शनिवार, 31 दिसंबर 2022

आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे ...

मुंबई के लोकल स्टेशन पर जब आप सीढ़ी से नीचे उतरें और सामने ट्रेन खड़ी हो तो ज़्यादा कुछ सोचने-समझने की गुंजाईश होती नहीं सिवाए इस के कि जो भी डिब्बा सामने दिखे जिसमें चढ़ने भर की जगह हो, बस उस में सवार होने की करो, बाकी ढोने का काम तो भारतीय रेल बखूबी कर ही देगी...


आज सुबह मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ...मैं जिस डिब्बे में चढ़ा वह सामान वाला डिब्बा था ...जहां तक लोग भारी सामान लेकर चढ़ते हैं...वहां बैठने की जगह भी थी ..पांच सात मिनट का सफर था, मैं बैठ गया....इतने में एक रंग बिरंगी बड़ी सी टोकरी लेकर एक आदमी चढ़ा...उसे नीचे टिकाने के बाद वह अपने मोबाइल में मसरूफ हो गया...और मेरा दिमाग यह गुत्थी सुलझाने में लग गया कि यार, यह है क्या, ये खिलौने हैं कैसे.....खैर, एक दो मिनट बीत गए...गुत्थी वुत्थी तो सुलझी नहीं, लेकिन पता नहीं मुझे कहां से बरसों पुराना एक गीत याद आ गया ...आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे ....मुझे क्या, हमारे वक्त में यह गीत सब को बहुत भाता था..खूब बजा करता था हमारे रेडियो पर ...

लेकिन मेरे से रहा नहीं गया, मेरा स्टेशन आने वाला था और मुझे अभी तक यही पता न चल सका कि इस टोकरे में है क्या...आखिर, मैंने उस टोकरे वाले पर एक सवाल दाग ही दिया...क्या ये खिलौने हैं?..सवाल तो उसने सुन लिया, हल्का सा उसने मेरी तरफ़ देखा भी लेकिन जवाब देनी की ज़रूरत न समझी...शायद, बंबईया तौर तरीके सीख चुका था या कुछ और कारण होगा....मुझे भी बिल्कुल बुरा नहीं लगा...सवाल उछालना अगर मेरा काम है तो उसे पलट कर जवाब के साथ मेरी तरफ़ फैंकने में किसी की क्या विवशता हो सकती है .....बिल्कुल नहीं...

मुझे यह याद नहीं कि मैंने अपने पास बैठे एक युवक से भी वही सवाल पूछा या उसने खुद ही मुझे बता दिया कि यह तो बुढ़िया के बाल हैं। उसने कहा कि जिसे कैंड़ी-फ्लास भी कहते हैं...मैं तुरंत समझ गया कि अच्छा यह तो वही अपने बचपन वाली 'बुड्ढी दा झाता' (बुढ़िया के बालों का गुच्छा है), हमें कैंड़ी-फ्लास का नाम तब कहां आता था, हमने करना भी क्या था नाम वाम पता करके, बस, हमें उस ठंडे-ठंडे, मीठे मीठे झाटे को खाते हुए मज़ा बहुत आता था ..

मुझे भी थोड़ा याद तो आया कि इस तरह से कैंडी-फ्लास बिकते मैंने कुछ अरसा पहले भी दुर्गा पूजा के किसी पंडाल के बाहर देखे थे ...बड़े बड़े लिफाफों में ५०-५० रूपये में बिक रहे थे ...वह युवक कहने लगा कि अब पैकिंग ऐसी होने लगी है कि ज़्यादा से ज़्यादा सेल हो सके...सही कह रहा था वह.....अब मुझे एक और जिज्ञासा हुई कि यह गिलास इतने रंगों के हैं या कैंडी-फ्लास के इतने कलर हैं....वह भी पता चल गया कि ये अलग अलग फ्लेवर हैं, अलग अलग रंग में...


आज तो वह कैंडी-फ्लास बेचने वाला तो कहीं पीछे छूट गया....मैंने चार पांच बार आनंद बख्शी साहब का वह गीत सुन लिया....आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे ...बख्शी साहब के गीतों की कोई क्या तारीफ़ क्या करें, हर गीत जैसे हमारे जज़्बात की अक्काशी करने वाला ...अच्छा, मज़े की बात यह भी रही कि जैसे ही मुझे उस गीत का ख्याल आया, मैंने यू-ट्यूब पर उसे लगा लिया....मुझे एक मिनट सुनने के बाद यही लगा कि इतने सादे, मीठे, दिल से निकले बोल भी बख्शी साहब की कलम ही से निकले होंगे ...जी हां, जब चेक किया तो मेरा अंदाज़ा बिल्कुल सही निकला.... ज़िंदगी की हर सिचुएशन के लिए फिल्मी गीत हम जैसे लोगों ने दिलो-दिमाग में ऐसे सहेज रखे हैं जैसे लोग मैमोरी-ड्राईव में हज़ारों गीत संजो कर रखते हैं...शायद हम लोगों के दिमाग में भी एक ड्राइव ही अलग से बन चुकी है ...बरसों से इन गीतों को सुनते सुनते, इन का लुत्फ़ उठाते उठाते और इन के बजने पर किसी सपनों की दुनिया में खोते खोते... 

कैंडी़-फ्लास की बात पर लौटते हैं ...इतनी तरह की रंग बिरंगी कैंडी-फ्लास जिस में पता नहीं कौन कौन से कलर और फ्लेवर पड़े हुए  होंगे ...वैसे तो आज कल जो भी बाज़ार में बिक रहा है सब में कलर, फ्लेवर, प्रिज़र्वेटिव तो ठूंसे ही होते हैं ...लेकिन फिर भी हम सब कुछ खाए जा रहे हैं बिना अंजाम की परवाह किए....वैसे, बहुत बार ज्ञान भी खामखां छोटी छोटी खुशियों के आड़े आ जाता है ...शुक्र है जब हम लोग बर्फ के गोले बार बार मीठा रंग डलवा कर खाते थे, उस वक्त इन सब के बारे में कुछ पता न था, वरना ज़िंदगी की उन यादों से भी महरूम ही रह जाते ....

अभी सोचा कि दो महीने पहले दुर्गा पूजा के मेले की कुछ तस्वीरें भी लगा देता हूं...कैंडी-फ्लॉस की 😎.....कैंडी-फ्लास से याद आया कि कहीं बार बार पढ़ता हूं कि कैंडी-क्रश नाम की कोई मोबाईल गेम भी है...उस से दूर रहने को कहते हैं लोग....मैंने भी अभी तक उसे खोल कर नहीं देखा...बस, यूं ही बैठे बैठे कैंडी-फ्लॉस का नाम लेते हुए कैंडी-क्रश का ख्याल आ गया....




सोचने वाली बात है कि ये लोग दरअसल बच्चो की ज़िदंगी में खुशियां घोलने आते हैं ...हमें जब अपना या अपने बच्चों का वक्त याद आता है तो एक अजीब सी खुशी मन में होती है ...जब उस बुज़ुर्ग औरत का ख्याल आता है जो सुबह सवेरे रोज़ बाजा बजाते हुए बेटे को फिरोज़पुर में एक गुबारा देने आती थी.....उसे देखते ही बेटा झूमने लगता था ....और उसे देख कर हम ....ऐसे ही खुशियां बढ़ती हैं....

