मंगलवार, 10 नवंबर 2009

मोटापा से होता है मधुमेह का रिस्क 90 गुणा

आज सुबह मैं CNN की साईट पर डायबिटीज़ से संबंधित लेख पढ़ रहा था। कुछ बातें यहां दोहराने योग्य हैं ---हम में से बहुत से लोग पहले ही से इन्हें जानते हैं लेकिन फिर भी पुनरावृत्ति ज़रूरी है।

यह तो हम सब जानते ही हैं कि भारत में मधुमेह की समस्या इतनी विकराल हो गई है और दिन प्रतिदिन यह ऐसी विकट हो रही है कि इंडिया पर सारे विश्व में डायबिटीज़ की राजधानी होने का ठप्पा लगाया जा रहा है।

विकसित देशों में भी यह बहुत बड़ी समस्या है। अमेरिका में ही 240 लाख लोगों को डायबिटीज़ है, और 57 लाख लोगों की अवस्था प्री-डायबिटीज़ वाली है। अब यह प्री-डायबिटीज़ का क्या चक्कर है ? जब हम लोग खाली पेट ब्लड-शुगर का टैस्ट करवाते हैं तो 99mg% तक तो नार्मल है, 100-125 mg% को प्री-डायबिटिक कहा जाता है जिन में अभी बीमारी तो नहीं है लेकिन उन्हें अपनी जीवनशैली एवं खानपान में पूरी एहतियात की ज़रूरत है और जिन लोगों में फास्टिंग ब्लड-शुगर की मात्रा 126 एवं उस से ऊपर आती है उन को डायबिटिक लेबल किया जाता है।

दो बातें टाइप वन एंड टू डायबिटीज़ के बारे में करते हैं --- अधिकांश टाइप 1 डायबिटीज़ के केसों का अठराह वर्ष ( under 18) से कम उम्र में पता चल जाता है। इसे टाइप 1 इसलिये कहा जाता है क्योंकि यह एक ऑटोइम्यून डिसीज़ है जिस में पैनक्रिया ग्रंथी में मौजूद सैल( कोशिकायें) जो इंसुलिन बनाते हैं नष्ट हो जाते हैं जिस की वजह से इंसुलिन नहीं बन पाती और मधुमेह की बीमारी हो जाती है।

Type I Diabetes cases are mostly detected in under 18 years of age though it can strike at any age. It is an autoimmune disease in which the insulin-producing cells of the pancrease get destroryed which lead to diabetes.

और जहां तक टाइप 2 डायबिटीज़ का सवाल है यह पहले तो बड़ी उ्म्र के लोगों को ही अपना शिकार बनाया करती थी लेकिन अब मोटापा इतना आम सी बात होने के कारण यह बीमारी छोटी उम्र में भी ---यहां तक कि बच्चों को भी ----धर-दबोचने लगी है। टाइप2 डायबिटीज़ में यह होता है कि मरीज के शरीर में इंसुलिन के प्रति इन-सैंसिटिविटी उत्पन्न हो जाती है जिस की वजह से शरीर में ग्लुकोज़ की मात्रा बढ़ी रहती है।

अकसर लोगों में यह धारणा है कि जिस किसी भी परिवार में मधुमेह है बस फिर तो यह अगली पीड़ियों में भी आगे ही चलता है। लेकिन ऐसा नहीं है ---- CNN जैसी विश्वसनीय साइट पर यह जानकारी उपलब्ध है कि रिस्क तो बढ़ता है लेकिन यह धारणा ठीक नहीं है। जिस परिवार में टाइप 1 डायबिटीज़ है, उस में आगे बच्चों को यह बीमारी होने का रिस्क पांच प्रतिशत ज़्यादा होता है और टाइप 2 डायबिटीज़ में यह रिस्क तीस प्रतिशत होता है. इसलिये अगर परिवार में डायबिटीज़ का कोई मरीज़ है तो खाने पीने में एवं शारीरिक परिश्रम करने में तो और भी नियमितता की ज़रूरत है ताकि इस 30% को बस एक आंकड़ा ही बने रहने दिया जाए।

ऐसा भी नहीं कि स्लिम-ट्रिम लोग डायबिटीज़ के शिकार नहीं होते, दुनिया भर के बीस प्रतिशत डायबिटीज़ के रोगी दुबले पतले ही हैं।

हमारे पेट का मोटापा ( abdominal obesity) डायबिटीज़ के लिये सब से खतरनाक है-- क्योंकि इस मोटापे में हमारे शरीर के अंदरूनी अंगों के आसपास जो फैट जमा हो जाता है बस वही हमें ले डूबता है ----लेकिन हमारे देश में तो अकसर जब तक पेट बाहर निकल कर लटकने न जाये तब तक तो उसे खाता-पीता मानते ही नहीं हैं। मोटापा होने से डायबिटीज़ होने का रिस्क 90 गुणा बढ़ जाता है।

पंजाब की तो मैं गारंटी लेता हूं कि वहां पर तो लोगों की सेहत की यही परिभाषा है कि बंदा अच्छा तगड़ा होना चाहिये। शादी से पहले दुबले पतले लोगों को यह कह कह कर सांत्वना दी जाती है कि कोई गल नहीं, विवाह के बाद सब ठीक हो जायेगा। और अकसर होता भी यही है ----सुबह से परांठे, पूरी-छोले, दाल-मक्खनी, मलाई दार लस्सी, ज़्यादा मीठे वाली चाय--मलाई मार के, चिकन-शिकन, बटन चिकन, मच्छी फ्राई,....अब क्या क्या लिखूं ----बस समझिये हर तरफ़ दूध( पता नहीं असली या सिंथैटिक), देसी घी, फ्राई चीज़ों की भरमार और सारा दिन सब जगह इन्हीं के खाने पीने की बातें -------और मेहनत का काम न के बराबर ---ऐसे में भला कैसे फूल के कुप्पा हुये बिना रह सकता है ----लेकिन परिवार वाले , सगे -संबंधी गबरू की सेहत देख देख कर फूले नहीं समाते कि हुन बनी गल----एह होई न गल -----ऐन्नू कहंदे ने सेहत ---- लेकिन यह वाली सेहत साथ में ढ़ेरों बीमारियां भी तो ले आती है।

वैसे दूसरे की बातें क्या करें ----पहले हम लोग अपनी तरफ़ ही क्यों न देखें ----तो फिर आज ही से कम से कम फीकी चाय पीनी शुरू करें , मैं तो कर रहा हूं , आपने क्या सोचा है ?

