जहां तक मुझे याद है...चाय पीना बचपन ही से मुझे खासा पसंद रहा है.....अच्छी कड़क चाय ..परांठे, आम का आचार ...बस और क्या चाहिए होता था।
चाय मैं अकसर चार बार तो ले ही लेता हूं.....मात्रा हम लोग कम ही लेते हैं......छोटे छोटे कांच के गिलास और प्यालियां हैं...दो बार तो सुबह और दो बार शाम को चाय हो जाती है। लेकिन मैं अपनी ड्यूटी पर चाय कभी नहीं पीता.....अपवाद केवल वे दिन होते हैं शायद महीने में एक दो बार जब मीटिंग में चाय पिलाई जाती है, मैं वहां भी पीना नहीं चाहता, लेकिन वही फार्मेलिटि का ढोंग तो करना ही पड़ता है।
आप सोच रहे होंगे कि अगर तुम्हें चाय इतनी ही पसंद है तो फिर यह नफ़रत वाली बात क्यों कर रहे हो। इस के ही कारण मैं आप से शेयर करना चाहता हूं।
घर में चाय पीने में कोई दिक्कत नहीं ... लेकिन मैं आप को यह भी बताना चाहता हूं कि मैंने बीस वर्ष पहले सिद्ध समाधि योग के प्रोग्राम किए....वहां पर चाय तो छुड़वा ही देते हैं......दो तीन दिन तकलीफ़ हुई....बाद में ध्यान ही नहीं जाता था....जब इन योगा एवं ध्यान प्रोग्रामों के Silence Retreats के लिए आश्रम जाना होता....चार दिन, एक सप्ताह और २८ िदन तक....तब वहां भी चाय का ध्यान नहीं आता था.....वातावरण ही कुछ ऐसा रहता है इन रमणीक स्थानों का..।
वैसे भी अगर हम नियमित ध्यान करते हैं तो फिर चाय आदि उत्तेजक पेय उस में बाधक हैं....ये ध्यान होने नहीं देते क्योंकि हम लोग सेटल ही नहीं हो पाते।
यह तो थी थ्यूरी की बातें......सब कुछ पता होते हुए भी मैंने तीन-चार वर्षों में ही चाय फिर से पीनी शुरू कर दी......फिर कुछ वर्षों बाद ध्यान आया...फिर कुछ समय के लिए छोड़ दी......यह सिलसिला तीन चार बार तो चल ही चुका है...जहां तक मुझे याद है।
सफ़र के दौरान चाय नहीं लेता..........मुझे नहीं याद कि मैंने कभी सफ़र के दौरान चाय ली हो.....कितना भी लंबा सफ़र हो, चाय मैं बाहर की नहीं ले पाता....अब होता यह है कि जब तक सफ़र खत्म होने वाला होता है चाय न पीने की वजह से मेरा हाल बुरा हो चुका होता है.....बिल्कुल वही सब बातें जो नशा छूटने पर होने लगती हैं......एसिडिटी, मितली आना, सिर भारी, सिरदर्द, बेचैनी....ऐसा मेरे साथ लगभग हर लंबे सफ़र के बाद होता ही है।
चाय के साथ बिस्कुट, भुजिया.......एक बात और भी है कि इस देश में खाली चाय को पीना जैसे अशुभ सा माना जाता है, मुझे ऐसा लगता है। जितना बार चाय उतनी बार भारी भारी बिस्कुट और भुजिया खाते खाते अब लगने लगा है कि बढ़ती उम्र के साथ साथ खाने में थोड़ा तो नियंत्रण करना ही होगा। कुछ दिनों से यह सोच रहा था कि चाय पीना ही बंद कर दूं ताकि ये सब अनाप-शनाप खाद्य पदार्थों पर भी अपने आप अंकुश लग जाएगा।
शर्बत जैसी मीठी चाय.......एक और बुरी आदत है कि अच्छी कड़क चाय और काफ़ी मीठे वाली चाय ही मुझे पसंद है। अब इतना मीठा खा खा के कैसे कोई ठीक रह पाएगा?