छोटी छोटी खुशियां थीं....छोटे छोटे खिलौने थे...मां अकसर मंदिर से मेरे लिए एक मिट्टी का तोता लेकर आती थी....मुझे वह सचमुच में एक तोता ही लगता था ...हरा चमकीला रंग, लाल चोंच ...यादों का क्या है, आती हैं तो इन की एक आंधी सी चल पड़ती है ...और खिलौने वाले भी हमें याद आते हैं ...एक तो वह जो हमें बाइस्कोप से सारी दुनिया की सैर करवा जाया करता था ..और इतने सस्ते में ..पांच दस पैसे में ....उस की डुगडुगी की आवाज़ सुनते ही हम लोग भाग कर उस के बाइस्कोप को घेर लेते ... 


हां, बाइस्कोप की बातों से याद आया कि अगर आप न पता हो तो बता दें कि इतवार के दिन दोपहर में २ से ३ बजे तक विविध भारती पर एक प्रोग्राम आता है ..बाइस्कोप की बातें ...जिस में एक फिल्म को लेकर उस की पूरी स्टोरी, डायलाग, गीत सुनाए जाते हैं...बिल्कुल फिल्म देखने जैसा लगता है ...मैं उस प्रोग्राम को कभी मिस नहीं करता ...सब काम छोड़ कर उसे सुनता हूं ...वैसे तो अगले दिन सोमवार सुबह भी वह रिपीट होता है .....क्यों क्या परेशानी है, रेडियो नहीं है ? - उस की कोई ज़रूरत नहीं, मोबाइल पर ही आल इंडिया रेडियो की न्यूज़ ऑन एयर डाउनलोड कर आप दिन भर उस पर विविध भारती के बढ़िया कार्यक्रमों का आनंद ले सकते हैं...पिछले इतवार के दिन मेरा साया फिल्म की स्टोरी सुनी...बहुत बढ़िया ...कल आप भी सुनिएगा... 

गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

वो अटैची का कवर खरीदने वाला दौर ...

मुझे अकसर आस पास के लोग पूछते हैं कि तुम्हें लिखने के आइडिया कैसे आते हैं....उन को मैं सिर्फ एक ही जवाब देता हूं कि यह कोई राकेट साईंस नहीं है...मेरा लिखना तो क्या है, कुछ भी नहीं, लिखने वाले ८-८ मिनट में सुपरहिट गीत लिख गए जो ५० साल बाद भी सुपरहिट हैं...इसलिए यह लिखने विखने का कोई सिलेबस नहीं है, न ही कोई सिखा सकता है...बस इशारा कर सकता है ...मैं तो पिछले ३० बरसों से यही सीखा हूं....१९८८ से २००० तक मुझे यही लगता रहा कि बंदा अपने प्रोफैशन से जुड़ें विषयों पर ही लिख सकता है ...ज्ञान बांट सकता है ...लेकिन २०-२२ बरस पहले मुझे यह पता चला कि लिखने के मौज़ू और भी हैं...दो तीन कोर्सों पर उन दिनों बीस-तीस हज़ार खर्च भी किया...लेकिन कुछ बात समझ में आई नहीं ..

बीस बरस पहले यही लगता था कि मेडीकल विषय पर तो लिखने के लिए २५-३० लेख ही तो हैं, उस के बाद क्या करूंगा....लेकिन आहिस्ता आहिस्ता पांच सात बरस में यह समझ आ गया कि लिखने के बहाने तो अनेकों हैं...विषय भी अपने आस पास बिखरे पड़े हैं, जितने चाहिए उठा लीजिए....बस, उस के लिए एक दो शर्तें हैं...लोगों से जुड़ कर रहना और ज़मीन पर रहना। समझने वाले समझ रहे हैं..। बस, वही आप को लिखने की मौका देते हैं....कईं बार स्टेशनों पर, फुटपाथ पर आते जाते कोई ऐसा शख्स दिख जाता है कि लगता है जैसे यादों की आंधी आ गई हो उसे देखते ही ...

दादर स्टेशन का पुल ... २८ दिसंबर २०२२ 

कल सुबह भी ऐसा ही हुआ...दादर स्टेशन के पुल पर यह शख्स दिखे ...हाथ में कोई ब्रेंडैड अटैची उठाई हुई जिस पर कवर चढ़ा हुआ था, साथ में एक दो थैले ..हां, थैलों का रूप ज़रूर बदल गया है इधर कुछ बरसों से ...सब से पापुलर ये पानमसाले वाले थैले हैं ...एक थैला ८०-१०० रूपये का आ जाता है...जब हमारी बदली होती है तो हमें भी अपनी किताबों-कापियों-रसालों को ढोने के लिए ये चाहिए होते हैं ..एक बार तो ४०-५० के करीब ये थैले हो गए हमारे सामान के साथ ...और हम लोगों ने पैकर-मूवर के आने से पहले इन्हें अपनी बैठक में रख दिया....मुझे उस दिन इतनी हंसी आई और मैंने इन के साथ फोटू भी खिंचवाई ....मुझे यह मज़ाक सूझ रहा था कि ४० बरस हो गए पान मसाले-गुटखे का इस्तेमाल करने वालों को डांटते हुए, उन का इलाज करते हुए..लेकिन कोई पानमसाले के इतने थैले हमारे घर में देख ले तो उसे यही लगे जैसे कि मैं इन कंपनियों का ब्रॉंड अम्बेसेडर हूं......

 डेंटल सर्जन के घर में पान मसाले के इतने थैले (२०२० -लॉक डाउन से पहले) ...यह घोर कलयुग नहीं तो और क्या है ...😂

खैर, उस शख्स की बात हो रही थी जिन को मैंने कल सुबह दादर स्टेशन पर देखा और झट से मोबाइल में सहेज लिया...कहां दिखती हैं अब इस तरह की कवर के साथ अटैचियां ....यह तो कंकरीट के इस जंगल का और पब्लिक के समंदर की वजह से मुकद्दर से कभी कुछ ऐसा दिख जाता है जो हमें यादों की दुनिया में ले जाता है ..हां, मैंने इन अटैचियों पर और यहां तक कि होल्डाल (बैड-रोल) और सुराही लेकर सफ़र करने के दौर पर अपने पंजाबी के ब्लाग में कुछ पोस्टें भी लिखी थीं कुछ बरस पहले ....उन के लिंक लगाता हूं यहां, अगर कोई पढ़ना चाहे तो ...

ਓਏ ਰਬ ਤੁਹਾਡਾ ਭਲਾ ਕਰੇ - ਓਹ ਅਟੈਚੀਆਂ ਸੀ ਕਿ ਵੱਡੇ-ਵੱਡੇ ਅਟੈਚੇ!

जैसा कि उस शख्स की इस तस्वीर में आप देख रहे हैं वह अपने साथ कुछ बेल-बूटे भी लेकर आए हैं या ले कर जा रहे हैं ....किसी सगे-संबंधी के पास आए होंगे ...खैर, यह भी एक चीज़ होती थी जो अकसर हम लोग अपने रिश्तेदारों के पास लेकर जाते थे या वे जब आते थे तो दो चार ऐसी टहनियों हमारे बाग में ज़रूर लेकर आते थे ...अब यह जो महंगे महंगे पौधे हम लोग भेंट में देते हैं, पहले यह सब कुछ नहीं दिखता था, ज़िंदगी बड़ी सीधी-सरल थी ...

