बुधवार, 26 अप्रैल 2023

डालडे पर पलने वाली पीढ़ी के भी अपने मज़े थे...

मुझे बार बार पूछा जाता है कि तुम्हारी किताब कब आ रही है...क्यों इतनी देर कर रहे हो ...मैं कैसे भी इस तरह के सवालों को टाल जाता हूं कि बस, आलस की बीमारी है ...जी हां, टालने के लिए कह तो देता हूं और फिर जब अपने आप से कहता हूं कि असल बात यह तो नहीं है...दरअसल मैं अपनी पुरानी यादों की गठरीयों को संभालने में ही इतना मसरूफ़ रहता हूं कि यह किताब विताब लिखने के चक्कर में कौन पड़े ....जब कि मैं बड़ी हलीमी से यह लिख रहा हूं कि कोई किताब लिखना भी अब मुश्किल नहीं लगता...एक हफ़्ते भर का काम है, छुट्टी लेकर इत्मीनान से बैठ जाऊं तो लिख लूं एक किताब भी, उतार दूं लोगों के उलाहने भी ... ..लेकिन पिछले बीस बरसों में ऐसा मौका मिला ही नहीं, पता नहीं क्यूं.

मार्च 1963 के फिल्मफेयर में दिखा यह डालडे का डिब्बा जिसने यह पोस्ट लिखने के लिए उकसाया मुझे - स्लोगन देखिए ...माएं जो बच्चों की केयर करती हैं, वे डालडा इस्तेमाल करती हैं .....कुछ सुना सुना नहीं लग रहा ...जैसे वे हाकिंग्ज़ कुकर वाले कहते थे ....जो पत्नी से करते प्यार, वे हॉकिंग से कैसे करें इंकार .... हा हा हा हा 😎

खैर, आज डालडे का ख्याल कहां से आ गया है...लेकिन ख्याल तो उस का आता है जिसे हम कहीं भूल गए हों....जब डालडा बचपन ही से अपनी यादों में बसा हुआ है तो उसे कैसे भूल सकते हैं...लेकिन उस के बारे में लिखने का ख्याल इस लिए आया कि दो दिन पहले मैं 60 बरस पुरानी फिल्मफेयर के पन्ने (मार्च 1963) उलट-पलट रहा था....इसे खरीदा सा कुछ महीने पहले ...तो अचानक मेरी नज़र डालडे के इस इश्तिहार पर टिकी की टिकी रह गईं।  लिखने का मेरा मक़सद एक यह भी होता है कि इसी बहाने आज से 50-60 पुराने दौर की यादें एक पैकेज की तरह इक्ट्ठा हो जाती हैं ..एक ब्लॉग पोस्ट की शक्ल के रूप में ...और कोई पढ़े न पढ़े, ख़ुद की डॉयरी पढ़ने से सुख मिलता ही है...😎

डालडे का नाम सुनते ही, इस का पुराना इश्तिहार किसी मेगज़ीन में देखते ही हमें याद आती है मां के चूल्हे-चौके की ...आग धधक रही अंगीठी की, उस पर रखे तवे पर डालडे घी में तैर रहे नमक-अजवायन के लज़ीज़ परांठों की ...जो बिना किसी हिसाब किताब के सिंकते रहते थे....जब तक जब का पेट न भर जाए और जब तक स्कूल-कॉेलेज के लिए भी वे बन कर डिब्बे में बंद न हो जाते ..। हमें याद है कि यही हमारा नाश्ता होता था ..डालडे में तैयार हुए दो परांठे- कभी आलू के, गोभी, मूली के भी, लेकिन डालडे में गडुच्च, साथ होता था आम का अचार और एक दम कड़क और खूब शक्कर वाली चाय....सच में पेट भरने के साथ साथ, नज़रें भी संतुष्ट हो जाती थीं और आत्मा को भी परम सुख की अनुभूति होती थी ...कभी कभी बेसन का पूड़ा (जिसे शायद कहीं कहीं चिल्ला भी कहते हैं), बेसन वाली रोटी (मिस्सी रोटी), दाल वाली रोटी, परांठे के साथ आलू-प्याज़ के पकौड़े भी अकसर होते थे ....और महीने में कभी एक आध बार ब्रेड भी खा लेते थे ...अच्छे से सिकी हुई मलाई और चीनी लगा कर (हमें तो तब यही भी नहीं पता था उसे मलाई सेंडविच कहते हैं😀)....

कुछ बातें सारी पोस्ट लिखने के बाद याद आती हैं जैसे मुझे यह याद आया कि मुझे चीनी के परांठे भी बहुत भाते थे...डालडे में तले ही परांठों की तो बात ही क्या करें....क्या गज़ब महक आती थी। अच्छा, एक मज़ेदार बात और ...मुझे याद है जब मैं छोटा बच्चा था (बड़ी शरारत करता था..), जब अपनी नानी के यहां गया होता तो देर रात में उठ के बैठ जाता ..रोने लगता कि मुझे चीनी के परांठे खाने हैं...नानी तो ठहरी नानी, बेचारी उसी वक्त स्टोव जला कर लग जाती काम और मुझे भी 1-2 चीनी के परांठे खा कर आराम की नींद आती। 

