सोमवार, 29 अगस्त 2016

गोलगप्पे भी बदल गये दिक्खे हैं....



सही बात है जैसे सब और चीज़ों का स्वरूप बदला है...ये गोलगप्पे भी बदल गये दिक्खे हैं...पंजाब हरियाणा दिल्ली के गोलगप्पे बंबई में पानी पूरी और लखनऊ में पानी के बताशे हो जाते हैं...लेकिन मुझे गोलगप्पा ही अच्छा लगता है ...क्योंकि इस में शायद हंसी की एक छींट सी दिखती है ....

अब तो अकसर बड़ी मिठाई-वाई की दुकानों के बाहर ये पानी के बताशे, इमरती, टिक्की के स्टाल देख कर और इन पर तैयार लोगों के सिर की नीली टोपियां और हाथों में दस्ताने देख कर किसी कारपोरेट अस्पताल के पोर्च में खड़े डाक्टरों की टीम की तरफ़ ध्यान चला जाता है जो किसी तगड़ी आसामी की बाट जोह रहे होते हैं कि कब कोई सही-सा मुर्गा फंसे और कब इसे हलाल करें...


पहले गोलगप्पे खाते समय इतना कुछ सोचना नहीं पड़ता था कि खिलाने वाले की पर्सनल हाईजिन कैसी है, आसपास का एरिया किस तरह का क्या है, इन सब बातों से बेपरवाह एक मटके में इमली का पानी होता था, जिसे बाहर से लाल रंग कर दिया होता था, नहीं तो लाल कपड़ा बांध दिया जाता था...(इस का कारण मुझे आज तक कभी समझ नहीं आया)..और बस चार पांच गोलगप्पे हम लोगों ने खाने होते थे ...उस में उबले हुए आलू के दो चार टुकड़े वह डालता और साथ में उबले हुए चार-छः काले चने ...पानी में डुबोता और वहां से हमारी दोने में रख देता...


अब तो पानी के बताशे खाना परोसना भी हाई-टैक हो गया है ...अच्छी बात है ...ये लखनऊ की एक मिठाई की दुकान के बाहर की तस्वीरें तो मैं पोस्ट कर ही दूंगा...लेकिन अकसर होटलों में जिस तरह से प्लेट में सजा कर गोलगप्पे परोसे जाते हैं...साथ में अलग अलग तरह का पानी, इस तरह से यह सब खाने में कहां मज़ा आता है! कुछ दिन पहले तो एक फोटो दिखी जिस में प्लेट में एक सिरिंज भी रखा हुआ था ...पानी डालने के लिए...बड़ा अजीब सा लगा ....जैसे कोई एक्सपेरीमेंट करने आये हों....वैसे भी कुछ जगहों पर मटके में भी हाथ डालने से पहले डाक्टरी दस्तानों का प्रयोग होते दिख जाता है....अजीब सी फिलिंग होती है यह देख कर ...

पानी के बताशों के लिए भी ग्राहकों को विशेषकर पढ़ेलिक्खों को आकर्षित करना अब आसां नहीं दिखता ....यहां लखनऊ के कैंट एरिया में सदर बाज़ार में तो कुछ दुकानों ने बोर्ड लगा रखे हैं कि वे आर ओ का पानी इस्तेमाल करते हैं...

स्वाद तो हर जगह गोलगप्पों का बढिया ही होता है ... मुझे याद आ रहा है कि कुछ साल पहले हम लोग भुवनेश्वर गये तो वहां भी एक गोलगप्पे वाला यू.पी से ही गया हुआ था...वह बहुत बढ़िया गोलगप्पे खिलाता था ...हम लोग अकसर उधर रोज़ ही निकल जाया करते थे... वह हमें पहचानने लगा था....मुझे ऐसा लगता है कि गोलगप्पे जैसी चीज़ें महानगरों में भी इतनी ज़्यादा चल पड़ी हैं, इस के पीछे भी यूपी से गये लोगों की बड़ी भूमिका है ...ये बड़े मेहनती हैं....इस का प्रमाण हमें तब भी मिला जब मनाली के आगे रोहतांग पर यूपी से गये लोग भुट्टे बेच रहे थे....great entrepreneurs indeed!

 मैं अकसर सोचता हूं कि तकनीक में तो हमने बहुत तरक्की कर ली, लेकिन कंटेंट में गड़बड़ी करने लगे....जैसे मीका के गाने हम लोग कितने दिन सुन सकते हैं लेकिन इस तरह के गीत हम सुनते-देखते नहीं थकते....


