शनिवार, 15 अक्टूबर 2016

किताबें झांकती हैं, बातें करती हैं..

आज यहां लखनऊ में एक और पुस्तक मेला शुरू होने जा रहा है ... कईं बार जाऊंगा वहां इन तारीखों में .. चुन चुन कर बड़े नामचीन लेखकों की कुछ पुस्तकें हम लोग वहां से खरीद भी लाएंगे लेकिन यह कोई भरोसा नहीं कि पढ़ेंगे कब!

अभी सुबह जागी नहीं है ...साढ़े चार बजे हैं..ऐसे ही ध्यान आ रहा है कि किताबों, पत्रिकाओं एवं कॉमिक्स से जुड़ी अपनी यादों पर कुछ लिखा जाए... 

बरकत अपना मित्र है, पंजाबी भाषा में लिखता है ... उस के घर में हर तरफ़ किताबें बिखरी रहती हैं..पिछली बार मिला तो बताने लगा कि उस की बीबी और बीवी को हर समय यही चिंता रहती है कि किताबें कब और कैसे सिमटेंगी....कईं बार उसे सलाह मिल चुकी है कि कार्डबोर्ड ेके डिब्बों में बंद कर के इन्हें संभाल ले, एक लिस्ट बना ले और जिस किताब से वास्ता हो, उसे बाद में पलंग से नीचे रखे डिब्बे से निकाल लिया करे ...लेकिन इस सुझाव को बरकत हमेशा सुना-अनसुना कर देता है ...ठहाके लगा कर कहने लगा कि सामने पड़ी हुई किताबों को तो छूने की फ़ुर्सत नहीं मिलती .. .अब डिब्बे से निकालने की कौन ज़हमत उठाएगा! 

बरकत ने एक दिल को छूने वाली बात यह भी कह दी कि उसे पता है अंत में कभी न कभी तो इन बेचारी किताबों का नसीब डिब्बे में बंद होना ही है ...लेकिन जब तक सामने दिखती हैं तो एक आस बंधी रहती है कि मैला आंचल, राग-दरबारी, झूठा सच, गोदान जैसी कालजयी रचनाएं हाथों तक पहुंच ही जाएंगी कभी भूले-भटके ..

 मैं उस की बात सुन रहा था .. तो गुलजार साहब की वह कविता रह रह कर मेरे मन में आ रही थी ...

किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से 

बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो कदरें वो सुनाती थी कि जिनके 
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फ़ाज़
जिनपर अब कोई मानी नहीं उगते
जबां पर जो ज़ायका आता था जो सफ़ा पलटने का
अब ऊँगली क्लिक करने से बस झपकी गुजरती है
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, वो कट गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे!! 
(गुलज़ार) 

दिनांक १५ अक्टूबर २०१६ 
यह पोस्ट मैंने कल सुबह ४.३० बजे लिखनी शुरू तो की ..लेकिन फिर नींद आ गई थी...सोच रहा हूं कि इस विषय पर जो कहना है एक पोस्ट के जरिये नहीं हो पाएगा...इस पर कभी फिर से लिखूंगा ..अभी तो बस सफदर हाश्मी साहब की इस बात का ध्यान आ रहा है ...

किताबें करती हैं बातें..
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की, कल की
एक-एक पल की
गमों की, फूलों की

बमों की, गनों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में रॉकेट का राज है
किताबों में साइंस की आवाज है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं..
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

(सफ़दर हाश्मी)

बचपन के उन स्कूली दिनों के बाद जब चंदामामा, नंदन, लोट-पोट, मोटू-पतलू, मायापुरी को पहले से आखिरी पन्ने तक पढ़ने-देखने के बाद ही भूख लगा करती थी, याद नहीं उन दिनों के बाद कब किस किताब को पूरा पढ़ा था...शायद कभी नहीं, पाठ्य पुस्तकों तक को भी नहीं...वहां भी वही चुन चुन कर पढ़ने की हिमाकत !




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