कल मैं कुछ लोगों को यह तस्वीर दिखा कर उन से पूछ रहा था कि बताइए इस तस्वीर में किस चीज़ की कमी है ....वे तो बता नहीं पाए, आखिर मुझे ही बताना पड़ा कि पुराने दौर में सामान के साथ जब तक एक पानी की सुराही न होती तो सामान पूरा नहीं होता था...सुराही इसलिए कि गिलास मे पानी आराम से डाला जा सकता है और ट्रेन में अपनी जगह पर टिके रहती थी ...मटके को कोई कहां टिकाए, अपनी गोद में ...नहीं, ऐसा संभव नहीं था, मटका तो नहीं, छोटी सी मटकी लोगों को अपनी गोद में रख कर जाते देखा भी है और खुद हम भी लेकर गये हैं...मटकी में अपनी पापा की अस्थियां जिस पर लाल कपड़ा बंधा हुआ था और हरिद्वार ले जाते समय उस का टिकट भी कटवाया है ...

चलिए, इधर उधर भटकना बंद करें.....वापिस उस अटैची पर आते हैं...इस तरह की अटैचीयों लोग अकसर मिलेट्री कैंटीन से लेने का जुगाड़ कर लेते थे ...कैंटीन की दारू की तरह ...कैंटीन में बहुत सस्ते में मिल जाती थी ...और जुगाड़ भी देखिए कैसे कैसे ...कुछ पैसे बचाने के लिए इतनी मेहनत...खास कर दहेज में बेटियों को इस तरह का सामान देने के लिए लोग मिलेट्री कैंटीन से ही यह सब खरीदने का जुगाड़ कर लेते थे ....हमने भी जुगाड़ से ही ऐसी एक छोटी अटैची वी-आई-पी की खरीदी थी ...हमारे मौसा जी अंबाला में एक बैंक में कुछ मैनेजर टाइप थे ...उन की मिलेट्री कैंटीन में पहचान थी, उन्होंने ही हमें यह खरीदवा कर दी थी ..कम मोल पर ...आम आदमी की खुशियां भी कितनी छोटी छोटी होती हैं...यह १९८० के दशक के शुरूआती बरसों की बात है ...उन्हें बढ़िया बढ़िया दारू भी कैंटीन से लाने का बड़ा क्रेज़ था ...इसलिए रिश्तेदारी में उन्हें लोग बाग मानते थे ...बीस साल की उम्र में परफ्यूम और आफ्टर शेव लगाने का क्रेज़ नया नया होता है ...मुझे भी ओल्ड-स्पाईस की बोतल वहीं से मिली थी ...

हां, यह वह दौर था जब इस तरह के अटैची खरीदने के बाद उन्हें सब से पहले कवर करने का जुगाड़ किया जाता था ...कवर कुछ लोग सिलवाते थे मोटे कपड़े के चैन-वैन लगी होती थी ...और बाद में तो ये कवर जगह जगह अलग अलग क्वालिटी के बिकने भी लगे थे। नहीं, यार, हम लोगों ने कभी खुद को इतना गरीब भी नहीं समझा कि इन अटैचियों पर कवर डालने की नौबत आ गई हो ...हमें तब भी यही लगता और अब भी लगता है कि इन को अगर कवर ही करना है तो इन को खरीदना ही क्यों, वही पहले वाले लोहे के ट्रंक ही चलाते रहिए.......खैर, यह तो एक खामखां की बात है ..हरेक की अपने मन की मौज है ...पता नहीं कोई कितनी तंगहाली या खुशहाली में इस तरह की अटैची का जुगाड़ कर पाता है ..खैर, मुझे स्टेशनों पर और गाड़ी पर किसी को इस तरह की अटैची से कुछ निकालते डालते देख कर बड़ी हंसी सूझती ...कवर की चैन पर लगा हुआ ताला खोल, फिर अटैची का लॉक खोलना, फिर उसमें से बाबू की ऊनी टोपी निकालनी या मुन्ने के बापू का मफलर या मौजे, या बबलू के पापा की चप्पलें या वह फांटावाला पायजामा जो उन्हें सफर में लगेगा ही लगेगा, वरना नींद ही नहीं आएगी .....कितनी मेहनत का काम लगता था यह सब देखना भी ....

मेरे मामा अजमेर से जब हमारे पास पंजाब मे ंआते तो उन्हें दिल्ली में गाड़ी बदलनी होती थी ...पुल पुल थे सीढ़ियों वाले...उन्होंने पास एक ऐसा भारी भरकम अटैची होता था..उम्र हो चली थी उन की भी ...वह हमें हंसते हंसते जब सफ़र के किस्से सुनाते तो हर बार कहते उस अटैची को एक भारी भरकम गाली निकाल कर कि जब इसे लेकर सीढ़ियां चढ़ जाता हूं जैसे तैसे तो पहुंच कर इच्छा होती है कि इसे ज़ोर से ठोकर मार दूं (ठुड्ढा मारां ऐहनूं उत्तों ही ते थल्ले सुट दिआं) ...और वहीं से इसे नीचे गिरा दूं....हम उन की इस बात पर बहुत हंसा करते ...

हां, गाड़ी में उन दिनों इस तरह की महंगी अटैचीयां कईं बार चोरी भी हो जाती थीं...इसलिए लोगों ने इसे सीट के नीचे चैन से बांध कर रखना शुरू कर दिया...मुझे तो उस चैन और ताले से यह बड़ा डर लगता है कि अगर स्टेशन आ जाए और हम लोग उस चेन की चाबी गंवा बैठें तो....खैर, लोगों को गाड़ी के अंदर आकर इस तरह की अटैची को ताले से बांध कर उस की चोरी से निश्चिंत होते देखना भी कम रोचक न था...हम भी कईं बार यह सब करते थे, हम भी तो इसी हिंदोस्तानी मिट्टी में पले-बढ़े हैं... हा हा हा हा हा ...

फिर धीरे धीरे पहियों वाले अटैची आने लगे ....लेकिन अब भी देखता हूं कि चाहे पहियों वाले अटैची बैग आने लगे हैं लेकिन लोग ....लोग क्या, हम सब लोग उन को ऐसे ठूंस देते हैं सामान के साथ कि उन को पहिये के साथ लेकर चलना भी मुश्किल होने लगता है ...और खास कर के अगर सीढ़ीयां चढ़नी पड़ जाएं तो नानी तो क्या, उस की नानी भी याद आ जाए...

मैं गोपाल दास नीरज जी के गीतों का बहुत बड़ा फैन हूं .....वही, शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब ..गीत के रचयिता ...अभी मैं कुछ देख रहा था तो उन की एक वीडियो दिख गई ..लखनऊ रहते हुए उन को कईं बार पास से देखने का मौका मिला...एक बार बात भी हुई ...वह अकसर कहा करते थे ...

जितना कम सामान रहेगा...
उतना सफर आसान रहेगा...
आठ बरस पहले लखनऊ में जब गोपाल दास नीरज जी के जन्म दिवस समारोह में जाने का मौका मिला ..

