मंगलवार, 3 जनवरी 2023

किताबें पढ़ना तो चाहते हैं लोग....

किताबों की खुशबू में ही कुछ जादू है जो खींचती हैं मुझे ...एनसीपीए,मुंबई, नवंबर २०२२

कल शाम मैं एक बुक स्टोर में कोई किताब ढूंढ रहा था कि मेरे पास खड़े एक २५-३० बरस के युवक ने मुझ से पूछा कि क्या आप  पढ़ने के लिए मेरे लिए कोई बुक सुजेस्ट कर सकते हैं....पहले तो मैं एक बार चकरा सा गया कि अब यह काम भी मेरे हिस्से में आ गया...क्या मैं इतना पढ़ाकू दिखने लगा हूं ...चलिए, दिखूं या न दिखूं लेकिन मुझे किताबें खरीदने का बहुत शौक है ...बहुत ज़्यादा शौक है ...और एक तरह की नहीं, हर तरह की किताबें ...अपना अपना शौक है, किताब कितनी भी महंगी हो, मुझे नहीं लगती....मुझे यही लगता है कि मान लेंगे १-२ पिज़ा खा लिए या बाहर कहीं खाने चले गए....मन को समझाने की बात है, शुरू शुरु में तो इस तरह से समझाना पड़ता था लेकिन अब उसे भी समझ आ गई है, इसलिए अब यह काम भी नहीं करना पड़ता। 

हां, मैंने उस युवक से पूछा कि वह किस जॉनर की किताब पढ़ना चाहेगा...उसने कहा कि हैरी-पॉटर टाइप कुछ। खैर, वहां पर हैरी पॉटर की कोई किताब नहीं थी ...मैंने उसे कहा कि इस सेक्शन में तो अधिकतर नावल, इंस्पिरेशनल बुक्स, और ज्ञान झाड़ने वाली किताबें हैं...ज्ञान झाड़ने वाली बात पर वह हंसने लगा...मैंने उसे जैफरी आर्चर की कहानियों की किताब की तरफ़ इशारा किया..लेकिन उस ने उसे भारी भरकम देख कर अहमियत न दी....खैर, मैंने वह किताब खरीद ली...और उसने कहा कि मैं तो अभी शुरूआत ही कर रहा हूं कुछ पढ़ने से ...इसलिए उसने एक पतला सा नावल खरीद लिया...


मुझे अच्छा लगता है जब मैं किसी को किताब खरीदते, पढ़ते या डिस्कस करते देखता हूं...पिछले रविवार मुझे एक भव्य समारोह में जाने का मौका मिला...जहां पर बड़े बड़े लेखकों का जमावड़ा लगा हुआ था...वहां पर २-३ घंटे कैसे कट गए पता ही न चला...मौका सा धर्मवीर भारती साहब के ऊपर एक किताब का विमोचन...जिन्होंने भारती जी का नाम न सुना हो, उन के लिए बता दें कि वह धर्मयुग साप्ताहिक के १९६० से १९८७ तक संपादक थे ...उन्होंने धर्मयुग को उन ऊंचाईयों तक पहुंचाया कि एक दौर में उस की चार लाख कापियां छपी थीं...और कईं बार जब कोई अंक खत्म हो जाता था तो टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के बाहर लोग प्रदर्शन करने लगते थे कि कापियां खत्म हैं, हमें नहीं मिलीं, दोबारा छापिए। ऐसा था, लोगों का प्यार धर्मयुग के लिए....

अपने बचपन का साथी ..धर्मयुग 

उस दिन जब उन की श्रीमति जी - पुष्पा भारती जी को सुना तो पता चला कि इस के पीछे जादू क्या था...वह सरल सादा भाषा इस्तेमाल करते थे ...मुझे भी तब समझ में आया कि १९७० के दशक में, अमृतसर शहर में पांचवी छठी कक्षा में पढ़ने वाला मेरे जैसा छात्र और परिवार के सभी लोग धर्मयुग के इतने दीवाने थे कि उस के लिए आंखें बिछाए रहते ...खैर, उस दिन वह किताब भी खरीद ली और उसे पढ़ कर जैसा वह ज़माना फिर से जी रहा हूं आज कल...

