उस साथी के पिता एक नीम हकीम थे...कभी वह हमें अपने साथ बाज़ार चलने को कहता तो हम देखते कि वह किसी दुकानदार को बीस-तीस रूपये देता और वह उसे एक पन्नी में पहले से भरे हुए १००० खाली कैप्सूल थमा देता...हम भी उन दिनों बेवजह बातों का load नहीं लिया करते थे।
फिर जब हम दोस्त लोग उस के घर कभी जाते तो उन के परिवार के दो तीन लोग कैप्सूल भरते दिखते...बिल्कुल बीड़ी उद्योग की तरह .....क्या भरते?..कुछ खास नहीं, मीठा सोड़ा (बेकिंग पावडर) और पिसी हुई चीनी...अभी भी वह दृश्य आंखों के सामने दिख रहा है...जमीन पर बैठे उस के पिता जी और वह ...एक अखबार के टुकड़े पर खाली कैप्सूल रखे हुए और दूसरे पर शक्कर और मीठे सोडे की ढेरी...दे दना दन ..लोगों को सेहतमंद करने का जुगाड़ किया जा रहा होता।
और साथ साथ उस के पिता जी मुस्कुराते रहते... उन के सभी मरीज़ पास के गांवों से आते और दस बीस दिन की दवाईयां लेकर चले जाते ..
फ्लैशबेक से वर्तमान का रूख करें?...
कल एक मेडीकल रिप्रेजेंटेटिव आया ..किसी दवाई के बारे में बता रहा था तो उस ने उस का कवर खोला...कैप्सूल निकाला....और कैप्सूल में से तीन छोटी छोटी गोलियां निकलीं...तस्वीर यहां लगा रहा हूं...उस ने फिर से बताना शुरू किया कि एक गोली तो तुरंत असर कर देगी...दूसरी गोली लंबे समय तक बारह घंटे तक असर करती रहेगी..(sustained release) और तीसरी गोली जो आंतों में पहुंच कर अपना असर कर पाएगी...(enteric coated)..
इस ब्लॉग पर मैंने पिछले कुछ वर्षों में इस विषय पर कुछ लेख लिखे हैं कि हमारी दवाईयां हमें टेबलेट के रूप में, कैप्सूल या इंजेक्शन के रूप में, जुबान के नीचे रखने वाली टेबलेट के रूप में, किसी इंहेलर के द्वारा दी जाने वाली भी हो सकती है ...यह सब वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर होता है कि कुछ दवाईयां हमारे पेट में जाकर अपना असर शुरू करने वाली होनी चाहिएं...और कुछ आंतों में ..सब कुछ साईंस है... ph का मसला है सब ... किस जगह पर कितना अमल है, कितना क्षार है, दवाई का क्या मिजाज है ...यह सब गहन मैडीकल रिसर्च के विषय हुआ करते हैं।
साथी के नीम हकीम पिता जी की बात कर ली, कल भूले भटके आए एक एम आर की बात कर ली...यह तो बस किस्सागोई जैसा लग सकता है ...दोनों बातें बिल्कुल सच हैं...लेकिन इन के माध्यम से दो बातें मैं अपने मरीज़ों से कहता रहता हूं..
पहली बात तो यह कि कभी भी खुले में मिलने वाली कोई भी दवाई न लिया करें....इस के बहुत से नुकसान हैं...आप को पता ही नहीं आप खा क्या रहे हैं, और किसी रिएक्शन की सिचुएशन में पता ही नहीं चलेगा कि कौन सी दवाई खाने से ऐसा हो गया...अकसर खुले में बिकने वाली दवाईयां सस्ती और घटिया किस्म की होती हैं, बड़ी बड़ी कंपनियों की दवाईयां जांच करने पर मानकों पर खरी नहीं उतर पातीं और खुले में बिकने वाली दवाई पर तो बिल्कुल भी भरोसा किया ही नहीं जा सकता....वैसे भी नीम हकीम खतराए जान....मैं अपने मरीज़ों को इस तरह की खुली दवाईयों के बारे में इतना सचेत कर देता हूं कि वे उसे मेरे डस्टबिन में ही फैंक जाते हैं...वैसे भी खुले बिकने वाले कैप्सूल में क्या क्या भरा जा रहा होगा, कौन जाने, फुर्सत ही किसे है!
