हो के रह गई है ...
महान अभिनेत्री ललिता पवार जो अपने अभिनय से अपनी भूमिका में जान फूंक देती थी ....क्या गजब का फ़न था इन के पास, ये खलनायक शाकाल, गब्बर वब्बर तो बाद में आए....इन की फिल्म देख कर सच में बच्चे तो डर जाते थे ..ये वो लोग थे जिन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी हिंदी सिनेमा को समर्पित कर दी....इन की पुण्य याद को सादर नमन...अभी जो मैं नीचे नील कमल फिल्म का गीत एम्बेड करूंगा उस में भी ललिता पवार ने कमाल का अभिनय किया है ...
लो... कर लो बात ....ज्यादा मीठा खाने की सलाह दे रहा यह विज्ञापन
छुट्टी सब को अच्छी लगती है, इन सिने-तारिकाओं की एक दिन शूटिंग कैंसल हो गई तो ये पिकनिक पर निकल गईं ....और फिल्मफेयर ने उन लम्हों को भी कवर कर लिया ....(पढ़िएगा इसे फोटो पर क्लिक कर के ....आसानी से पढ़ पाएंगे)
इस टीनोपाल की डिब्बी ने भी सफेदपोशों की नाक में दम किए रखा ....खास कर के गृहिणियों को तो उलझाए रखा इस तरह के विज्ञापनों ने ....उस की शर्ट या साड़ी मेरी साड़ी से सफ़ेद कैसे वाली प्रतिस्पर्धा ... हा हा हा हा ....
लीजिए, डालडे की इतनी बातें सुनने के बाद नील कमल फिल्म का यह गीत भी सुनिए...खाली डिब्बा खाली बोतल ले ले मेरे यार, खाली से मत नफ़रत करना खाली सब संसार.....यह रहा इस का लिंक ...वैसे तो नीचे एम्बेड भी कर रहा हूं लेकिन कईं बार एम्बेड डिसएबल हो जाता है ....और ब्लॉग लिखने वाले को पता ही नहीं चलता...इसी फिल्म का वह सुपर-डुपर गीत था ..बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझ को सुखी संसार मिले....अभी मेरी बहन की शादी नहीं हुई थी जब यह फिल्म आई थी....मेरे पिता जी अकसर यह गीत सुनते सुनते रो पड़ते थे ...भावुक थे ... लेकिन आप इन चक्करों में मत पडिए, अगर इतनी मशक्कत कर के यह डालडे की पोथी पढ़ कर आप यहां तक पहुंच ही गए हैं तो महमूद साहब की बेहतरीन अदाकारी के साथ फिल्माया गया यह गीत ज़रूर सुनिए...गले में डालडे का डिब्बा लटका रखा है उन्होंने ...ग्रेट कॉमेडियन ऑफ ऑल टाइम्स ....🙏
जल्दी ही फिर किसी किस्से कहानी के साथ मिलते हैं....मुझे खुद पता नहीं इस का टॉपिक क्या होगा, अगर आप के ख्याल में ऐसा कोई विषय है जिस पर लिखा जाना चाहिए...तो नीचे कमेंट में लिखिए...कोशिश करेंगे....अच्छा, अपना ख़्याल रखिए...
PS... इस पोस्ट को लिखने के बाद मैं अपनी बहन से फोन पर बात कर रहा था तो मैंने पूछा कि इन डालडायुक्त बातों में आप भी अपनी यादें जोडिए...आप तो मेरे से 10 बरस बड़ी हैं....उन्होंने जब एक बात सुनाई तो मुझे भी कुछ कुछ याद आ गया ....उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हें भी याद होगा कि हम लोग एक बार किराने की दुकान पर थे तो एक बंदे ने चार किलो का डिब्बा उठाया हुआ था ...टीन वाला ..जिस के ऊपर एक हुक सा लगा रहता था ...मुझे भी याद आया कि अचानक वह हुक टूट गया और वह भारी भरकम डिब्बा उस के पांव के ऊपर गया, उस के पैर का अंगूठा भयंकर रूप से कट गया था ....कुछ यादें हमेशा के लिए दिल में कैद हो जाती हैं जैसे...