सोमवार, 9 नवंबर 2009

सूचना के अधिकार कानून के लिये फीस

मैंने सूचना के अधिकार के लिये कुछ समय पहले एक आवेदन किया था ---जिस का जवाब मुझे मिला कि आप पहले सात हज़ार नौ सौ रूपये जमा करवायें क्योंकि इस तरह की सूचना जुटाने के लिये विभाग का इतना खर्च आयेगा ----कुछ वर्कर इतने दिन के लिये यही काम पर लगे रहेंगे, इसलिये उन की उतने दिनों की तनख्वाह मुझे भी भरनी होगी। खैर, मैंने इस की अपील भी की लेकिन फिर वही जवाब आ गया ।
हां, तो आज सुबह आज की पंजाब केसरी अखबार पर जब नज़र पड़ी तो इस के पृष्ट पांच पर यह खबर दिखी जिसे आप से शेयर करना चाह रहा हूं ------लीजिये, पढ़िये ...
सूचना देने के लिये केवल निर्दिष्ट राशि ही वसूली जाएगी : सी आई सी
नई दिल्ली 8 नवंबर -- एक बहुप्रतीक्षित फैसले के तहत केंद्रीय सूचना आयोग ने कहा है कि सूचना मुहैया कराने के लिये आवेदक से सूचना का अधिकार कानून में निर्दिष्ट शुल्क के अलावा कोई राशि की मांग नहीं की जा सकती। सूचना का अधिकार कानून के तहत आवेदन करने वाले लोगों के लिये यह फैसला राहत लेकर आया है क्योंकि जब बड़ी मात्रा में सूचना मांगी जाती है तो दिल्ली पुलिस सहित कई सरकारी एजेंसियां अतिरिक्त शुल्क के तहत लाखों रूपये की राशि का मांग करती हैं. ये सरकारी एजैंसियां इसका हवाला देती हैं सूचना दिखाने के लिये काफी मानव संसाधनों के इस्तेमाल की जरूरत पड़ेगी या उन्हें परिवर्तित करना होगा। इसके लिये आवेदक को प्रशासन की गणना के मुताबिक कार्य दिवसों के आधार पर भुगतान करना होगा।
आप का इस खबर के बारे में क्या ख्याल है ?

सेहत का फंडा ---भाग 2.......इन बच्चों का क्या होगा ?

निर्धन से निर्धन और रईस से रईस के बच्चों को मिल चुका हूं ---इन्हें बिस्कुट के पैकेट, चिप्स, और तरह तरह के जंक फूड के प्यार ने एकता की माला में पिरो कर रखा हुआ है।
यह भी मैंने देखा है कि कारण कोई भी हो मां बाप इस के लिये ज़्यादा टैंशन लेते नहीं हैं और मूर्खता की हद तब दिखती है जब बड़ी शेखी बघेरते हुये हम से ही यही कहते हैं कि इसे तो बस बिस्कुट ही पसंद हैं, जब भी खाता है पूरा पैकेट तुरंत खत्म कर देता है। यह क्या है ? ---- शर्तिया तौर पर मोटापा, ब्लड-प्रैशर, मधुमेह जैसी बीमारियों को आमंत्रण है और क्या है ?
एक बात और बहुत नोटिस की है कि अकसर लोग बिस्कुटों को जंक-फूड में शामिल नहीं करते, लेकिन ऐसी बात नहीं है --- दिन में एक दो बिस्कुट खाने की बात और है और पूरा पूरा पैकेट लपेट लेना कहां की अकलमंदी है ? अब अगर बच्चे पूरा पूरा पैकेट खाने लगेंगे तो खाने के लिये कहां से जगह बचेगी और हो भी यही सब कुछ ही रहा है ।
मुझे बड़ी खीझ होती है कि जब इन्हीं बच्चों के अभिभावक यही कहते हैं कि हमें तो यही लगता है कि बच्चा है ,इस के खाने के यही दिन हैं ---क्या फर्क पड़ता है। लेकिन बहुत फर्क पड़ता है क्योंकि खाने पीने की सारी अच्छी बुरी आदतों की शुरूआत ही इसी उम्र में ही होती हैं।
एक समस्या और भी है कि हमारे यहां दुकानदारों ने एक अच्छा ब्रॉंड तो शायद ही रखा हो लेकिन चालू किस्म के लोकल ब्रांड के बिस्कुटों के दर्जनों ब्रांड इन के यहां मिल जायेंगे।
बिस्कुटों की इतनी खिंचाई होते देख आप को लगता होगा कि क्या डाक्टर बिस्कुट नहीं खाता होगा ? --- ऐसा नहीं है कि मैं नहीं खाता, खूब खाये हैं, पहले इतना कहां लोग सोचा करते थे --खास कर बेकरी वाले बिस्कुट मुझे बहुत ही पसंद हैं। लेकिन वैसे 40 की उम्र पार करने पर बहुत कुछ सोचना ही पड़ता है ----मैं बेकरी वाले बिस्कुट नहीं खाता ---क्योंकि तरह तरह की मिलावटों के बारे में पढ़ कर मन इतना भर चुका है कि जब इन्हें खाने की तलब लगती है तो बेकरियों द्वारा इन के बनाने में इस्तेमाल किये जाने वाले घी के बारे में सोच लेता हूं तो अपने आप तलब शांत हो जाती है ।
कुछ लोग यह भी कह देते हैं कि उस में क्या है, हम लोग अपने सामने अपने मैटीरियल से बेकरी से बिस्कुट तैयार करवा लेते हैं ----शायद यह अच्छा विकल्प है लेकिन फिर भी 35-40 से ऊपर वाली उम्र के लोग इस तरह के पदार्थ जो घी, चीनी भरे होते हैं उऩ से थोड़ा सा बच कर रहा जाये तो ठीक ही लगता है, आप क्या सोच रहे हैं ?
अब तो मैं केवल ब्रिटॉनिया मैरी जैसे एक-दो बिस्कुट ही लेता हूं और मेरे बहुत से डाक्टर मित्र भी यही लेते हैं --- यह कोई पब्लिसिटी शटंट नहीं है --- यह बिस्कुट वैसे ही बहुत हल्का फुल्का है और ब्रिटॉनिया की क्वालिटी के बारे में तो आप जानते ही हैं !!
मुझे इस बात की भी बहुत फिक्र होती है कि जब लोग यह बताते हैं कि उन के बच्चे दालों, सब्जियों से दूर भागते हैं ---- यह अपने आप में एक बहुत ही ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात है --- यह एक ऐसी बात है कि जिस के लिये इन बच्चों के मां-बाप को शोक मनाना चाहिये क्योंकि ऐसे अधिकांश केसों में ऐसा होता है कि इस तरह के बच्चे बड़े होकर भी फिर पिज़्जा, बर्गर, हॉट-डॉग, हाका-नूडल्स पर ही पलते हैं और तरह तरह की शारीरिक व्याधियों के शिकार हुये रहते हैं।
हमारे सारे स्वाद बचपन में ही डिवेल्प होते हैं ----इसलिये यह बहुत ही ज़रूरी है कि हम बच्चों में सब दालों सब्जियों को स्वाद डिवेल्प करवायें। मुझे याद है कि मैं बचपन में केवल करेला खाने में थोड़ा नाटक किया करता था ----इतना बड़ा होने के बाद भी मुझे करेला कभी भी अच्छा नहीं लगा -----कभी कभी एक-दो खा तो लेता हूं लेकिन बस मजबूरी में।
बच्चे स्कूल की कैंटीन से जंक-फूड लेकर खाते रहते हैं ----कुछ अच्छे स्कूलों में तो अब कैंटीनें होती ही नहीं हैं लेकिन बच्चों को घर से भी दिया जाने वाला खाना सेहतमंद होना चाहिये ----लंच-बाक्स में बिस्कुट, चिप्स, भुजिये का क्या काम !!
सोच रहा हूं कि सेहत के फंडे में जितनी बातें पाठकों से शेयर करूंगा वे सभी मैं अपने आप से भी करूंगा, दोहराऊंगा और इंटरोस्पैक्शन करने का अवसर भी मिलता रहेगा कि कहीं दीपक के तले ही अंधेरा तो नहीं है।

सेहत का फंडा ---भाग 1.

