मैं मीट, मछली, अंडा नहीं खाता, इस का बिल्कुल भी धार्मिक कारण नहीं है ...एक तो मुझे अच्छा नहीं लगता और दूसरा मुझे मैडीकल/वैज्ञानिक नजरिये से भी (इस को भी आप अधिकतर पर्सनल ही समझिए) ठीक नहीं लगता ....जिसे ठीक लगता हो, वह खाये, पिए...हर एक की अपनी मरजी है .. क्या ख्याल है? लेकिन मुझे यह सब खाने वालों से रती भर का कोई परहेज नहीं है ... परिवार में ही कुछ खाते हैं, कुछ नहीं खाते ...पर्सनल च्वाईस..!!
उसी तरह से मैं बाहर कुछ भी खाना पसंद नहीं करता हूं जाहिर सी बात है इस का भी कोई ऐसा-वैसा कारण नहीं है.....बिल्कुल भी नहीं है, खूब खाते ही रहे हैं....लेकिन मुझे पता है कुछ लोग धर्म-जाति के फ़िज़ूल के चक्कर में भी बाहर नहीं खाते .. लेकिन मैं यह जानता हूं कि कारण कुछ भी हो, जो लोग बाहर नहीं खाते वे बड़े बुद्धिमान होते हैं ....यह मैं ५५ साल की उम्र में कह रहा हूं....सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को जाती है जैसे, बिल्कुल वैसे ही ....इतनी उम्र हो गई बाहर से बहुत कुछ खाया ..लेकिन अब विभिन्न कारणों की वजह से बाहर का कुछ भी अच्छा नहीं लगता... कुछ अहम् कारण तो ये हैं .. मिलावटखोरी, गंदा घी, नकली घी, मिलावटी तेल, नकली दूध....लालच और इस के साथ साथ हमारी लगातार गिरती हुई सोच ...मुझे मुनाफ़ा चाहिए, किसी की सेहत का मैंने ठेका नहीं ले रखा ...
मुझे अपने पेशे की वजह से बहुत से लोगों के साथ उन के खाने-पीने के बारे में बात करने का मौका मिलता है .. कुछ तो इतने कट्टर मिलते हैं ..विशेषकर पुराने लोग ...जो बाहर चाय भी नहीं पीते ...मैं इस की छानबीन कभी नहीं करता कि उन का बाहर न खाने का क्या कारण है ...कारण कुछ भी हो, लेकिन मेरी नज़र में वे सब लोग बहुत समझदार होते हैं...
नये नये नौकरी पर लगे युवक आते हैं....सारे बताते हैं कि वे स्वयं खाना बनाते हैं, जो लोग मिल कर रहते हैं वे मिल जुल खाना बना लेते हैं...दरअसल आज की तारीख में यह दकियानूसी सोच की रोटी बनाना औरतों का ही काम है, इसलिए बेटों को यह सब सीखने-करने की कोई ज़रूरत नहीं है, यह बिल्कुल सड़ी-गली सोच है, इस से हम लोग भविष्य में होने वाली दुश्वारियों के चलते लाड़लों की सेहत ही खराब करते हैं .. ऐसी भी दर्जनों उदाहरणें देखी हुई हैं मैंने ..
बाहर कुछ ढंग का नहीं मिल सकता ...घर में साधारण खाना भी पौष्टिकता से भरपूर होता है और बाहर का दो दिन पुराना शाही पनीर भी बीमारी का कारण!
दो दिन पहले यादव जी आए ...६५ के करीब की उम्र थी ..रिटायर्ड थे ...अच्छे हृष्ट-पुष्ट थे...मैंने उन के पूछने पर बताया कि मैं अमृतसर से हूं ...कहने लगे कि मैं भी १९७० के दशक के आसपास वहां रहा था .. क्या गजब की जगह है, बताने लगे कि रिश्तेदार अभी भी वहीं हैं...बता रहे थे कि बाहर से कुछ भी नहीं खाता, लईया-चना-सत्तू ही लेकर चलता हूं सफर में भी ...एक रोचक बात बताई उन्होंने जो विरले लोगों के लिए प्रैक्टीकल हो सकती है ..बताने लगे कि ड्यूटी पर बाहर भी जाता था ..दिल्ली विल्ली कभी ...तो मेरे बैग में थोड़े से चावल, दाल, नमक, मिर्च, हल्दी....एक प्याज, एक दो आलू, धनिया..होता ही है..किसी भी बाग-बगीचे के चौकीदार से पतीली मांग कर वहीं पर तहरी तैयार कर लेता हूं ..उसी समय उसे पतीली लौटा देता हूं....मैंने कहा कि आग का क्या जुगाड़ ?.....हंस के कहने लगा कि लकड़ीयों की क्या कमी है साहब यहां पर, यहां वहां से उठा कर काम चल जाता था।
ऐसा अनुभव मैंने पहली बार सुना था ...और ऐसे ही मेरे मुंह से निकल गया ...और अगर अमृतसर में कुछ खाना हो तो ... तो वह उछल पडा़ ...साहब, वहां की तो बात ही कुछ और है ...वहां की तो मुझे मिट्टी मिले तो मैं वह भी खा जाऊं...
