कुछ महीने पहले हम लोग गोवा गये तो मैं वहां पर तरह तरह के फल देख कर बहुत हैरान था...नाम तो पता होने का सवाल ही नहीं, मैंने इन्हें पहले कभी देखा भी नहीं था...बस, उत्सुकता वश उन्हें देख रहा था..विदेशी टूरिस्ट आ रहे थे और इन महंगे फलों को खरीद रहे थे.. फल-विक्रेता अपनी टूटी-फूटी और काम-चलाऊ अंग्रेजी से अच्छा-खासा काम चला रहे थे..
चलिए, उस दिन हम ने तो वहां विदेशी फलों की बहुत सी किस्में देख लीं (लेकिन हम खरीदे सिर्फ़ आम ही) ..वैसे दो चार इस तरह के विदेशी फल हम लोगों को रिलायंस ग्रीन, स्पैन्सर्ज़, बिग-बाज़ार में भी फ्रुट्स कार्नर में दिख जाते हैं..
मैंने इन फलों को कभी नहीं खऱीदा...बहुत बार तो इन का नाम ही नहीं पता होता, अगर पैकिंग पर न लिखा हो तो, दूसरा, इन के स्वाद का कुछ पता नहीं होता और तीसरा कारण यह कि काफ़ी महंगे लगते हैं...इसलिए कभी भी इस तरह के नये नये फल खरीदने का सबब ही नहीं हुआ...
लेेकिन कल बाद दोपहर जब मैं टीवी पर एक प्रोग्राम देख रहा था तो मुझे यह जान कर अच्छा लगा कि अगर हम लोग विदेशी फल नहीं खरीदते तो यह कोई खराब बात नहीं है ...उस प्रोग्राम में बाबा रामदेव, एक हाई-प्रोफाईल डाइट-एक्सपर्ट और किसी कारपोरेट अस्पताल का कोई वरिष्ठ डाक्टर पहुंचा हुआ था.. नगमा इस कार्यक्रम को पेश कर रही थीं...
उस न्यूट्रीशिनिस्ट ने बड़े अच्छे से लोगों को यह समझाया कि जो फल किसी देश में पैदा होते हैं ...वे वहां क लोगों के लिए उसी मौसम में खाने के लिए मुफ़ीद होते हैं...यह प्रकृति की अपनी सुंदर व्यवस्था है...इसलिए अगर वहां पैदा होने वाले फल हम अपने यहां मंगवा कर उन्हें खाने लगें ...खूब महंगे होने की वजह से हम समझें कि यह हमारी सेहत के लिए बढ़िया है ...ऐसा बिल्कुल भी नहीं है...मुझे यह बात बिल्कुल सही लगी...
उस विशेषज्ञ ने किवी फल का उदाहरण लिया .. कि किस तरह से विटामिन सी के दीवाने किवी फ्रूट के पीछे दौड़ने लगे हैं और अपने अमरूद को खाने की परवाह नहीं करते जो कि उससे भी बेहतर विटामिन सी का स्रोत है ..
मुझे लगा कि इस बात को ब्लॉग पर शेयर किया जाना चाहिए...क्योंकि मैं बेमौसमी फलों के बारे में तो पिछले वर्षों में काफी लिख चुका हूं...अगर आदमी अपनी हैसियत से भी ज़्यादा सेब का मौसम न होते हुए भी २०० रूपये किलो सेब खरीद कर खाता है तो बेकार है ..इस का फंडा यही है कि किस मौसम में हमारी विभिन्न पौष्टिक तत्वों की क्या ज़रूरत है...प्रकृति उसी अनुसार हमें वही फल देती है ...
कोल्ड-स्टोर में रखे बेमौसमी फल सेहत के लिए मुफीद नहीं हो सकते...यहां तक कि बेमौसमी सब्जियों के लिए भी यही कहा जाता है कि बेमौसमी सब्जियां भी सेहत के लिए ठीक नहीं होतीं...इस तरह की सब्जियों की पैदावार के लिेए बहुत ज्यादा मात्रा में कीटनाशक का इस्तेमाल किया जाता है ...वही बात हुई ..एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा।
कल वह प्रोग्राम ठीक ही था, रामदेव ने कहा (किसी रिपोर्टर ने कहा कि अब तो बाबा रामदेव देश का सब से बड़ा किसान है!)...कि प्लेटलेट्स तीन चार हज़ार होने पर अगर कोई एक बार गिलोई का सेवन कर ले ..उसे पी ले ..तो उस के प्लेटलेट्स एक ही दिन में १०-१२ हजा़र तक पहुंच जाते हैं...तब नगमा ने उस कारपोरेट अस्पताल के डाक्टर को पूछा कि आप का इस के बारे में क्या ओपिनियन है..उसने कहा कि मैं तो ऐसा पहली बार सुन रहा हूं...यह सुनते ही बाबा उछल पड़े कि मैंने तो नहीं कहा कि बुखार के लिेए पैरासिटामोल लेना ठीक नहीं है, इन्हें भी गिलोई से मुझे पता नहीं कि क्या परेशानी है!....वही बात है, दशकों से देख रहे हैं कि कोई समन्वय नहीं है...आयुर्वेदिक दावों की वैज्ञानिक पुष्टि शायद हो नहीं रही, सरकारी प्रयास कितने भी हो रहे हैं, एक प्रणाली दूसरे सिस्टम की सुनने के लिए तैयार नहीं है ...मुझे लगता यह ऐसे ही चलता रहेगा...हर तरह की मार्कीट शक्तियां काम पर लगी हुई हैं...एलोपैथी में ही नहीं, देशी-यूनानी में भी !
आज यह लिफ़ाफ़ा यहीं बंद कर रहा हूं.. कितना लिखें,यार, वैसे भी समझदार को ईशारा ही काफ़ी होता है ...