इन सब कारणों के रहते मैंने इस बार एक लंबे सफ़र के दौरान निश्चय किया कि अब इस चाय को त्याग ही देना है......बस इस बार ठान लिया था, अब लगभग १० दिन होने को हैं , मैंने चाय नहीं पी........दो तीन चार दिन तकलीफ़ तो हुई......मैं आपसे शेयर करना चाहता हूं कि उस तकलीफ़ के लिए मैंने क्या किया......उस के लिए मैं दिन में दो एक बार तो कोई ओमीप्राज़ोल नामक कैप्सूल (जो एसिडिटी को कंट्रोल करता है) लिया करता था.....एक तो खाली पेट.......जिस से मुझे काफी मदद मिली।
तीन चार दिन तो मैं सिरदर्द से परेशान रहा......लेटा ही रहा लगभग.....कभी कोई दवा भी ले लिया करता था। फिर तीन चार दिन के बाद सब सेटल होने लगा।
जैसा कि मैंने लिखा है कि मुझे चाय से कोई घृणा नहीं है, लेकिन इस के बिना जब बाहर नशा टूटने जैसे लक्षण पैदा होने लगते हैं तो बहुत ज़्यादा दिक्कत हो जाती है......इसलिए अब इस से किनारा करने का ही फैसला कर लिया है।
इन तीन चार दिनों के दौरान जब मैं चाय के withdrawal symptoms (नशा टूटने जैसे लक्षण)..झेल रहा था तो मैं बार बार यही सोच रहा था कि एक चाय को छोड़ना अगर इतना मुश्किल है तो दूसरे नशों को छोड़ना भी तो उतना ही मुश्किल होता होगा........शायद इस से भी ज़्यादा......इसलिए इन सब तंबाकू, शराब, ड्रग्स आदि घातक पदार्थों से दूर ही रहना चाहिए........
एक खुशखबरी.....जब से चाय छोड़ी है, फिर से प्रातःकाल का भ्रमण नियमित हो रहा है, प्राणायाम् भी फिर से शुरु किया है और ध्यान भी दो बार तो हो ही जाता है।
इसी बात पर यह गाना ध्यान में आ गया.......कितना आसां है कहना भूल जाओ, कितना मुश्किल है पर भूल जाना.....यह गाना मुझे बहुत पसंद है....यह फिल्म मैंने 1981 जनवरी में अमृतसर की नंदन टाकीज़ में देखी थी....
चाय मैं अकसर चार बार तो ले ही लेता हूं.....मात्रा हम लोग कम ही लेते हैं......छोटे छोटे कांच के गिलास और प्यालियां हैं...दो बार तो सुबह और दो बार शाम को चाय हो जाती है। लेकिन मैं अपनी ड्यूटी पर चाय कभी नहीं पीता.....अपवाद केवल वे दिन होते हैं शायद महीने में एक दो बार जब मीटिंग में चाय पिलाई जाती है, मैं वहां भी पीना नहीं चाहता, लेकिन वही फार्मेलिटि का ढोंग तो करना ही पड़ता है।
आप सोच रहे होंगे कि अगर तुम्हें चाय इतनी ही पसंद है तो फिर यह नफ़रत वाली बात क्यों कर रहे हो। इस के ही कारण मैं आप से शेयर करना चाहता हूं।
घर में चाय पीने में कोई दिक्कत नहीं ... लेकिन मैं आप को यह भी बताना चाहता हूं कि मैंने बीस वर्ष पहले सिद्ध समाधि योग के प्रोग्राम किए....वहां पर चाय तो छुड़वा ही देते हैं......दो तीन दिन तकलीफ़ हुई....बाद में ध्यान ही नहीं जाता था....जब इन योगा एवं ध्यान प्रोग्रामों के Silence Retreats के लिए आश्रम जाना होता....चार दिन, एक सप्ताह और २८ िदन तक....तब वहां भी चाय का ध्यान नहीं आता था.....वातावरण ही कुछ ऐसा रहता है इन रमणीक स्थानों का..।
वैसे भी अगर हम नियमित ध्यान करते हैं तो फिर चाय आदि उत्तेजक पेय उस में बाधक हैं....ये ध्यान होने नहीं देते क्योंकि हम लोग सेटल ही नहीं हो पाते।
