सोमवार, 2 सितंबर 2024

'कोप भवन' से होते होते मामला आ पहुंचा 'रेज रूम' तक ....



कोप भवन....पता नहीं कितने बरसों बाद यह शब्द मुझे कल अचानक याद आ गया ….मैं इसे मां के मुंह से सुना करता था…और वह भी जब हमारे बच्चे छोटे थे तब….बच्चे बड़े हो गए …और मां भी न रहीं तो यह शब्द फिर से कहने वाला कोई था नहीं। 


मां कब कहती थीं इस लफ़्ज़ को …..जब बच्चे छोटे थे, इतने भी छोटे नहीं …उन के स्कूल-कॉलेज के दिनों की बातें हैं….जब कभी आपस में भिड़ जाते, तो फिर जो उस दिन का विक्टम कार्ड जिस के पास होता, वह मां के कमरे में जा कर उस के डबल-बेड पर पड़ी एक एक्स्ट्रा रज़ाई में जा कर दुबक जाता ….और वैसे भी जब कोई किसी दूसरे कारण की वजह से भी गुस्से में होता तो भी यही रास्ता अपनाया जाता ….और मां खुल कर हंसते हंसते उन को मनाते हुए ठेठ पंजाबी में कह देतीं…वे तुसीं इस कमरे नूं कोप भवन समझया होया ए, जेहड़ा गुस्से चा हुंदै, ओही एत्थे आ के पै जांदै….(तुम लोगों ने इस कमरे को कोप भवन तो नहीं समझा हुआ, जो भी गुस्से में होता है, परेशान होता है, इस की शरण में आ जाता है ….)


मैं नहीं कहता .....किताबों में लिखा है यारो....

खैर, मां की सीख से और वक्त के मलहम से कुछ ही घंटों में वह बात आई-गई हो जाती और भूख सताने लगती तो कोप भवन से बाहर निकल कर, सुलह-सफाई हो जाती। कईं बार अगर कोप-भवन में प्रवेश रात के वक्त किया जाता तो फिर सुबह उठने पर ही वहां से बाहर आया जाता …


चूंकि मां को सभी तरह के धार्मिक पढ़ने में रूचि थी, विशेषकर रामायण में तो बहुत ज़्यादा, इसलिए वह हमें उस युग के कोप-भवन के बारे में अकसर बताया करती थीं…लेकिन मैंने तो फिर भी यह पोस्ट लिखने से पहले गूगल से पूछ ही लिया …कोप भवन सर्च कर के ….उसने भी मां की बात को तसदीक कर दिया….तो यह तो हुआ कोप भवन…..


अब इस पोस्ट के शीर्षक में जो दूसरा शब्द आया है ….रेज रूम…उस के बारे में भी बात करनी है …दरअसल मैं टाइम्स ऑफ इंडिया तो रोज़ ज़रूर देखता ही हूं …उसे पढ़ना ज़रूरी इसलिए भी है क्योंकि हम लोग टीवी देखते नहीं ….न ही कोई टाटा-स्काई वाई है …न ही चाहते हैं…एक लेड-स्क्रीन है, जिस पर कभी कभी नेटफ्लिक्स या अमेज़न का कोई शो देख लेते हैं …हां, अखबार पढ़ने का मतलब है बीस-तीस मिनट में जितनी पढ़ी जाए या सफर के दौरान जितनी देख लूं, उतनी ही ….न तो कभी ड्यूटी पर उसे खोलने की फ़ुर्सत मिली और न ही बाद में शाम में कभी ….सुबह देखते वक्त जो खबर लंबी होती है और बाद में पढ़ने लायक होती है तो उस को मार्क कर लेता हूं, लेकिन अकसर नहीं पढ़ पाता ….इसलिए कभी कभी अगले दिन उस की कतरन ले लेता हूं…अपने मन की शांति के लिए रख ज़रूर लेता हूं लेकिन पढ़ कभी नहीं पाता ….जब इस तरह की कतरनें इक्ट्ठा हो जाती हैं तो वे भी रद्दी की टोकरी में जा पहुंचती हैं…


