यह उस दौर की बात है जब हम लोगों के लिए नए साल का मतलब सिर्फ यह होता था कि साल के उन आखिरी दिनों में हमें अपने बाबा आदम के ज़माने वाले रेडियो पर रात के वक्त बिनाका गीत माला सुनाई देती थी ...और मुझे अच्छे से यह भी याद है कि अगर उन दिनों सिबाका गीत माला के दौरान हमारे रेडियो में सिग्नल ठीक से नहीं पहुंच पाता था तो हमारा मूड बहुत ज़्यादा खराब हो जाया करता था...बड़े होने पर पता चला कि वह दिलकश आवाज़ जिस शख्स की होती थी उस महान हस्ती का नाम अमीन सयानी है ... क्या बात थी उस की पेशकश में कि मैं उस दिनों यही कोई तीसरी-चौथी जमात में रहा हूंगा ...लेकिन रेडियो से तो जैसे चिपके रहते थे ...फिर अगले दिन हम लोग स्कूल में चर्चा करते थे कि कौन सा फिल्मी नगमा किस नंबर पर आया ...वह दिन भी क्या मज़ेदार दिन थे ...इस लिंक पर क्लिक करिए और उस दौर को याद करिए....
अच्छा, यह तो हुई बचपन की मासूम सी बातें...हमें कुछ ज़्यादा नए-पुराने साल से मतलब न होता था .. नए साल के आसपास २५ दिसंबर से २-३ जनवरी तक हमारी बड़े दिन की छुट्टियां होती थी, या ठंडी की छुट्टियां (विंटर-वकेशन) होती थीं ...और हमें उदासी थोड़ी सी यह भी होने लगती कि अब तो एक दो दिन में स्कूल खुल जाएंगे ... बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी...फिर वही हिसाब किताब की बातें, साईंस की नीरसता ...सब कुछ वापिस झेलना पडे़गा...ये आठ दिन तो अच्छे से कट रहे थे ...जब चाहे उठे, जब चाहे घूमने निकल गए, फिल्म देखने चले गए....और रेडियो सुनते रहते थे...और इस के इलावा कुछ था भी तो नहीं ...एक डालडे के डिब्बे में भरे कंचों के अलावा ...😂😂
लो जी, हम कालेज पहुंच गए ...१६-१७ साल की उम्र में घर में टी वी आ गया....नए साल का मतलब यह भी होता कि ३१ दिसंबर की रात को दूरदर्शन पर एक बहुत बढ़िया ख़ास प्रोग्राम आया करता था ...पहले दो घंटे शायद दस बजे तक तो जालंधर दूरदर्शन की पेशकश हुआ करती ...फिर दिल्ली से अगले दो घंटे प्रसारण होता ...वाह, क्या बात होती ...उस में देश भर के चुनिंदा कलाकार, गायक अपनी प्रस्तुति देते ...मुझे अच्छे से याद है गुरदास मान का भी उन्हीं दिनों नाम होना शुरू हुआ था ...
और हां, उषा उत्थुप को मैं कैसे भूल गया...किस किस का नाम लें....यह प्रोग्राम रात १२ बजे तक चलता था ...फिर हम लोग सो जाते थे ...सारे साल में यही एक दिन होता था जब हम लोग इतना लेट सोते थे ...वरना रात साढ़े नौ बजे या हद १० बजे तक थक-टूट कर नींद आ ही जाती थी ...क्या करते, घर में वही डॉयलाग बार बार सुनने को मिलते ...Early to bed and early to rise ....और मां भी अकसर गुनगुनाया करती ...उठ जाग मुसाफिर भोर भई..अब रैन कहां जो सोवत है....😎
और हां, यह वह दौर था जब लोग एक दूसरे को नये साल के कार्ड भेजा करते थे ...और डाकखानों में उन दिनों काम इतना बढ़ जाता था कि उन की व्यवस्था चोक हो जाया करती थी ...कईं कईं दिन बाद वे कार्ड मिलते थे ....बहुत बार लोगों को शिकायत होती थी कि मिलते भी नहीं थे। आज कल जिस तरह से हर नुक्कड पर मोमोज़ बिक रहे होते हैं ...उन दिनों ऐसे ही नए साल के कार्ड थोक रेट पर बिका करते थे ...यही कोई १५-२० रूपये के १२ ....और किसी को आर्चीज़ से महंगे कार्ड --उन दिनों में भी दस-पंद्रह रूपये वाले कार्ड - भिजवाना कईं बार लोगों की मजबूरी ही लगा करती थी ...जैसा मुझे लगा ... मेरी बात का मतलब आप समझ ही गए होंगे...मैंने कभी यह सब काम नहीं किए....क्या करते, इतने पैसे ही नहीं हुआ करते थे कि इस तरह की चौंचलेबाजी में पड़ा जाए....
