मंगलवार, 26 जुलाई 2011

रहिमन निज मन की बिथा....

मैं आज कोई बात कर रहा था कि कोई बात मैंने फलां फलां को बताई.... पता नहीं कैसे ठीक उसी समय महान कवि रहीम जी के दोहों को रट रहा था ...अचानक उसने शायद एक दोहा मेरे को समझाना ज़रूरी समझा .. जो कि मैं भी तुरंत ही समझ गया। और मैंने उस से यह वायदा किया कि अब आगे से रहीम जी की बात को ध्यान में रखा जाएगा ...ध्यान में क्या, उस पर अमल किया जायेगा।
आदमी जिस परिवेश में जिस क्षेत्र में पलता बढ़ता है उस एरिया के सभी गुण सहज ही उस में आ ही जाते हैं, मैं इस बात पर पूर्ण विश्वास करने लगा हूं।
हरेक को अपनी जन्मभूमि से प्यार होता है ... मुझे भी है अमृतसर से ...जहां मेरा जन्म हुआ और सारी पढ़ाई-लिखाई वहीं पर हुई... वहां के लोगों की विशेषता है कि बड़े खुले विचारों के हैं, यह नहीं कि हर बात छुपा छुपा कर के रखना-करना.... सब कुछ एकदम खुल्लम खुल्ला.... छिपाने का कोई चक्कर ही नहीं।
लेकिन धीरे धीरे अब समझ आने लगी है कि रहीम बाबा ठीक ही कहते हैं ...कोशिश करूंगा कि अब इस पर पूर्ण अमल करूं ... वरना लोगों का क्या है, बस जैसे अमृतसर में अकसर हम यार-दोस्त कह दिया करते थे कि बस, यार, कुछ नहीं .....बस सुक्के स्वाद...... सच में किसी की परेशानियों से किसी को कोई लेना-देना नहीं होता, हम हरेक के आगे बंद मुट्ठी खोलने की भूल करते रहते हैं।
हां, हां, लिख रहा हूं वह दोहा जो बेटा मेरे को सुना कर उस पर अमल करने के लिये कह रहा था ......
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बांटि न लैहैं कोय ।।
बेटे की नोट बुक में उस ने इस का अर्थ यह लिखा हुआ है – रहीम मनुष्य को सलाह देते हुए कहते हैं कि हमें अपने मन की पीड़ा, तकलीफ़, दुःख, दर्द को छिपा कर रखना चाहिए अर्थात् उन्हें हर किसी के सामने नहीं प्रकट करना चाहिए क्योंकि हमारी तकलीफ़ को सुन कर उनको कोई बांट तो लेगा नहीं बल्कि हमारी हंसी और उड़ायेगा अर्थात् हमारी तकलीफ़ से वह मज़े ज़रूर करेगा।
ठीक ए, राघव, अज तो तेरी गल मन लई यार, गल तो एह मैंनूं वी बड़े कम दी लग्गी ऐ......ऐस्से ही तरां यार वधीया वधीया गल्लां दसदा रिहा कर .... ताकि पापा भी अपनी कमियां दूर करता रहे।
चलो, गुज़रा जमाना ही याद कर लेते हैं ....

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