हां, कहां मैं भी नाश्ते का पिटारा खोल के बैठ गया....अच्छी भली डालडे और मां के चूल्हे में सिक रहे परांठों की हो रही थीं...एक बात मुझे और बहुत याद आती है ...हमारा एक दोस्त था, अब तो उस का नाम भी नहीं याद ...लेकिन छु्टी वाली दिन मैं अकसर सुबह-सुबह उस के घर चला जाता क्योंकि वहां से हमें ग्रांउड में गिल्ली-डंडा, कंचे, पिट्ठू-सेका ...कुछ भी खेलने जाना होता था ...जब मैं उस के घर में पहुंचता सवेरे तो मैं देखता कि उस के घर में भी डालडे के परांठों बनाने का बदसतूर जारी है ...लेकिन हमारे घर के मुकाबले में बड़े स्तर पर...क्योंकि उन के घर में आठ-दस लोग थे....मंज़र याद करता हूं तो मज़ा आ जाता है ...उन के आंगन में आठ-दस चारपाईयां बिछी हुई हैं....उस दोस्त की झाई (मां) बार बार बच्चों को आवाज़ें लगा रही है कि उठो, नाश्ता कर लो..अंगीठी पर  तले जा रहे गर्मागर्म परांठों से जो धुआं निकलता है ना उस खुशनुमा जानलेवा महक को ब्यां कर पाना मेरे बस में नहीं है, यह तो वही समझ सकता है जो उस दौर का साक्षी रहा है....हां, उस दोस्त के घर में जा कर मुझे यह बड़ा अजीब भी लगता और अच्छा भी लगता कि उस दोस्त के भाई-बहन आंखें मलते हुए बिस्तर से उठ रहे हैं और सीधा मां के पास आकर अपनी थाली में परांठे रखते हैं, साथ में चाय का गिलास उठाते हैं और चारपाई पर जा कर इत्मीनान से नाश्ता करने लगते हैं....मैं वहां बैठा बैठा सोच में पड़ जाता कि हमारे घर में तो नियम है कि बिना मुंह हाथ धोए, बिना दांत साफ किए हुए क्यों हम लोग परांठों तक पहुंच नहीं पाते ....

खैर, इसी तरह से डालडे पर हमारी पूरी पीढ़ी पल रही थी ...हम से पिछली पीढ़ी के देशी घी के किस्से सुनते सुनते कि इस डालडे का तो उन्होंने नाम तक न सुना था, सब कुछ ख़ालिस देशी घी में ही बनता था हमारे मां-पिता जी के यहां तो ...देशी घी वेरका तो हमारे यहां भी आता था लेकिन इस्तेमाल कम ही किया जाता था...दाल की कटोरी में डालने के लिए, कभी देशी घी के परांठे बन जाते थे, मक्की की रोटी पर रखे गुड़ को नरम करने के लिए देशी घी लगता था और हलवा बनाने के लिए भी कईं बार वही इस्तेमाल होता था ...कहने का मतलब मेरा यही है कि देशी घी की घर में डिमांड ज़्यादा थी और सप्लाई बहुत कम ...इसलिए बरसों बाद जब मैंने रोटी फिल्म में मुमताज का अपने ढाबे पर वह देशी घी का डॉयलाग सुना तो मुझे बहुत हंसी आई....


डालडा घी को याद करता हूं तो उस डालडे घी से बड़ी मस्ती से चम्मच भर भर के डालडे को निकालती और परांठों पर चुपड़ती मां याद आ जाती है ...ऐसे लगता है जैसे अभी फिर से कहीं से प्रकट हो जाएगी...लेकिन जाने वाले कहां आते हैं, उन की तो यही यादें ही हैं जिन के ज़रिए हम उन खुशनुमा लम्हों को फिर से जी लेते हैं...

डालडे के डिब्बे से जुड़ी कुछ यादें ये हैं कि उस के नए दो किलो या चार किलो के डिब्बे को खोलना भी इतना आसान काम न होता था...उस के ढक्कन के नीचे टीन की सील लगी होती थी। हमारे घर में तो उसे खोलने के लिए एक ओप्नर था....लेकिन फिर भी कभी जिसने भी उस ओप्नर का इस्तेमाल किए बिना उसे खोलना चाहा उसने हाथों पर घाव ही किया ...अच्छा, अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि दो और चार किलो के डालडे के डिब्बे हुआ करते थे ...मुझे अब याद नहीं कि क्या एक किलो का भी होता था कि नहीं...शायद इसलिए नहीं याद कि हमने उसे अपने यहां कभी देखा ही नहीं, क्योंकि उन दिनों घरों में जब डालडे की खपत ही इतनी हो रही थी तो क्यों आएगा एक किलो वाला डिब्बा घरों में....

नवीं कक्षा की बात है...हमारे साईंस के अध्यापक श्री सतीश वर्मा जी हमें विज्ञान बड़ी मस्ती से पढ़ाते थे ...उन दिनों मेरे 40 में से 38 अंक आते थे विज्ञान में और कक्षा में मेरी उत्तर-पुस्तिका को घुमाया जाता था ...नवीं कक्षा में जब उन्होंने हमें वनस्पति घी को तैयार करने की विधि समझाई ...Hydogenation of Vegetable Oils ..तो डालडा खाने का और भी मज़ा आने लगा ...वह और भी अपना ही लगने लगा ....ऐसे लगने लगा कि वाह, अब तो हम इसे तैयार करने की विधि भी जानते हैं ...हां, वह सब ट्राई करने के चक्कर में नहीं पड़े, यही गनीमत है लेकिन उस प्रक्रिया को जानना भी कम रोमांचक न था...