फोटो साभार .टाइम्स ऑफ इंडिया 

फोटो साभार .टाइम्स ऑफ इंडिया 

खैर, पिछले हफ्ते मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया में एक खबर पढ़ी जिस में रेज-रूम के बारे में बताया गया था …मुझे बहुत ज़्यादा हैरानी हुई …उस स्टोरी को भी मार्क तो किया था, लेकिन बाद में वह अखबार ही न मिली। कल जब मिड-डे में भी रेज-रूम के बारे में कुछ पढ़ा तो फिर से वह फीचर याद आ गया….गूगल से मिल भी गया …बताते हैं उस में ऐसा क्या लिक्खा है कि मैं उसे सात-आठ दिनों के बाद भी भूल नहीं पाया…


चलिए, पहले तनाव की, गुस्से की, तनाव से जूझने की थोड़ी बात करें ….सब से पहले तो मुझे इस तरह के मामले में सभी तरह के उपदेश न तो किसी को देने और न ही लेने पसंद हैं…नापसंद तो एक बात हो गई, मुझे नफ़रत है….इसी चक्कर में मैंने सत्संग में जाना बंद कर दिया था ….मुझे उन दिनों भी यही लगता था कि यह जो बंदा या बंदी ऊपर सिंहासन पर बैठ कर इतना भारी भरकम ज्ञान पेल रहा है, यह तो सब हमारे ग्रंथों में लिखा ही है…और यह बंदा तो हमारे जैसा ही है, हमारी जैसी ही इस की कमज़ोरियां हैं, यह सिंहासन इस को इस के वंशजों से मिला, आगे यह अगली पीढ़ी को थमा देगा, फाईव-स्टार ज़िंदगी जी रहा है …बस, ऐसे करते करते इन सत्संगों-वंगों से मन उचाट सा हो गया….यार, सारा ज्ञान हम सब जानते हैं, लेकिन उस पर चलते नहीं …..


और हां, ये जो अखबारों में या सोशल मीडिया पर आए दिन लेख दिखते हैं न ..बहुत से तो डाक्टरों के लिखे हुए भी …..कि तनाव को, गुस्से को कैसे कंट्रोल करें…..ये सब भी मुझे इतने उपयोगी लगते नहीं क्योंकि मैं देखता हूं कि इन को लिखने वाले खुद तो इन सब से उभर नहीं पाए…इसीलिए वही बात लगती है ..पर उपदेश कुशल बहुतेरे ….। और वैसे भी जिस तन लागे, वो तन जाने ….किसी के लिेेेए नसीहत की घुट्टियां देना हम बहुत अच्छे से जानते हैं लेकिन खुद हम अपने आप को इन सब से ऊपर समझते हैं…..ऐसा कुछ है नहीं…


मैं ऐसा मानता हूं कि नसीहत-वसीहत से कुछ होता नहीं …गुस्सा आना, तनाव में रहना …ये सब जीवनशैली, किसी व्यक्ति की मनोवृत्ति, उस के खानपान, उस के दोस्तों की टोली…..इन सब से जुड़ी है, कितना भी ज्ञान ठेल देंगे, कुछ होने वाला नहीं ….हम लोग भी तो बीसियों साल से यह सब पढ़ते आए हैं, हम ने कौन सा तीर मार लिए….


हां, तीर तो नहीं मार लिए, लेकिन गुस्सा से भिड़ने का अपना एक ढंग सीख लिया है ….पहले मुझे यही लग रहा था कि इस पोस्ट का शीर्षक ही यही लिखूं ..गुस्सा आए तो क्या करें…पी जाएं, निकाल लें या कोई पागलपंथी कर जाएं…..लेकिन फिर कोप-भवन का ख्याल आया तो वही लिख दिया….


गुस्से आने पर हर किसी का अपना अपना कोपिंग-मेकेनिज़्म है, कोई नुस्खा हो नहीं सकता, ….अच्छी बात है जब तक किसी दूसरे को या खुद को कोई नुकसान नहीं पहुंचता, सब ठीक है….और हां, जब गुस्सा आता है तो हम बडे़ बड़े ज्ञानियों-ध्यानियों की बोझिल बातों को क्या करें जब हम इतना तो कर नहीं सकते कि तुरंत गहरा सांस लेना ही शुरू कर दें ….कहते हैं कि यह बहुत अच्छा तरीका है, उस गुस्से वाली घड़ी को टालने का ……लेकिन इतना भी कब किसी को याद रहता है, उस वक्त तो भूत सवार हुआ होता है ….कि तुमने मुझे ऐसा कहा तो कहा कैसे, तेरी यह मज़ाल, देखता हूं………बिल्कुल पागलपन जैसी अवस्था …वैसे भी कहते हैं कि गुस्से में  आवेश में बंदा पागल जैसा हो ही जाता है ……..और ज्ञानी लोग तो यह भी लिख कर जा चुके हैं कि गुस्से में तो किसी चिट्ठी का जवाब भी मत लिखो…..तो फिर किसी दूसरे के साथ उलझने का तो सवाल ही कहां पैदा होता है ….