मैं इस विषय पर बहुत सोचता हूं कि आखिर अच्छी सेहत का फंडा है क्या। सोच विचार करने के बाद इसी निष्कर्ष पर पहुंचता हूं कि सेहत के लिये कुछ बातें करने की ज़रूरत है और कुछ न करने की।
न करने वाली बातों में सब से अहम् है कि तंबाकू,गुटखे के किसी भी तरह के उपयोग से दूर रहा जाये। शराब -चाहे कितनी भी महंगी क्यों न हो और चाहे कितने ही डाक्टर कहें कि थोड़ी पीने से कुछ नहीं होता --- से पूरी तरह से दूर रहा जाए।
यह लिखते लिखते ध्यान आ रहा है कि सेहत की फंडे की जब बात करते हैं तो यह भी नहीं है कि हम लोग इन बातों से पहले से वाकिफ़ नहीं हैं -- अधिकांश बातें हम लोग पहले से जानते हैं लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि हमें इन बातों को आपस में बार बार दोहराने की ज़रूरत होती है।
कुछ दिनों पहले मैं एक इंटरव्यू लेने गया हुआ था ---वहां नॉन-मैडीकल मैंबर भी थे लेकिन वे सब बिना शक्कर वाली चाय पी रहे थे । कुछ समय बाद मेरे एक सीनियर से बात हो रही थी -बता रहे थे कि उन्होंने कभी भी दूध में चीनी नहीं डाली। शक्कर आदि की ढ़ेरों बुराईयां गिना रहे थे और मेरा बढ़ता वजन देख कर मुझे भी कह रहे थे कि तुम्हें भी मीठे पर कंट्रोल करना चाहिये।
अगर हम लोग इस तरह की छोटी छोटी बातों पर बार बार बात करते हैं तो पता नहीं किस समय किस के मन में कौन सी बात बैठ जाती है।
इसी तरह नमक के इस्तेमाल में भी बहुत ही ज़्यादा एहतियात रखने की ज़रूरत है। वरना कौन सा रोग किसी की कब धर दबोचे यह सब बिना किसी दस्तक के ही हो जाता है।
कुछ भी हो सेहत के लिये परहेज़ तो करना ही होगा, कुछ भी मुंह में डालने से पहले पूरी तरह से सचेत रहते हुये यह निर्णय करना होगा कि इस खाध्य पदार्थ में क्या क्या मिला हुआ है और इन में से किन किन इंग्रिडिऐंट्स के मिलावटी होने की पूरी पूरी आशंका है, क्या यह मेरी सेहत के लिये ज़रूरी है और क्या मैं इस के बिना रह सकता हूं ?
मुझे लगता है कि अगर हम लोग कुछ भी खाने से पहले यह सोच लें तो काफ़ी हद तक हम बहुत सा कचरा खाने से बच सकते हैं ----वैसे मैंने भी यह अप्रोच रखी हूई है और इसी कारण मैं बाज़ार की बहुत सी वस्तुओं से बचने की कोशिश कर लेता हूं।

मरीज़ों की प्राइवेसी की परवाह कैसी ?

आज कल मुंह के कैंसर से बचाव के लिये चले एक जागरूकता अभियान के अंतर्गत एक विज्ञापन फिल्म विभिन्न चैनलों पर दिख रही है ---आशा है आपने भी देखी होगी।
लेकिन इस में आखिर ऐसा क्या है जो मुझे ठीक नहीं लग रहा ? --इस का कारण यह है कि इस में मरीज़ों के चेहरों को दिखाया गया है। इस में मरीज़ों की प्राइवेसी की सम्मान नहीं किया गया।
वैसे यह मुंह के कैंसर से बचाव की जागरूकता अभियान के लिये बनाया गया एक बहुत प्रभावपूर्ण विज्ञापन है लेकिन यह मरीज़ों के चेहरे दिखाने वाली बात अजीब सी लगती है।
मुझे ऐसा लगता है कि जिन मरीज़ों के चेहरे इस फिल्म में दिखाये जाते हैं उन के प्रति कभी भी अगर समाज के द्वारा किसी तरह का भी भेदभाव किया जाए तो यह बहुत गड़बड़ हो जायेगी। वैसे तो एक शिष्ट समाज में जब हम लोग एक मरीज़ की बात किसी के साथ किसी दूसरे के साथ शेयर नहीं करते तो ऐसे में कैसे हम मुंह के कैंसर जैसे रोग से लाचार रोगियों की तस्वीरें इतने व्यापक स्तर पर दिखा सकते हैं।
मानता हूं कि इस तरह की तस्वीरें दिखाने से लोगों के मन में तंबाकू आदि के बारे में डर पैदा होगा। लेकिन हमें बीमार आदमियों एवं उन के परिवारजनों के बारे में भी सोचना चाहिये कि नही ?
अगर तस्वीरें दिखानी ही हैं तो हम क्यों नहीं उन की आंखों पर कुछ इस तरह के डाट्स आदि दिखाते जिन से उन की पहचान को गुप्त रखा जा सके। यह बहुत ज़रूरी है।
कईं बार मैं सोचता हूं कि शायद समाज में आम आदमी की प्राइवेसी का ध्यान रखा ही नहीं जाता। मेरे विचार में यह फिल्म बनाने वालों में संवेदनशीलता की घोर कमी की तरफ़ इशारा करती है। इस तरह के विज्ञापन को तुरंत दुरूस्त किये जाने की ज़रूरत है।
यह तो एक विज्ञापन फिल्म की बात है --अकसर हमारी मैडीकल कि किताबों में भी मरीज़ों की फोटो की आंखों पर काली पट्टी सी लगाई जाती है ताकि उन की पहचान न हो सके। मुंह के कैसर से संबंधित मेरी पोस्टों में भी मैंने मरीज़ों की तस्वीरें इस तरह से ली हैं कि उन फोटो के द्वारा उन की पहचान संभव न हो।
देश में कुछ बहुत बड़े प्रतिष्ठित लोग भी मुंह के कैंसर जैसी बीमारी से जूझ रहे हैं तो ऐसे में इस तरह की विज्ञापन फिल्म में इन हस्तियों का भी कुछ संदेश जनता तक पहुंचा दिया जाता तो शायद ठीक होता। लेकिन शायद इन हाई-फाई लोगों की प्राईवेसी आम आदमी की प्राइवेसी से ज़्यादा मायने रखती है ?
अब अगह कोई यह दलील दे कि उस विज्ञापन फिल्म में जिन मरीज़ों के चेहरों को दिखाया गया है उन से समुचित कंसैंट (सहमति) ली गई है तो भी यह कैसी कंसैंट है, मेरे विचार में तो इस तरह की कंसैंट के बावजूद भी उन का चेहरा इस तरह से ना दिखाया जाए कि कोई भी उन की शिनाख्त कर सके।

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

सी.टी स्कैन से भी होता है ओवर-एक्सपोज़र ?