डालडे का टीन वाला डिब्बा जो अभी आप ने ऊपर इश्तिहार में देखा वह जब खाली हो जाता तो उस का क्या अंजाम होता था ...वह अकसर तो कबाड़ी को बेच दिया जाता....जैसा कि अभी मैं आप को उस दौर के गीत के ज़रिए दिखाऊंगा जिस में हास्य कलाकार महमूद ने गले में डालडे का खाली डिब्बा डाला हुआ है ... कईं बार उस खाली डिब्बे में चावल-चीनी जैसी खाने पीने के पदार्थ स्टोर किए जाते थे। बहुत बार तो मैं ही अपने कंचे को संभालने के लिए एक दो डिब्बे हथिया लेता था ...एक में पुराने कंचे और दूसरे में नए कंचे....कंचों का मैं किसी ज़माने में चेंपियन था ...क्या निशाना था....शाम को जब कंचों के खेल खत्म हो जाते तो कंचों को उस डालडे के डिब्बे मे ंडाल कर धोना और फिर उन को गिनना, इसी तरह के मेरे शुगल थे ...

एक बात और डालडा डालडा किए जा रहा हूं ....उसी की रट लगा रखी है मैंने ....मैं रथ को कैसे भूल गया ...एक रथ वनस्पति घी भी होता था ...शायद कंपनी ही अलग थी ..कुछ कुछ याद आ रहा है कि घर में कभी डालडे की तारीफ़ करने लग जाते, कभी रथ की ...अच्छा, हम 1975 के आसपास (जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है) ये डालडा और रथ प्लास्टिक के डिब्बों में आने लगे...ये प्लास्टिक के डालडा-रथ के डिब्बे एक किलो के साइज़ के ही आते थे ....मुझे अपने कंचे रखने के लिए वे एक किलो वाले खाली डिब्बे ज़्यादा सुविधाजनक लगते थे ..

अभी हम लोग कालेज जाने लगे थे शायद कि पोस्टमेन घी शुरू हो गया ....यह एक बड़े चोकोर से टीन के आकर्षक डिब्बे में मिलता था ...यह लिक्विड तेल होता था ...मूंगफली का तेल ... इस तेल की घरों में बड़ी इज़्ज़त थी....लेकिन इसे भी कम ही इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि यह महंगा था ...शायद दाल-सब्जी के लिए ही ...और हमारे प्रिय परांठों पर अभी भी रथ और डालडा ही चुपड़ा जा रहा था ...😃

यादें भी बारात की तरह होती हैं, हर याद इस बारात में शामिल होना चाहती हैं लेकिन कोई लिखे भी तो कितना लिखे ...कितना डालडा और रथ खाया, बेहिसाब ...कितना जम गया होगा कितना घुल के बह गया होगा...ये तो ईश्वर ही जानता है लेकिन जो मुझे लगता है कि जितना परिश्रम उस दौर में लोग करते थे अधिकतर तो इस्तेमाल ही हो जाता होगा, यह मेरा कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है....बस मुझे ऐसा लगता है ...क्या है न, जैसे जैसे देश-समाज में सम्पन्नता आई घी और तेल का भी एक बड़ा बाज़ार बन गया ....यह खाओ, यह मत खाओ......कोई विदेशी तेल के लिए कह रहा है ...कोई देशी ...कोई कुछ कोई कुछ ...कोई  किसी तेल की तारीफ़ में लगा हुआ है तो कोई किसी मक्खन, घी या किसी दूसरे तेल की ....डाक्टरी पढ़ कर भी हम जैसे लोग भी अगर सच में कंफ्यूज़ ही हैं तो फिर जनसाधारण की तो बात ही क्या करें, उन्हें  ताकतवर मार्कीट शक्तियां जो सबक पढ़ाना चाहती हैं, वे देर सवेर उन को अपनी चपेट में ले ही लेती हैं ..कोई भी हथकंडा अपना लेती हैं, डाक्टरों से कहलवा कर, शॉपिंग प्लॉज़ा में एक से साथ एक मुफ्त दे कर ....या और भी बहुत कुछ कर करा के ...सीधे सादे लोगों को झांसे में लेना कोई मुश्किल काम नहीं है ....इश्तिहार बाज़ी का ज़माना है ...सब कुछ मुमकिन है ...ऊपर डालडे के विज्ञापन में ही आपने देखा क्या क्या फ़ायदे गिनवा गए हैं........

खैर, हम लोगों के पास तो कोई विकल्प ही न था, अब परांठे खाने हैं, देशी घी के कनस्तर पहुंच से बाहर हैं तो डालडे-रथ के ही तो खाने पड़ेंगे.....सरसों के तेल के परांठे तो नही न बन सकते....लेकिन यादें तो हैं न हमारी उस से भी जुड़ी हुई ....हमारी मां को कईं चीज़ें सरसों के तेल में भी बनाना अच्छा लगता था ...और उन का ज़ायका भी बहुत अच्छा होता था ...वैसे हमने इतनी उम्र होते होते देखा है कि बहुत से घरों में सरसों का तेल ही इस्तेमाल होता रहा है ...हमारे बड़े-बुज़ुर्ग भी इस की हिमायत करते थे ...क्या था न पहले शुद्धता का कोई इतना मुद्दा भी तो न था...लेकिन सीधे सादे थे अमूमन ...कुछ चीज़ें मुझे याद है हम लोग सरसों के तेल में ही बनी पसंद करते थे ...जैसे कि मेथी आलू...सरसों के तेल में छोंके  हुए आंवले, भिंडी इत्यादि ....