बहन ने यह भी बताया कि बीजी (हमारी मां) के हाथ के परांठे तो सारे खानदान में मशहूर थे ...जब भी हम लोग ननिहाल जाते तो सभी लोग कहते कि परांंठे तो संतोष ही बनाएगी....और हमारी मौसी तो खास कर के बीजी के परांठों की दीवानी थी...
ऐसे ही है, जब कोई बात पुरानी छिडती है तो सब को अपने दिन याद आते हैं ..और इसी से लेख में ज़िंदगी आती है ...क्या ख्याल है आपका....!
15-16 बरस ब्लॉगिंग में खपाई करने के बाद अब मुझे यह सूझा है कि बहुत से सुधि पाठक एवं दोस्त अपनी टिप्पणी मुझे जो वाट्सएप पर भेजते हैं, उसे मुझे इन कमैंट्स में सहेज लेना चाहिए...वाट्सएप पर तो चीज़ें गुम हो जाती हैं...और ये टिप्पणी आप देखेंगे ब्लॉग की बात को आगे बढ़ाती हुई दिखेंगी....जैसे एक संवाद स्थापित होता है ...और हम तो दो-तरफ़ा संवाद के तो पैरोकार हैं ही हमेशा से ... वह भी क्या बात हुई कि हम अपनी ही कहते रहें, दूसरों की भी बात जब हमारी बात में मिलती है तभी तो बात बनती है ....
श्री राजीव से यह टिप्पणी प्राप्त हुई है .... "आपकी लेखन शैली बहुत ही उम्दा है,आपको जीवन वृतांत शीर्षक से अपनी किताब लिखनी चाहिए l यकीन मानिये , बहुत लोग अपने को उससे connect करेंगे l मुझे यह पढ़ते हुए यह लगा ही नहीं कि यह बहुत पुरानी बात है l डालडा की कनस्तर शादी विवाह में प्रचालित था , वही नारियल छाप वाली l घरों में वो जो पीली प्लास्टिक के पैकेट आती थी l उसी दौर मे palm oils भी आती थी जो लोगों के पेट खराब होने का तथाकथित कारण कहलाता था. मुझे तो ऐसा लगता था कि लोग अपने पेटों-पना को छुपाने के लिए palm oils को बदनाम करते थे. लोग कहते थे कि डालडा होता तो मज़ा आजाता l"
Thanks a lot, Rajiv for your kind words of encouragement. It means a lot.
Dr Deepti who belongs to 90s generation ....उन्होंने लिखा है कि उन को यह पोस्ट पढ़ कर इस विज्ञापन का ख्याल आ गया... उन्होंने लिखा कि हम तो इस विज्ञापन को ही देख देख कर बड़े हुए हैं... https://www.youtube.com/watch?v=-H4GWUkdhps
धन्यवाद, डा दीप्ति आप का, पोस्ट देखने के लिए और इसी बहाने आप को भी अपना बचपन याद आ गया, और भी खुशी हुई ..मुझे भी यह विज्ञापन बहुत अच्छा लगता था ..क्योंकि उस दौर में हम लोग अपने बच्चों के साथ बैठ कर टीवी पर इस का आनंद लिया करते थे ...बहुत ही उम्दा विज्ञापन है ...slice of life type!