अमृतसर की मिट्टी से इतना लगाव देख कर मैं भी भाव-विभोर हो गया ...मैंने कहा कि यह तो मेरे जैसी सोच है ...मैं भी बाहर कुछ नहीं खाता...लेकिन अमृतसर में जा कर मैं कुछ भी खा सकता हूं..
यहां लखनऊ में हम लोग आए तो शुरू शुरू में दो तीन बहुत बड़े रेस्टरां में गये .. एक बार खाने में एक कीड़ा निकला और दूसरी बार एक छोटा सा कॉकरोच ...मसाला डोसा खाते वक्त यह हुआ....उस दिन के बाद मैंने तो तौबा कर ली ...फिर दूसरी चीज़ें तो खाते-पीते ही रहे ...बस, खाना ही नहीं खाते थे ...लेकिन इधर कुछ समय से मिलावट के ऐसे ऐसे किस्से सुन लिेये हैं कि अब तो खौफ़ लगता है कुछ भी बाहर खाने से ...और फूड-हैंडलिंग की बात न ही करें तो ठीक है!
जब भी बाहर खाया...अच्छे से अच्छे रेस्टरां में भी , हर बार तबीयत खराब ही करवाई ...कईं बार अगले दिन सुधर गई और कईं बार हार कर चार पांच दिन दवाईयां खाने की सिरदर्दी पल्ले पड़ गई ...
और लोगों को भी यह सब समझाते रहते हैं...लेकिन हमारे कहने से लोग गुटखा-पान मसाला नहीं छोड़ते तो बाहर से खाना कैसे छोड़ सकते हैं!!
मेरे ख्याल में बंद करूं इस बात को यहीं पर ....ऐसे ही आज इस पर लिखने लग गया ....दरअसल अपने अमृतसर के स्कूल वाले ग्रुप में हमारे एक साथी ने अमृतसर के एक नामचीन रेस्टरां में पूड़ी-छोले की प्लेट की वीडियो भेजी जिसे मैं यहां एम्बेड कर रहा हूं... आप भी देखिए ....इस तरह का बाहर खाते-पीते हमारा ध्यान कभी आचार की तरफ़ तो जाता ही नहीं है, क्या ख्याल है, हम इस तरह के कीड़े वीड़े तो अमरूदों में ढूंढते फिरते हैं ...किस तरह से आचार में कीड़े पड़े हुए थे....इस वीडियो को सहेज कर रख लिया है ....अगली बार यादव जी आए तो उन के संज्ञान में भी लाना ज़रूरी है .... वे भी गल्तफहमी से बाहर निकलें ....और मैं तो इस गल्तफहमी से बिलकुल बाहर आ गया कि अमृतसर में तो मैं कहीं से भी कुछ भी खा-पी सकता हूं ...
शुक्रिया, सुनील भाई, इस वीडियो के लिए .. और हां, जब मुझे यह वीडियो मिली तो मुझ से खुली नहीं, नेटवर्क नहीं था शायद, वीडियो से पहले सुनील का संदेश दिखा कि फलां फलां रेस्टरां के पूडी़-छोले छके जा रहे हैं....मैंने कोशिश की कि उसे वह वीडियो भेजूं ...कि खाओ, पियो, ऐश करो मितरो, दिल पर किसे दा दुखायो ना...शुक्र है यह वीडियो मैंने उसे भेज नहीं दी ...क्योंकि असली माजरा तो उस की पूड़ी-छोले वाली वीडियो और गाजर का अचार देख कर ही समझ में आया...
और मुझे यहां यह भी बताना ज़रूरी लगता है कि मैं जब एक दो दिन कहीं बाहर होता हूं तो क्या करता हूं....फ्रूट चाट बनाता हूं, सलाद बना लेता हूं ... और सूखी भेल, और कोई ब्रांडेड चिवड़ा खा लेता हूं...मिष्ठी दही लेता हूं ...चाय बना लेता हूं, खिचड़ी भी बना लेता हूं ...घर में ...भगवान का शुक्र है कि यादव जी जैसा जुगाड़ करने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी ....रब्बा वे, तेरा लख लख शुकर है ....