ऊब गया हूं इस डालडे के बारे में लिखते लिखते ...चलिए, विषय को थोड़ा बदलते हैं....मैं जब इस 60 साल पुराने फिल्मफेयर के पन्ने उलट-पलट रहा था तो मुझे बहुत से इश्तिहार और भी दिखे जिन को देख कर भी कुछ कुछ याद तो आता रहा ...चलिए, उनमें से कुछ को यहां पेस्ट करता हूं ...आप भी गुज़रे दौर का मज़ा लीजिए...
तर

मुझे आज पता चला कि वाटरबरी के नाम से ठंडी लगने की भी कोई दवा आती थी....मुझे तो इस के बारे में तब पता चला जब नवीं दसवीं क्लास में जब एक बार डा. साहब हमारी सेहत की जांच करने आए...उन को सब ठीक ही लगा लेकिन मैंने बाद में उन से जा कर कहा कि मुझे कमज़ोरी महसूस होती है ...उन्होंने एक पर्ची पर वाटरबरी टॉनिक लिख दिया....पिता जी बाज़ार से लाए और मैं खुद को पहलवान समझने लग गया 😇

आज हम इस तरह के विज्ञापन का तसव्वुर भी नहीं कर सकते ...पढ़िए ज़रा इसे पूरा ...इस तस्वीर पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ पाएंगे ...

फिल्मफेयर के आखिरी पन्ने पर उस दौर के सुपरहिट हीरो बिश्वाजीत की फोटो 

अच्छा तो सिने स्टार्ज़ के बारे में जानने के लिए भी किताबें छपती थीं ... नीचे देखिए... फिल्म स्टारों के पोस्टर बेचने की बात लिखी है ...1963 में भी ढाई रुपल्ली में ...😁

मुझे यह समझ नहीं आया कि यह 16 एमएम की फिल्म का क्या फंड़ा था आज से 60 साल पहले ...अगर इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई पाठक इस पर रोशनी डाल सके तो अच्छा होगा...

फिनिक्स मॉल है अब मुंबई में ....वहां जाते हैं ...लेकिन 60 बरस पहले वहां पर फिनिक्स मिल हुआ करती थी, जहां फिनिक्स फैबरिक्स नाम का कपड़ा तैयार होता था ...यह मेरा अनुमान है ...नाम से मैं ऐसा समझ रहा हूं..

वाह .... फिल्मफेयर के पन्ने पर व्ही.शांताराम जैसे महानायक के दीदार भी हो गए....उस ग्रेट फिल्म डा कोटनीस के एक सीन के के ज़रिए ...

क्या कहें अब इस विज्ञापन के बारे में ....यह तो बीते ज़माने की एक बात हो के रह गई है ...

महान अभिनेत्री  ललिता पवार जो अपने अभिनय से अपनी भूमिका में जान फूंक देती थी ....क्या गजब का फ़न था इन के पास, ये खलनायक शाकाल, गब्बर वब्बर तो बाद में आए....इन की फिल्म देख कर सच में बच्चे तो डर जाते थे ..ये वो लोग थे जिन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी हिंदी सिनेमा को समर्पित कर दी....इन की पुण्य याद को सादर नमन...अभी जो मैं नीचे नील कमल फिल्म का गीत एम्बेड करूंगा उस में भी ललिता पवार ने कमाल का अभिनय किया है ...

लो... कर लो बात ....ज्यादा मीठा खाने की सलाह दे रहा यह विज्ञापन 

छुट्टी सब को अच्छी लगती है, इन सिने-तारिकाओं की एक दिन शूटिंग कैंसल हो गई तो ये पिकनिक पर निकल गईं ....और फिल्मफेयर ने उन लम्हों को भी कवर कर लिया ....(पढ़िएगा इसे फोटो पर क्लिक कर के ....आसानी से पढ़ पाएंगे) 


इस टीनोपाल की डिब्बी ने भी सफेदपोशों की नाक में दम किए रखा ....खास कर के गृहिणियों को तो उलझाए रखा इस तरह के विज्ञापनों ने ....उस की शर्ट या साड़ी मेरी साड़ी से सफ़ेद कैसे वाली प्रतिस्पर्धा ... हा हा हा हा ....

लीजिए, डालडे की इतनी बातें सुनने के बाद नील कमल फिल्म का यह गीत भी सुनिए...खाली डिब्बा खाली बोतल ले ले मेरे यार, खाली से मत नफ़रत करना खाली सब संसार.....यह रहा इस का लिंक ...वैसे तो नीचे एम्बेड भी कर रहा हूं लेकिन कईं बार एम्बेड डिसएबल हो जाता है ....और ब्लॉग लिखने वाले को पता ही नहीं चलता...इसी फिल्म का वह सुपर-डुपर गीत था ..बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझ को सुखी संसार मिले....अभी मेरी बहन की शादी नहीं हुई थी जब यह फिल्म आई थी....मेरे पिता जी अकसर यह गीत सुनते सुनते रो पड़ते थे ...भावुक थे ... लेकिन आप इन चक्करों में मत पडिए, अगर इतनी मशक्कत कर के यह डालडे की पोथी पढ़ कर आप यहां तक पहुंच ही गए हैं तो महमूद साहब की बेहतरीन अदाकारी के साथ फिल्माया गया यह गीत ज़रूर सुनिए...गले में डालडे का डिब्बा लटका रखा है उन्होंने ...ग्रेट कॉमेडियन ऑफ ऑल टाइम्स ....🙏

जल्दी ही फिर किसी किस्से कहानी के साथ मिलते हैं....मुझे खुद पता नहीं इस का टॉपिक क्या होगा, अगर आप के ख्याल में ऐसा कोई विषय है जिस पर लिखा जाना चाहिए...तो नीचे कमेंट में लिखिए...कोशिश करेंगे....अच्छा, अपना ख़्याल रखिए...


