बुधवार, 26 नवंबर 2014

शुक्र है रब्बा, सांझा चूल्हा बलया....

आज मैंने जब टाटा-स्काई ऑन िकया तो िकसी रोटी मेकर का विज्ञापन चल रहा था, यह विज्ञापन मुझे बेहद सस्ता लगता है ...जो इस विज्ञापन को पेश कर रही थी, वह रसोई में गैस या चूल्हे पर रोटीयां बनाने के काम को इतने बुरा भला कह रही थी कि उसे सुनना ही अजीब सा लग रहा था..इस से महिलाओं के शरीर में यह तकलीफ़ हो जाती है, वह तकलीफ़ हो जाती है, पूरे परिवार के लिए रोटियां बनाना तो बिल्कुल आफ़त है, ऐसा ही कह रही थी।

मैं उस विज्ञापन को देखते सोच रहा था कि अगर यह विज्ञापन हिंदोस्तानी गृहिणियां कुछेक बार देख लें तो कम से कम बगावत पर उतारू तो हो ही जाएं।

लेकिन असलियत इस तरह के रोटी मेकर की कुछ और ही है... हम लोगों ने भी कुछ महीने पहले एक अच्छी कंपनी का रोटी मेकर खऱीदा था.....एक या दो बार उसे इस्तेमाल किया गया, वापिस अब डिब्बे में बंद पड़ा है। हमारा यह अनुभव रहा कि इस में तैयार रोटियां बिल्कुल पतले कड़क पापड़ जैसे ---बिल्कुल गुजराती खाखरे की तरह-- होती हैं जिन्हें खा कर लगता ही नहीं है कि रोटी खाई है।

इस बात को तो यही फुल-स्टाप लगाते हैं....अब रोटी के बारे में अपनी यादें ताज़ा कर लेते हैं......मेरी उम्र के लोग अंगीठी, चूल्हे और स्टोव से लेकर तंदूर तक के दौर के साक्षी हैं। मुझे याद है कि उस दौर में स्टोव में जलने वाला मिट्टी का तेल (केरोसिन तेल) राशन के डिपो से मिलता था..अब राशन की दुकान से मिलने वाली चीज़ की बात है कि वह जब मिले तो मिले, ना भी मिले तो आप राशन की दुकानदार का क्या उखाड़े लेंगे......आज ही कुछ नहीं उखड़ता तो चालीस साल पहले लोग कितने मजबूर होंगे, इस की कल्पना आज की पीढ़ी नहीं कर सकती। वैसे हमारा राशन वाला भी कम हरामी ना था, बहुत चक्कर कटवाता था..।

इस से पहले कि यादों के पिटारे से ढक्कन उठाऊं एक बात साझा करना चाहता हूं कि मेरी बेहद पसंदीदा फिल्मों में से एक फिल्म है रोटी... राजेश खन्ना, मुमताज की.....कोई गिनती नहीं कि मैं इसे कितनी बार देख चुका हूं। इस में एक जगह राजेश खन्ना एक दादा को कहता है......ईज्जत दे रोटी को लाले, बाद में तो मैंने ही खानी है, यह संवाद किस परिप्रेक्ष्य में कहा गया, इस के लिए आप इस वीडियो को ज़रूर देखिए.....



हां, तो बात चल रही थी अंगीठी और स्टोव पर सिकने वाली रोटियों की ... फिर जब तेल नहीं होता था तो कभी कभार लकड़ियों से जलने वाला चूल्हा भी तो जला करता था। उन दिनों तंदूरों में भी रोटियां लगाई जाती थी.....कुछ घरों के घऱ के आंगन में या दीवार के बाहर तंदूर फिट हुआ रहता था..एक तंदूर जलता था तो गली मोहल्ले के कितने ही घरों की गृहणियां वहां पर रोटियों लगाती थीं.....एक तरह से यह एक सांझे चूल्हे का रूप ही ले लिया करता था...