चलिेए, यही बंद करते हैं अपनी बात ....यह तो टॉपिक ऐसा है कि इस पर एक पोथी लिखी जा सकती है ..वह इसलिए कि हम लोगों ने यह सब जिया है, आंखों देखी बाते हैं, जिन्हें अच्छे से महसूस भी किया है ...और आम बंदे की बिल्कुल छोटी छोटी खुशियों को देखा है .......वैसे ट्रेन-बस के सफर में कितनी भी धक्का-मुक्की सह लेंगे, सब्र कर लेंगे लेकिन मेरी अटैची पर कोई खरोंच नहीं पड़नी चाहिए...इसलिए उसे किसी तरह की झरीट से आहत होने से बचाने के लिए अटैची पर कवर तो चढ़ाना ही पड़ता है, क्या करें मजबूरी है.. 😎😂



कुछ बरस पहले गीतों के दरवेश नीरज जी के जन्मदिवस पर लखनऊ में फिर शिरकत करने को मौका मिला ....


शनिवार, 24 दिसंबर 2022

हिंदी नावलों की दुनिया ...

कल मेरा एक दोस्त दुकान पर जाकर टेलीफोन करने वाले दिनों को याद कर रहा था ...किस तरह से बात करते करते जब तीन मिनट हो जाते थे तो उस बूथ वाले को इशारा करना होता था कि हां, और बढ़ा दे, अभी हमें और बातें करनी हैं..और वे बातें भी याद आने लगीं जब बाहर गांव फोन करने के लिए उसे पहले बुक करवाना पड़ता है ...

क्या है यह पुरानी बातों को याद करने का जुनून..कुछ लोगों को लगता होगा कि यह क्या, हर वक्त पुराने दौर की यादें, बातें.....और कुछ नहीं है करने को .....जो मैं समझा हूं कि अगर कोई पुराना किस्सा सुनाता है, लिखता है या याद करता है तो इस का मतलब यह है कि उसने ज़िदगी को बूंद बूंद नहीं, भरपूर जिया है। अब हमारी उम्र के लोगों को ही देखिए...(६० बरस के आस पास वाले लोग) ...हम लोगों ने इन ६० सालों में क्या नहीं देखा....व्यक्तिगत तौर पर हम लोग, टैक्नोलॉजी के हिसाब से, देश-समाज के हालात कहां से कहां पहुंच गए...और हम ने यह सब जिया...अच्छे से महसूस किया....ऐसा कुछ नहीं है कि पहले सब अच्छा था या बुरा था और अब सब कुछ बुरा ही है, या सब अच्छा ही है....यह फ़ैसला बहुत ही बातों पर टिका होता है ... 

पुरानी यादें गुदगुदाती हैं अकसर ....अगर कोई पुरानी बातें नहीं लिखेगा या सुनाएगा तो मौजूदा पीड़ी या आने वाली पीड़ी को कैसे पता चलेगा...दादी नानी के पास भी कोई गुलशन नंदा जैसा लिखने का हुनर थोड़े न था, लेकिन हम लोग मां से, दादी नानी से बार बार वही किस्से बार बार सुन कर कितने खुश और मस्त हो जाया करते थे ....बीच बीच में सवाल में पूछते थे, हमें लोरी जैसी लगती थीं उन की बातें ..बहुत बार तो सुनते सुनते कब ख्‍वाबों ख़्यालों की दुनिया में घूमते घूमते कब निंदिया रानी के पास पहुंच गए हैं, पता ही नहीं चलता था ...था कि नहीं ऐसा ही!!



तीन चार दिन पहले मैं एक ६०-७० साल बरस पुरानी दुकान पर रखे पुराने नावल देख रहा था ....अब यह दुकान जनरल स्टोर में बदल चुकी है ..लेकिन उसने सैंकड़ों नावलों को बड़े करीने से बुक शेल्फों पर दीवार के ऊपरी हिस्से में टिका रखा है, झांक रहे थे वे सब टकटकी लगाए मेरी तरफ़ ...लेकिन मैं तो उन को पहचान ही न पा रहा था क्योंकि मुझे नावल पढ़ने का कोई शौक न था, एक आधा नावल पढ़ा था तो कैसा लगा था, बाद में उस की भी बात करूंगा...मैं अकसर राजन-इकबाल सीरीज़ के बाल उपन्यास खूब पढ़ता था ...दिन में दो दो भी पढ़ लेता था...किराये पर मिलते थे ...२५ पैसे एक नावल के एक दिन के लिेए...हमें तब पता ही न था कि इंगलिश के नावल भी होते हैं...न स्कूल ऐसा था, न ही कोई ऐसा सर्कल या न ही आसपास ऐसी कोई किताब की दुकानें जिन से हमें यह पता चल पाता .....लेकिन सोचने वाली बात यह है कि पता कर के करना ही क्या था, हमें अपनी पढ़ाई ही से फ़ुर्सत न थी ...वैसे भी मुझे याद है ५०-६० बरस पुराने दिनों की बातें जो मैंने आज छेड़ ली हैं, उन दिनों नावल पढ़ना भी किसी ऐब से कम न था...मैंने अपनी मां से भी बचपन में कईं बार सुना था कि यह नावल पढ़ने की आदत ऐसी है कि इस की लत लग जाती है ..


वही बात है कि हर बात को हमारे दौर में कहना ज़रूरी न होता था ..हम लोग अपने आस पास के लोगों को चेहरे के भाव पढ़ कर ही कुछ बातें समझ जाते थे ...मां को गुलशन नंदा के नावल बहुत पसंद थे ...वह अकसर बताया करती थीं कि उस के कुछ नावलों पर तो हिंदी फिल्में भी बन चुकी हैं....लेकिन घर के काम काज में हर वक्त लगे रहते हुए मैंने उन्हें शायद ही कभी एक आधा गुलशन नंदा का नावल पढ़ते देखा था ..हां, हमारे पड़ोस की कपूर आंटी को नावल पढ़ने का बड़ा चस्का था ...मुझे अच्छे से याद है उन के आउट हाउस में रहने वाला ओंकार उन के लिए तीन चार नावल इक्ट्ठे किराये पर ले कर आता था ...वह खुद कभी नहीं जाती थीं ..लेकिन पढ़ने का बहुत शौक था ..हां, हमारी मौसी सुवर्षा को भी ये नावल बहुत भाते थे ...


हमारे घर में नावल पढ़ना-वढ़ना एक बड़ी खराब बात मानी जाती थी ...बड़ी बहन ने तो कभी नहीं लेकिन बड़े भाई ने शायद एक दो बार नावल पढ़ा था ...मुझे भी मिडल स्टैंडर्ड के आस पास की एक बात याद है जब घर में एक दो नावल थे ..ऐसे ही किसी कोने में पड़े हुए ..मुझे उस के कुछ पन्ने पर लिखी कुछ बातें बार बार पढ़ने की ललक लग गई ऐसे ही ....क्यों? ---आप को नहीं पता क्या, वो बात अलग है कुछ लोग खुल्लम खुल्ला कह देते हैं, कुछ दिल में रख छोड़ते हैं........बस मुझे उसे पढ़ कर आनंद आने लगा, मस्त लगने लगा ...और मैंने यह पढ़ने वाला काम अपनी रज़ाई में बैठ कर, अपनी कापी में उस नावल को छुपा कर भी किया ....जब कोई उस तरफ़ आ जाए तो मैं उस को छुपा देता.....यह बात कुछ दिनों तक ही चली क्योंकि मुझे इस से बेहद अपराध बोध होने लगा कि ये लोग तो सोच रहे हैं कि मैं पढ़ रहा हूं और मैं इस नावल की दुनिया में खोया हुआ हूं......उस के बाद फिर कभी नावल वावल की तरफ़ न तो जाने की तमन्ना हुई .....न ही अपने पास वक्त होता था ..पढ़ाई लिखाई में ही ऐसे रमे रहते थे कि सिर खुजाने की फ़ुर्सत ही न होती थी तो ऐसे में इन नावलों का क्या करें...मास्टरों का खौफ, मां-बाप का हम पर भरोसा, आने वाले सुनहरे भविष्य के सपनों ने हमें इस तरह के लिटरेचर से दूर ही रखा .....