PS... इस पोस्ट को लिखने के बाद मैं अपनी बहन से फोन पर बात कर रहा था तो मैंने पूछा कि इन डालडायुक्त बातों में आप भी अपनी यादें जोडिए...आप तो मेरे से 10 बरस बड़ी हैं....उन्होंने जब एक बात सुनाई तो मुझे भी कुछ कुछ याद आ गया ....उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हें भी याद होगा कि हम लोग एक बार किराने की दुकान पर थे तो एक बंदे ने चार किलो का डिब्बा उठाया हुआ था ...टीन वाला ..जिस के ऊपर एक हुक सा लगा रहता था ...मुझे भी याद आया कि अचानक वह हुक टूट गया और वह भारी भरकम डिब्बा उस के पांव के ऊपर गया, उस के पैर का अंगूठा भयंकर रूप से कट गया था ....कुछ यादें हमेशा के लिए दिल में कैद हो जाती हैं जैसे...

बहन ने यह भी बताया कि बीजी (हमारी मां) के हाथ के परांठे तो सारे खानदान में मशहूर थे ...जब भी हम लोग ननिहाल जाते तो सभी लोग कहते कि परांंठे तो संतोष ही बनाएगी....और हमारी मौसी तो खास कर के बीजी के परांठों की दीवानी थी...

ऐसे ही है, जब कोई बात पुरानी छिडती है तो सब को अपने दिन याद आते हैं ..और इसी से लेख में ज़िंदगी आती है ...क्या ख्याल है आपका....!

शनिवार, 22 अप्रैल 2023

आज फिर दे दिया न धोखा कैमरे ने ...


अपने ऊपर ही गुस्सा आता है जब कभी कैमरा धोखा दे देता है ...अकसर हम लोगों को कोई लम्हा ही कैद करना होता है ...अगर ऐन उसी वक्त कैमरा ही नाटक कर जाए तो खुद पर गुस्सा तो आएगा ही ...क्यों नहीं मैंने मोबाईल की यादाश्त का ख्याल रखा..

आज ईद है ...बंबई के बाज़ारों में, स्टेशनों पर खूब रौनकें लगी हुई हैं...लोग नए नए कपड़े पहने बाहर निकले हुए हैं....मुझे अकसर ईद के दिन लखनऊ की होली याद आ जाती है जब लोग वहां पर नए कपड़े होली खेलने के लिए ही सिलवाते हैं...नए नए कपड़े पहन पर होली खेलते हैं....

आज जब मैंने बहुत से लोगों को नए कपड़े पहने देखा तो अच्छा लगा...लेकिन अचानक नज़र पड़ गई दो बंदों पर जिन्होंने पैंट-शर्ट एक ही कपड़े से तैयार हुई पहनी थी...मुझे नहीं याद आज यह नज़ारा मैंने कितने बरसों बाद देखा होगा...मैं थोड़ा सा पीछे हटा...और मोबाईल का कैमरा ऑन करने लगा तो स्क्रीन पर आ गया कि स्टोरेज फुल है, मैनेज करो...क्या मैनेज करो यार, बीच रास्ते में इतनी गर्मी के मौसम में क्या डिलीट करो, क्या रखे रहो...और यह सब भी बीच रास्ते में खड़े होकर ...अपने ऊपर ही खीज गया....वे दोनों तो फ़ौरन आंखों से ओझल हो गए...

मेरे चेहरे पर एक मुस्कान ज़रूर बिखेर गए लेकिन ....

अपने ऊपर आये गुस्से का वक्त जब निकल गया तो यह जो मुस्कान मेेरे चेहरे पर आ गई उस का कारण था....मुझे बीते दौर की कुछ बातें याद आ गईं....बचपन में देखा करते थे कभी कभी मां-बाप थोड़ी बचत करने के लिए दो बेटों को एक ही तरह की निक्कर और शर्ट सिलवा देते थे...एक जैसा कपड़ा....उन्हें देख कर बड़ा मज़ा आता था, शरारतें सूझने लगती थीं, लोग हंसने लगते थे ......एक बात साफ़ कर दूं कि पहले हम लोगों की हंसी में वह मक्कारी नहीं थी जो आज अकसर देखने को मिलती है ...हम अगर ऐसे दो छोटे बच्चों पर हंसते भी थे या कोई फि़करा कस देते थे तो उसमें कुछ भी नहीं होता था...हल्के फुल्के मज़ाक के सिवा.....लेकिन अब हम लोगों की खिल्ली उड़ाने लगे हैं....हमें लगता है कि बस हम ही हम हैं, और कुछ नहीं....उस दिन मैं कालोनी में किसी महिला को किसी अन्य कामकाजी महिला (गृह-सेविका) से ऊंची आवाज़ में बातें करता देख रहा था तो मैंने सुना वह उसे कह रही थी ....तुम्हें पता नहीं तुम बात किस से कर रही हो.....बड़ा अजीब लगा उस दिन। खैर, हम मज़ाक की बात कर रहे थे ....मज़ाक उसे करने का हक है जो दूसरों का मज़ाक सह भी ले ..हमारे ज़माने में यह जज़्बा था ही ...हम भी मज़ाक की बातों को हंसते खेलते हंसी हंसी में उडा़ दिया करते थे ...शायद इसलिए लोगों के चेहरे भी खिले रहते थे ...

