शनिवार, 24 दिसंबर 2022

हिंदी नावलों की दुनिया ...

कल मेरा एक दोस्त दुकान पर जाकर टेलीफोन करने वाले दिनों को याद कर रहा था ...किस तरह से बात करते करते जब तीन मिनट हो जाते थे तो उस बूथ वाले को इशारा करना होता था कि हां, और बढ़ा दे, अभी हमें और बातें करनी हैं..और वे बातें भी याद आने लगीं जब बाहर गांव फोन करने के लिए उसे पहले बुक करवाना पड़ता है ...

क्या है यह पुरानी बातों को याद करने का जुनून..कुछ लोगों को लगता होगा कि यह क्या, हर वक्त पुराने दौर की यादें, बातें.....और कुछ नहीं है करने को .....जो मैं समझा हूं कि अगर कोई पुराना किस्सा सुनाता है, लिखता है या याद करता है तो इस का मतलब यह है कि उसने ज़िदगी को बूंद बूंद नहीं, भरपूर जिया है। अब हमारी उम्र के लोगों को ही देखिए...(६० बरस के आस पास वाले लोग) ...हम लोगों ने इन ६० सालों में क्या नहीं देखा....व्यक्तिगत तौर पर हम लोग, टैक्नोलॉजी के हिसाब से, देश-समाज के हालात कहां से कहां पहुंच गए...और हम ने यह सब जिया...अच्छे से महसूस किया....ऐसा कुछ नहीं है कि पहले सब अच्छा था या बुरा था और अब सब कुछ बुरा ही है, या सब अच्छा ही है....यह फ़ैसला बहुत ही बातों पर टिका होता है ... 

पुरानी यादें गुदगुदाती हैं अकसर ....अगर कोई पुरानी बातें नहीं लिखेगा या सुनाएगा तो मौजूदा पीड़ी या आने वाली पीड़ी को कैसे पता चलेगा...दादी नानी के पास भी कोई गुलशन नंदा जैसा लिखने का हुनर थोड़े न था, लेकिन हम लोग मां से, दादी नानी से बार बार वही किस्से बार बार सुन कर कितने खुश और मस्त हो जाया करते थे ....बीच बीच में सवाल में पूछते थे, हमें लोरी जैसी लगती थीं उन की बातें ..बहुत बार तो सुनते सुनते कब ख्‍वाबों ख़्यालों की दुनिया में घूमते घूमते कब निंदिया रानी के पास पहुंच गए हैं, पता ही नहीं चलता था ...था कि नहीं ऐसा ही!!



तीन चार दिन पहले मैं एक ६०-७० साल बरस पुरानी दुकान पर रखे पुराने नावल देख रहा था ....अब यह दुकान जनरल स्टोर में बदल चुकी है ..लेकिन उसने सैंकड़ों नावलों को बड़े करीने से बुक शेल्फों पर दीवार के ऊपरी हिस्से में टिका रखा है, झांक रहे थे वे सब टकटकी लगाए मेरी तरफ़ ...लेकिन मैं तो उन को पहचान ही न पा रहा था क्योंकि मुझे नावल पढ़ने का कोई शौक न था, एक आधा नावल पढ़ा था तो कैसा लगा था, बाद में उस की भी बात करूंगा...मैं अकसर राजन-इकबाल सीरीज़ के बाल उपन्यास खूब पढ़ता था ...दिन में दो दो भी पढ़ लेता था...किराये पर मिलते थे ...२५ पैसे एक नावल के एक दिन के लिेए...हमें तब पता ही न था कि इंगलिश के नावल भी होते हैं...न स्कूल ऐसा था, न ही कोई ऐसा सर्कल या न ही आसपास ऐसी कोई किताब की दुकानें जिन से हमें यह पता चल पाता .....लेकिन सोचने वाली बात यह है कि पता कर के करना ही क्या था, हमें अपनी पढ़ाई ही से फ़ुर्सत न थी ...वैसे भी मुझे याद है ५०-६० बरस पुराने दिनों की बातें जो मैंने आज छेड़ ली हैं, उन दिनों नावल पढ़ना भी किसी ऐब से कम न था...मैंने अपनी मां से भी बचपन में कईं बार सुना था कि यह नावल पढ़ने की आदत ऐसी है कि इस की लत लग जाती है ..