लेकिन फिर भी नवीं क्लास में एक दो छात्र क्लास में ऐसी किताबें सारी क्लास को दिखाने के लिए ले आते थे कभी कभी जिन पर हम भी कभी निगाह मार लेते तो हमारा दिमाग ही घूम जाता ...इसलिए बीस तीस बरस बाद जब सी.डी वाले दिन आ गए और इस बात की चर्चा होने लगी कि स्कूलों में बच्चे मोबाइल ले जाते हैं, सी.डी तक ले जाते हैं ......तो हम भी अपने स्कूल के दिन याद आ जाते थे ....हमारे दिनों में एक लेखक था, मस्त राम ......अब था कि नहीं लेकिन उस की किताबें फुटपाथ पर खूब बिकती थीं ....अपने अडल्ट कंटैंट की वजह से ...जहां पर मुझे याद है नवीं दसवीं कक्षा में एक ऐसी किताब भी एक सहपाठी ले कर आया था ...वैसे तो किताब की दुकान से भी मस्त राम की किताब किराये पर लेकर पढ़ी हो होगी .....लेकिन यह हो नहीं पाता था, दुकानदार से उस तरह की किताब को मांगने भर की हिम्मत जुटाने में ही जान निकल जाता थी, सांस फूलने लगती थी कि अगर किसी ने देख लिया....ये सब किताबें भी किराए पर मिलती थीं लेकिन बहुत ज़्यादा किराया लगता था .....शायद रोज़ का एक रूपया या इस से थोड़ा कम....चलिए, अब आगे चलें....जिस रास्ते पर ज़्यादा चले ही नहीं, उस का और कितना ज़िक्र करें...


गुज़रे दौर का सब से खतरनाक डॉयलाग ...."मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं."...बस, यह सुनते ही पाठकों के और फिल्म में दर्शकों के कान खड़े हो जाते थे ...

हां, पहले घरों में किताबें या नावल ज़्यादा न होते थे ..स्कूल कालेज की किताबों के अलावा ले-देकर चार पांच किताबें हुआ करती थीं, एक तो मां की रामायण, एक उस की पाठ पूजा करने वाली किताब, दो चार किताबें जो हमें स्कूल के पारितोषिक वितरण के दौरान मिला करती थीं और एक दो किताबें जो किसी सगे संबधी ने भेंट स्वरूप दी होती थी ......याद आ गया हम लोग ऐसी किताबों की बड़ी कद्र भी करते थे ..याद आ गया मेरे जीजा जी ने मुझे एक किताब भेजी थी जब मैं १३ बरस का था, यह किताब उन चंद किताबों से है जो मुझे ज़िंदगी में सब से पहले पढ़ने का मौका मिला और जिसे पढ़ना अच्छा लगता था और यह भरोसा भी हुआ था कि हम भी ज़िंदगी में कुछ कर सकते हैं...


खैर, बहुत सी किताबों के बीच ही ज़िंदगी कट रही है ...हर तरह की किताबों के सान्निध्य में ...कोई टॉपिक न हो, जिस के ऊपर किताब न खऱीदी हो .....नावल भी बहुत से.....और मज़े की बात इंगलिश के नावल भी ...लेकिन इंगलिश नावल इतने बड़े बड़े पढ़ने के लिए बड़ा सब्र चाहिए..वह अपने में है नहीं, इसलिए हिंदी का भी कभी कोई नावल पूरा पढ़ा हो, याद नहीं.......याद ख़ाक नहीं, पढा़ ही नहीं ...अगर पढ़ा होता तो याद क्यों न रहता, नवीं कक्षा में रज़ाई में बैठ कर छुप छुप कर नावल के कुछ पन्नों के कुछ खास पैरा पढ़ने तो अभी तक नहीं भूला तो फिर नावलों को पढ़ना कैसे भूल सकता था .......नहीं पढ़े नावल जनाब हम ने .....लेकिन दो तीन बरस पहले जब एक बहुत बड़े नावलकार सुरेंद्र मोहन पाठक की आत्मकथा छपी तो वह मैंने बिना सोए , बिना कुछ काम किए जैसे एक ही ढीक में पढ़ गया...(ढीक का मतलब होता है बिना सांस लिए जैसे हम लोग पंजाब में लस्सी के गिलास को मुंह से लगा कर उसे पूरा पी कर ही नीचे रखते हैं...😂)....और जब उस महान नावलकार को दो तीन बरस पहले दिल्ली में एक लिटरेचर फेस्टिवल में मिलने का मौका मिला तो मैंने उन्हें यह बात बताई भी ...और उन की आत्मकथा जो अपने साथ लेकर गया था, उस पर उन के आटोग्राफ भी लिए ....हा हा हा हा ....


मशहूर नावलकार सुरेंद्र मोहन पाठक को मिलकर बहुत अच्छा लगा था, सहज और सरल लोगों को मिल कर किसे अच्छा नहीं लगता...यह ३०० से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं ...और अभी भी लिखना जारी है ...


हां, वह अपनी जीवनी में लिखते हैं कि उन्हें पढ़ने की इतनी तलब थी, इतना शौक था कि वह जिसे लिफाफे में मूंगफली खरीदते थे, मूंगफली खाने के बाद उसे भी पढ़ कर ही फैंकते थे...

चलिए, वापिस ५०-६० बरस पहले के ज़माने का ही रूख करते हैं....जब नावल एक, दो, तीन या चार रूपये में बिकते थे ..लेकिन खरीदते तब भी लोग कम ही थे ...किराये पर लेकर पढ़ते थे .....शायद इसीलिए पढ़ भी पाते थे ...मेरे मामा नावल पढ़ने के बड़े शौकीन थे...पर जैसे मैंने पहले लिखा कि यह वह दौर था जब नावल पढ़ना भी कोई ऐब करने जैसा माना जाता था ...इसलिए इन को पढ़ने वाले भी एक तरह के अपराधबोध के शिकार ही रहा करते थे ....जितना मैं समझा हूं ...

नावल पर लिखा होता था अकसर कि यह जासूसी नावल है या रोमांटिक नावल है ...ताकि बाद में कोई शिकायत न करे कि पहले से चेताया न था 😎😂.... उस नावल में उस लेखक के आगे आने वाले या पहले से छप चुके नावलों का भी ज़िक्र हुआ करता था ...साथ में एक घरेलू लाइब्रेरी योजना हुआ करती थी उस का भी कार्ड लगा रहता था....