अच्छा, एक बात और ....कईं बार ज़रुरी नहीं कि किसी घर के दो बेटे ही दिखते थे एक तरह के कपड़े के ....कईं बार तो भाई ने जिस कपड़े की शर्ट पहनी होती थी, उस की बहन ने उसी कपड़े का फ्रॉक पहना होता था ...कईं बार बड़े लड़के भी एक ही तरह के कपड़े की शर्ट में दिख जाते थे ...लेकिन आज तो 45-50 बरस के दो बंदों को एक ही कपड़े की शर्ट और पतलून में देख कर मज़ा आ गया....कैमरे में कैद करना चाह रहा था क्योंकि ऐसा संयोग बीसियों बरसों में एक बार होता है इस तरह का मंज़र दिखता है ...खैर, कोई बात नहीं, फोटो न सही लेकिन इस पोस्ट के ज़रिए तो मैंने उस लम्हे को अपनी यादों में संजोने की कोशिश कर ली....

मैं फुटपाथ पर चलता चलता यह भी सोच रहा था जब छोेटे छोटे बच्चों को नए नए कपड़ों में आते जाते देख रहा था कि हमारे महान लेखकों ने भी क्या क्या लिख दिया है हमारे लिए ...उस महान लेखक मुंशी प्रेम चंद की कहानी ईदगाह याद आ गई ....वाह, क्या कहानी थी, एक बार सुन तो कभी दिल से न निकले ....इकबाल था शायद उस छोटे का नाम, अपनी बुज़ुर्ग दादी के साथ रहता था...दादी ने ईद के दिन उसे कुछ पैसे दिए कि दोस्तों के साथ ईद के मेले पर जा रहे हो, कुछ खा पी लेना, कुछ खरीद लेना....उस बालक ने अपने ऊपर बड़ा कंट्रोल रखा ...कुछ न खाया, कुछ न पिया, न ही कुछ खरीदा....एक चिमटा खरीद लाया अपनी दादी के लिए ....और मेले से लौट कर उसे कहता है कि दादी, यह इसलिए लाया हूं क्योंकि चूल्हे पर रोटी सेंकते हुए तुम्हारे हाथ अकसर जल जाते हैं....दादी ने उसे गले से लगा लिया.....

एक बात और यह भी मुझे रास्ते में याद आ रही थी कि 12-15 बरस पहले जब मैं ऑन-लाइन कंटैंट तैयार करने के बारे में एक वर्कशाप में भाग ले रहा था तो एक साथी ने एक्सपर्ट से पूछा कि कैमरा कौन सा अच्छा है, उस के बारे में बता दीजिए....उसने कहा कि जो भी जिस वक्त आपने फोटो खींंचनी है, उस वक्त आप के पास जो भी कैमरा है, वह सब से बढ़िया कैमरा होता है। 

यह बात समझते समझते हमे ंबरस लग गए...हम लोग लाखों रूपये के कैमरे खरीदते रहे ....हज़ारों रूपयों के लैंस खरीदते रहे ....पता नहीं कहां धूल चाट रहे होगे .......लेकिन हमेशा साथ निभाया हमारी जेब में पड़े मोबाईल के कैमरे ने .......चूंकि हम चलते फिरते फोटोग्राफर हैॆ, हमें स्टिल फोटोग्राफी तो करनी नही, हमें तो कुछ लम्हों को कैद करना होता है जो अपने आप में एक दास्तां ब्यां कर रहे होते हैं....बस एक दो पलों का हेर फेर होता है, कुछ प्लॉनिंग का वक्त नहीं मिलता....कुछ सोचने विचारने का वक्त नहीं होता, ...टार्गेट हमारे सामने होता है और हमें केवल एक बटन दबाना होता है जल्दी से भी जल्दी ...फ़ौरन ....बहुत बार ऐसा होता है कि जेब से फोन निकालते निकालते वह शॉट गुम हो जाता है, मलाल तो होता ही है, क्या करें, इंसान ही तो हैं ....अच्छा, कईं बार ऐसा भी होता है कि मोबाइल तो हाथ में था, लेकिन उसे ऑन करने के चक्कर में वह तस्वीर न ली पाए ....कईं बार कैमरा आन भी हो जाता है और उसे साईलेंट मोड करते करते बहुत देर हो जाती है .......और बहुत बार तो यही होता है जो आज हुआ....स्टोरेज नहीं है...इसलिए, मैं हमेशा कहता हूं कि मोबाइल हाथ में भी हो और कैमरा भी ऑन हो, और फुर्ती से जिसे आप कैमरे में कैद करना चाहते हैं, कर लीजिए...चुपचाप...बिना किसी तरह का भी शोर किए हुए...