हम लोग जब छोटे छोटे थे तो हमे यह सब देखना बड़ा रोमांचक लगता था कि कैसे हमारी मां, हमारी नानी...जलती आग में बेली हुई रोटियां पहले अंदर चिपकाती हैं, फिर एक लंबी लोहे की डंडी-नुमा सीख से उसे हिलाती डुलाती हैं और झट से कड़क रोटियां निकलते ही हमें आवाज़ दी जाती कि चलो,गर्मागर्म हैं रोटियां, बाद में ठंड़ी हो जाएंगी, खानी शुरू करो। यह काम करने वाली सभी महिलाओं को मेरा कोटि कोटि दंडवत् प्रणाम्।



लो जी, बात छिड़ी तो रेशमा जी का एक सुपर-डुपर गीत भी याद आ गया... शुक्र है रब्बा, सांझा चूल्हा जलेया...मुझे अच्छे से याद है कि १९८० के दशक में जालंधर दूरदर्शन से एक सीरियल भी आता था...सांझा चूल्हा ..उस की सिग्नेचर ट्यून भी रेशमा जी का यही गीत ही था......आप सुनना चाहेंगे?



शायद आज की पीढ़ी को लगता हो कि इस में क्या बड़ी बात है...बात है दोस्त, और वह बात वही जानता है जिस ने अपने घर की औरतों को जून के महीने शिखर दोपहरी में भी सिर पर कपड़ा रख कर यह काम करते देखा....गर्मी की वजह से लाल सुर्ख चेहरा और ऊपर से टप टप करता पसीना और शरीर के साथ चिपके हुए पसीने से भीगे पूरे कपड़े और ऊपर से धूप में तिड़कने वाली पित। इस सब के बावजूद १००० वॉट की बड़ी सी मुस्कान के साथ उन का रोटियां परोसने का अंदाज़.....और खाने वाले एक एक बशर की फिक्र। अब इस के आगे क्या कहें दोस्त, आगे कुछ कहने को बचता है क्या!!

मुझे याद है कि मेरी नानी जो इतनी जिंदािदल थी कि चालीस-पचास मेहमानों के लिए अकेली ही जूझ पड़ा करती थीं इस काम में....अब क्या क्या लिखें, क्या क्या छोड़े समझ भी तो नहीं आता। पूरी किताब लिखी जा सकती है उस दौर की महिलाओं के संघर्ष पर।

हां, यार, वह दौर भी शायद सत्तर-अस्सी के दशक का ही था कि जब पंजाब में जगह जगह जमीन पर तंदूर गढ़े हुआ करते थे....हम लोग कईं बार गूंथा हुआ आटा लेकर जाते थे और वह देवी जैसे दिखने वाली तंदूर वाली हमें रोटियां तैयार कर के दे दिया करती थीं.....जानते हैं वह एक रोटी तैयार करने का क्या लेती थीं?....मात्र पांच पैसे।

इस के साथ साथ वे भी दिन थे जब ये रोटियां लगाने का काम ढाबे वाली भी किया करते थे...आप आटा ले कर जाओ और वे रोटियां तैयार कर के आप को दे दिया करते थे।

मुझे याद है कि अगर ढाबे आदि में आटे नहीं भी लेकर गये किसी भी एमरजैंसी में आप वहां से रोटियां लेकर आ सकते थे ...साथ में दाल भी वहां से मिल जाया करती थी.... एक मज़े की बात, आप को याद हो न याद हो.....कि रोटियां खरीदने पर दाल मुफ्त में मिलती थीं, और जिसे घर लाकर घी में अपने ढंग से छोंक लगाई जाती थी। मुझे याद है कि जब कभी मेरी माता जी दो एक दिन के लिए बाहर गई होतीं तो मेरे पिता जी उस दाल को ऐसी छोंक लगाते कि आज भी उस जायके, उस अरोमा की याद  मुझे आनंद देती है।

एक चुटकला भी तो बना था उस दौर में.......एक आदमी एक ढाबे में जाता है और दाम पूछता है ... उसे बताया जाता है कि रोटी पचास पैसे की और दाल फ्री। वह तुरंत कहता है कि ऐसा करो कि मुझे दाल ही दे दो।