वही बात है कि हर बात को हमारे दौर में कहना ज़रूरी न होता था ..हम लोग अपने आस पास के लोगों को चेहरे के भाव पढ़ कर ही कुछ बातें समझ जाते थे ...मां को गुलशन नंदा के नावल बहुत पसंद थे ...वह अकसर बताया करती थीं कि उस के कुछ नावलों पर तो हिंदी फिल्में भी बन चुकी हैं....लेकिन घर के काम काज में हर वक्त लगे रहते हुए मैंने उन्हें शायद ही कभी एक आधा गुलशन नंदा का नावल पढ़ते देखा था ..हां, हमारे पड़ोस की कपूर आंटी को नावल पढ़ने का बड़ा चस्का था ...मुझे अच्छे से याद है उन के आउट हाउस में रहने वाला ओंकार उन के लिए तीन चार नावल इक्ट्ठे किराये पर ले कर आता था ...वह खुद कभी नहीं जाती थीं ..लेकिन पढ़ने का बहुत शौक था ..हां, हमारी मौसी सुवर्षा को भी ये नावल बहुत भाते थे ...


हमारे घर में नावल पढ़ना-वढ़ना एक बड़ी खराब बात मानी जाती थी ...बड़ी बहन ने तो कभी नहीं लेकिन बड़े भाई ने शायद एक दो बार नावल पढ़ा था ...मुझे भी मिडल स्टैंडर्ड के आस पास की एक बात याद है जब घर में एक दो नावल थे ..ऐसे ही किसी कोने में पड़े हुए ..मुझे उस के कुछ पन्ने पर लिखी कुछ बातें बार बार पढ़ने की ललक लग गई ऐसे ही ....क्यों? ---आप को नहीं पता क्या, वो बात अलग है कुछ लोग खुल्लम खुल्ला कह देते हैं, कुछ दिल में रख छोड़ते हैं........बस मुझे उसे पढ़ कर आनंद आने लगा, मस्त लगने लगा ...और मैंने यह पढ़ने वाला काम अपनी रज़ाई में बैठ कर, अपनी कापी में उस नावल को छुपा कर भी किया ....जब कोई उस तरफ़ आ जाए तो मैं उस को छुपा देता.....यह बात कुछ दिनों तक ही चली क्योंकि मुझे इस से बेहद अपराध बोध होने लगा कि ये लोग तो सोच रहे हैं कि मैं पढ़ रहा हूं और मैं इस नावल की दुनिया में खोया हुआ हूं......उस के बाद फिर कभी नावल वावल की तरफ़ न तो जाने की तमन्ना हुई .....न ही अपने पास वक्त होता था ..पढ़ाई लिखाई में ही ऐसे रमे रहते थे कि सिर खुजाने की फ़ुर्सत ही न होती थी तो ऐसे में इन नावलों का क्या करें...मास्टरों का खौफ, मां-बाप का हम पर भरोसा, आने वाले सुनहरे भविष्य के सपनों ने हमें इस तरह के लिटरेचर से दूर ही रखा .....