लिखते लिखते बातें खुद-ब-खुद सामने आने लगती हैं....याद आ रहा है कि शायद बचपन में कभी जुड़वा बच्चे दिखते थे तो उन को भी मां-बाप एक जैसे कपड़े पहनाया करते थे...और कईं बार बाप-बेटे या मां-बेटी के कपड़े भी एक जैसे होते थे...अभी मुझे उत्सुकता हुई कि देखूं तो सही कि नेट पर ही कोई ऐसी तस्वीर दिख जाए ...मैंने 'kids with same clothes' लिख कर गूगल सर्च किया तो बहुत सी तस्वीरें दिख गईँ लेकिन जो मैं आप को दिखाता अगर आज दोपहर में मेरा कैमरा ऐन वक्त पर मुझे धोखा न दे जाता ....वह तो अलग ही तस्वीर होती....हां, यह कारण भी हो सकता है कि जो गूगल पर मुझे सर्च-रिज़ल्ट मिले वे सब खाते-पीते अमीर लोगों के थे लेकिन मैंने इस पोस्ट में उन लोगों के बारे में ही लिखा जिन को मैंने देखा कि कुछ बचत करने के लिए दो बेटों के कपड़े एक साथ एक ही जैसे कपड़े के सिलवा दिए ...इत्यादि इत्यादि ....अगर बाप ने शर्ट सिलवाई और कपड़ा बच गया तो छोटे बच्चे की कमीज़ उस में से ही निकलवा ली....जो रईस लोग इस तरह के शौक पालते हैं शौकिया, वह अलग बात है ...बि्लकुल वैसे ही जिस तरह की कटी-फटी जीनें हम लोग रईस लोगों को पहने देखते हैं तो लोग समझते हैं कि यही रिवाज़ है, यही ट्रेंड है.. ..लेकिन किसी भिखारी के असली फटे हुए कपड़ों से हम नाम-मुंह सिकोड़ कर अपना रास्ता लेते हैं...

खैर, ये हुई कैमरे की बातें, यादें....लम्हों को कैद कर लेने की फ़िराक में रहना, उन का रिकार्ड रख लेना ...लेकिन ऐसा लगता है कि दुनिया में बहुत से अहम् फ़ैसले तो ऐसे ही चलते चलते हो जाते हैं....किसी रिकार्ड में उन का ज़िक्र तक नहीं होता (ऑफ दा रिकार्ड)....किसने पेड़ कटवाने का हुक्म दिया, किसने खिड़कियों को हमेशा के लिए दीवार बना कर बंद कर देने का फ़रमान जारी किया, कौन किस के हिस्से की धूप छांव हरियाली हड़प गया, किसी को अंदाज़ा हो ही नहीं सकता...बस, चलते चलते फ़ैसले हुए और तुरंत लागू हो गए....जिन को धूप-छांव-हरियाली, रोशनी से फ़र्क पड़ने वाला है, वे किस के आगे दुखडा रोएं, हर कोई हड़बड़ी में है ..पता नहीं कहां जाना है, कहां पहुंचना है ....क्या हो जाएगा अगर कहीं पहुंच भी गए....क्या न पहुंचेंगे तो क्या रह जाएगा.......कुछ पता नहीं......लेकिन हम दौड़े जा रहे हैं ...आखिर इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है...

दादर स्टेशन के लोकल प्लेटफार्म से बाहर का ऐसा मंज़र दिख जाए, बहुत कम ही ऐसा होता है ....दोपहर के दो बजे थे और गर्मी बहुत ज़्यादा होने की वजह से दादर की मार्कीट में लोग ज़्यादा न रहे होंगे या ईद मनाने के लिए उन्होंने कहीं और का रुख किया होगा....इस जगह पर हवा के तूफ़ानी झोंके आ रहे थे ...😎

कुछ वक्त के बाद जब मैं दादर पहुंचा तो प्लेटफार्म नंबर एक पर हवा का ऐसा झोंका आया कि मज़ा आ गया....समंदर एक डेढ़ किलोमीटर ही होगा वहां से ....मैंने फोन हाथ में लिया, वाटसएप से बहुत कुछ उड़ाया, मोबाईल को जगह मिल गई कुछ और फोटो ठूंसने के लिए .....और मैंने दादर स्टेशन पर खड़े खड़े बाहर की तस्वीर खींची.....इस की वजह से मुझे एक गाड़ी भी मिस करनी पड़ी , लेकिन इस की परवाह कौन करे जब फोटो लेने का भूत सवार हुआ हो ... हा हा हा हा ...

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

निकल बेवजह ....

हम लोगों ने कहीं भी जाना होता है तो हम लोग कितनी प्लॉनिंग करते हैं...सब कुछ तय हो जाता है तभी चलते हैं, है कि नहीं...मुझे आज याद आ रहा था कि बचपन में स्कूल आते जाते वक्त भी मुझे एक ही रास्ते से जाना पसंद न था...तब तो कुछ पता नहीं था कि यह नये रास्तों को नापने की इतनी खुजली क्यों है, लेकिन अब इस उम्र में भी जब यह शौक बरकरार है तो सोच में पड़ जाता हूं कि ऐसा इसलिए होता होगा कि मुझे नए रास्तों से गुज़रना भाता है, नये लोग नये मंज़र देखने अच्छे लगते हैं इसीलिए होगा यह शौक भी ....

उस दिन भी हमारे एक दोस्त जब भायखला से निकलने लगे तो मेरा भी मन हुआ कि चलिए, आज नया रास्ता ही देख लेते हैं...उन की गाड़ी में बैठ गया, यही सोचा कि रास्ते में कहीं उतर कर ..वापिस दादर की तरफ़ आ जाऊंगा...उन्हें तो रास्ते का पता था कि चेम्बूर से पहले तो कोई ऐसी जगह नहीं है जहां किसी को ऐसे छोड़ा जा सकता है। 



इस्टर्न एक्सप्रैस हाईवे पर --- चेम्बूर की तरफ़ आते हुए 

खैर, हम लोग भायखला स्टेशन से होते हुए, सेंट मेरी स्कूल, मझगांव से होते हुए मझगांव डॉक्स की तरफ से निकल कर ईस्ट्रन एक्सप्रे हाइवे पर चढ़ गए। उन्होंने कहा कि अभी पंद्रह बीस मिनट में आ जाएगा चेम्बूर ....हम लोग चेम्बूर के एक चौक पर जब पहुंच गए तो मुझे याद आ गया कि यहां से तो मानखुर्द का रास्ता निकलता है ...वहीं मैंने उतरना था...

