आज एक न्यूयार्क-टाइम्स के एक पेज पर नज़र पड़ी जिस में एक व्यक्ति ने विशेषज्ञ ने यह पूछा था कि क्या बड़ी उम्र के लोगों को खसरे से बचाव का टीका फिर से लगवाना चाहिए।
उत्तर में विशेषज्ञ ने साफ साफ बता दिया कि अगर तो आप का जन्म १९५७ के पहले हुआ है तो कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन अगर आप का जन्म १९५७ के बाद का है तो आप को इसे लगवा लेना चाहिए।
Do i need a measles shot?
खसरा अर्थात् मीसल्ज़ का टीका अन्य दो बीमारियों से बचाव के टीके के साथ ही लगता है जिसे एमएमआर वैक्सीन कहते हैं।
१९५७ वाली बात मेरे को कुछ अजीब सी लगी, जिज्ञासा हुई कि यह १९५७ का क्या चक्कर है? लेकिन सीडीसी की साइट पर इस का सटीक जवाब भी मिल गया... जिन लोगों का जन्म १९५७ से पहले हुआ, उन लोगों का जीवनकाल उस समय के दौरान गुज़रा जब मीसल्ज़ का पहला टीका नहीं आया था ...इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि उन लोगों में मीसल्ज़ की बीमारी हो चुकी होगी। सर्वे से भी यही पता चला है कि ९५ से ९८ प्रतिशत लोग जिन का जन्म १९५७ से पहले का है, उन में से ९५ से ९८ प्रतिशत लोगों में इस बीमारी की इम्यूनिटी है --अर्था्त् उन में इस के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता उपलब्ध है। साथ में यह भी लिखा था कि यह १९५७ का नियम केवल मीसल्ज़ और मम्स दो
बीमारियों के लिए लागू है, यह रूबैला पर लागू नहीं है।
अब अगला प्रश्न था कि क्या जिन लोगों को १९६० के दशक में एमएमआर जैसे टीके लगे हों, क्या उन को फिर से ये टीके लगवाने होंगे?.... यह कोई इतना ज़रूरी नहीं है। जिन लोगों के पास तो इस तरह का कोई रिकार्ड उपलब्ध है कि १९६० में उन्हें लाइव मीसल्ज वैक्सीन लग चुका है, उन्हें तो इसे फिर से लगवाने की ज़रूरत नहीं है।
जिन लोगों का यह टीकाकरण १९६८ से पहले हुआ है और उन में निष्क्रिय (मृत) मीसल्ज वैक्सीन का या ऐसे वैक्सीन का इस्तेमाल किया गया हो जिन का उन्हें अब पता नहीं---ऐसे लोगों को इस नये लाइव एटैन्यूएटेड वैक्सीन की एक खुराक हासिल कर लेनी चाहिए। यह सिफारिश केवल उन लोगों के लिए है जिन को ऐसे मीसल्ज़ टीके से वैक्सीनेट किया गया जो कि १९६३-१९६७ के बीच उपलब्ध तो था लेकिन वह इस रोग की रोकथाम के लिए प्रभावी नहीं था।
उत्तर में विशेषज्ञ ने साफ साफ बता दिया कि अगर तो आप का जन्म १९५७ के पहले हुआ है तो कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन अगर आप का जन्म १९५७ के बाद का है तो आप को इसे लगवा लेना चाहिए।
Do i need a measles shot?