अमेरिका में हाल ही में कुछ केस सामने आये हैं जिन में सी.टी स्कैन करते समय भूलवश रेडिएशन की डोज़ सामान्य से आठ गुणा तक दे दी गई। इसे लिंक पर क्लिक कर के पूरा पढ़ें...

मैं तो इस खबर के बाद यही सोच रहा हूं कि इस तरह की अवेयरनैस मुझे लगता है कि इस देश में तो नहीं है। अवेयरनेस नहीं, जागृति नहीं तो इसीलिये कोई प्रश्न भी नहीं पूछता।

पीछे आपने भी मीडिया में देखा होगा कि खूब आ रहा था कि बार बार सी.टी स्कैन करवाने से जो रेडिएशन ओवर-एक्सपोज़र हो जाता है वह शरीर के लिये नुकसानदायक है। और अब यह नई बात पता चली कि सी.टी स्कैन करवाते समय भी इस तरह का अंदेशा बना रहता है।

तो इस का समाधान क्या है ? --- सब से पहला तो यह कि यह जो आजकल सी.टी स्कैन करवाने का फैशन सा चल निकला है, इस को रोकना होगा। फैशन ? – आप सोच रहे होंगे कि डाक्टर यह क्या कह रहा है, अब विशेषज्ञ कहते हैं तो हम करवाते हैं, वरना हमें कोई शौक है !!

बीमारों एवं तीमारदारों के साथ पूरी सहानुभूति रखते हुये यह कहने की हिम्मत कर रहा हूं कि आजकल बिना सी.टी स्कैन के कईं बार डाक्टरों की तो बल्कि मरीज़ों की तसल्ली नहीं होती। इस में दो तीन बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं----
--- आप किसी प्राइवेट विशेषज्ञ के पास जाते हैं तो उस के पास जाने से पहले अपनी पूरी तसल्ली कर लें। एक बार उस के चैंबर में दाखिल हो गये तो जहां तक हो सके अपना मैडीकल ज्ञान वेटिंग-रूम में ही छोड़ जाएं --- मरीज़ के लिये ठीक है उस का दुःख नया है लेकिन विशेषज्ञ तो दशकों से ऐसे ही मरीज़ देख रहा है। और अगर आप ने अपनी तरफ़ से कह दिया कि डाक्टर साहब, सी.टी स्कैन करवा लें क्या ? –तो मुझे यह बतलाईये कि अगर आपने सी.टी स्कैन करवाने की ठान ही ली है तो आप को कौन रकता है !! बल्कि अगर विशेषज्ञ जांच करने के बाद उसे वैसे ही सारा माजरा समझ में आ जाता है और वह इस तरह के सी. या एमआरआई करवाने की सलाह ही नहीं देता तो आप बधाई के पात्र हैं।

---अब चलिये कुछ लोगों को जिन्हें उन की कंपनी इस तरह के टैस्टों पर किये जाने वाले खर्च को रिएम्बर्स करती हैं अर्थात् उन्हें सारा पैसा अपने एम्पलॉयर से मिल जाता है। अब इसे कुछ भी कहिये ---लेकिन उन्हें कईं बार लगता है कि चलों, यार, यह बार बार सिरदर्द जा नहीं रहा, कल पैस फिसल गया था, सिरदर्द है, सी.टी हो क्यों न करवा लिया जाए......अब अगर इस तरह के बाशिंदों ने भी यह ठान ही लिया है तो भला है कोई जो इन्हें ऐसा करवाने से रोक पाये ----- बात ज़्यादा होगी तो डाक्टर को यह सुनने को मिल सकता है---आप का क्या जा रहा है, सरकार जब कोई सुविधा दे रही है तो आप क्यों एडवाईज़ नहीं कर रहे ?

--- कुछ सरकारी संस्थान ऐसे हैं जिन्हें अपने मरीज़ो के लिये शहर के प्राइवेट सी.टी,एमआरआई सैंटरों के साथ टाई-अप कर रखा है, जिन्हें वे मरीज़ों की गिनती के अनुसार उस सैंटर के साथ हुये करार की शर्तों के अनुसार मासिक बिलिंग के अनुसार पेमैंट कर देती है। इन में भी मुझे ऐसा लगता है तो कईं बार ( बहुत बार लिखने से डर रहा हूं, अधिक बार लिखने के लिये क्वालीफाईड नहीं हूं , इसलिये कईं बार लिख कर ही काम चला रहा हूं !!) बस ऐसे ही इस तरह के टैस्ट करवा लिये जाते हैं। मैं तो भई प्रामाणिक बात करता हूं ---अगर किसी को इस में कोई शक हो तो क्यों न एक साल में हुये सी.टी स्कैनों में से कितने स्कैनों की रिपोर्ट किसी भी तरह से पाज़िटिव आई, इस का अध्ययन किया जा सकता है। इस तरह के संस्थानों में तो बहुत बार मरीज़ की मरजी चलती है ---अगर उसे बाहर से किसी झोलाछाप चिकित्सक ने भी कह दिया है कि तुम यह सी.टी करवा ही लो, तो फिर कोई डाक्टर उस की ख्वाहिश पूरी न कर के तो देखो, अकसर इस तरह के केसों द्वारा हंगामा, हो-हल्ला किये जाने के डर से डाक्टर आसान ही डगर पकड़ तो लेते हैं लेकिन किस कीमत ? -----सरकारी पैसा गया सो गया, मरीज़ की ख्वाहिश पूरी करने के चक्कर में उस ने बिना वजह रेजिएशन ले लीं ?