वहां उतर कर पुलिस कांस्टेबल से पूछा कि पास में स्टेशन कौन सा है, अगर दो मिनट मैं सोच लेता तो मुझे भी याद आ जाता लेकिन इस तेज़-तर्रार ज़माने में इतना सब्र किस के पास है। उस के बताए अनुसार मैं रिक्शा लेकर गोवंडी लोकल स्टेशन पहुंच गया....उस रिक्शे में बैठे बैठे उन 10 मिनटों में आज से 30 बरस पहले के दिन याद आ गए ...जब मैं इसी इलाके में रोज़ाना शाम के वक्त पांच बजे से नौ बजे तक टीआईएसएस में क्लासें अटैंड करने आता था .... चार बजे बंबई सेंट्रल से चलता था....एक डेढ़ घंटे के बाद देवनार में टीआईएसएस पहुंचता था.... गोवंड़ी स्टेशन से आटो में आ जाता था...कभी पैदल चलने की इच्छा होती थी और वक्त होता था तो पैदल मार्च कर लेता था ...ज़्यादा दूर नहीं है गोवंडी से टीआईएसएस ...मैंने वहां एक बरस के लिए हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन में डिप्लोमा किया था....बहुत कुछ सीखा था उन दिनों वहां से ....

खैर, मुझे गोवंडी स्टेशन की सीढ़ियां चढ़़ते चढ़ते यही लग रहा था कि शायद मैं इन पर 30 बरसों के बाद चढ़ रहा हूं ..लेकिन वह स्टेशन नहीं बदला....वहां से कुछ स्नेक्स का पैकेट लिया, और सीएसटी जाने वाली गाडी़ में बैठ गया। आठ दस मिनट में कुर्ला स्टेशन आ गया...

जानवरों को भी जहां अपनापन दिखता है वही अड्डा बना लेते हैं....फूलों को सजाने की तैयारी चल रही थी स्टेशन पर...मुंबई में हर जगह मुझे तो संघर्ष ही दिखता है ....अच्छा खासा संघर्ष ...मुझे यह हर जगह, हर गली-नुक्कड़ पर दिखता है यहां 

वहां से मुझे दादर जाने के लिए लोकल ट्रेन लेनी थी .. फॉस्ट ट्रेन ..जो सीधा दादर ही रुकती है ...एसी लोकल मिल गई ...लेकिन अंदर तो स्पेशल चैकिंग चल रही थी .... खूब रसीदें काटी जा रही थीं दो महिला टिकट चैकर थीं...लेकिन मेरे पास मेरी आई.डी तक नहीं थी....जब एक टीटी मेरे पास आईं तो मैंने अपना परिचय दिया तो उन्होंने कहा कि सर, कोई आई.डी दिखा दीजिए। इतने में मेरा ध्यान मेरे एक मरीज़ की तरफ़ गया जिसने दूर से मेरा अभिवादन किया था सीट पर बैठते ही ...मैं भी पहचान गया था...मैंने उस टीटीई को कहा कि यह जेंटलमेन मुझे जानते हैं ...(वह शायद किसी स्टेशन के स्टेशन अधीक्षक हैं)...मुझे इतना कहते जब उन्होंने सुना तो उन्होंने तुंरत टीटीई को मेरी पहचान बता दी....


सोच रहा हूं कि कभी भी कहीं भी जाने से पहले जेब में आई डी तो लेकर ही चलना चाहिए....चलिए, इसी बहाने तीस बरस पुरानी यादें कुछ कालेज की और कुछ व्यक्तिगत यादें ताज़ा हो गईं ..चेम्बूर में भी हमारा उन दिनों अकसर आना जाना होता था ....उस के लिए हम कुर्ला स्टेशन पर ही उतरते थे...वहां से कभी बस मिल जाती थी, कभी रिक्शा ले लेते थे ...

यादें भी क्या हैं, इंसान के साथ रहती हैं हमेशा ....यादों से जुड़े लोग कहां से कहां चले जाते हैं लेकिन यादें हम लोग अपने सीने से लगाए रहते हैं ....मैं अकसर कहता हूं कि किसी भी शहर के हरेक गली-कूचे, बाज़ारों, दुकानों, मंदिरों-गुरूदारों के साथ हमारी यादें जुड़ी होती हैं ....और बड़ी मीठी और गूढ़ी यादें अमूमन, एक दो खट्टी याद को मारो गोली....इसलिए भी कभी कभी बेवजह उन रास्तों पर निकल जाना चाहिए ....इतनी गारंटी मैं देता हूं कि हर बार जब आप घर से बाहर निकलेंगे, पैदल चलेंगे तो ज़रूर कुछ न कुछ ऐसा अपनी आंखों में कैद कर के लौटेंगे जिसे आपने पहली बार देखा उस दिन टहलते हुए ....

निकल बेवजह का टाइटल इसलिए कि हमारे एक ब्लॉगर मित्र के बेटे ने यह गीत लिखा है...कुछ दिन पहले उन्होंने शेयर किया था, हमें अच्छा लगा था ...


मैं तो चला जिधर चले रस्ता ......