फिर देखते ही देखते ....नए वर्ष की पूर्व-संध्या किसी जश्न की बजाए एक शोर में बदल गईं....हर तरफ शोर- शराबा, बे-वजह की दौड़, दिखावा, दारू-शारू....बस, यही सब कुछ....जब से यह चलन शुरु हुआ, तब से नए साल की शुरूआत का जो एक मासूम सा मक़सद अगर हुआ भी करता था वह भी नहीं रहा है....ऊपर से यह वाट्सएप पर नए साल की बधाईयां देने-लेने वालों का तांता...बड़ी चिढ़ है मुझे इन सब संदेशों से ...
मैं यह सोचता हूं कि सुबह उठ कर ...साल नया हो या पुराना....सब से पहले सारी कायनात की सलामती की दुआ कर दें तो उस में सभी लोग शामिल हो जाते हैं...😄मैं किसी को भी बहुत कम नए साल की बधाई भेजता हूं क्योंकि मैं सभी लोगों की सलामती, खुशहाली की दुआ दिल में ही कर लेता हूं ....कईं बार मेरा इन फ़िज़ूल बातों से सिर दर्द ही ट्रिगर हो जाता है और फिर सारा दिन बन्ने लग जाता है ...
अभी बज रहे हैं ११ बज कर ४५ मिनट ...पंद्रह मिनट अभी हैं नए साल के शुरू होने में ...इसलिए अभी यह फिल्मी गीत सुनता सुनता सो रहा हूं ......ताकि न मुझे कोई डिस्टर्ब करे, न ही मैं किसी को करूं ...मै किसी को नए साल की मुबारकबाद का फोन भी नही करता ...क्योंकि मुझे लगता है कि लोग पहले ही ढ़ेरों बधाई संदेशों से त्रस्त होंगे ...उन्हें थोड़ी सांस भी लेने दें...
अच्छा, दोस्तो, इस पोस्ट को पढ़ने वालो, आप सब के लिए २०२२ नईं खुशियां और उमंगे लेकर आए ...और सब से ज़रूरी आप सेहतमंद रहें, खुश रहें, खिले रहें ....और खुशियां बांटते रहें हमेशा ...गुड नाइट ....
यही कोई १५ साल तो हो गये होंगे, इस फिल्म को आए हुए...फिल्म तो बढ़िया थी ही, बेशक...लेकिन इस फिल्म का यह बेहद हसीन डॉयलॉग मेरे तो जैसे दिलो-दिमाग पर छा गया...मुझे याद नहीं मैंने कितनी बार अपने ब्लॉग में इस का ज़िक्र किया...डॉयलॉग क्या है भाई यह तो जैसे हम लोगों के लिए एक आईने का काम कर रहा है ...लेकिन आईना देखने की भी फ़ुर्सत है कहां, हम पहले अंधी रेस तो दौड़ लें..
कुछ दिन पहले मैंने कहीं पढ़ा कि सत्यजीत रे जब ६ साल का बालक था तो उस की मां उसे रबिन्द्रनाथ टैगोर के पास ले कर गई ...और उन्हें उस की कापी पर कुछ लिखने को कहा ...उन्होंने उस की कापी पर यह लिखा ...
Many miles I have roamed, over many a day....
from this land to that, ready for the price to pay..
Mountain ranges and oceans lay in my way..
yet two steps from my door, with wide open eyes..
I did not see the dewdrops on a single sheaf of rice....
इसे लिखने के बाद टैगोर ने उस की मां को कहा कि यह कागज़ इस बालक के पास ही रहने देना, जब यह बड़ा होगा तो इस में लिखी बातें समझ जाएगा। जी हां, हुआ भी वही ...उस बालक ने भी इतनी अहम् बात को ऐसा समझा कि जो फिल्में उसने अपने आस पास के परिवेश में, आस पास के लोगों के बारे में बनाईं, उन की धूम किसी सूबे या देश ही में ही नहीं, सारी दुनिया में वे मास्टरपीस मानी गईं...