----जो मेरा पीजीआई रोहतक में प्रोफैशनल अनुभव रहा है कि वहां पर दो-तीन डाक्टरों की टीम यह तय करती है कि किसी व्यक्ति को इस तरह के टैस्टों की ज़रूरत है कि नहीं .... अगर टैस्टों की ज़रूरत है तो सब्सिडाईज्ड रेट पर इन-हाउस सैंटरों पर ही ये महंगे टैस्ट मरीज़ों को उपलब्ध करवा दिये जाते हैं।

अब एक ऐसी श्रेणी की बात भी कर लें जिन के लिये ये टैस्ट ज़रूरी तो हैं लेकिन जिन्हें झोलाछाप, फुटपाथ-मार्का नकली चिकित्सकों ने इस कद्र उलझा के रखा हुया है कि वे हर बीमारी के पीछे किसी प्रेतात्मा का हाथ बताते रहते हैं ---कईं बार सोचता हूं कि इन चक्करों में उलझे रहना शायद इन कम-खुशकिस्मत लोगों की मजबूरी भी हो सकती है। अगर टैस्ट करवाने को कोई कह भी दे तो पैसे कहां से आएंगे ?

इसी संबंध में एक किस्सा सुना रहा हूं ---लड़का बहुत दिनों से कह रहा था कि पोर्टेबल हार्ड डिस्क लेनी है। कुछ दिन पहले मैं उस के साथ चंडीगढ़ पहुंचा ---स्टेशन के बाहर ही –हम दोनों आटो की इंतज़ार कर रहे थे कि अचानक एक आटो वाला एक पचास के करीब की महिला को बुरी तरह ठोक कर चला गया। जिस तरह से वह महिला गिरी और बेहोश हो गई मुझे तो लगा कि चोट खासी गहरी लग गई लगती है। महिला का वर्णऩ तो किया ही नहीं ---- यह वो महिला बिल्कुल वैसी थी जिसे हम पढ़े लिखे लोग अनपढ़, गरीब, .....पता नहीं क्या क्या कह देते हैं ? ---शायद यह सब लिखना इतना ज़रूरी नहीं था क्योंकि वह तो केवल एक मां थी। उस के बच्चों ने उस को घेर रखा था।

मैंने पानी की बोतल उसे दी--- उस ने पानी पिया ---मैंने उस के बच्चों को कहा कि कुछ समय के लिये इन्हें लिटा दो, उसे लिटा दिया गया , उस के कुनबे के लोगों में से कोई उस का सिर दबा रहा था...मैं भी अपना काम कर रहा था ---उन के पास ही खड़ा मैं बड़ी शिद्दत से इस प्रभु से यही प्रार्थना किये जा रहा था कि कैसे भी इसे ठीक कर दे, भाई। मुझे यह तो यकीन ही था कि परमात्मा ही कुछ चमत्कार करे सो करे, इन्हें कोई दो-चार सौ रूपये दे भी देगा तो इतने में इन का क्या बनेगा, शायद इतने रूपयों में तो ये किसी बड़े हास्पीटल के गेट तक ही पहुंच पाएं ---- बस, मैं बड़ी इमानदारी से उस लम्हों में प्रार्थना से जुड़ा हुया था -----और मेरा ऐसा विचार बन रहा था कि ये कुछ ठीक हो तो ही मैं और मेरा बेटा वहां से चलें !!
तभी वह औरत ने बात करना शुरू कर दिया –वह अपने बेटे को बता रही थी कि यह सब कैसे हुआ ---- दोस्तों, मैं बता नहीं सकता कि मुझे उस पल कितनी खुशी हुई ---मेरी खुशी का पारावार नहीं था ---- मुझे शायद यही लग रहा था कि मेरी अरदास काम कर गई ----- तभी एक आटो दिखा, हम बैठ कर मार्कीट की तरफ़ निकल पड़े।

मुझे पता है कि इस औरत के सिर पर इस तरह की टक्कर के इंपैक्ट के कारण वह जो दो-तीन मिनट बेसुध रही वह भविष्य के लिये एक दुर्भाग्यपूर्ण भी हो सकती थी लेकिन यही सोच कर ही मन को तसल्ली दे दी कि जिस ने उस की अभी इस समय रक्षा की है, वह भविष्य में भी करेगा ---- सोच वैसे रहा था कि अगर इस का सी.टी करवाना होगा तो कौन करवायेगा .......और साथ ही यह भी समझने की कोशिश कर रहा था कि यार, कुछ तो बात है उस बात में भी कि जब दवा काम नहीं करती तो दुआ काम करती है।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

महेश भट्ठ की फिल्म -- प्लेट में ज़हर ( Poison on the platter)

कुछ दिन पहले मैं घर के पास ही की मार्कीट में सब्जी लेने गया हुया था ----सड़क किनारे लगी एक दुकान के मालिक ने बेहद सुंदर दिखने वाले बैंगनों की इशारा करते हुये कहा कि ये देखो, भुर्ते के लिये कितने बढ़िया बैंगन हैं. बेशक वे बैंगन इतने चमकीले, इतने बढ़िया आकार के और लगभग सभी बिल्कुल एक जैसे ही लग रहे थे ---अब इन बैंगनों का इतना अच्छा दिखना भी इन के लिये आफ़त हो गया --- मुझे देखने में लगा कि हो न हो इन बैंगनों में कुछ न कुछ नकलीपन तो है ।

दिमाग में तुरंत कईं प्रश्न कौंध गये --- कोई हाईब्रिड वैरेयटी( मैं इस की लाभ-हानियों के बारे में कुछ ज़्यादा नहीं जानता), क्या ये टीकों के तैयार तो नहीं किये गये या ये कुछ नये नये रासायनों की तो देन नहीं हैं। ध्यान तो एक बार बीटी बैंगन की तरफ़ भी गया।

आज सुबह राज भाटिया की यह पोस्ट देख कर पूरी स्टोरी जानने की इच्छा हुई। और इस के बारे मैंने सोचा कि इस मुद्दे के बार में और भी प्रामाणिक रिसर्च का पता लगाया जाए।

बस ऐसे ही घूमते घूमते मैं यहां पहुच गया जहां से मुझे पता चला कि फिल्मकार महेश भट्ट ने मार्च 2009 में एक फिल्म बनाई है --- Poison on the platter. इसलिये इस के यू-ट्यूब लिंक्स यहां लगा रहा हूं ----कुल चार पार्ट्स हैं, लेकिन दूसरे भाग शायद कुछ गड़बड़ सी लगती है ----यह मुझे पूरी नहीं दिख रही ।








वैसे थाली में ज़हर नाम की एक स्टोरी यहां भी दिखी।

भई मुझे तो यह सब जान कर डर सा लग रहा है, आप का क्या हाल है ? आप भी सोच रहे हैं न कि यार, अब हमारे भुरते को भी नज़र लग गई !!!!

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

बेशक तस्वीरें बोलती हैं .....