उसी तरह से मैं बाहर कुछ भी खाना पसंद नहीं करता हूं जाहिर सी बात है इस का भी कोई ऐसा-वैसा कारण नहीं है.....बिल्कुल भी नहीं है, खूब खाते ही रहे हैं....लेकिन मुझे पता है कुछ लोग धर्म-जाति के फ़िज़ूल के चक्कर में भी बाहर नहीं खाते .. लेकिन मैं यह जानता हूं कि कारण कुछ भी हो, जो लोग बाहर नहीं खाते वे बड़े बुद्धिमान होते हैं ....यह मैं ५५ साल की उम्र में कह रहा हूं....सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को जाती है जैसे, बिल्कुल वैसे ही ....इतनी उम्र हो गई बाहर से बहुत कुछ खाया ..लेकिन अब विभिन्न कारणों की वजह से बाहर का कुछ भी अच्छा नहीं लगता... कुछ अहम् कारण तो ये हैं .. मिलावटखोरी, गंदा घी, नकली घी, मिलावटी तेल, नकली दूध....लालच और इस के साथ साथ हमारी लगातार गिरती हुई सोच ...मुझे मुनाफ़ा चाहिए, किसी की सेहत का मैंने ठेका नहीं ले रखा ...
मुझे अपने पेशे की वजह से बहुत से लोगों के साथ उन के खाने-पीने के बारे में बात करने का मौका मिलता है .. कुछ तो इतने कट्टर मिलते हैं ..विशेषकर पुराने लोग ...जो बाहर चाय भी नहीं पीते ...मैं इस की छानबीन कभी नहीं करता कि उन का बाहर न खाने का क्या कारण है ...कारण कुछ भी हो, लेकिन मेरी नज़र में वे सब लोग बहुत समझदार होते हैं...
नये नये नौकरी पर लगे युवक आते हैं....सारे बताते हैं कि वे स्वयं खाना बनाते हैं, जो लोग मिल कर रहते हैं वे मिल जुल खाना बना लेते हैं...दरअसल आज की तारीख में यह दकियानूसी सोच की रोटी बनाना औरतों का ही काम है, इसलिए बेटों को यह सब सीखने-करने की कोई ज़रूरत नहीं है, यह बिल्कुल सड़ी-गली सोच है, इस से हम लोग भविष्य में होने वाली दुश्वारियों के चलते लाड़लों की सेहत ही खराब करते हैं .. ऐसी भी दर्जनों उदाहरणें देखी हुई हैं मैंने ..
बाहर कुछ ढंग का नहीं मिल सकता ...घर में साधारण खाना भी पौष्टिकता से भरपूर होता है और बाहर का दो दिन पुराना शाही पनीर भी बीमारी का कारण!
दो दिन पहले यादव जी आए ...६५ के करीब की उम्र थी ..रिटायर्ड थे ...अच्छे हृष्ट-पुष्ट थे...मैंने उन के पूछने पर बताया कि मैं अमृतसर से हूं ...कहने लगे कि मैं भी १९७० के दशक के आसपास वहां रहा था .. क्या गजब की जगह है, बताने लगे कि रिश्तेदार अभी भी वहीं हैं...बता रहे थे कि बाहर से कुछ भी नहीं खाता, लईया-चना-सत्तू ही लेकर चलता हूं सफर में भी ...एक रोचक बात बताई उन्होंने जो विरले लोगों के लिए प्रैक्टीकल हो सकती है ..बताने लगे कि ड्यूटी पर बाहर भी जाता था ..दिल्ली विल्ली कभी ...तो मेरे बैग में थोड़े से चावल, दाल, नमक, मिर्च, हल्दी....एक प्याज, एक दो आलू, धनिया..होता ही है..किसी भी बाग-बगीचे के चौकीदार से पतीली मांग कर वहीं पर तहरी तैयार कर लेता हूं ..उसी समय उसे पतीली लौटा देता हूं....मैंने कहा कि आग का क्या जुगाड़ ?.....हंस के कहने लगा कि लकड़ीयों की क्या कमी है साहब यहां पर, यहां वहां से उठा कर काम चल जाता था।
ऐसा अनुभव मैंने पहली बार सुना था ...और ऐसे ही मेरे मुंह से निकल गया ...और अगर अमृतसर में कुछ खाना हो तो ... तो वह उछल पडा़ ...साहब, वहां की तो बात ही कुछ और है ...वहां की तो मुझे मिट्टी मिले तो मैं वह भी खा जाऊं...