और बहुत बहुत बार लेखक की यह परेशानी भी पीछे के कवर पेज पर लिखी होती थी कि मेरा चित्र छापने के लिए फलां फलां प्रकाशक ही हकदार है ....अगर मेरी फोटो नहीं है तो समझिए कि आप जाली पढ़ रहे हैं ....लोग भी पहले सीधे-सपाट होते थे, भोली भोली बातें करते थे ....इस सब के बावजूद दिल्ली के फुटपाथों पर जाली किताबों के ढेर लगा रहता था ...यह मैं १९८० के दशक की बातें कर रहा हूं ...जब साठ रूपये की असली किताब का जाली स्वरूप मात्र २०-२५ में मिल जाता था ...इंगलिश भी, देशी भी..कुछ भी ....और इतवार के दिन तो दरियागंज इलाके में, पुरानी दिल्ली में फुटपाथों पर ऐसी दुकानें खूब सजा करती थीं, हम भी अकसर वहीं से खरीदते थे .....अब असली और जाली के चक्कर में पड़ने की फ़िक्र पढ़ने वाला क्या करे, उसे अपनी जेब भी देखनी है, भटूरे-छोले भी खाने हैं, और वापिसी के बस के सफर के लिए पैसे भी बचाने हैं... 😀😀 ....वैसे मुझे कभी यह समझ न आई कि यह जो २-२, ३-३ रूपये के नावल ५०-६० बरस पहले बिकते थे, उन के जाली संस्करण तैयार करने में भी २-३ रूपये से कम क्या खर्च आता होगा...!!

कुछ नावलों के बाहर लिखा होता था कुछ इस का ब्यौरा भी ...विशाल का यह उपन्यास आंसुओं और कहकहों की अनोखी कहानी है ...और ये जो नावल ५०-६० पुराने आज दिखते हैं, इन का आज दाम क्या होगा.......छोड़िए, इस सब के चक्कर में क्या पड़ना, जब आपने खरीदने ही नहीं है ....वैसे इंटरनेट पर आप को इन के आज के रेट भी मिल जाएंगे ....कभी देखिएगा फ़ुर्सत में ...

इन पुराने नावलों में कुछ इस तरह का जुगाड़ भी रहता था कि पाठकों को जोड़ कर रखा जाए....जैसे लेखक ने अपना पता लिखा होता था कि नावल पढ़ने के बाद अपनी राय से अवगत करवाएं... और नावल की स्टोरी से जुड़े कुछ सवाल भी होते थे ...जिस का सही जवाब देने पर उन की हौंसलाफ़ज़ाई के लिए उन्हें कुछ इनाम भी भिजवाया जाता था ...। ए एच व्हीलर की दुकानें जो स्टेशनों पर होती हैं उन का स्टिकर भी अकसर इन पर लगा मिलता था...किताब के दाम के साथ ...

मेरे ख्याल में बस करता हूं .....कहीं मैं भी लिखते लिखते कोई नावल जैसा ही कुछ न लिख डालूं......वैसे भी आजकल लोगों को लगने लगा है कि मैं सरकारी काम काज की चिट्ठीयों को भी एक दम सरकारी स्टाईल में लिखने की बजाए...एक स्टोरीनुमा लिखने लगा हूं ..देखते हैं, सुधरने की कोशिश करते हैं...

जाते जाते एक बात लिख देता हूं...कुछ न कुछ, जब भी वक्त मिले ...पढ़ते रहना चाहिए...अच्छा लगता है और मेरी उम्र के लोगों को शायद स्क्रीन पर पढ़ने की बजाए हाथ में किताब को उठा कर पढ़ने में कहीं ज़्यादा मज़ा आता है ...किताब के पन्नों से आने वाली खुशबू, उन के उलटने-पलटने की आवाज़ और किताबों को हाथ से छू लेने भर की छोटी सी खुशी....हां, बंद करते करते याद आ गया कि पुरानी किताबों में, विशेषकर नावलों में जो आज के दौर में बिकते हैं उन के शुरूआती पन्नों पर कुछ इश्क-विश्क के किस्सों की भी टोह लग सकती है आप को ...जिस तरह से भेंट करने वाले ने पहले पन्ने पर अपने दिल की भावनाएं लिख कर नीचे अपना नाम लिखा होता है ........क्या करते लोग उस दौर में भी .....न ट्विटर , न  इंस्टाग्राम , न ही वाट्सएप था ..



यह तो एक साधारण नाम है ....लेकिन अकसर नावलों के नाम ऐसे ऐसे रोमांचक होते थे कि बंदा, अपने पैंचर हुए साईकिल और उस की फेल हुई ब्रेक को भूल जाता था कि वह बाद में, पहले नावल का जुगाड़ करने निकल पड़ता है, यह क्रेज़ था आज से ५०-६० पहले वाले ज़माने मे नावलों को ...जब जिसे बुद्धिजीवि लोग पल्प लिटरेचर कह देते हैं अकसर ..., 


सोमवार, 19 दिसंबर 2022

पापा कहते हैं बड़ा काम करेगा.....उदित नारायण लाइव शो


३६ बरस पहले का ज़माना - 1986-87 के अमृतसर के कॉलेज होस्टल के दिन भी मेरी यादों का एक खुशनुमा हिस्सा हैं...होस्टल के कॉरीडोर में "कयामत से कयामत तक" फिल्म का यह गीत अकसर बजा करता था, पापा कहते हैं बड़ा काम करेगा ...😃...जिस किसी के पास भी टेप-रिकार्डर (टू-इन-वन कहते थे तब उसे) था, उस के पास यह कैसेट भी होनी लाज़मी थी ...फिल्म भी सुपरहिट थी और यह गीत भी ...लेकिन यह कुछ पता न था कि किस ने लिखा है, किस ने गाया है, किस ने संगीत दिया है ...इन सब बातों से हमें कुछ मतलब न था, बस हमें गीत बार बार सुनना भाता है ...देट्स ऑल।

१९९० का दशक आ गया ...बहुत से सुपरहिट गाने जनमानस के दिल के तारों को झंकृत करने लगे ....उदित नारायण, मो. अज़ीज, सुरेश वाडेकर, अभिजीत और कुमार शानू का दौर ....उदित नारायण के गीत भी फिल्मी दुनिया में क्या, लोगों की दुनिया में छाने लगे ...हम लोग कैसेटें खरीद कर इक्ट्ठा करने लगे...और बहुत बार अपने पसंदीदा गीत उस में भरवा कर तैयार करवाने लगे ....करते थे यह सब भी अकसर ..लेकिन काम यह थोड़ा भारी लगता था ...पैसे भी काफी लगते थे ...ऐसा लगता ही न था, सच में लगते थे ...३५-४० रूपये की टीडीके की कैसेट और उसमें अपने पसंद के गीत भरवाने के कुछ २०-२५ रूपये ....लेकिन मज़ा तो अपने पसंद की कैसेट सुनने में ही आता था...वरना एक कैसेट में एक दो गीत बार बार सुनने के लिए हम लोग अपने टू-इन-वन का हैड घिस मारते थे, उस खराब हैड को दुरुस्त करवाना भी एक पेचीदा काम था ....पैसों के साथ साथ रिपेयर की दुकान पर चक्कर भी खूब लगते थे ....और हां, एक बात तो बतानी भूल ही गया कि पहले यह कैसेट भरने या बेचने का काम अकसर धोबी की दुकान पर जहां थोड़ी बहुत ड्राई-क्लीनिंग भी हुआ करती थी, वहीं पर होता था ..फिर धीरे धीरे उन दुकानदारों के युवा बेटे आधी दुकान को कपड़े इस्त्री करने के लिए और आधी को इस कैसेट के बिजनेस के लिए इस्तेमाल करने लगे ...टी-सीरीज़ का बिजनेस शिखऱ पर था ...१९८० के दशक की बाते हैं ...फिर देखते ही देखते वे कपड़े इस्त्री करने वाले बंदे और उन का सामान गायब हो गया और दुकानें कैसेटों से ठुंसी दिखने लगीं...