लेकिन फिर भी नवीं क्लास में एक दो छात्र क्लास में ऐसी किताबें सारी क्लास को दिखाने के लिए ले आते थे कभी कभी जिन पर हम भी कभी निगाह मार लेते तो हमारा दिमाग ही घूम जाता ...इसलिए बीस तीस बरस बाद जब सी.डी वाले दिन आ गए और इस बात की चर्चा होने लगी कि स्कूलों में बच्चे मोबाइल ले जाते हैं, सी.डी तक ले जाते हैं ......तो हम भी अपने स्कूल के दिन याद आ जाते थे ....हमारे दिनों में एक लेखक था, मस्त राम ......अब था कि नहीं लेकिन उस की किताबें फुटपाथ पर खूब बिकती थीं ....अपने अडल्ट कंटैंट की वजह से ...जहां पर मुझे याद है नवीं दसवीं कक्षा में एक ऐसी किताब भी एक सहपाठी ले कर आया था ...वैसे तो किताब की दुकान से भी मस्त राम की किताब किराये पर लेकर पढ़ी हो होगी .....लेकिन यह हो नहीं पाता था, दुकानदार से उस तरह की किताब को मांगने भर की हिम्मत जुटाने में ही जान निकल जाता थी, सांस फूलने लगती थी कि अगर किसी ने देख लिया....ये सब किताबें भी किराए पर मिलती थीं लेकिन बहुत ज़्यादा किराया लगता था .....शायद रोज़ का एक रूपया या इस से थोड़ा कम....चलिए, अब आगे चलें....जिस रास्ते पर ज़्यादा चले ही नहीं, उस का और कितना ज़िक्र करें...


गुज़रे दौर का सब से खतरनाक डॉयलाग ...."मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं."...बस, यह सुनते ही पाठकों के और फिल्म में दर्शकों के कान खड़े हो जाते थे ...

हां, पहले घरों में किताबें या नावल ज़्यादा न होते थे ..स्कूल कालेज की किताबों के अलावा ले-देकर चार पांच किताबें हुआ करती थीं, एक तो मां की रामायण, एक उस की पाठ पूजा करने वाली किताब, दो चार किताबें जो हमें स्कूल के पारितोषिक वितरण के दौरान मिला करती थीं और एक दो किताबें जो किसी सगे संबधी ने भेंट स्वरूप दी होती थी ......याद आ गया हम लोग ऐसी किताबों की बड़ी कद्र भी करते थे ..याद आ गया मेरे जीजा जी ने मुझे एक किताब भेजी थी जब मैं १३ बरस का था, यह किताब उन चंद किताबों से है जो मुझे ज़िंदगी में सब से पहले पढ़ने का मौका मिला और जिसे पढ़ना अच्छा लगता था और यह भरोसा भी हुआ था कि हम भी ज़िंदगी में कुछ कर सकते हैं...


खैर, बहुत सी किताबों के बीच ही ज़िंदगी कट रही है ...हर तरह की किताबों के सान्निध्य में ...कोई टॉपिक न हो, जिस के ऊपर किताब न खऱीदी हो .....नावल भी बहुत से.....और मज़े की बात इंगलिश के नावल भी ...लेकिन इंगलिश नावल इतने बड़े बड़े पढ़ने के लिए बड़ा सब्र चाहिए..वह अपने में है नहीं, इसलिए हिंदी का भी कभी कोई नावल पूरा पढ़ा हो, याद नहीं.......याद ख़ाक नहीं, पढा़ ही नहीं ...अगर पढ़ा होता तो याद क्यों न रहता, नवीं कक्षा में रज़ाई में बैठ कर छुप छुप कर नावल के कुछ पन्नों के कुछ खास पैरा पढ़ने तो अभी तक नहीं भूला तो फिर नावलों को पढ़ना कैसे भूल सकता था .......नहीं पढ़े नावल जनाब हम ने .....लेकिन दो तीन बरस पहले जब एक बहुत बड़े नावलकार सुरेंद्र मोहन पाठक की आत्मकथा छपी तो वह मैंने बिना सोए , बिना कुछ काम किए जैसे एक ही ढीक में पढ़ गया...(ढीक का मतलब होता है बिना सांस लिए जैसे हम लोग पंजाब में लस्सी के गिलास को मुंह से लगा कर उसे पूरा पी कर ही नीचे रखते हैं...😂)....और जब उस महान नावलकार को दो तीन बरस पहले दिल्ली में एक लिटरेचर फेस्टिवल में मिलने का मौका मिला तो मैंने उन्हें यह बात बताई भी ...और उन की आत्मकथा जो अपने साथ लेकर गया था, उस पर उन के आटोग्राफ भी लिए ....हा हा हा हा ....