प्रजातंत्र के महोत्सव के दिन चुनाव की तस्वीरें सुबह से ही टीवी पर दिखने लगती हैं और अगले दिन अखबारों में भी खूब दिखती हैं।
इन तस्वीरों में बहुत बड़ी बड़ी, नामी-गिरामी, रईस हस्तियों को वोट डालते दिखाया जाता है ----इस के बारे में मेरे क्या विचार हैं ? --यह तो भई लिखने की कतई इच्छा ही नहीं हो रही, क्यों यह सब लिख कर खाली-पीली टाइम खराब करने का ?
चुनाव के दिन सारा दिन टीवी के लगभग सभी चैनलों पर यही दिखता रहता है कि फलां फलां ने वोट वहां डाला, उस की बीवी ने वहां डाला, साथ में उस के बेटे भी थे और बहू भी थी। फिर उन के साथ एक दो बातें भी दिखाई जाती हैं। और दूसरे चैनल पर दिख जाता है कि किस हस्ती ने नाश्ते से पहले, किस ने मंदिर जाने के बाद और किस ने सुबह के भ्रमण के तुरंत बाद वोट डाला। सोचने की बात यह है कि Agenda Setting Theory के अंतर्गत आखिर मीडिया कौन सा एजैंडा सैट कर रहा है ?
ओ..हो....इतना महान काम कर दिया, वोट डाल के। जिस अंदाज़ में ये सब लोग अपनी उंगली पर काली स्याही से लगा निशान मीडिया के सामने दिखाते हैं उसे देख कर सिरदर्द होने लगता है। इतनी भी कौन सी बड़ी बात है ---प्रजातंत्र है, जहां करोड़ों लोगों ने वोट किया, आप लोगों ने भी किया ---इस में आखिर इतनी बड़ी बात है क्या यह कभी भी मेरी समझ में नहीं आयेगी।
वैसे सोचने की बात है कि अगर कुछ नामी गिरामी हस्तियां मीडिया को अपनी यह उंगली दिखाते फिरते हैं तो इस में इन का क्या कसूर ? --- लगता है कि वोट वाले दिन इन हस्तियों को जो इतनी ज़्यादा कवरेज मिलती है इस में दोष मीडिया का ही है। मुझे तो यह सब देख कर बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता।
और अगले दिन जो लगभग सभी अखबारों के पहले पन्ने पर फोटो छपते हैं उन्हें देख कर भी कोई खास तबीयत खुश नहीं होती। आठ-दस बहुत ही बुज़ुर्ग महिलायों की तस्वीरें तो दिख जाती हैं जिन्हें उन के रिश्तेदारों ने स्वयं उठाया होता है। इन बुज़ुर्ग महिलायों की इतनी उम्र हो चुकी होती है कि शायद ही उन्हें पता होता होगा कि कौन से चुनाव हो रहे हैं और कौन कौन से प्रत्याशी हैं ?

Credit - The Hindu, Oct 14,2009
हां, लेकिन कुछ कुछ तस्वीरें ऐसी भी इन अखबारों में दिख जाती हैं जो कि आप को छू जाती है। ऐसी ही एक फोटो मेरे पसंदीदा अखबार दा-हिंदु में आज छपी है ---- आप देखिये की इस देवी की तस्वीर सारी अखबार पर हावी पड़ रही है। यह फोटो अखबार के पहले पन्ने पर छपी है। यह अम्मा वोट देने के बाद वापिस घर लौट रही हैं।
दा हिंदु में छपने वाली तस्वीरें होती भी ऐसी ही हैं जो कि पाठक को बहुत सोचने पर मजबूर करती हैं। मुझे कहने में यह कोई झिझक नहीं है कि आज तक चुनाव से संबंधित मैंने जितनी भी तस्वीरें देखी हैं यह उन सब में से बेहतरीन है।
मैं इस तस्वीर को लगभग दस मिनट तक देखता रहा ---शायद मैं इस के चेहरे की हरेक सिलवट में छिपी हुई बीसियों कहानियां पढ़ने की नाकाम कोशिश कर रहा था।
इस तस्वीर को देख कर कोई ऐसा होगा जो इस की हिम्मत की दाद दिये बिना रह सके। यह तस्वीर है भी तो परफैक्ट---तस्वीर में पूरा फोकस अम्मा पर होते हुये भी बैकग्राउंड में पूरी चुनावी एक्टिविटी को कैप्चर किया गया है।
अरे भाई, मीडिया वालो, चुनाव के दिन बड़े बड़े रइसों, नामी-गिरामी हस्तियों की तस्वीरें खींचने से थोड़ी सी भी फुर्सत मिले तो इस तरह की जिंदादिल, जिवंत, जीवित देवियों की तस्वीरें विभिन्न चैनलों पर सुबह सुबह से ही बार बार फ्लैश किया करें ---अगर इन से दो बातें भी करें तो कितना बढ़िया होगा । आप सोच रहे हैं कि इस तरह की इन देवियों को इस से क्या हासिल होगा ?
इन को क्या हासिल होगा ? --- शायद ये तो फायदे -नुकसान जैसी चीज़ों से बहुत ऊपर उठ चुकी हैं, लेकिन इन तस्वीरों को चुनाव के दिन बार बार दिखाने से हमारे कुछ युवा लोगों को शायद चुल्लू भर पानी की ज़रूरत महसूस होने लगे ----- शायद उन्हें इस देवी की हालत देख कर कुछ तो प्रेरणा मिले कि यार, अगर यह वोट देने जा सकती हैं तो हम क्यों नहीं ? ---बहुत हो गई सुस्ती , हम भी नहा धो कर अपने अधिकार का इस्तेमाल कर के आते हैं !!
तो, हो गई न इस तरह की फोटो से वोटों का प्रतिशत बढ़ाने में मदद। बहरहाल, मैं इस गुमनाम देवी के ज़ज्बे को दंडवत् प्रणाम् करता हूं और सभी चिट्ठाकरों की ओर से इन के स्वास्थ्य एवं दीर्घायु की कामना करता हूं।

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

ये तस्वीरें आंखें गीली कर देती हैं !

इस स्लाईड-शो के बारे में मेरे पास कहने लायक कुछ भी नहीं है ----बस, केवल आप इसे इत्मीनान से देखें । यह देख कर अगर आप की आंखें भी नम हो जाएं तो मुझे क्षमा कीजिये।

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

अंकुरित करने की प्रक्रिया बहुत आसान


( credit: jessicareeder/flickr)


उस दिन जब अंकुरित बीजों आदि की बात हो रही थी तो एक प्रश्नन किया गया था कि अंकुरित करने की प्रक्रिया का खुलासा करें। मैं जिस किताब Raw Energy का उल्लेख कर रहा था उस इंगलिश की किताब से मैंने इस पोस्ट की सामग्री ली है जिसका अनुवाद मैंने हिंदी में करने की कोशिश की है।

अंकुरित करने की प्रक्रिया बहुत आसान है। उत्तम किस्म के बीजों को इस्तेमाल करें। बीजों को पानी में अच्छी तरह धो लें ताकि बीजों पर लगे हुए विषैले रसायन अच्छी तरह से उतर जाएं। फिर इन बीजों एवं खाद्यान्नों को किसी पानी के बर्तन में भिगो दिया जाता है।