हर बंदे ने इस गुस्से रूपी इस सिरफिरेपन से बाहर निकलने का अपना कोई तरीका रखा होता है….मेरा क्या है? तो सुनिए….जो भी इंसान मेरा दिल दुखाता है मैं उसे मन ही मन इतनी इतनी भयंकर गालियां दे देता हूं कि सच में थोड़ी बहुत राहत तो मिल ही जाती है….लेकिन अगर फिर भी लगे कि अभी भी कुछ रह गया है तो अपने दो पहिया वाहन में अकेले कहीं आते जाते वक्त वही गालियां रिपीट कर देता हूं ….लेकिन अब दिल में नहीं, हेल्मेट लगाया होता है तो आसानी से उनका उच्चारण कर लेता हूं …अच्छी राहत मिल जाती है ….लेकिन कईं बार ऐसा भी होता है कि कोई इंसान आप से इतनी ज़्यादा बदतमीज़ी से पेश आता है कि आप वहां तो कुछ कर नहीं पाते ….(करना भी नहीं चाहिए, युवा लोग मेरी यह सीख ज़रूर गांठ बांध लें..) लेकिन फिर मैं पहली फुर्सत में कागज़ और पैन लेकर बैठ जाता हूं …उस घटना के बारे में लिखता हूं ….और जितना भी गालियों का भंडार मेरे पास है और वह भी ठेठ पंजाबी गालियों का (आप ने भी देखा होगा गालियों की भी भाषा होती है, सभी का अनूठा ज़ायका होता है …अवधी में अलग, मैथिली में अलग, पंजाबी मे अलग…..) और भावावेश में अगर मैं दो चार और भी नईं इजाद कर लेता हूं तो उसे भी लिख देता हूं ….देखते ही देखते दो तीन पन्ने भर जाते हैं …बस उस वक्त मेरे पास अच्छा काग़ज़ और बाल-प्वाईंट पैन या जैल पैन होना चाहिए …..(फाउंटेन पेन से लिखता हूं वैस तो हमेशा, लेकिन वह शांति से, इत्मीनान से लिखने के साधन हैं, गुस्से में काम नहीं करते) …क्योंकि दिलो-दिमाग से जो निकल रहा है, उसे तुरंत काग़ज़ पर छापना ज़रूरी होता है….वरना अगले ही पल वह गुम हो जाता है ….


चलिए, दो चार पन्ने लिख लिया, गुब्बार निकल गया….फिर उन पन्नों को दो तीन बार पढ़ता हूं, मज़ा आता है, हंसी भी आती है ….मन एक दम हल्का महसूस होने लगता है ….अब उन पन्नों का क्या करें, मैं अपने बेटों की तरह इतना निडर भी नहीं कि उन पन्नों को ऐसे ही कहीं रख दूं….अब उन पन्नों के सुरक्षित डिस्पोज़ल का मुद्दा मेरे सामने होता है….तो वह कोई मुश्किल काम नहीं होता, उन पन्नों के छोटे छोटे चीथड़े कर के फल्श में बहा देता हूं और कईं बार तो कंटैंट ऐसा होता है कि उन पन्नों को आग लगा देता दूं ……..क्योंकि इन पन्नों पर ऐसा कुछ लिखा होता है कि अगर जिस बंदे के लिए मैंने वह लिखा होता है, अगर उस तक पहुंच जाएं वह काग़ज़ तो वह या तो मेरे नाम की सुपारी ही ले ले या खुद को ही कोई नुकसान पहुंच ले ……मैं इन दोनों में से कुछ नहीं चाहता, क्योंकि वह मेरा मक़सद नहीं होता, मेरा मक़सद तो मन की शांति वापिस लाना होता है, उथल-पुथल शांत करना होता है और शांति का क्या है, वह इतना करने पर अमूमन वापिस लौट ही जाती है …