डालडा को दूल्हा बनाकर यादों की जो शानदार बारात निकाली, अत्यंत रोचक है। १९६३ में मैं दस वर्ष का था। कानपुर और उसके पास २२किमी दूर गांव में बचपन बीता। लेख पढ़ते समय ऐसा लग रहा कि अरे! यही सब तो मेरे साथ घंटा था। सर्दियों में मां बाजरे के पुआ डालडा में तलती थी और वहीं अंगीठी की आंच हम सब खाते थे। अजवायन और आलू के परांठे....वाह क्या बचपन था। उस दशक में दिन की शुरुआत लगभग सभी के घरों में डालडा से ही होती थी। एक एक वृतांत सजीव लगता है। नेहरू और डालमिया की लड़ाई में यह उत्पाद बाजार की प्रतिस्पर्धा नहीं झेल पाया। एक युग था, डालडा शुद्ध घी के उत्तम विकल्प के रूप में छाया था। सुनते हैं राजस्थान में यह और अन्य वनस्पति उत्पादन बंद थे। टिनोपाल जो बाद में रानीपाल बना आज पनामा की तरह बाजार से लुप्त हो चुका है। डालडा के तो अब डिब्बे भी नहीं दिखाई देते। रोचक स्मृतियों को नवजीवन देने के लिए साधुवाद 🙏🏼
लीजिए जनाब अपने एक अन्य मित्र की भी टिप्पणी मिली है .... उन्होंने रोमन में लिखा है, मैं उसे देवनागरी में लिख दे रहा हूं....
"डालडे की स्टोरी कमाल है। आपने डालडा बनाना भी सीख लिया था। पर डालडे के परांठे खाने वाले बड़े तगड़े निकले हैं। डालडा क्यों बंद हो गया, इस का भी थोड़ा वर्णन करना चाहिए। दरअसल मुझे डालडे से थोड़ा एलर्जी सा हो गया था, और फिर मैंंने कभी इस्तेमाल नहीं किया। १९७० के बाद मैंने सरसों का शुद्ध तेल इस्तेमाल करना शुरु किया था और फिर केवल लक्ष्मी घी जो १३ रूपये में किलो आता था, वही इस्तेमाल किया। पनामा सिगरेट मैंने उन दिनों पीना शुरु किया था जब मैंने अपनी मां को खो दिया। सिर्फ २ रूपये में बीस सिगरेट आ जाते थे। लेकिन डालडा उन दिनों घी से कम न था।यह सच है उन दिनों नाश्ते में परांठे ही बना करते थे। आप इसी बहाने अपने बचपन की सैर कर लेते हो। आप अपनी ज़िंदगी की रिव्यू लगभग रोज़ाना इतनी घटनाओं को याद कर लेते हो और कितनी गहराई होती है, इस का अंदाज़ा अब लग रहा है। इसी बहाने मैं भी अपने बचपन से रू-ब-रू होता हूं। और कमाल का लिखते हो और झट से भी। आप सच में किताब लिख डालो किसी भी विषय में। मैं बिल्कुल अनपढ़ सा हूं और मेरे में रिज़िलिएंस नाम की चीज़ नहीं है, आप के ब्लॉग के कारण कुछ न कुछ पढ़ना हो जाता है, और लिख भी रहा हूं। लेकिन डालडा के डिब्बे को लेकर नाचने वाला महमूद ..आईसिंग ऑन केक ..कहते हैं न, मज़ा आ गया...लेकिन आपने कैसे इस वीडियो को ढूंढा ...सच में कमाल है। मैं इस ब्लॉग को अपने बेच-मेट्स के साथ शेयर करूंगा...वे भी आनंदित होंगे। मुझे कम समझ में आता है पर मैं आप के ब्लॉग को पढ़ कर सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि हम लोग कैसे कैसे हालात से गुज़र कर आए हैं, आने वाली पीढ़ी बिल्कुल से बेखबर है, वो कभी भी विश्वास नहीं करेंगे...।"
एक अन्य सहयोगी ने यह लिख भेजा है मुझे वाट्सएप पर ....'हम लोग भी डालडा ही यूज़ करते थे, और खाली डिब्बे में पौधे लगाते थे' ..
कईं बार जब कोई कुछ लिखता है तो हमें उस से जुडा हुआ कुछ और भी याद आ जाता है ...हां, मैं बिल्कुल सहमत हूं कि इस तरह के खाली डिब्बों में पौधे लगाए जाते थे लेकिन एक बात तो मेरे ख्याल में पक्की यह है कि यह पौधे लगाने वाला दौर इन डिब्बों में हमने तब देखा जब ये डिब्बे प्लास्टिक के आने लगे थे ...जहां तक मुझे याद आ रहा था....