बर्तन को इस प्रकार से ढक दें कि उस में पर्याप्त आक्सीजन जा सके और बर्तन को किसी थोड़े सी गर्म जगह पर रख दें। 8 से 12 घंटे के बाद पानी फेंक दें। यह सुनिश्चित कर लें कि बर्तन इतना बड़ा हो कि अंकुरित होने वाले बीजों एवं खाद्यान्नों के लिये स्थान हो।

बीजों को दिन में दो से तीन बार धो लें और पूरा पानी बर्तन से निकाल दें। इस बात का ध्यान रखें कि अंकुरित बीजो को कभी भी पानी में मत रख छोड़ें , अन्यथा वे सड़ना शूरू हो जायेंगे।

बीज जब कम से कम आधा इंच अंकुरित हो जाएं, तब उन्हें कच्चा खाएं। आम तौर पर बीजों को अंकुरित होने में 2 से 3 दिन का समय लग जाता है और यह अवधि विभिन्न तरह के बीजों पर, तापमान पर एवं हवा में नमी की मात्रा पर निर्भर करती है।

अंकुरित करने के लिये आप खुले मुंह वाले कांच की बोतलें भी इ्स्तेमाल कर सकती हैं। बस यह ध्यान रखें कि उस में थोड़ी जगह हवा के लिये रहे। आप बोतल के ऊपर कोई बिल्कुल बारीक कपड़ा भी बांध सकते हैं ताकि हवा के आने जाने के लिये जगह रहे।

कईं लोग 8-10 घंटे पानी में भिगोने के बाद बीजों एवं खाद्यान्नों को पानी से निकालने के बाद एक बारीक कपड़े की थैली में डाल देते हैं और रसोई घर की खिड़की पर टांग देते हैं। सुबह-शाम उस थैली को गीला कर देते हैं। आप को जो भी ज़्यादा सुविधाजनक लगे, उसे अपना लें।

अंकुरित खाद्यान्नों , दालों एवं बीजों का ज़्यादा से ज़्यादा लाभ उठाने के लिये आप इन्हें कच्चा ही खाएं। वैसे अंकुरित खाद्य पदार्थों को अंकुरित हो जाने के बाद किसी भी डिब्बे ( जिस मे हवा न जा सके ---एयरटाइट कंटेनर) में डाल कर रैफ्रीजरेटर में कईं दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

PS.. अगर यह लेख मेरी बीवी के हाथ पड़ जाए और उन्हें पता चल जाये कि मैं इस तरह से खाना-खज़ाना जैसा शो प्रेज़ैंट कर रहा हूं तो फिर मुझे मिल गया नाश्ता !! पहली बात मुझे जो सुनने को मिलेगी कि कभी रसोईघर के दर्शन भी किये हैं ?

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

मुलैठी खाने से पैदा होते हैं बुद्धु बच्चे ?


एक रिसर्च ने निष्कर्ष निकाला है कि जो महिलायें मुलैठी खाने की दीवानी हैं उन के बच्चे बुद्धु पैदा होते हैं। ऐसा बताया गया है कि गर्भावस्था के दौरान मुलैठी में मौजूद ग्लाईराईज़िन प्लेसैंटा को क्षति पहुंचाता है जिस से मां के स्ट्रैस-हारमोनज़ बच्चे के दिमाग तक पहुंच जाते हैं----रिजल्ट ? बच्चे जल्दी पैदा हो जाते हैं और आगे चल कर कुशाग्र बुद्धि के मालिक नहीं हो पाते।

मुझे तो आज ही पता चला कि पश्चिमी देशों मे भी लोग मुलैठी ( जेठीमधु, मधुयष्टिका) के इतने दीवाने हैं ---चेतावनी यह है कि गर्भवस्था के दौरान अगर एक सप्ताह में 100ग्राम शुद्ध मुलैठी खा लेती हैं तो बच्चों की बुद्धि पर एवं उन के व्यवहार पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

मेरा मुलैठी ज्ञान आज तक बहुत सीमित था --- अधिकतर व्यक्तिगत अनुभवों पर ही आधारित था। बचपन से अब तक गला खराब होने पर ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लेने में मुझे कभी भी विश्वास ही नहीं रहा। बस, दो-चार मुलैठी चूस लेने से गला एकदम फिट लगने लगता है, इसलिये मेरी इस पर अटूट श्रद्धा कायम है और मै अपने मरीज़ों को भी कहता हूं कि गले तकी छोटी मोटी मौसमी तकलीफ़ों के लिये ये सब देसी जुगाड़ ही असली इलाज हैं (शायद कोई तो मान लेता होगा !!!)

और कईं बार घर में मुलैठी का पावडर डाल कर चाय भी बनती है----वही खराब गले को लाइन पर लाने के लिये। मुझे इतना पता था कि आयुर्वैदिक दवाईयों में भी मुलैठी इस्तेमाल होती है।

मुलैठी कैंडी

लेकिन मुझे इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि पश्चिमी देशों में इस के बनी कैंडी आदि भी इतनी पापुलर हैं -- और यह मुलैठी खाने से बुद्धु बच्चे पैदा होने की बात सुन कर ही यह सब जानने की इच्छा हुई।

मुझे लगता है कि यह समस्या दूर-देशों की अपनी ही अनूठी समस्या है जहां पर कैंडी इत्यादि के मुलैठी का इ्स्तेमाल किया जाता है और इन कैंडियों का इतनी ज़्यादा मात्रा में इस्तेमाल होता है । सोच रहा हूं कि इतनी ज़्यादा कैंड़ी खाने से मुलैठी की मात्रा का तो टोटल हो गया, लेकिन जितनी शक्कर आदि शरीर में गई उस का क्या ?

जिस एरिये की महिलायों पर यह स्टडी हुई है मेरे विचार में वहां पर तो गर्भावस्था में इस तरह की इतनी ज़्यादा मुलैठी कैंडी से बच के ही रहा जाए।

लेकिन आप बिल्कुल पहले जैसे मुलैठी चबाते रहिये ----आप बिल्कुल लाइन पर चल रहे हैं-------हमारी समस्या है कि नईं पीढ़ी का इन सब बातों पर विश्वास नहीं है---चलिये, यह स्वयं भुगतेगी।

मुझे पता है कि इस न्यूज़-स्टोरी में आप के साथ कुछ साझा करने जैसा नहीं था, लेकिन इस के बहाने अगर हम लोगों ने मुलैठी जैसे प्रकृति के तोहफ़े को थोड़ा याद कर लिया है, उस के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की है ----क्या यह कम है ? वैसे बाज़ार में बिकने वाले खुले मुलैठी पावडर के बारे में आप का क्या विचार है ------ जहां लोग धनिया पावडर में अनाप-शनाप मिलावट करने से गुरेज नहीं करते वहां पर कैसे मिले शुद्ध मुलैठी पावडर !!