एक दौर वह भी था जब इसे खरीदना भी किसी रईसी शौक से कम न था... 😂

किसी भी बात को मैं भी कितना खींचने लगा हूं....यह बात अच्छी नहीं है, मुझे लगता है कभी कभी ...यह पाठकों के सब्र का इम्तिहान लेने जैसी बात लगती है ...खैर, उदित नारायण की बात करते हैं जिन के लाइव -कंसर्ट में जाने का मौका मिला...मुझे याद है जब १९९० के दशक में जब यह केबल टीवी आया तो हमें ये सब गीत विभिन्न चैनलों पर भी दिखने लगे ...बार बार दिखते थे अच्छा तो लगता ही था .....लेकिन १९९४ में जब एफ.एम आ गया तो फिर उस पर भी फिल्मी गीत सुनने का अपना मज़ा है ..एक दम साफ, स्पष्ट साउंड ..बिना किसी खि्च खिच के ..बिना किसी किट किट के .. फिर भी मुझे याद है सुबह शाम सैर के वक्त एक वॉकमैन जब उठाते तो दो एक कैसेटें भी दिल तो पागल है, कुछ कुछ होता है ..राजा हिंदोस्तान, अकेले हम अकेले तुम .....उठा कर रख लेते ....बार बार साइड ए-बी को बदल बदल कर सुनते रहते ..साथ साथ सैल खत्म होने की फिक्र भी करते रहते ...

ऐसे ही किसी चैनल पर उदित नारायण की इंटरव्यू देखी पहली बार ....बंदा दिल की बातें कर रहा था ..इन इंटरव्यूज़ को देखना भी एक अच्छा एक्सपिरिएंस रहा ...बहुत अच्छा...अपनी बात रखने की सच्चाई ....

फिर धीरे धीरे तकनीक ने ऐसी तरक्की कर ली कि हम लोगों को बीस-तीस रूपये में एक एमपी थ्री मिलने लगी ..जिस में १००-१५० गीत ठूंसे होते थे ...बस उस के लिए हमें एक एमपी थ्री प्लेयर लेना होता था ...और अकसर उन को हम सफर में भी ले जाते ...बस, और कुछ नहीं, सैल का लफड़ा होता था, ये सैल से चलते नहीं थे, कमबख्त सैल को खा जाते थे ...खैर, एक सीडी में दर्जनों गाने और वह भी या तो एक ही गायक के या फिर अलग अलग फिल्मों के गाने - एक सीडी में पंद्रह बीस फिल्मों के गाने भरे होते थे ..फिर कुछ समय बाद ऐसी एम-पी थ्री भी आने लगीं...रोमांटिक गीत, sad songs, शादी के गीत, पंजाबी लोकगीत.....बस, फिर क्या था, सी.डीओं का घरों में अंबार लगने लगा ....लेकिन फिर भी एफ.एम का जादू हम लोगों के दिलो-दिमाग पर बरकरार ही था....


ऐसे तो मैं उदित नारायण के गीतों तक पहुंचते पहुंचते कईं दिन लगा दूंगा...चलिए, उदित नारायण के लाइव कंसर्ट में चलते हैं ...कल शाम मुंबई के षण्मुखानंद हाल में यह लाइव प्रोग्राम देखने का मौका मिला .......आइए कुछ झलकियां देखते हैं ...

पापा कहते हैं बड़ा काम करेगा....बेटा हमारा ऐसा काम करेगा .. 

Medley by Udit Narayan

जादू तेरी नज़र ..खुशबू तेरा बदन .... 

तू मेरे सामने...मैं तेरे सामने....

पहला नशा, पहला खुमार 

ओ खाई के पान बनारस वाला ...खुल जाए बंद अकल का ताला...

जानम देख लो ...मिट गई दूरीयां....

मैं निकला गड़्डी ले के ...इक मोड आया....
दिल तो पागल है, दिल दीवाना है ..

ओम शांति ओम....देखो...देखो...है शाम बड़ी दीवानी...

दो चार दिन पहले मेरा एक दोस्त अपने गांव गया ...यह वही दोस्त है जिसने कुछ महीने पहले पुरानी कैसेटों से ऊब कर सभी कबाड़ी के हवाले कर दी थीं...मुझे पता चला तो मुझे बेहद अफसोस हुआ और मैंने कहा कि आगे से कभी ऐसा कुछ करने का मन करे तो कबाड़ी की जगह मुझे बुला लिया करिए, ये मेरे काम की चीज़ है......पछतावा तो उन्हें भी बहुत होता रहा बहुत दिनों तक ..लेकिन हां, जब वह अपने गांव गए तो घर की साफ सफाई हो रही थी तो उन्हें फिर से पुरानी कैसेटों की शक्ल में पुरानी अनमोल यादों का ज़खीरा मिल गया ... लेकिन इस बार उन्होंने उसे फैंका नहीं, संभाल कर रख लिया.......मैंने भी बरसों पहले अपनी सैंकड़ों कैसेटें फैंक दी थीं......अब मैं इन को एंटीक शॉप में ढूंढता फिरता हूं ...जैसे कि ये नीेचे तस्वीरों में आप देख सकते हैं.......पिछले बरस खरीदीं ये सब ...इन को सुनने का जुगाड़ नहीं है, लेकिन इन्हें देखने भर से ही सुकून मिलता है ...पुरानी, मीठी यादों के खुशनुमा झोंके आने लगते हैं ....😎


यह क्या, इतने बढ़िया लाइव कंसर्ट में शिरकत कर आया...और फ़नकार के फ़न के बारे में कुछ कहा ही नहीं.....लेकिन उस की तारीफ़ करने के लिए सही अल्फ़ाज़ भी तो अपने तरकश में होने चाहिएं..वे हैं नहीं ...बस, यही कहूंगा कि ये लोग अपने फ़न के मास्टर हैं...४० साल से निरंतर इतनी कामयाबी से खूब चल रहे हैं....हंसते मुस्कुराते हुए अपने फ़न का जलवा बिखेर देना उन लोगों के बस की ही बात होती है जिन्होंने अपने फन को साधने के लिए खूब तप-तपस्या की होती है और लगातार करते रहते हैं...एक शानदार शो ...जिसने लोगों की भरपूर वाहा वाही लूटी..... 👏

शनिवार, 17 दिसंबर 2022

मेरे चेम्बर में रखे इंडोर प्लांट का दर्द ....

मेरी टेबल पर पडा़ यह प्लांट मुझे मेरी खुदगर्ज़ी का अहसास दिलाता है ...हर रोज़ 

कुछ महीने पहले मैंने एक छोटे से गमले में रखा हुआ एक इंडोर प्लांट अपने चेंबर में रख लिया...यह सोच कर कि यहां रखने से चल जाएगा...कभी कभी पानी दे देता हूं ...मेरी साइड टेबल पर ही सजा हुआ है ...चल तो निकला है, कद भी लंबा हो गया है, पत्ते भी खूब नए आ गये हैं ..हरे भरे ...मुझे कुछ अरसा पहले यह ख्याल आ रहा था कि कुछ और इंडोर प्लांट यहां रखअ लूंगा ...लेकिन अब कुछ ऐसा हो गया है कि लगने लगा है कि इसे भी जल्दी ही दूसरे पेड़ों के झुरमुट में सजा दूं...