बीडीएस करते समय हमारी एक बहुत अच्छी मैडम थी...मैडम संतोष रियाड़...वे हमें दूसरे वर्ष में ओरल एनॉटमी पढ़ाती थीं, और हर पाठ के बाद हमें एनॉटमी के हर पाठ की Clinical implications अच्छे से समझाया करती थीं, और वे सब बातें हमारे मन में टिकी हुई हैं आज भी ....

चलिए, गोलगप्पों की तो बातें हो गईं, अब एक डेंटल-सर्जन के नज़रिये से इस की क्लीनिकल इंप्लीकेशन्स भी देख लेते हैं....

तालू का जलना 

यह तो हम बहुत वर्षों से जान ही चुके हैं कि आजकल गोलगप्पे वाले पानी को तैयार करने में कुछ गड़बड़ी तो करते ही हैं क्योंकि इमली महंगी है और टारटरी एसिड जैसा कुछ इन लोगों के हाथ लग चुका है ...लेकिन हम कहां खाते समय इन सब बातों की परवाह करते हैं !

पांच छः साल पहले मेरे पास एक महिला आई जिस का तालू जला हुआ था....देखने में वह कैमीकल बर्न जैसा लग रहा था...बहुत पीड़ा में थी....मुझे कुछ समझ में नहीं आया...मैं ऐसे ही पूछ लिया कि कुछ गर्म तो नहीं खाया, नहीं, उसने बताया कि कल शाम को लड़का गोल-गप्पे लाया था, उसे खाने के तुरंत बाद ही यह हो गया...

यह कैमीकल-बर्न ही था... उसे समझाया ...दो चार दिन दवाई लगाने से वह ठीक हो गईं...ये गोलगप्पे का पानी बनाने वाले कुछ एसिड-वेसिड तो मिलाते ही हैं, अगर ज़्यादा पड़ जाए तो यह परेशानी हो सकती है ....अभी भी कभी कभी लोग आते हैं मुंह के जल जाने के .. और काफी बार उस के पीछे पानी के बताशे ही निकलते हैं...

आप भी अपना ध्यान रखिएगा...लेकिन कैसे, वह मुझे भी नहीं पता! ....देश में पानी के बताशों के प्रति दीवानगी का आलम देखते बनता है ...हमारे घर के पास बाज़ार में एक बंदा सुबह सी पानी के बताशे खिलाने लग जाता है ...उस का सैट अप बिल्कुल पानी की छबील जैसा है ...he is very chilled-out....इत्मीनान से लगा रहता है, और पास में पत्तल के दोनों का अंबाल लगा होता है ...कुछ समय पहले मुझे पता चला कि उस के पास ही गोलगप्पे तैयार करने का एक कारखाना है!

मुंह न खुलने की वजह से पानी का बताशा न खा पाना
इस के मुंह में दो उंगली भी नहीं जा पा रही 
अगर गुटखा-पान मसाला चबाने वाले को कभी पानी का बताशा मुंह में डालने में दिक्कत आ रही है तो यह भी एक बहुत दुःखद लक्षण है मुंह की एक गंभीर बीमारी का ....बहुत से मरीज हमारे पास आते ही इस तकलीफ के साथ हैं कि मुंह पूरा नहीं खुल रहा ...और पता तब लगा जब पानी के बताशे भी नहीं खाए जा रहे ....जैसे कि यह १९-२० साल के नवयुवक के साथ हुआ...यह मेरे पास परसों आया था...छः साल से लगभग रोज़ाना छः पैकेट गुटखे-पानमसाले के खा रहा है ...और अभी इसे यह तकलीफ़ हो गई है .... इस तकलीफ़ के बारे में पढ़ना चाहें तो बाद में इस लिंक पर जा कर पढ़ लीजिएगा....अभी नहीं, वरना पानी के बताशों का स्वाद जाता रहेगा.... 


पानी के बताशे खाते खाते सामने टिक्की दिख जाती है, तब तक एक तरफ़ गर्मागर्म इमरती भी बुलाने लगती है ....मेरे साथ ऐसा बहुत बार होता है ....लेेकिन कल एक बहुत सुंदर मैसेज वाट्सएप पर आया है, शेयर कर रहा हूं, आप भी ध्यान रखिएगा...