15-16 बरस ब्लॉगिंग में खपाई करने के बाद अब मुझे यह सूझा है कि बहुत से सुधि पाठक एवं दोस्त अपनी टिप्पणी मुझे जो वाट्सएप पर भेजते हैं, उसे मुझे इन कमैंट्स में सहेज लेना चाहिए...वाट्सएप पर तो चीज़ें गुम हो जाती हैं...और ये टिप्पणी आप देखेंगे ब्लॉग की बात को आगे बढ़ाती हुई दिखेंगी....जैसे एक संवाद स्थापित होता है ...और हम तो दो-तरफ़ा संवाद के तो पैरोकार हैं ही हमेशा से ... वह भी क्या बात हुई कि हम अपनी ही कहते रहें, दूसरों की भी बात जब हमारी बात में मिलती है तभी तो बात बनती है ....
जवाब देंहटाएंश्री राजीव से यह टिप्पणी प्राप्त हुई है ....
जवाब देंहटाएं"आपकी लेखन शैली बहुत ही उम्दा है,आपको जीवन वृतांत शीर्षक से अपनी किताब लिखनी चाहिए l यकीन मानिये , बहुत लोग अपने को उससे connect करेंगे l
मुझे यह पढ़ते हुए यह लगा ही नहीं कि यह बहुत पुरानी बात है l डालडा की कनस्तर शादी विवाह में प्रचालित था , वही नारियल छाप वाली l घरों में वो जो पीली प्लास्टिक के पैकेट आती थी l उसी दौर मे palm oils भी आती थी जो लोगों के पेट खराब होने का तथाकथित कारण कहलाता था. मुझे तो ऐसा लगता था कि लोग अपने पेटों-पना को छुपाने के लिए palm oils को बदनाम करते थे. लोग कहते थे कि डालडा होता तो मज़ा आजाता l"
Thanks a lot, Rajiv for your kind words of encouragement. It means a lot.
Dr Deepti who belongs to 90s generation ....उन्होंने लिखा है कि उन को यह पोस्ट पढ़ कर इस विज्ञापन का ख्याल आ गया... उन्होंने लिखा कि हम तो इस विज्ञापन को ही देख देख कर बड़े हुए हैं...
जवाब देंहटाएंhttps://www.youtube.com/watch?v=-H4GWUkdhps
धन्यवाद, डा दीप्ति आप का, पोस्ट देखने के लिए और इसी बहाने आप को भी अपना बचपन याद आ गया, और भी खुशी हुई ..मुझे भी यह विज्ञापन बहुत अच्छा लगता था ..क्योंकि उस दौर में हम लोग अपने बच्चों के साथ बैठ कर टीवी पर इस का आनंद लिया करते थे ...बहुत ही उम्दा विज्ञापन है ...slice of life type!
डालडा को दूल्हा बनाकर यादों की जो शानदार बारात निकाली, अत्यंत रोचक है।
जवाब देंहटाएं१९६३ में मैं दस वर्ष का था। कानपुर और उसके पास २२किमी दूर गांव में बचपन बीता।
लेख पढ़ते समय ऐसा लग रहा कि अरे! यही सब तो मेरे साथ घंटा था। सर्दियों में मां बाजरे के पुआ डालडा में तलती थी और वहीं अंगीठी की आंच हम सब खाते थे। अजवायन और आलू के परांठे....वाह क्या बचपन था। उस दशक में दिन की शुरुआत लगभग सभी के घरों में डालडा से ही होती थी।
एक एक वृतांत सजीव लगता है।
नेहरू और डालमिया की लड़ाई में यह उत्पाद बाजार की प्रतिस्पर्धा नहीं झेल पाया। एक युग था, डालडा शुद्ध घी के उत्तम विकल्प के रूप में छाया था।
सुनते हैं राजस्थान में यह और अन्य वनस्पति उत्पादन बंद थे।
टिनोपाल जो बाद में रानीपाल बना आज पनामा की तरह बाजार से लुप्त हो चुका है।
डालडा के तो अब डिब्बे भी नहीं दिखाई देते।
रोचक स्मृतियों को नवजीवन देने के लिए साधुवाद 🙏🏼
Dr. Virendra Misra, USA.