दूसरी बात यह है कि कईं बार कुछ लोग ऐसे भी दिखे कि किसी टेबलेट को पीस का मुंह में रख लेते हैं...दांत का दर्द तो इस से ठीक नहीं होता, मुंह में एक बड़ा सा ज़ख्म ज़रूर बन जाता है ..इस से भी बचना ज़रूरी है....
और कुछ ऐसे भी लोग दिखे जिन्होंने बताया कि कैप्सूल को खोल कर वे दवाई पानी के साथ ले लेते हैं...ऐसा भी गलत है...दवाई को कैप्सूल में डाल कर आप तक पहुंचाना कोई फैशन स्टाईल नहीं है ....यह उस दवाई को कार्य-क्षमता को बनाए रखने के लिए किया जाता है ...
जाते जाते ध्यान आ रहा है कुछ िदन पहले टाइम्स आफ इंडिया के पहले पन्ने पर कुछ इस तरह की कंट्रोवर्सी दिखी कि कैप्सूल का कवर जो वस्तु से बनता है ...वह जिलेटिन (gelatin) है...यह नॉन-वैज है...अब इस को भी वैज बनाने पर कुछ चल रहा है....मुझे उस समय भी यह एक शगूफा दी लगा था, और अभी भी यही लग रहा है ...उस दिन के बाद कभी यह कहीं भी मीडिया में नहीं दिखा....
आज वाट्सएप के कारण मेरी १९७३ के दिनों के अपने स्कूल से साथियों से बात हुई है ..मैं बहुत खुश हूं...इसलिए स्कूल के एक दौर की याद साझी करनी पड़ेगी...१९७५ के दिनों में शोले फिल्म आई...साईंस के मास्टर साहब..श्री ओ पी कैले जी ..working of call bell ...समझा रहे थे...फिर रटने के लिए कह रहे थे...और क्लास के पास ही किसी घर में लगे किसी लाउड-स्पीकर से शोले फिल्म का यह गीत बज रहा था...मेरा ध्यान उधर ज़्यादा था....मास्टर लोग सब कुछ ताड़ तो लेते ही हैं..मुझे बाहर बुलाकर एक करारा सा कंटाप जड़ दिया....उन का हाथ भी धर्मेन्द्र के हाथ जैसा ही भारी था...लेिकन फिर भी मुझे सारी आठवीं में call bell की प्रणाली समझ नहीं आई...शायद मैंने समझने की कोशिश भी नहीं की, मन ही नहीं लगता था इन बोरिंग सी बातों में....आगे 9th क्लास से ढंग से साईंस को पढ़ना शुरू किया तो इस मोटी बुद्धि को कुछ कुछ पल्ले पड़ने लगा... बहरहाल, वह गीत तो सुिनए जिस ने मेरे गाल को बिना वजह लाल करवा दिया....
फिर जब हम दोस्त लोग उस के घर कभी जाते तो उन के परिवार के दो तीन लोग कैप्सूल भरते दिखते...बिल्कुल बीड़ी उद्योग की तरह .....क्या भरते?..कुछ खास नहीं, मीठा सोड़ा (बेकिंग पावडर) और पिसी हुई चीनी...अभी भी वह दृश्य आंखों के सामने दिख रहा है...जमीन पर बैठे उस के पिता जी और वह ...एक अखबार के टुकड़े पर खाली कैप्सूल रखे हुए और दूसरे पर शक्कर और मीठे सोडे की ढेरी...दे दना दन ..लोगों को सेहतमंद करने का जुगाड़ किया जा रहा होता।
और साथ साथ उस के पिता जी मुस्कुराते रहते... उन के सभी मरीज़ पास के गांवों से आते और दस बीस दिन की दवाईयां लेकर चले जाते ..
फ्लैशबेक से वर्तमान का रूख करें?...
कल एक मेडीकल रिप्रेजेंटेटिव आया ..किसी दवाई के बारे में बता रहा था तो उस ने उस का कवर खोला...कैप्सूल निकाला....और कैप्सूल में से तीन छोटी छोटी गोलियां निकलीं...तस्वीर यहां लगा रहा हूं...उस ने फिर से बताना शुरू किया कि एक गोली तो तुरंत असर कर देगी...दूसरी गोली लंबे समय तक बारह घंटे तक असर करती रहेगी..(sustained release) और तीसरी गोली जो आंतों में पहुंच कर अपना असर कर पाएगी...(enteric coated)..