एक बात और भी तो है, हमारे पूर्व-संस्कार होते हैं, पूर्वाग्रह भी होते ही हैं, कईं बार वे इस तरह से लिख कर गुस्सा निकालने के आड़े आते हैं तो हम अपना सब से अचूक हथियार इस्तेमाल कर लेते हैं…..गुस्सा पीने की, निकालने की, कोई दूसरी पागलपंथी की ज़रूरत नहीं पड़ती, मैं 15-20 मिनट के लिए शांति से बैठ जाता हूं ….मेडीटेशन हो जाती है ….सब से अचूक, सब से कारगर, सब से बढ़िया, सब से प्यारा, सब से खूबसूरत तरीका तो गुस्से से, तनाव से निकलने का यही है …और यही मेरा अनुभव है, ज़िंदगी में यही सीखा है………लेकिन यह किसी के लिए न सीख है, न ही उपदेश है, क्योंकि जैसे मुझे नसीहत से चिढ़ है, ऐसे बहुत से लोगों को होती है, हर किसी को अपने कोपिंग-मेकेनिज़्म का खुद अविष्कार करने का हक है…..और यह ज़रूरी भी है ….


ठीक है, हक है ….लेकिन फिर भी मुझे यह जो टाइ्म्स ऑफ इंडिया में जो न्यूज़-स्टोरी दिखी कि लोग आज कल अपना गुस्सा निकालने के लिए रेज-रूम में चले जाते हैं ….जहां वे आधा घंटा रहते हैं…वहां चीज़े तोड़ते-फोड़ते हैं, कांच का सामान, टीवी आदि हथोड़े से तोड़ते हैं ….500 रूपए से 2500 रुपए तक का खर्च एक सैशन के लिए करना पड़ता है ….हल्के हो कर घर लौट जाते हैं…लेकिन खबर में भी लिखा था कि मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह एक टेम्परेरी सा तरीका है गुस्सा निकालने का …ज़ाहिर सी बात है …वैसे इस तरह के जो बिजनेस चलाते हैं, वह लिखते हैं कि महीने में दो तीन बार से ज़्यादा लोग जो उन के पास इस तरह की तोड़-फोड़ से राहत ढूंढने आते हैं, तो उन के लिए वे किसी मनोवैज्ञानिक से परामर्श भी मुहैया करवा देते हैं…चलिए, अच्छा करते हैं अगर वे सच में यह सब कर के इन परेशान लोगों की मदद करते हैं….अच्छी बात है….


तोड़-फोड़ से बात याद आई ….जब बच्चे छोटे होते हैं, उन में एनर्जी ज़्यादा होती है और वे इसे ऐसे ही खुराफात करने में लगाए रहते हैं तो कुछ बीस साल पहले हमें भी कहीं से यह ज्ञान मिला की घर में एक पंचिंग बैग टांग दिया जाए…..और बच्चों को उस के साथ मुक्केबाजी करने को कहना चाहिए…हम भी फिरोजपुर छावनी के किसी बाज़ार से ले आए एक फौजी झोला टाइप …जो लंबा सा रहता है मिलेट्री कलर में …अब उसमें भरें क्या, हमने अपनी बुद्धि के मुताबिक उसमें रेत भर के टांग दिया उसे सूली पर …..और बच्चे लगे उसे मुक्के मारने, लेकिन यह क्या, पता नही यार क्या था, रेत ज्यादा भर दी, या बच्चों के हाथ नाजुक थे, उन के हाथ तो चोटिल होने लगे ….फिर वे हाथों में बॉक्सिंग ग्लव्स पहन कर यह करतब करने लगे ….लेकिन ज़्यादा दिन यह सिलसिला चला नहीं, हम ने उसे उतार कर उस मुसीबत से छुटकारा पा लिया ….. आगे की बात तो मैं पहले ही बता चुका हूं …मां के कमरे को इन लोगों ने कोप-भवन बना कर रख दिया…