जवाब देंहटाएंलीजिए जनाब अपने एक अन्य मित्र की भी टिप्पणी मिली है .... उन्होंने रोमन में लिखा है, मैं उसे देवनागरी में लिख दे रहा हूं....
जवाब देंहटाएं"डालडे की स्टोरी कमाल है। आपने डालडा बनाना भी सीख लिया था। पर डालडे के परांठे खाने वाले बड़े तगड़े निकले हैं। डालडा क्यों बंद हो गया, इस का भी थोड़ा वर्णन करना चाहिए। दरअसल मुझे डालडे से थोड़ा एलर्जी सा हो गया था, और फिर मैंंने कभी इस्तेमाल नहीं किया। १९७० के बाद मैंने सरसों का शुद्ध तेल इस्तेमाल करना शुरु किया था और फिर केवल लक्ष्मी घी जो १३ रूपये में किलो आता था, वही इस्तेमाल किया।
पनामा सिगरेट मैंने उन दिनों पीना शुरु किया था जब मैंने अपनी मां को खो दिया। सिर्फ २ रूपये में बीस सिगरेट आ जाते थे।
लेकिन डालडा उन दिनों घी से कम न था।यह सच है उन दिनों नाश्ते में परांठे ही बना करते थे। आप इसी बहाने अपने बचपन की सैर कर लेते हो। आप अपनी ज़िंदगी की रिव्यू लगभग रोज़ाना इतनी घटनाओं को याद कर लेते हो और कितनी गहराई होती है, इस का अंदाज़ा अब लग रहा है। इसी बहाने मैं भी अपने बचपन से रू-ब-रू होता हूं। और कमाल का लिखते हो और झट से भी। आप सच में किताब लिख डालो किसी भी विषय में।
मैं बिल्कुल अनपढ़ सा हूं और मेरे में रिज़िलिएंस नाम की चीज़ नहीं है, आप के ब्लॉग के कारण कुछ न कुछ पढ़ना हो जाता है, और लिख भी रहा हूं। लेकिन डालडा के डिब्बे को लेकर नाचने वाला महमूद ..आईसिंग ऑन केक ..कहते हैं न, मज़ा आ गया...लेकिन आपने कैसे इस वीडियो को ढूंढा ...सच में कमाल है। मैं इस ब्लॉग को अपने बेच-मेट्स के साथ शेयर करूंगा...वे भी आनंदित होंगे।
मुझे कम समझ में आता है पर मैं आप के ब्लॉग को पढ़ कर सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि हम लोग कैसे कैसे हालात से गुज़र कर आए हैं, आने वाली पीढ़ी बिल्कुल से बेखबर है, वो कभी भी विश्वास नहीं करेंगे...।"
बहुत सुंदर लेख।
जवाब देंहटाएंएक अन्य सहयोगी ने यह लिख भेजा है मुझे वाट्सएप पर ....'हम लोग भी डालडा ही यूज़ करते थे, और खाली डिब्बे में पौधे लगाते थे' ..
जवाब देंहटाएंकईं बार जब कोई कुछ लिखता है तो हमें उस से जुडा हुआ कुछ और भी याद आ जाता है ...हां, मैं बिल्कुल सहमत हूं कि इस तरह के खाली डिब्बों में पौधे लगाए जाते थे लेकिन एक बात तो मेरे ख्याल में पक्की यह है कि यह पौधे लगाने वाला दौर इन डिब्बों में हमने तब देखा जब ये डिब्बे प्लास्टिक के आने लगे थे ...जहां तक मुझे याद आ रहा था....