एक बात और, ढाबे में मिलने वाली रोटियों से कोई शिकायत नहीं हुआ करती थीं, घर जैसा ही आटा इस्तेमाल होता था ...अच्छी कड़क और पतली पतली तंदूरी रोटियां........लेकिन अब पता नहीं पिछले ३०-३५ वर्षों से ढाबे वालों को क्या तकलीफ़ हो गई है कि मुझे ऐसा लगता है कि ये अब आटे की नहीं, मैदे की रोटियां बनाते हैं जिस तरह से वह रबड़ जैसे टूटती हैं और बाहर से कड़क दिखते हुए भी अंदर से बिल्कुल कच्ची ही रह जाती हैं।

ऐसा नहीं है कि अच्छी रोटियां नहीं बिकतीं अब, बिकती हैं दोस्तो अब भी लेकिन वे ३५-४० रूपये की एक रोटी बेचते हैं.....आप की इच्छानुसार कड़क और सिकी हुई। अब तो बाहर खाते हैं कभी कभई तो ऐसी ही जगहों पर ही खाया जाता है..पता नहीं मैदे से तैयार रोटियां देखते ही भूख छूं-मंतर हो जाने जैसा फील होने लगता है।

बीस साल पहले हम लोग एक गैस-तंदूर भी लाए तो थे.....वह भी कुछ दिनों बाद रसोई की छत पर पड़ा हमें झांकने लगा... उस में तैयार रोटियों में वह बात ही न थी.... मिट्टी की खुशबू गायब थी शायद...अब विभिन्न प्रदर्शियों में इलैक्ट्रिक तंदूर देखते तो हैं, पर कभी खरीदने का मन किया नहीं......डर सा लगता है!

अब हम लोग लखनऊ में रहते हैं...कुछ दिन पहले हम लोगों ने अपने गृह-सेवक को पास ही के ढाबे-नुमा हाटेल में भेजा कि रोटियां सिकवा के ले आए... इस ढाबे ने तंदूर दुकान के बाहर ही लगाया हुआ था......गृह-सेवक बैरंग लौट कर आया .. कहने लगा कि तूदूरवाला कहता है कि सन्नाटे में आना?.....सन्नाटे में आना, सुन कर अजीब सा लगा ..शायद अगर हमारी बाई गई होती तो और भी सनसनीखेज लगते ये शब्द...लेकिन उस ने झट से बता दिया कि वह कहता है कि जब ढाबा चल रहा हो उस समय यह काम नहीं हो सकता... दो एक घंटे पहले या बाद में। मैं अपनी पत्नी से मजाक करने लगा कि लगता है कि दोपहर के खाने के लिए रोटियां सुबह ९-१० बजे और रात के खाने के लिए शाम को ही लगवानी पड़ेंगी........हा हा हा हा हा........उल्लू के पट्ठे।

हां, एक बात याद आई......मेरी मां जी की एक कज़िन थीं.....उन की बेटी दुबई में रहती थीं ... जब भी वे आतीं तो मां के हाथ की डेढ़-दो सौ रोटियां बनवा कर ले जातीं.....वहां पहुंच कर इन्हें फ्रिज़ में रख दिया करते और रोज़ाना कुछ निकाल कर गर्म कर के खाया करते। हैरान होने वाली बात तो है, हो लीजै, लेिकन है शतप्रतिशत सच।

लगता है, बस करूं.......बहुत हो गई इन रोटियों की बातें......फिर से वही बलवंत गार्गी जी की वही पंक्तियां चेते आ गईं..........शुक्र है रब्बा, सांझा चुल्हा बलेया....सांझा चुल्हा बलेया। चेते तो दोस्तो यह भी आ गया कि उन दिनों जब दोपहर में हम लोग गर्मागर्म तंदूरी रोटियों का लुत्फ़ उठाया करते थे....तो बाबा आदम के ज़माने के अपने रेडियो पर कभी कभी रोटी फिल्म का मुझे बहुत अच्छा लगने वाला यह गीत भी तो खूब बजा करता था......जो रोटी के स्वाद को चार चांद लगा दिया करता था..........

यादों का पिटारा थोड़े समय के लिए बंद कर रहा हूं... दिमाग पर लोड़ देते देते थोड़ा थक सा गया हूं.....सुप्रभात।