जहां तक मेरी यादाश्त जाती है...मैं ३०-४०वर्ष पुरानी बात लिख रहा हूं..हम लोग जिस घर में रहते थे, उस में बहुत बड़े बड़े पेड़ थे। हर साल इन की छंटाई होती थी। जाड़े के दिनों में काश्मीर से वहां से पुरूष लोग रोज़गार की तलाश में अमृतसर आ जाते थे....और भी शहरों में आते थे कि नहीं, मैं नहीं जानता लेकिन अमृतसर में तो आते ही थे।
उन्हें कुल्हाड़ी दी जाती .. वे पेड़ पर चढ़ कर पेड़ को काटते और फिर नीचे उतर कर लकड़ियों के छोटे छोटे टुकड़े करते। अच्छे से याद है मुझे --एक दो घंटे लगते थे उन्हें और बीस-तीस रूपये लिया करते थे।
एक तरह से एक प्रतीक्षा हुआ करती थी कि कब हातो आएं...(इन्हें हातो कहा जाता था, मुझे नहीं पता इस का क्या मतलब होता है, बस हातो ही याद है).. और पेड़ काट कर धूप का जुगाड़ करें।
वैसे एक बात मैं अपने अनुभव के आधार पर कहना चाहूंगा.....बचपन के अनुभव के आधार पर.....मैंने बचपन में आसपास के लोगों में पेड़ों के प्रति प्रेम का कोई विशेष अनुभव नहीं किया...हां, उन का प्यार सब्जी और फलों के पेड़ों से तो था, लेकिन घने छायादार पेड़ इन्हें हमेशा एक बोझ ही लगते दिखे......इन के पत्ते आंगन में गिरते हैं जिस से गंदगी फैलती है, ऐसी सोच अकसर अपने आसपास देखी बचपन में।
जहां तक मेरी बात है मेरा हाथ में हो तो मैं किसी भी पेड़ की एक टहनी भी न काटूं और न ही काटने दूं......मेरे बच्चों का भी यही भावनात्मक रिश्ता पेड़ों से है। पेड़ों के साथ लोगों का लगाव मैंने चंडीगढ़, बंगलोर, बंबई आदि शहरों में खूब देखा। लखनऊ आने से पहले हम जिस घर में रहते थे वहां पर भी बहुत से घने पेड़ थे.....बेटा उन्हें कटवाने नहीं देता था, जब जाड़े के दिनों में उन की छंटवाई करवानी होती थी तो मिसिज़ यह काम मेरे और बेटे की अनुपस्थिति में करवाया करती थीं....कालेज से आने पर वह बहुत नाराज़ हुआ करता था, एक दो दिन तक यह नाराज़गी चला करती थी।
अब मेरी मां की भी सुन लीजिए....हमारे गृह-नगर में जो मकान है, वहां पर एक बहुत बड़ा पेड़ था.....मां उधर कुछ दिन अकेली थीं.......पांच सात दिन.....सात वर्ष पहले की बात है... पेड़ कटवाने वालों की बातों में आकर मां ऩे उस शीशम के बड़े से पेड़ को जड़ से ही कटवा दिया.....सात सौ रूपये मां को देकर गये थे वे लोग...वैसे मां की पैसों में इतनी दिलचस्पी नहीं थी जितनी इस बात में कि पेड़ अपने आप काट गये और उठा कर भी ले गये....जब शाम तक सारा पेड़ कट गया ...मैं घर पहुंचा तो मुझे वह वीरानगी इतनी बुरी लगी कि मैं ब्यां नहीं कर सकता.......मुझे पता नहीं उस दिन क्यों लगा कि घर में मातम जैसा माहौल है। मुझे उस दिन अपनी मां पर बहुत ही गुस्सा आया था, लेिकन मां को कहना क्या था, कुछ नहीं। मैं चुपचाप ही रहा दो तीन दिन।
पेड़ों से मुझे बेइंतहा मोहब्बत है.....मैंने कहा न कि मैं किसी को एक टहनी काटने की भी इजाजत न दूं....लेकिन यह तो एक इमोशनल पहलू है....वास्तविकता तो यह है कि घर में भी और सरकारी विभागों को भी यदा कदा विभिन्न कारणों से पेड़ थोड़े काटने-छांटने ही पड़ते हैं.. वाहनों के रास्तों में, बिजली, टैलीफोन की तारों के रास्ते में आने वाले पेड़ों की छंटाई तो होती ही रहती है। इस का सब से बढ़िया ढंग मैंने बंबई में देखा जिस में एक गाड़ी पर एक लंबी सी एडजेस्टेबल सीढ़ी फिट हुई रहती है.. और इस तरीके से पेड़ के किनारे लगे पेड़ों की नियमित छंटाई होती रहती है।
यहां लखनऊ में भी मैंने कुछ व्ही-आई-पी एरिया में पेड़ इसी तरीके से बड़े सलीके से कटते देखे हैं।
आज दोपहर जब मैं लखनऊ के एक एरिया में घूम रहा था तो अचानक मेरी नज़र पेड़ों की एक कतार पर पड़ी जिन की छंटाई बड़े ही अच्छे ढंग से (कम से कम) की गई थी .....आप देखिए कि बड़ी बड़ी टहनियों को बिल्कुल छुआ तक नहीं गया है। Well done!!