मुझे इसे देखना अच्छा तो लगता है लेकिन सिर्फ एक मेरे अच्छा लगने की बात ही नहीं है, और किसी ने कभी इस की तारीफ़ नहीं की कभी ...कुछ दिनों से मुझे इसे देख कर अजीब सा अपराध बोध लग रहा था ...सोच रहा था कि शायद इस की तारीफ़ नहीं हो रही, इस लिए कुछ नाराज़ होगा...लेकिन यह क्या उस के पास तो गिले-शिकवों का पिटारा था, मेरे से पूछने वाले सवालों का अंबार था उस के पास...

मुझे लगता है कि वह मुझ से ये सवाल पूछ रहा हो ....

अगर तुम्हें किसी आलीशान कमरे में ऐसे ही अकेले छोड़ दिया जाए तो तुम्हें कैसा लगेगा...उस कमरे में बोलने-बतियाने के लिए और कुछ न हो ...

तुम बताओ कि तुम्हें तो दिन भर मरीज़ों के दुखडे़ सुनने के पैसे मिलते हैं, मुझे क्या मिलता है, मुझे क्यों इस कैद में डाल कर रखे हो, आज़ाद करो मुझे भी ..

क्या तुम कभी ऐसे कमरे में रहे हो जहां धूप ही न आती हो ...यह जो तुम मेरे नए पत्ते देख कर इतराते हो न यह भी मुझे पता है मैं सिर्फ तुम्हारी खुशी के लिए कैसे जुटाता हूं ...ट्यूब की रोशनी जब तुम्हें ही इतनी डिप्रेसिंग लगती है तो मेरी सोचो....

तुम भी कितने मतलब परस्त हो बस अपनी खुशी के लिए मुझे अपनी मेज़ पर सजा लिया...मेरे बारे में कुछ सोचने की कोशिश ही नहीं की ...ऐसा ही है न...

जो किसी शै से मोहब्बत करते हैं वे लोग उसे खुले में सांस लेने के लिए आज़ाद रखना भी जानते हैं ...ऐसे नहीं कि बिना धूप के, बिना हवा के बस उसे बढ़ने के लिए पानी ठेल देते हैं कभी कभी ...जब तुम शाम को छुट्टी कर के चले जाते हैं तब तो कमरे में हवा भी नहीं होती, दम घुट जाता है ..और तो और जब तुम दो चार दिन की छुट्टी पर बाहर कहीं धक्के खाने निकल जाते हो, चुप चुपीते ....तो मुझे तो दो बूंद पानी के लिए भी तरस जाना पड़ता है ...कौन देगा मुझे पानी उन दिनों में कभी सोचने की तुम्हें फुर्सत ही कहां है...बड़े आए पेड़ों से प्यार करने वाले...तुम्हारा यह प्यार छलावा है, स्वार्थ है, और कुछ नहीं ...ढोंगी हो तुम एक नंबर के ...

ये जो मेरे पत्ते पीले पड़ के झड़ने लगे हैं अभी, तुम यह ज़ुबान समझते हो क्या, यह मेरी नाराज़गी ही तो है जिसे मैं इस तरह से ब्यां करता हूं, और क्या करूं...और मैं तुम्हारा क्या बिगाड़ सकता हूं....मेरी तो छोड़ो बीसियों साल पुराने दरख्त तुम्हारे आसपास कत्ल कर दिए जाते हैं, तुम उस वक्त मुंह पर पट्टी बांधे रखते हो, मेरी फ़िक्र कोई क्या करेगा...चलो, हटो, यहां से ....बडे़ आए मेरा हित चाहने वाले ...

तुम्हें हर रोज़ नई जगहें, नये लोग देखने भाते हैं, उन से बात करना बहुत भाता है और मुझे हाउस-अरेस्ट कर के रख छोड़ा है तुम ने ...हाउस अरेस्ट का मतलब समझते भी हो क्या, तुम क्या समझोगे, तुम एक आज़ाद परिंदे की मानिंद हो ...खुदा तुम्हें ऐसे ही बनाए रखे ...बस, मेरी भी अर्ज़ सुन लो एक ...मुझे खुली हवा में रख दो, मेरे दोस्तों के साथ ...

तुम लोगों की एक बात और है ...तुम लोग सड़क पर जाते हुए किसी बिल्ली-डॉगी के छोटे छोटे प्यारे बच्चे देखते हो तो उसे फौरन उठा कर अपने स्कूटर पर या कार में रख कर अपने बाप का माल समझ कर उठा लाते हो....कभी उन के भाई बहनों का सोचा, उन की मां का सोचा.....क्या यह अपहरण नहीं है, तुम लोगों के बच्चों को दस मिनट घर लौटने में देर हो जाए तो तुम दुनिया सिर पर उठा लेते हैं...कभी सोचा तुम ने इस के बारे में .....

बस, अब तुम मेरा और मुंह मत खुलवाओ....तुम तो बस मेरे ऊपर एक दया करो...मुझे जहां से लेकर आए थे वहीं पर वापिस छोड़ आओ....मुझे न चाहिए ये बढ़िया चेंबर ...मुझे तो मिट्टी में रख के आओ...मेरे साथियो के साथ ....तुम्हें यह भी तो पता है कि पेड़ भी तुम लोगों की तरह आपस में बातें करते हैं ...एक दूसरे को देख कर झूमते हैं...उत्सव मनाते हैं ...फिर मुझे क्यों कैद में डाल रखा है ....वैसे तो तुम रोना रोते रहते हो कि तुम्हें डाक्टरी वाक्टरी नहीं करनी थी, तुम्हें तो बॉटनी ही पढ़नी थी ...क्योंकि तुम्हें बॉटनी ही पसंद थी ...फिर तुम्हारे पल्ले मेरी ये बातें क्यों नहीं पड़ रहीं .....

दोस्तो, इस इंडोर प्लांट के इतने सारे सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है, मुझे एक अजीब से अपराध बोध का आभास हो रहा है, कुछ दिन पहले मैं दो चार बहुत अच्छे अच्छे सिरेमिक के पाट्स भी खरीद लाया कि इन में बढ़िया बढ़िया इंडोर प्लांटस लगवा कर चेंबर में रखूंगा .......लेकिन नहीं, ऐसा कुछ नहीं, इसे इस की जगह पर एक दो दिन में पहुंचा दूंगा...अपनी बालकनी से उठा कर लाया था ..वहीं रख दूंगा इसे ले जाकर ... 

आज शाम एक इंडोर प्लांट की एगज़िबिशन में हो कर आया....एक से एक सुंदर इंडोर पौधे बिक रहे थे....लेकिन रह रह कर मेेरे एक इंडोर प्लांट ने जो सवाल मेरे आगे रख छोड़े थे, उन का ख्याल आता रहा .....और एक भी इंडोर प्लांट वहां से उठाने का मन ही न हुआ...बिल्कुल मन न हुआ....बस एक फोटो खिंचवा के बाहर आ गया ...










कभी पेड़ का साया पेड़ के काम न आया...सेवा में सभी की उसने जन्म बिताया....
चलती है लहरा के पवन के सांस सभी की चलती रहे ...लोगों ने त्याग दिए जीवन के प्रीत दिलों में पलती रहे ....