खसरा अर्थात् मीसल्ज़ का टीका अन्य दो बीमारियों से बचाव के टीके के साथ ही लगता है जिसे एमएमआर वैक्सीन कहते हैं।
१९५७ वाली बात मेरे को कुछ अजीब सी लगी, जिज्ञासा हुई कि यह १९५७ का क्या चक्कर है? लेकिन सीडीसी की साइट पर इस का सटीक जवाब भी मिल गया... जिन लोगों का जन्म १९५७ से पहले हुआ, उन लोगों का जीवनकाल उस समय के दौरान गुज़रा जब मीसल्ज़ का पहला टीका नहीं आया था ...इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि उन लोगों में मीसल्ज़ की बीमारी हो चुकी होगी। सर्वे से भी यही पता चला है कि ९५ से ९८ प्रतिशत लोग जिन का जन्म १९५७ से पहले का है, उन में से ९५ से ९८ प्रतिशत लोगों में इस बीमारी की इम्यूनिटी है --अर्था्त् उन में इस के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता उपलब्ध है। साथ में यह भी लिखा था कि यह १९५७ का नियम केवल मीसल्ज़ और मम्स दो
बीमारियों के लिए लागू है, यह रूबैला पर लागू नहीं है।
अब अगला प्रश्न था कि क्या जिन लोगों को १९६० के दशक में एमएमआर जैसे टीके लगे हों, क्या उन को फिर से ये टीके लगवाने होंगे?.... यह कोई इतना ज़रूरी नहीं है। जिन लोगों के पास तो इस तरह का कोई रिकार्ड उपलब्ध है कि १९६० में उन्हें लाइव मीसल्ज वैक्सीन लग चुका है, उन्हें तो इसे फिर से लगवाने की ज़रूरत नहीं है।
जिन लोगों का यह टीकाकरण १९६८ से पहले हुआ है और उन में निष्क्रिय (मृत) मीसल्ज वैक्सीन का या ऐसे वैक्सीन का इस्तेमाल किया गया हो जिन का उन्हें अब पता नहीं---ऐसे लोगों को इस नये लाइव एटैन्यूएटेड वैक्सीन की एक खुराक हासिल कर लेनी चाहिए। यह सिफारिश केवल उन लोगों के लिए है जिन को ऐसे मीसल्ज़ टीके से वैक्सीनेट किया गया जो कि १९६३-१९६७ के बीच उपलब्ध तो था लेकिन वह इस रोग की रोकथाम के लिए प्रभावी नहीं था।
बहुत भारी हो गया ना आप सब के लिए यह समझना ...१९५७ की लक्ष्मण-रेखा, मृत टीका, लाइव टीका...यह सब कुछ ज्यादा ही डाक्टरी झाड़ने जैसा लग रहो होगा आपको। कोई बात नहीं कुछ खबरें बस केवल ध्यान में रखने के लिए ही काफी होती हैं। इस बात को भी ध्यान में रखिए।
अमेरिका में तो वैसे यह समस्या इतनी नहीं है लेकिन फिर भी देशवासियों के स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाने का उन का संक्लप प्रशंसनीय है। सोचने वाली बात यही है कि भारत में इस तरह की जानकारी लोगों पर विश्वसनीय सोत्रों से विशेषकर सरकारी वेबसाइटों पर क्यों उपलब्ध नहीं है, और वह भी हिंदी में ....वैसे तो इंगलिश में ही कुछ खास उपलब्ध नहीं है तो हिंदी में कब आयेगा, कौन बता सकता है!
लेकिन इस तरह की सेहत से संबंधित जानकारी हिंदी में ही उपलब्ध होनी चाहिए। इंगलिश को हम चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोग तो पढ़-समझ भी लें, एक गैर-चिकित्सक के लिए यह सब समझना इतना आसान नहीं है।
सब कोई आवाज़े लगा रहा है कि हिंदी मे कंटैंट बढ़ना चाहिए, हर कोई कह रहा है... हर तरफ़ से ज़ोर ज़ोर से आवाज़ें आ तो रही हैं, लेिकन जो लोग हिंदी में कंटैंंट तैयार कर रहे हैं, उन की भी कोई सोचेगा या उन के हाथ में कटोरा ही ठीक है। ऐसे नहीं बढ़ता कंटैंट-वैंट, दुनिया में काफ़ी काम हैं ठीक है शौक से किए जा रहे हैं, और लोग कर रहे हैं, मिशन समझ कर लोग अपनी धुन में लगे हुए हैं, लेकिन जो बंदा सारा दिन हिंदी का कंटैंट ही तैयार करता रहेगा, उस की और उस के परिवार की भी तो ज़रूरते होंगी, वह कौन पूरी करेगा? इसलिए मुझे यह सब आडंबर लगता है कि हम किसी को भी इमोशनल ब्लैकमेल करते रहें कि हिंदी भाषा अपनी है, इस में लिखो, ऑनलाइन कंटैंट तैयार करो, लेकिन तैयार करने वाले का ध्यान कौन करेगा?
चलिए इस बात पर अभी मिट्टी डालते हैं और आप को कुछ अच्छे से लिंक दे रहा हूं जहां से आपको ऊपर दिए गये प्रश्नों के जवाब तलाशने में सुविधा रहेगी। पाठकों से अनुरोध है कि अपने बारे में फिर से टीका लगवाने के बारे में निर्णय लेने से पहले अपने फ़िजिशियन से इस की चर्चा कर लें। यहां तो वैसे ही यह बीमारी इतनी व्यापक स्तर पर है कि शायद आप को भी वैसे ही प्राकृतिक इम्यूनिटी प्राप्त हो चुकी हो। फिर भी ज़्यादा जानकारी नीचे दिए गये लिंक्स पर जा कर पाई जा सकती है........
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