पेड़ों की अच्छे से छंटाई होने की ये बढिया मिसालें |
पेड़ों की इतनी अच्छे से छंटाई शायद मैंने एक दो बार ही पहले कईं देखी थी। जो मैंने पंजाब हरियाणा में देखा ... शायद जो मैंने अनुभव किया कि कुछ घरों में सब से हट्टे-कट्टे लोंडे को कुल्हाडी देकर पेड़ पर चढ़ा दिया जाता है ...कि चला बेटा कुल्हाडी, जितना आसानी से काट सकता है, छांग दे पेड़ को (पंजाबी में पेड़ की छंटाई को छांगना कहते हैं) ......ताकि धूप तो नीचे आए। ऐसे पेड़ देख कर बहुत बुरा लगता था...ऐसा लगता था िसर मुंडवा दिए गये हों इन सब के...........कितने बदसूरत दिखा करते थे तब पेड़......बिना हरियाली के, बिना फूल-पत्तों के. धूप की चिंता हम लोगों को बड़ी सताती है ....और फिर जब गर्मी में छांव कम दिखती है तो झुंझलाते ही हमीं लोग हैं।
हां, जहां तक हमारे गृह-नगर वाले मकान की बात है, वह पेड़ हमारी बाउंडरी वाल के साथ गेट के साथ सटा हुआ था...शीशम का पेड़ था, अपने आप ही उग आया था.. उस के पत्ते नीचे गिरते थे, गार्डन में गंदगी फैलती थी, मां को लगता था.......इसलिए उस से छुटकारा पा तो लिया......लेकिन उस के बाद घर बड़ा सूना सूना लगने लगा. उस पेड़ के रहने से हमारे घर का कोई भी हिस्सा बाहर गेट से नहीं दिखता था....
तो हुआ यह कि पेड़ के कटने के कुछ ही महीनों के बाद उस मकान में ऐसी चोरी हुई कि घर के बर्तन तक चोर-उचक्के उठा कर ले गये, पंखे के पर तक काट कर ले गये, गैस के सिलेंडर...बस फर्नीचर छोड़ कर जाना शायद उन की मजबूरी रही होगी। मेरी मां को यही लगा िक पेड़ कटवाना अशुभ रहा ...इसलिए इतनी बड़ी चोरी हो गई.......और मैंने कभी नहीं कहा कि नहीं, नहीं, इस का पेड़ कटवाने से कुछ लेना देना नहीं है, मुझे लगता है कि मां की यही सजा है, उन का यही पश्चाताप है कि उन्हें लगे कि ऐसे पेड़ को जड़ से कटवाना बुरी बात है..........वैसे उस दिन के बाद उन्होंने कभी किसी पेड़ को नहीं कटवाया और कहती हैं कि न ही कटवाएंगी..
एक बात और याद आ गई........लखनऊ आने से पहले हम लोग जिस घर में रहते थे हरियाणा में, वह घर जिस महांपुरूष को अलाट हुआ तो सुना है कि उसने पहले तो सभी पेड़ कटवाए, फिर उस घऱ में रहने को आए वे लोग.....बाबा रामपाल की जय हो।