एम आर ने कैप्सूल खोला तो ये तीन गोलियां बीच में से निकलीं.. |
साथी के नीम हकीम पिता जी की बात कर ली, कल भूले भटके आए एक एम आर की बात कर ली...यह तो बस किस्सागोई जैसा लग सकता है ...दोनों बातें बिल्कुल सच हैं...लेकिन इन के माध्यम से दो बातें मैं अपने मरीज़ों से कहता रहता हूं..
पहली बात तो यह कि कभी भी खुले में मिलने वाली कोई भी दवाई न लिया करें....इस के बहुत से नुकसान हैं...आप को पता ही नहीं आप खा क्या रहे हैं, और किसी रिएक्शन की सिचुएशन में पता ही नहीं चलेगा कि कौन सी दवाई खाने से ऐसा हो गया...अकसर खुले में बिकने वाली दवाईयां सस्ती और घटिया किस्म की होती हैं, बड़ी बड़ी कंपनियों की दवाईयां जांच करने पर मानकों पर खरी नहीं उतर पातीं और खुले में बिकने वाली दवाई पर तो बिल्कुल भी भरोसा किया ही नहीं जा सकता....वैसे भी नीम हकीम खतराए जान....मैं अपने मरीज़ों को इस तरह की खुली दवाईयों के बारे में इतना सचेत कर देता हूं कि वे उसे मेरे डस्टबिन में ही फैंक जाते हैं...वैसे भी खुले बिकने वाले कैप्सूल में क्या क्या भरा जा रहा होगा, कौन जाने, फुर्सत ही किसे है!
दूसरी बात यह है कि कईं बार कुछ लोग ऐसे भी दिखे कि किसी टेबलेट को पीस का मुंह में रख लेते हैं...दांत का दर्द तो इस से ठीक नहीं होता, मुंह में एक बड़ा सा ज़ख्म ज़रूर बन जाता है ..इस से भी बचना ज़रूरी है....
और कुछ ऐसे भी लोग दिखे जिन्होंने बताया कि कैप्सूल को खोल कर वे दवाई पानी के साथ ले लेते हैं...ऐसा भी गलत है...दवाई को कैप्सूल में डाल कर आप तक पहुंचाना कोई फैशन स्टाईल नहीं है ....यह उस दवाई को कार्य-क्षमता को बनाए रखने के लिए किया जाता है ...
जाते जाते ध्यान आ रहा है कुछ िदन पहले टाइम्स आफ इंडिया के पहले पन्ने पर कुछ इस तरह की कंट्रोवर्सी दिखी कि कैप्सूल का कवर जो वस्तु से बनता है ...वह जिलेटिन (gelatin) है...यह नॉन-वैज है...अब इस को भी वैज बनाने पर कुछ चल रहा है....मुझे उस समय भी यह एक शगूफा दी लगा था, और अभी भी यही लग रहा है ...उस दिन के बाद कभी यह कहीं भी मीडिया में नहीं दिखा....
आज वाट्सएप के कारण मेरी १९७३ के दिनों के अपने स्कूल से साथियों से बात हुई है ..मैं बहुत खुश हूं...इसलिए स्कूल के एक दौर की याद साझी करनी पड़ेगी...१९७५ के दिनों में शोले फिल्म आई...साईंस के मास्टर साहब..श्री ओ पी कैले जी ..working of call bell ...समझा रहे थे...फिर रटने के लिए कह रहे थे...और क्लास के पास ही किसी घर में लगे किसी लाउड-स्पीकर से शोले फिल्म का यह गीत बज रहा था...मेरा ध्यान उधर ज़्यादा था....मास्टर लोग सब कुछ ताड़ तो लेते ही हैं..मुझे बाहर बुलाकर एक करारा सा कंटाप जड़ दिया....उन का हाथ भी धर्मेन्द्र के हाथ जैसा ही भारी था...लेिकन फिर भी मुझे सारी आठवीं में call bell की प्रणाली समझ नहीं आई...शायद मैंने समझने की कोशिश भी नहीं की, मन ही नहीं लगता था इन बोरिंग सी बातों में....आगे 9th क्लास से ढंग से साईंस को पढ़ना शुरू किया तो इस मोटी बुद्धि को कुछ कुछ पल्ले पड़ने लगा... बहरहाल, वह गीत तो सुिनए जिस ने मेरे गाल को बिना वजह लाल करवा दिया....