यहां तो भई यौन-शिक्षा पर कभी भी न बनेगी एक राय.......
दो तीन पहले मैं अपने 10साल के बेटे के साथ हेयर-ड्रैसर की दुकान पर बैठा अपनी बारी की इंतज़ार कर रहा था....उस के टीवी पर केबल टीवी पर दिखाई जाने वाली वही हिंदी डबिंग वाली कोई अंग्रेज़ी फिल्म चल रही थी। दो-तीन मिनट बाद एक जबरदस्त चुंबन का सीन आ गया.....अब मेरा बेटा मेरे मुंह की तरफ़ देख रहा था और मुझे स्वयं इस कद्र शर्मसार होना पड़ रहा था जैसे कि इस में मेरा ही कोई कसूर है। खैर, घर में होता तो जिस किसी के हाथ में भी रिमोट होता है वो इस तरह के सीन की दूर-दूर की संभावना होते होते ही रिमोट का बटन दबा देता है, लेकिन नाई की दुकान पर चल रहे चैनल पर तो अपनी मर्ज़ी नहीं ना चलती।
हां, तो आज के अखबार में एक बार फिर से एक खबर दिखी है ...जिस का शीर्षक है....यौन-शिक्षा पर नहीं बन रही एक राय। उस खबर के पहले पैरे को यहां लिख रहा हूं....बच्चों को यौन शिक्षा देने के लिए उपयुक्त पाठ्यक्रम पर एक राय नहीं बन पा रही है। यहां, यूनीसेफ व नाको द्वारा तैयार पाठ्यपुस्तकों में ज़रूरत से ज्यादा खुलापन नज़र आ रहा है, वहीं नाको ने किशोर शिक्षा कार्यक्रम पर जिन पुस्तकों को तैयार किया है, वो युवा संगठनों, शिक्षाविदों को कुछ ज्यादा ही संकुचित लगती हैं। उन्होंने इसमें संशोधन की मांग की है।
अगले पैरे मैं यहां लिख नहीं रहा हूं क्योंकि इस तरह की खबरें मैं और आप देख कर, पढ़ कर , सुन-सुन कर थक चुके हैं। बच्चों की यौन शिक्षा भी तो भई एक राष्ट्रीय मुद्दा ही हो गया है......आए दिन कोई न कोई दिखती है कि वहां वहां स्कूल किताब में यह शिक्षा इस तरह से दी जा रही है, वहां उस ढंग से दी जा रही है.......कोई ग्रुप तो पूरी तरह से इस तरह की शिक्षा का घोर विरोध कर रहा है। कईं जगहों पर तो बड़े विरोध होने लगते हैं।........पिछले कितने ही सालों से यह सब कुछ चलता चला जा रहा है।
यह सब देख कर बेहद दुख हो रहा है कि इस सौ करोड़ से भी ज़्यादा के देश में क्या इतने सुलझे हुये लोग भी नहीं हैं जो बच्चों की सैक्स शिक्षा का प्रारूप तैयार कर सकें।
कारण पता है क्या है....हम लोग दोगले हैं....मुझे अपनी एक प्रोफैसर के शब्द याद आ रहे हैं......हीर-रांझा के किस्से सारे लोगों को बहुत पसंद हैं....लेकिन शर्त है कि हीर पड़ोसी के घर से संबंध रखने वाली हो। कोई भी परिवार यह गवारा नहीं करता कि हीर उस के घर से हो।
ठीक है, अब तक यौन शिक्षा पर एक राय नहीं बन पाई है.....तो क्या टीवी पर जो रोज़ाना जबरदस्त अश्लीलता परोसी जा रही है.....उस पर कोई मां का लाल रोक लगा सकता है.....!! और तो और इंटरनेट पर जो कुछ भी आज बच्चों को उपलब्ध है, उस को कौन कंट्रोल कर सकता है.....क्या है यह किसी के बश की बात !!
तो फिर यौन शिक्षा की एक राय बनाने के लिये इतना रोना-धोना आखिर क्यों......कुछ भी करो,लेकिन भई एक बार शुरू तो करो..... उस सिस्टम में जो खामियां समय के साथ नज़र आएंगी उन्हें तुरंत दूर किया जा सकता है। लेकिन, हम सब को अपनी आंखों से यह संकीर्णता का चश्मा तुरंत ही उतार फैंकने की बहुत ज़रूरत है।
आप का क्या ख्याल है ?
कारण पता है क्या है....हम लोग दोगले हैं....मुझे अपनी एक प्रोफैसर के शब्द याद आ रहे हैं......हीर-रांझा के किस्से सारे लोगों को बहुत पसंद हैं....लेकिन शर्त है कि हीर पड़ोसी के घर से संबंध रखने वाली हो। कोई भी परिवार यह गवारा नहीं करता कि हीर उस के घर से हो।
जवाब देंहटाएंआप सही कह रहे हैं। हम सब त्रिशंकु हैं। नए भी बनना चाहते हैं और पुराना पन भी नहीं छोड़ पाते।
"...लेकिन शर्त है कि हीर पड़ोसी के घर से संबंध रखने वाली हो। कोई भी परिवार यह गवारा नहीं करता कि हीर उस के घर से हो।"
जवाब देंहटाएंkitani sahi baat kahi dr sahab aapne.hum hindustani kabhi nahi badlane wale
प्रवीन भाई
जवाब देंहटाएंआपने ठीक लिखा है। आपसे सहमत भी हूं। यह हमारा दोगला नहीं मानसिक कमीनापन है।
१८ साल का था मैं जब मेडिकल कालेज में दाखिल हुआ था। रैगिंग में पहले दिन सीनियर ने पूछा, "बता साले, बच्चा कहां से पैदा होता है?" मैंने कहा "पेट से"। सच में मुझे यही लगता था कि यही सच है। सब सीनियरों की हंसी का पात्र तो बना ही, पुरजोर पिटाई भी हुई। पढ़ाई में अव्वल रहने वाले मेरे जैसे छात्र का यह हाल हो सकता है, तो कई और भी तो होंगे जो बिलकुल ही अनभिज्ञ होंगे "ऐसी बातों" से! वो कहते हैं न, "सच कड़वा होता है", तो आइये एक बार दिल पर पत्थर रखकर निगल लें इस कड़वे सच को। बाकी जो होगा, देखा जायेगा।
जवाब देंहटाएंहम सब को अपनी आंखों से यह संकीर्णता का चश्मा तुरंत ही उतार फैंकने की बहुत ज़रूरत है।
जवाब देंहटाएंaapse sahmat hoon....
भ्रांतियों और सामाजिक रोगों से मुक्ति के लिए यौन शिक्षा निहायत जरूरी है। जितनी जल्दी शुरू हो अच्छा है। वरना जमींदोज तरीकों से तो यह सब चल ही रहा है।
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण आलेख..
जवाब देंहटाएंहां टीवी इसमें कोई सहायता कर सकता है मुझे नहीं लगता.
बीमार मानसिकता के लोगों के द्वारा थोपे कार्यक्रम संभालते नहीं बिगाड़ते हैं.