मशहूर नावलकार सुरेंद्र मोहन पाठक को मिलकर बहुत अच्छा लगा था, सहज और सरल लोगों को मिल कर किसे अच्छा नहीं लगता...यह ३०० से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं ...और अभी भी लिखना जारी है ...


हां, वह अपनी जीवनी में लिखते हैं कि उन्हें पढ़ने की इतनी तलब थी, इतना शौक था कि वह जिसे लिफाफे में मूंगफली खरीदते थे, मूंगफली खाने के बाद उसे भी पढ़ कर ही फैंकते थे...

चलिए, वापिस ५०-६० बरस पहले के ज़माने का ही रूख करते हैं....जब नावल एक, दो, तीन या चार रूपये में बिकते थे ..लेकिन खरीदते तब भी लोग कम ही थे ...किराये पर लेकर पढ़ते थे .....शायद इसीलिए पढ़ भी पाते थे ...मेरे मामा नावल पढ़ने के बड़े शौकीन थे...पर जैसे मैंने पहले लिखा कि यह वह दौर था जब नावल पढ़ना भी कोई ऐब करने जैसा माना जाता था ...इसलिए इन को पढ़ने वाले भी एक तरह के अपराधबोध के शिकार ही रहा करते थे ....जितना मैं समझा हूं ...

नावल पर लिखा होता था अकसर कि यह जासूसी नावल है या रोमांटिक नावल है ...ताकि बाद में कोई शिकायत न करे कि पहले से चेताया न था 😎😂.... उस नावल में उस लेखक के आगे आने वाले या पहले से छप चुके नावलों का भी ज़िक्र हुआ करता था ...साथ में एक घरेलू लाइब्रेरी योजना हुआ करती थी उस का भी कार्ड लगा रहता था....

और बहुत बहुत बार लेखक की यह परेशानी भी पीछे के कवर पेज पर लिखी होती थी कि मेरा चित्र छापने के लिए फलां फलां प्रकाशक ही हकदार है ....अगर मेरी फोटो नहीं है तो समझिए कि आप जाली पढ़ रहे हैं ....लोग भी पहले सीधे-सपाट होते थे, भोली भोली बातें करते थे ....इस सब के बावजूद दिल्ली के फुटपाथों पर जाली किताबों के ढेर लगा रहता था ...यह मैं १९८० के दशक की बातें कर रहा हूं ...जब साठ रूपये की असली किताब का जाली स्वरूप मात्र २०-२५ में मिल जाता था ...इंगलिश भी, देशी भी..कुछ भी ....और इतवार के दिन तो दरियागंज इलाके में, पुरानी दिल्ली में फुटपाथों पर ऐसी दुकानें खूब सजा करती थीं, हम भी अकसर वहीं से खरीदते थे .....अब असली और जाली के चक्कर में पड़ने की फ़िक्र पढ़ने वाला क्या करे, उसे अपनी जेब भी देखनी है, भटूरे-छोले भी खाने हैं, और वापिसी के बस के सफर के लिए पैसे भी बचाने हैं... 😀😀 ....वैसे मुझे कभी यह समझ न आई कि यह जो २-२, ३-३ रूपये के नावल ५०-६० बरस पहले बिकते थे, उन के जाली संस्करण तैयार करने में भी २-३ रूपये से कम क्या खर्च आता होगा...!!