हां, तो यह जो आज कल रेज-रूम की बात चल रही है, कोई बड़ी बात नहीं, यह आने वाले दिनों में आम बात हो जाएगी….आज से 20-25 साल पहले जब मैंने लिखना शुरु किया तो बड़े शहरों में कुछ जगहों पर हु्क्का-पार्लर खुलने की बात बहुत अजीब लगती थी …लेकिन देखते ही हुक्का-पार्लर छोटे बड़े शहरों में आम से हो गए …एक फैशन ही बन गया।फिर भी मुझे लगता है कि हम लोगों की संस्कृति इतनी समृद्ध है, पीढ़ी-दर-पीढीं हमारे संस्कार इतने बढ़िया हैं, कि हमें इस तरह के रेज-रूम्स की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए….वहां तक बात पहुंचनी ही नहीं चाहिए….मेरे विचार उस न्यूज़ स्टोरी से बहुत उद्वेलित हुए….


और हां, एक बात तो मैं कहनी भूल ही गया ….वह मैं पूरे विश्वास के साथ एक नसीहत के तौर पर भी लिख सकता हूं कि गुस्से पर काबू पाने के लिए एक ब्लॉग ही लिखना शुरु कर दीजिए…..बहुत कारगर है यह भी ….अब आप ही देखिए, जितना भड़ास मैंने खुद 2000 से ज़्यादा अल्फ़ाज़ का खामखां का एक किस्सा लिख कर निकाल ली, वह मौका मुझे और कौन सा प्लेटफार्म देता ……वैसे,जब मैंने 2007 में ब्लॉग लिखना शुरु किया था तो उस वक्त किसी का एक ब्लाग ही होता था …भड़ास…….और वह बहुत पापुलर ब्लॉग होता था….


बस, पोस्ट बंद करते करते यही इत्लिजा है कि खुश रहिए, स्वस्थ रहिए, मस्त रहिए, ठीक है, गु्स्से का भी बंदोबस्त करते रहिए अपने हिसाब से, अपने विवेक के अनुसार…लेकिन कुछ भी हो, खुद को किसी भी तरह से नुकसान पहुंचा कर, सी-लिंंक से या अटल सेतू से छलांग लगा कर अपनी ज़िंदगी की खूबसूरत सी कहानी को ही खत्म कर देना, यह तो कोई बात न हुई….दुनिया तो शुरु से ऐसी ही है और ऐसी ही रहेगी…..सारी धरा से कांटे बिनने की की बजाए  पुख्ता, मजबूत तलवों वाले जूते पहनें जाएं तो क्या बढ़िया नहीं है ….


वैसे अगर आप उस रेज-रूम वाली न्यूज-स्टोरी देखना चाहिए तो खुशी से देखिए, यह रहा उस का लिंक(ऊपर जो फोटो लगी हैं, उसी स्टोरी में से ही ली गई हैं) ..Rage Rooms Find Takers Among Urban Indians …. और नीचे मैं कल के मिड-डे में प्रकाशित हुई स्टोरी की भी दो फोटो लगा रहा हूं….


स्त्रियों को अपनी शेल्फ-डिफेंस के लिए तो जो भी ज़रूरी हो करना ही चाहिए

मिड-डे , मुंबई  01.9.2024 


अब वक्त है मूड को ठीक करने का ….तो सुनिए, यह सुंदर गीत …एक गुड़िया गुस्से में है, और उस की मां उसे कितने प्यार से मना रही है …बेहद सुंदर गीत, मजरूर सुल्तानपुरी के बोल, लता जी की मधुर, लाजवाब, कोयल जैसी आवाज़, 1964 की फिल्म, मेरे प्रकट होने से भी दो साल पहले …अकसर रेडियो पर बजा करता था ….दिल को छू लेने वाला मेरा पसंदीदा गीत ....



और एक बात ....सब से हाथ जोड़ कर एक विनती है कि मेरे से वैसे ही पेश आइए जैसे मैं आप से शालीनता से पेश आता हूं ....मैं किसी से उलझता नहीं हूं, पीछे हट जाता हूं....लेकिन जब कभी तकलीफ ज़्यादा होती है तो फिर मेरा काम भी बढ़ जाता है....अलग बैठ कर, लिख कर अपनी भड़ास निकालने का ...(जैसा मैंने ऊपर लिखा है)....अब यह कोई राज़ नहीं रहा, आप जान चुके हैं....😎😂

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