मैं तो किताब कब लिखूंगा मुझे नहीं पता ...मां यह कहती कहती चली गई...दो एक प्रकाशक कहते कहते थक गए ...लेकिन मैं पता नहीं किस बात का इंतज़ार कर रहा हूं ...सठिया तो गया ही हूं ...फिर भी अभी तक कुछ नहीं किया ....मैंने बीते साल की ३१ दिसंबर तक एक किताब की पांडुलिपि पूरी करने का संकल्प अपने स्टडी़-रूम में टांग रखा है, और किताब का नाम भी....लेकिन कुछ नहीं हुआ...बीस बरसों से बस प्लॉनिंग ही चालू है ...जब की खूब किताबें देख कर, अगर पढ़ कर नहीं भी तो उन के पन्ने उलट-पलट कर यह तो मन में विश्वास हो चुका है कि मैं किताब तो लिख ही सकता हूं और ठीक ठीक तरह की लिख सकता हूं....हिदी.पंजाबी, इंगलिश और उर्दू की किताबें पढ़ता हूं लेकिन अभी तक यही मन बनाया है कि अगर कभी किताब लिखूंगा तो वह होगी हिंदोस्तानी ज़बान में ही ..जो हम लोगों की बोलचाल की भाषा है ..हिंदी, उर्दू मिक्स...आम जन की समझ में आने वाली मासूम सी बातें....जैसा कि मैं जानबूझ कर अपने इस ब्लॉग में लिखता हूं.......मुझे किताब के लिए विषय ढूंढने में कोई मुश्किल नहीं है, न ही विषयों की कोई कमी है, बस, एक जगह टिक कर कुछ दिन बैठने भर की बात है ...शायद यही कोई आठ दस दिन ... लेकिन वह कब मुमकिन हो पाएगा, मुझे भी नहीं पता। 

दो महीने पहले एन.सी.पी.ए में ...

किताब लिखने के बारे में एक कथन मैंने कुछ महीने पहले एक किताब में यह पढ़ा था कि लेखक को वह किताब लिखनी चाहिए जो वह पढ़ना तो चाहता है लेकिन अभी तक लिखी नहीं गई है। अपना भी मंसूबा तो कुछ ऐसा ही है ..देखते हैं....

तीन बरस पहले जब अमेरिका गए तो वहां एक शाम न्यू-यार्क में एक लाइब्रेरी के सामने से गुज़र रहे थे ...क्या बात थी उस जगह की...मज़ा आ गया था....अंदर तो नही गया लेकिन उस लाइब्रेरी के इर्द-गिर्द फुटपाथ की कारीगरी देख कर ही हमें नज़ारा आ गया था ...अभी आप को भी वहां की फोटो दिखाते हैं...पढ़िएगा ज़रूर , मज़ा आएगा आपको भी ( चाहे ज़ूम ही क्यों न करना पड़े हरेक फोटो को ...)  वहां पर उस फुटपाथ पर क्या क्या लिखा हुआ है ....एक बात जो मुझे हमेशा के लिए याद रह गई कि किताबों को पढ़ना गुज़रों दौर के महान लोगों से मुलाकात करने जैसा शौक है ....जी हां, मैं भी यही मानता हूं...























कभी कभी लोकल ट्रेन में किसी को अखबार पढ़ते या कोई किताब पढ़ते देखता हूं तो अच्छा लगता है ....कोई कोई धार्मिक किताबें भी पढ़ते हैं...कोई मोबाईल में यह काम करते हैं...दो दिन पहले एक सिख युवक मोबाइल में कुछ गुरमुखी में लिखा पढ़ रहा था, जब उसने मोबाइल बंद किया तो मैंने पूछ ही लिया कि क्या वह जपुजी साहब का पाठ कर रहा था। उसने कहा ..हां, और साथ में उसने कुछ और नाम लिया जिसे मैं अब भूल गया हूं...


एक तरफ तो इतना पढ़ने लिखने की बातें , दूसरी तरफ़ ए.बी.सी तक को छोड़ने की इत्लिजा... एक तरफ़ तो बचपन में ऐसे गीत बज रहे होते रेडियो पर और दूसरी तरफ़ हाथ में चंदामामा, नंदन, धर्मयुग और राजन-इकबाल के बाल उपन्यास थामे रहते .... हा हा हा हा .