यह तो थी थ्यूरी की बातें......सब कुछ पता होते हुए भी मैंने तीन-चार वर्षों में ही चाय फिर से पीनी शुरू कर दी......फिर कुछ वर्षों बाद ध्यान आया...फिर कुछ समय के लिए छोड़ दी......यह सिलसिला तीन चार बार तो चल ही चुका है...जहां तक मुझे याद है।
सफ़र के दौरान चाय नहीं लेता..........मुझे नहीं याद कि मैंने कभी सफ़र के दौरान चाय ली हो.....कितना भी लंबा सफ़र हो, चाय मैं बाहर की नहीं ले पाता....अब होता यह है कि जब तक सफ़र खत्म होने वाला होता है चाय न पीने की वजह से मेरा हाल बुरा हो चुका होता है.....बिल्कुल वही सब बातें जो नशा छूटने पर होने लगती हैं......एसिडिटी, मितली आना, सिर भारी, सिरदर्द, बेचैनी....ऐसा मेरे साथ लगभग हर लंबे सफ़र के बाद होता ही है।
चाय के साथ बिस्कुट, भुजिया.......एक बात और भी है कि इस देश में खाली चाय को पीना जैसे अशुभ सा माना जाता है, मुझे ऐसा लगता है। जितना बार चाय उतनी बार भारी भारी बिस्कुट और भुजिया खाते खाते अब लगने लगा है कि बढ़ती उम्र के साथ साथ खाने में थोड़ा तो नियंत्रण करना ही होगा। कुछ दिनों से यह सोच रहा था कि चाय पीना ही बंद कर दूं ताकि ये सब अनाप-शनाप खाद्य पदार्थों पर भी अपने आप अंकुश लग जाएगा।
शर्बत जैसी मीठी चाय.......एक और बुरी आदत है कि अच्छी कड़क चाय और काफ़ी मीठे वाली चाय ही मुझे पसंद है। अब इतना मीठा खा खा के कैसे कोई ठीक रह पाएगा?
इन सब कारणों के रहते मैंने इस बार एक लंबे सफ़र के दौरान निश्चय किया कि अब इस चाय को त्याग ही देना है......बस इस बार ठान लिया था, अब लगभग १० दिन होने को हैं , मैंने चाय नहीं पी........दो तीन चार दिन तकलीफ़ तो हुई......मैं आपसे शेयर करना चाहता हूं कि उस तकलीफ़ के लिए मैंने क्या किया......उस के लिए मैं दिन में दो एक बार तो कोई ओमीप्राज़ोल नामक कैप्सूल (जो एसिडिटी को कंट्रोल करता है) लिया करता था.....एक तो खाली पेट.......जिस से मुझे काफी मदद मिली।
तीन चार दिन तो मैं सिरदर्द से परेशान रहा......लेटा ही रहा लगभग.....कभी कोई दवा भी ले लिया करता था। फिर तीन चार दिन के बाद सब सेटल होने लगा।
जैसा कि मैंने लिखा है कि मुझे चाय से कोई घृणा नहीं है, लेकिन इस के बिना जब बाहर नशा टूटने जैसे लक्षण पैदा होने लगते हैं तो बहुत ज़्यादा दिक्कत हो जाती है......इसलिए अब इस से किनारा करने का ही फैसला कर लिया है।
इन तीन चार दिनों के दौरान जब मैं चाय के withdrawal symptoms (नशा टूटने जैसे लक्षण)..झेल रहा था तो मैं बार बार यही सोच रहा था कि एक चाय को छोड़ना अगर इतना मुश्किल है तो दूसरे नशों को छोड़ना भी तो उतना ही मुश्किल होता होगा........शायद इस से भी ज़्यादा......इसलिए इन सब तंबाकू, शराब, ड्रग्स आदि घातक पदार्थों से दूर ही रहना चाहिए........
एक खुशखबरी.....जब से चाय छोड़ी है, फिर से प्रातःकाल का भ्रमण नियमित हो रहा है, प्राणायाम् भी फिर से शुरु किया है और ध्यान भी दो बार तो हो ही जाता है।
इसी बात पर यह गाना ध्यान में आ गया.......कितना आसां है कहना भूल जाओ, कितना मुश्किल है पर भूल जाना.....यह गाना मुझे बहुत पसंद है....यह फिल्म मैंने 1981 जनवरी में अमृतसर की नंदन टाकीज़ में देखी थी....