कुछ नावलों के बाहर लिखा होता था कुछ इस का ब्यौरा भी ...विशाल का यह उपन्यास आंसुओं और कहकहों की अनोखी कहानी है ...और ये जो नावल ५०-६० पुराने आज दिखते हैं, इन का आज दाम क्या होगा.......छोड़िए, इस सब के चक्कर में क्या पड़ना, जब आपने खरीदने ही नहीं है ....वैसे इंटरनेट पर आप को इन के आज के रेट भी मिल जाएंगे ....कभी देखिएगा फ़ुर्सत में ...

इन पुराने नावलों में कुछ इस तरह का जुगाड़ भी रहता था कि पाठकों को जोड़ कर रखा जाए....जैसे लेखक ने अपना पता लिखा होता था कि नावल पढ़ने के बाद अपनी राय से अवगत करवाएं... और नावल की स्टोरी से जुड़े कुछ सवाल भी होते थे ...जिस का सही जवाब देने पर उन की हौंसलाफ़ज़ाई के लिए उन्हें कुछ इनाम भी भिजवाया जाता था ...। ए एच व्हीलर की दुकानें जो स्टेशनों पर होती हैं उन का स्टिकर भी अकसर इन पर लगा मिलता था...किताब के दाम के साथ ...

मेरे ख्याल में बस करता हूं .....कहीं मैं भी लिखते लिखते कोई नावल जैसा ही कुछ न लिख डालूं......वैसे भी आजकल लोगों को लगने लगा है कि मैं सरकारी काम काज की चिट्ठीयों को भी एक दम सरकारी स्टाईल में लिखने की बजाए...एक स्टोरीनुमा लिखने लगा हूं ..देखते हैं, सुधरने की कोशिश करते हैं...

जाते जाते एक बात लिख देता हूं...कुछ न कुछ, जब भी वक्त मिले ...पढ़ते रहना चाहिए...अच्छा लगता है और मेरी उम्र के लोगों को शायद स्क्रीन पर पढ़ने की बजाए हाथ में किताब को उठा कर पढ़ने में कहीं ज़्यादा मज़ा आता है ...किताब के पन्नों से आने वाली खुशबू, उन के उलटने-पलटने की आवाज़ और किताबों को हाथ से छू लेने भर की छोटी सी खुशी....हां, बंद करते करते याद आ गया कि पुरानी किताबों में, विशेषकर नावलों में जो आज के दौर में बिकते हैं उन के शुरूआती पन्नों पर कुछ इश्क-विश्क के किस्सों की भी टोह लग सकती है आप को ...जिस तरह से भेंट करने वाले ने पहले पन्ने पर अपने दिल की भावनाएं लिख कर नीचे अपना नाम लिखा होता है ........क्या करते लोग उस दौर में भी .....न ट्विटर , न  इंस्टाग्राम , न ही वाट्सएप था ..



यह तो एक साधारण नाम है ....लेकिन अकसर नावलों के नाम ऐसे ऐसे रोमांचक होते थे कि बंदा, अपने पैंचर हुए साईकिल और उस की फेल हुई ब्रेक को भूल जाता था कि वह बाद में, पहले नावल का जुगाड़ करने निकल पड़ता है, यह क्रेज़ था आज से ५०-६० पहले वाले ज़माने मे नावलों को ...जब जिसे बुद्धिजीवि लोग पल्प लिटरेचर कह देते हैं अकसर ..., 


1 टिप्पणी:

  1. मैं तो आज भी नॉवलों को पढ़ता हूं। टीवी इत्यादि देखना इतना पसंद नहीं है। यही कारण है कि एक प्रकाशन संस्था से जुड़ने का मौका मिला और सुरेंद्र मोहन पाठक जी के कुछ पुराने उपन्यासों को प्रकाशित करने का भी मौका मिला।
    वैसे रोमांटिक उपन्यासों को सामाजिक उपन्यास कहा जाता था। वैसे अपराध कथाओं के अलावा हॉरर भी रोचक विधा थी जिसमें तंत्र मंत्र इत्यादि होती है। मुझे हॉरर पढ़ना भी पसंद है।

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