हम लोगों ने कहीं भी जाना होता है तो हम लोग कितनी प्लॉनिंग करते हैं...सब कुछ तय हो जाता है तभी चलते हैं, है कि नहीं...मुझे आज याद आ रहा था कि बचपन में स्कूल आते जाते वक्त भी मुझे एक ही रास्ते से जाना पसंद न था...तब तो कुछ पता नहीं था कि यह नये रास्तों को नापने की इतनी खुजली क्यों है, लेकिन अब इस उम्र में भी जब यह शौक बरकरार है तो सोच में पड़ जाता हूं कि ऐसा इसलिए होता होगा कि मुझे नए रास्तों से गुज़रना भाता है, नये लोग नये मंज़र देखने अच्छे लगते हैं इसीलिए होगा यह शौक भी ....
उस दिन भी हमारे एक दोस्त जब भायखला से निकलने लगे तो मेरा भी मन हुआ कि चलिए, आज नया रास्ता ही देख लेते हैं...उन की गाड़ी में बैठ गया, यही सोचा कि रास्ते में कहीं उतर कर ..वापिस दादर की तरफ़ आ जाऊंगा...उन्हें तो रास्ते का पता था कि चेम्बूर से पहले तो कोई ऐसी जगह नहीं है जहां किसी को ऐसे छोड़ा जा सकता है।
इस्टर्न एक्सप्रैस हाईवे पर --- चेम्बूर की तरफ़ आते हुए |
खैर, हम लोग भायखला स्टेशन से होते हुए, सेंट मेरी स्कूल, मझगांव से होते हुए मझगांव डॉक्स की तरफ से निकल कर ईस्ट्रन एक्सप्रे हाइवे पर चढ़ गए। उन्होंने कहा कि अभी पंद्रह बीस मिनट में आ जाएगा चेम्बूर ....हम लोग चेम्बूर के एक चौक पर जब पहुंच गए तो मुझे याद आ गया कि यहां से तो मानखुर्द का रास्ता निकलता है ...वहीं मैंने उतरना था...
वहां उतर कर पुलिस कांस्टेबल से पूछा कि पास में स्टेशन कौन सा है, अगर दो मिनट मैं सोच लेता तो मुझे भी याद आ जाता लेकिन इस तेज़-तर्रार ज़माने में इतना सब्र किस के पास है। उस के बताए अनुसार मैं रिक्शा लेकर गोवंडी लोकल स्टेशन पहुंच गया....उस रिक्शे में बैठे बैठे उन 10 मिनटों में आज से 30 बरस पहले के दिन याद आ गए ...जब मैं इसी इलाके में रोज़ाना शाम के वक्त पांच बजे से नौ बजे तक टीआईएसएस में क्लासें अटैंड करने आता था .... चार बजे बंबई सेंट्रल से चलता था....एक डेढ़ घंटे के बाद देवनार में टीआईएसएस पहुंचता था.... गोवंड़ी स्टेशन से आटो में आ जाता था...कभी पैदल चलने की इच्छा होती थी और वक्त होता था तो पैदल मार्च कर लेता था ...ज़्यादा दूर नहीं है गोवंडी से टीआईएसएस ...मैंने वहां एक बरस के लिए हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन में डिप्लोमा किया था....बहुत कुछ सीखा था उन दिनों वहां से ....
खैर, मुझे गोवंडी स्टेशन की सीढ़ियां चढ़़ते चढ़ते यही लग रहा था कि शायद मैं इन पर 30 बरसों के बाद चढ़ रहा हूं ..लेकिन वह स्टेशन नहीं बदला....वहां से कुछ स्नेक्स का पैकेट लिया, और सीएसटी जाने वाली गाडी़ में बैठ गया। आठ दस मिनट में कुर्ला स्टेशन आ गया...
वहां से मुझे दादर जाने के लिए लोकल ट्रेन लेनी थी .. फॉस्ट ट्रेन ..जो सीधा दादर ही रुकती है ...एसी लोकल मिल गई ...लेकिन अंदर तो स्पेशल चैकिंग चल रही थी .... खूब रसीदें काटी जा रही थीं दो महिला टिकट चैकर थीं...लेकिन मेरे पास मेरी आई.डी तक नहीं थी....जब एक टीटी मेरे पास आईं तो मैंने अपना परिचय दिया तो उन्होंने कहा कि सर, कोई आई.डी दिखा दीजिए। इतने में मेरा ध्यान मेरे एक मरीज़ की तरफ़ गया जिसने दूर से मेरा अभिवादन किया था सीट पर बैठते ही ...मैं भी पहचान गया था...मैंने उस टीटीई को कहा कि यह जेंटलमेन मुझे जानते हैं ...(वह शायद किसी स्टेशन के स्टेशन अधीक्षक हैं)...मुझे इतना कहते जब उन्होंने सुना तो उन्होंने तुंरत टीटीई को मेरी पहचान बता दी....सोच रहा हूं कि कभी भी कहीं भी जाने से पहले जेब में आई डी तो लेकर ही चलना चाहिए....चलिए, इसी बहाने तीस बरस पुरानी यादें कुछ कालेज की और कुछ व्यक्तिगत यादें ताज़ा हो गईं ..चेम्बूर में भी हमारा उन दिनों अकसर आना जाना होता था ....उस के लिए हम कुर्ला स्टेशन पर ही उतरते थे...वहां से कभी बस मिल जाती थी, कभी रिक्शा ले लेते थे ...
यादें भी क्या हैं, इंसान के साथ रहती हैं हमेशा ....यादों से जुड़े लोग कहां से कहां चले जाते हैं लेकिन यादें हम लोग अपने सीने से लगाए रहते हैं ....मैं अकसर कहता हूं कि किसी भी शहर के हरेक गली-कूचे, बाज़ारों, दुकानों, मंदिरों-गुरूदारों के साथ हमारी यादें जुड़ी होती हैं ....और बड़ी मीठी और गूढ़ी यादें अमूमन, एक दो खट्टी याद को मारो गोली....इसलिए भी कभी कभी बेवजह उन रास्तों पर निकल जाना चाहिए ....इतनी गारंटी मैं देता हूं कि हर बार जब आप घर से बाहर निकलेंगे, पैदल चलेंगे तो ज़रूर कुछ न कुछ ऐसा अपनी आंखों में कैद कर के लौटेंगे जिसे आपने पहली बार देखा उस दिन टहलते हुए ....
निकल बेवजह का टाइटल इसलिए कि हमारे एक ब्लॉगर मित्र के बेटे ने यह गीत लिखा है...कुछ दिन पहले उन्होंने शेयर किया था, हमें अच्छा लगा था ...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
इस पोस्ट पर आप के विचार जानने का बेसब्री से इंतज़ार है ...