चलिए, उस दिन हम ने तो वहां विदेशी फलों की बहुत सी किस्में देख लीं (लेकिन हम खरीदे सिर्फ़ आम ही) ..वैसे दो चार इस तरह के विदेशी फल हम लोगों को रिलायंस ग्रीन, स्पैन्सर्ज़, बिग-बाज़ार में भी फ्रुट्स कार्नर में दिख जाते हैं..
मैंने इन फलों को कभी नहीं खऱीदा...बहुत बार तो इन का नाम ही नहीं पता होता, अगर पैकिंग पर न लिखा हो तो, दूसरा, इन के स्वाद का कुछ पता नहीं होता और तीसरा कारण यह कि काफ़ी महंगे लगते हैं...इसलिए कभी भी इस तरह के नये नये फल खरीदने का सबब ही नहीं हुआ...
लेेकिन कल बाद दोपहर जब मैं टीवी पर एक प्रोग्राम देख रहा था तो मुझे यह जान कर अच्छा लगा कि अगर हम लोग विदेशी फल नहीं खरीदते तो यह कोई खराब बात नहीं है ...उस प्रोग्राम में बाबा रामदेव, एक हाई-प्रोफाईल डाइट-एक्सपर्ट और किसी कारपोरेट अस्पताल का कोई वरिष्ठ डाक्टर पहुंचा हुआ था.. नगमा इस कार्यक्रम को पेश कर रही थीं...
उस न्यूट्रीशिनिस्ट ने बड़े अच्छे से लोगों को यह समझाया कि जो फल किसी देश में पैदा होते हैं ...वे वहां क लोगों के लिए उसी मौसम में खाने के लिए मुफ़ीद होते हैं...यह प्रकृति की अपनी सुंदर व्यवस्था है...इसलिए अगर वहां पैदा होने वाले फल हम अपने यहां मंगवा कर उन्हें खाने लगें ...खूब महंगे होने की वजह से हम समझें कि यह हमारी सेहत के लिए बढ़िया है ...ऐसा बिल्कुल भी नहीं है...मुझे यह बात बिल्कुल सही लगी...
उस विशेषज्ञ ने किवी फल का उदाहरण लिया .. कि किस तरह से विटामिन सी के दीवाने किवी फ्रूट के पीछे दौड़ने लगे हैं और अपने अमरूद को खाने की परवाह नहीं करते जो कि उससे भी बेहतर विटामिन सी का स्रोत है ..
मुझे लगा कि इस बात को ब्लॉग पर शेयर किया जाना चाहिए...क्योंकि मैं बेमौसमी फलों के बारे में तो पिछले वर्षों में काफी लिख चुका हूं...अगर आदमी अपनी हैसियत से भी ज़्यादा सेब का मौसम न होते हुए भी २०० रूपये किलो सेब खरीद कर खाता है तो बेकार है ..इस का फंडा यही है कि किस मौसम में हमारी विभिन्न पौष्टिक तत्वों की क्या ज़रूरत है...प्रकृति उसी अनुसार हमें वही फल देती है ...
कोल्ड-स्टोर में रखे बेमौसमी फल सेहत के लिए मुफीद नहीं हो सकते...यहां तक कि बेमौसमी सब्जियों के लिए भी यही कहा जाता है कि बेमौसमी सब्जियां भी सेहत के लिए ठीक नहीं होतीं...इस तरह की सब्जियों की पैदावार के लिेए बहुत ज्यादा मात्रा में कीटनाशक का इस्तेमाल किया जाता है ...वही बात हुई ..एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा।
कल वह प्रोग्राम ठीक ही था, रामदेव ने कहा (किसी रिपोर्टर ने कहा कि अब तो बाबा रामदेव देश का सब से बड़ा किसान है!)...कि प्लेटलेट्स तीन चार हज़ार होने पर अगर कोई एक बार गिलोई का सेवन कर ले ..उसे पी ले ..तो उस के प्लेटलेट्स एक ही दिन में १०-१२ हजा़र तक पहुंच जाते हैं...तब नगमा ने उस कारपोरेट अस्पताल के डाक्टर को पूछा कि आप का इस के बारे में क्या ओपिनियन है..उसने कहा कि मैं तो ऐसा पहली बार सुन रहा हूं...यह सुनते ही बाबा उछल पड़े कि मैंने तो नहीं कहा कि बुखार के लिेए पैरासिटामोल लेना ठीक नहीं है, इन्हें भी गिलोई से मुझे पता नहीं कि क्या परेशानी है!....वही बात है, दशकों से देख रहे हैं कि कोई समन्वय नहीं है...आयुर्वेदिक दावों की वैज्ञानिक पुष्टि शायद हो नहीं रही, सरकारी प्रयास कितने भी हो रहे हैं, एक प्रणाली दूसरे सिस्टम की सुनने के लिए तैयार नहीं है ...मुझे लगता यह ऐसे ही चलता रहेगा...हर तरह की मार्कीट शक्तियां काम पर लगी हुई हैं...एलोपैथी में ही नहीं, देशी-यूनानी में भी !
आज यह लिफ़ाफ़ा यहीं बंद कर रहा हूं.. कितना लिखें,यार, वैसे भी समझदार को ईशारा ही काफ़ी होता है ...
दलित फूडस
यह दलित फूड क्या है, मुझे भी इस के बारे में आज की दैनिक जागरण से ही पता चला..आप भी इस खबर को पढ लीजिए..
उस शहीद के बच्चों की कठिन परीक्षा वाली खबर से बड़ा ही ज्यादा दुःख हुआ.....ईश्वर किसी को भी इस तरह की परीक्षा में न डालें..