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

एनडीटीवी इंडिया ने खोल दी मीठे ज़हर की पोल

आजकल मैं एनडीटीवी इंडिया खूब देखता हूं ---मेरे लड़के ने मुझे हिदायत दी हुई है कि हिंदी में खबरें सुननी हैं तो एनडीटीवी इंडिया देखा करो। कल रात एनडीटीवी पर एक बहुत बढ़िया कार्यक्रम देखने का अवसर मिला जिस में उन्होंने आज कल मिठाईयों के रूप में बिक रहे मीठे ज़हर की अच्छी तरह पोल खोली। कार्यक्रम की प्रस्तुति भी बहुत प्रभावपूर्ण थी।
Mithai ke dukaanअकसर ऐसे कार्यक्रम देख कर लगने लगता है कि ये जो हिंदी के न्यूज़-मीडिया चैनल हैं ये भी आम आदमी की आंखे और कान ही हैं। इन के संवाददाता इतनी मेहनत कर के, अपने आप को जोखिम में डाल के ऐसी ऐसी बातें जनता के सामने लाते हैं जिन के बारे में वैसे तो उसे कभी पता चल ही नहीं सकता।
लेकिन सोचने की बात यह भी है कि जागरूकता से भरपूर इतने बढ़िया बढ़िया कार्यक्रम देखने के बाद क्या पब्लिक सब तरह का कचरा खाने से गुरेज़ करनी लगती है--जिस तरह से बाज़ार में मिठाईयों आदि की दुकानों पर भीड़ टूट रही होती है उसे से मुझे तो ऐसा नहीं लगता। लेकिन लोगों के मन में आज के आधुनिक मीडिया द्वारा इस तरह की बातें डालना भी एक बहुत अच्छा प्रयास है ----ठीक है जब किसी को ज़रूरत महसूस होगी वह उस ज्ञान को इस्तेमाल कर ही लेगा (इतनी जल्दी भी क्या है यारो, जब जीना है बरसों !!!)..
असर होता है---डाक्टर हूं, सब देखता, पढ़ता-सुनता रहता हूं ----अभी कुछ दिन पहले की ही बात है जब टीवी पर पाव रोटी या पांव रोटी का कार्यक्रम आ रहा था ---- उस दिन के बाद डबलरोटी खाने की इच्छा ही नहीं हुई। और अब घर में जब कभी ब्रैड आती है तो केवल एक ही बढ़िया ब्रांड की ही आती है ---- लोकल ब्रांड तो बच्चे अपने डॉगी को भी नहीं डालते ----कहते हैं कि जो हम नहीं खाते इस छोटू को भी नहीं देंगे।
जिस तरह से कल एनडीटीवी ने दिखाया कि किस तरह से सिंथैटिक दूध बनता है ---जिस में दूध तो होती ही नहीं, केवल कैमीकलों की ही मिश्रण होता है जो कि बीसियों भयंकर बीमारियों की खान होते हैं। मिलावटी मावे में क्या क्या होता है इसे देख कर तो लगता नहीं कि कोई मावे के पास भी फटक जाए।
देसी घी की पोल भी अच्छी तरह से खोली गई कि उस में कितनी तरह के ज़हरीले पदार्थ डाले जाते हैं। कल का कार्यक्रम देख कर छोटे बच्चे भी कहने लगे कि लगता है अब तो केवल दाल-रोटी पर ही टिक के रहना चाहिये।
dabba mithai kaमिठाईयां किसे अच्छी नहीं लगतीं----मुझे भी बेसन के लड्डू, पतीसा और बर्फी बहुत अच्छी लगती है लेकिन महंगी से महंगी दुकान की भी खरीदी इन मिठाईयों पर मेरा तो भई बिल्कुल भी भरोसा नहीं रहा। इसलिये मैं कभी गलती से एक आधा टुकड़ा खा लूं तो भी मैं अपराधबोध का शिकार ही हुआ रहता हूं कि सब कुछ पता होते हुये भी .....।
हां तो बताया यह भी जा रहा है कि अगर हम इस तरह की मिलावटों से बचना चाहते हैं तो किसी मशहूर दुकान से ही खरीदी मिठाई खाएं अथवा स्वयं मिलावट की जांच कर लें। लेकिन मैं इस से इत्तफाक नहीं रखता ----किसी दुकान में बढ़़िया कांच लगवा लेने से ,एक-दो स्पलिट एसी फिट करवा लेने से क्या क्वालिटी की भी गारंटी हो जाती है। और जहां तक मिलावट को खुद जांचने की बात है अभी तक तो चांद को मांगने जैसी बात लगती है। लेकिन भवि्ष्य में इस के बारे में कुछ हो तो बहुत बढ़िया रहेगा।
मैं कईं बार सोचता हूं लोग ठीक ही कहते हैं ---हमारे यहां शायद जानें बहुत सस्ती हैं। मिलावट के बारे में टीवी चैनल इतनी जागरूकता फैला रहे हैं लेकिन फिर भी यह गोरख-धंधा फल-फूल ही रहा है। दो दिन पहले कहीं पढ़ रहा था कि अमेरिका में एशियाई मुल्कों से आयात किये हुी सूखे आलूबुखारे बिक रहे थे ----जब वहां की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने उन की जांच की तो उन में ---- Lead (शीशा) की मात्रा बहुत अधिक पाई गई । तुरंत वहां पर उस एजेंसी ने लोगों को हिदायत दे दी कि इन सूखे आलुबुखारों से बच के रहो और यहां तक कि वहां की सरकार ने इस तरह के प्रोडक्ट्स की फोटो कंपनियों के नाम के साथ वेबसाईट पर भी डाल दी।
और एक हम हैं कि दीवाली आ रही है और शुद्ध मिठाई के लिये तरसे जा रहे हैं। मैं आज सुबह ही किसी के साथ हंसी मज़ाक कर रहा था कि देखना, खन्ना साहब, वही दिन वापिस आ जायेंगे जब हम लोगों को चीनी के खिलौनों एवं कुरमुरे से ही दीवीली मनानी पड़ा करेगी।
जावेद अख्तर ने लिखा है कि पंछी नदियां पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके, सोचा तूमने और मैंने क्या पाया इंसा होके -------उसी तरह हम लोगों ने इतनी ज़्यादा तरक्की कर ली कि हम लोग मिठाई के लिये ही तरस गये ---- बचपन में अमृतसर में खाई बर्फी का स्वाद अभी में मुंह में वैसे का वैसा ही है-------तब हमारे जैसे ही सिरफिरे हलवाई हुआ करते थे जो घंटों एक कड़ाई में पक रही दूध की रबड़ी में घंटों कड़छे मार मार के थकते नहीं थे -------लेकिन अब कहीं भी न तो ऐसे सिरफिरे हलवाई ही दिखते है और न ही वैसी छोटी छोटी हलवाईयों की दुकानें जिन की खुशबू दूर से ही आ जाया करती थी और हम बच्चों का नाटक शूरू हो जाया करता था।
PS....Please let me know some good on-line tutorials for knowing the proper placement of pictures in a blog post. And also for putting some text-boxes, full-quotes etc. Thanks.