अमृतसर की मिट्टी से इतना लगाव देख कर मैं भी भाव-विभोर हो गया ...मैंने कहा कि यह तो मेरे जैसी सोच है ...मैं भी बाहर कुछ नहीं खाता...लेकिन अमृतसर में जा कर मैं कुछ भी खा सकता हूं..
यहां लखनऊ में हम लोग आए तो शुरू शुरू में दो तीन बहुत बड़े रेस्टरां में गये .. एक बार खाने में एक कीड़ा निकला और दूसरी बार एक छोटा सा कॉकरोच ...मसाला डोसा खाते वक्त यह हुआ....उस दिन के बाद मैंने तो तौबा कर ली ...फिर दूसरी चीज़ें तो खाते-पीते ही रहे ...बस, खाना ही नहीं खाते थे ...लेकिन इधर कुछ समय से मिलावट के ऐसे ऐसे किस्से सुन लिेये हैं कि अब तो खौफ़ लगता है कुछ भी बाहर खाने से ...और फूड-हैंडलिंग की बात न ही करें तो ठीक है!
जब भी बाहर खाया...अच्छे से अच्छे रेस्टरां में भी , हर बार तबीयत खराब ही करवाई ...कईं बार अगले दिन सुधर गई और कईं बार हार कर चार पांच दिन दवाईयां खाने की सिरदर्दी पल्ले पड़ गई ...
और लोगों को भी यह सब समझाते रहते हैं...लेकिन हमारे कहने से लोग गुटखा-पान मसाला नहीं छोड़ते तो बाहर से खाना कैसे छोड़ सकते हैं!!
मेरे ख्याल में बंद करूं इस बात को यहीं पर ....ऐसे ही आज इस पर लिखने लग गया ....दरअसल अपने अमृतसर के स्कूल वाले ग्रुप में हमारे एक साथी ने अमृतसर के एक नामचीन रेस्टरां में पूड़ी-छोले की प्लेट की वीडियो भेजी जिसे मैं यहां एम्बेड कर रहा हूं... आप भी देखिए ....इस तरह का बाहर खाते-पीते हमारा ध्यान कभी आचार की तरफ़ तो जाता ही नहीं है, क्या ख्याल है, हम इस तरह के कीड़े वीड़े तो अमरूदों में ढूंढते फिरते हैं ...किस तरह से आचार में कीड़े पड़े हुए थे....इस वीडियो को सहेज कर रख लिया है ....अगली बार यादव जी आए तो उन के संज्ञान में भी लाना ज़रूरी है .... वे भी गल्तफहमी से बाहर निकलें ....और मैं तो इस गल्तफहमी से बिलकुल बाहर आ गया कि अमृतसर में तो मैं कहीं से भी कुछ भी खा-पी सकता हूं ...
शुक्रिया, सुनील भाई, इस वीडियो के लिए .. और हां, जब मुझे यह वीडियो मिली तो मुझ से खुली नहीं, नेटवर्क नहीं था शायद, वीडियो से पहले सुनील का संदेश दिखा कि फलां फलां रेस्टरां के पूडी़-छोले छके जा रहे हैं....मैंने कोशिश की कि उसे वह वीडियो भेजूं ...कि खाओ, पियो, ऐश करो मितरो, दिल पर किसे दा दुखायो ना...शुक्र है यह वीडियो मैंने उसे भेज नहीं दी ...क्योंकि असली माजरा तो उस की पूड़ी-छोले वाली वीडियो और गाजर का अचार देख कर ही समझ में आया...
और मुझे यहां यह भी बताना ज़रूरी लगता है कि मैं जब एक दो दिन कहीं बाहर होता हूं तो क्या करता हूं....फ्रूट चाट बनाता हूं, सलाद बना लेता हूं ... और सूखी भेल, और कोई ब्रांडेड चिवड़ा खा लेता हूं...मिष्ठी दही लेता हूं ...चाय बना लेता हूं, खिचड़ी भी बना लेता हूं ...घर में ...भगवान का शुक्र है कि यादव जी जैसा जुगाड़ करने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी ....रब्बा वे, तेरा लख लख शुकर है ....
अब इस पोस्ट के मूड के साथ मिलता जुलता गाना लगा दें ?
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