कोई भी ज्ञान कहीं से भी मिल जाए...किसी भी उम्र में ले लेना चाहिए...६ साल की उम्र में और मेरी ६० साल की उम्र में फ़र्क है ही कितना ..मुझे भी यह बात इतनी बढ़िया लगी कि मैंने इसे लिख कर एक एंटीक फ्रेम में अपनी स्टड़ी टेबल पर रिमाँइडर के तौर पर टिका दिया है ...अकसर निगाह पड़ जाती है और मन ज़्यादा इधर-उधर भटकने से बचा रहता है ...वरना, हर वक्त यही बात ..यार, मैंने स्विज़रलैंड नहीं देखा, कश्मीर नहीं देखा, नार्थ-इस्ट नहीं देखा...महाबलेश्वर नहीं देखा....और लंबी-चौड़ी लिस्ट ....यहां नहीं गए, वहां नहीं गए....अजंता -एलौरा नहीं गए तो क्या हुए...तस्वीरें तो देख लीं...अब यही लगने लगा है कि सहजता से, आसानी से जहां जाया जा सके ठीक है ...वरना क्यों इतनी मगजमारी की हर वक्त बंदा देश-विदेश के दौरों की प्लॉनिंग ही करता फिरे ...
हम सारी उम्र घूमते ही रहें...फिर भी कुछ न कुछ ही नहीं, बहुत कुछ रह जाएगा...एक किताब पढ़ रहा हूं ...वंडर्ज़ ऑफ दा वर्ल्ड ...यह सात अजूबों की नहीं, दुनिया के बहुत से अजूबों के बारे में बताती है ...पढ़ते हुए यही अहसास होता है कि इतनी बढ़िया दुनिया, इतने बड़े बड़े अजूबे, पहले अगर पढ़ता तो यही लगता कि इन में से ताजमहल के अलावा कुछ भी नहीं देखा, लेकिन अब मन ठहर सा गया है...समझ आने लगी है ..कि नहीं देखा तो भी कोई बात नहीं, जब देखेंगे देख लेंगे ..अगर मुमकिन हुआ तो अच्छा, अगर नामुमकिन हुआ तो भी बढ़िया ...
हम लोगों की परेशानी यही है कि हम दूर दूर की जगहों पर जाते हैं, दूर बैठे लोगों से पेन-फ्रेंडशिप करते हैं....लेकिन अपने पास ही के लोगों से ढंग से तो क्या, बेढंग से भी बोलते-बतियाते नही, आसपास की जगहों में रूचि नहीं लेते ..जहां हम रहते हैं वहां से पांच-दस किलोमीटर के घेरे में आने वाले ऐसे कईं स्थान हैं जिन्हें हम ने कभी देखा ही नहीं ...लेकिन देखें भी तो कैसे, उस के लिए पैदल चलना होगा, किसी टू-व्हीलर पर उन सड़कों को नापना होगा...हम मोटर-गाड़ियों में दूर दूर से जगहों को देखते हैं....और मन ही मन सोचते हैं कि हां, इधर भी कभी आना है ..लेकिन वह कभी कब आता है .....इस का कुछ पता नहीं ...अकसर तो आता ही नहीं...जैसे कल मेरी एक कॉलेज की साथी ने यह बहुत ही हंसाने वाली वीडियो भेजी वाट्सएप पर ...देखते ही मज़ा आ गया....उस में साथ में यही लिखा था कि जब आप रिटायर होने के बाद फैरॉरी लेते हैं तो आप का भी यही हश्र होता है ... 😄😄😄ओ माई गॉड, यह तो मुझे खुद की बीस साल बाद की तस्वीर दिखी...लेकिन ज़िंंदगी जीने की भी इतनी जल्दी क्या है, पहले बैंक-बेलेंस को तो मोटा कर लें...वह कही ज़्यादा ज़रूरी है ...😂😉
वीडियो की तो बात क्या करें, अपनी हालत पर ही हंसी आती रही कि कभी पलंग के नीचे से कुछ निकालना हो तो नानी याद आ जाती है, बाथरूम में किसी चौकी पर बैठ कर उठना ऐसा मुश्किल लगने लगा है कि अब वहां पर खूब ऊंचे स्टूल पर बैठ कर ही खुद को नहलाया जाता है, कपड़े की अलमारी की नीचे की शेल्फों को देख कर गुस्सा आता है कि कौन इतना झुके और कैसे झुके ...इसलिए वहां पर भी कुछ देखने के लिए ऊंचे स्टूल पर बैठना पड़ता है ....यह है हमारी फिटनैस का लेवल...
हम बड़ी बड़ी प्लॉनिंग ही करते रह जाते हैं ...और कब ३० से ६० के हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता लेकिन तभी घुटने चीखना चिल्लाना शुरू कर देते हैं ....😄😎😂
पिछले कुछ दिनों से मैं खार-बांद्रा की एक सड़क की तरफ़ से ऑटो पर जब निकलता तो वहां पर राजेश खन्ना पार्क का बोर्ड लगा देखता....कल सुबह सुबह यह धुन सवार हो गई कि वहां हो कर आते हैं..चला गया जी ..वाह, इतना खूबसूरत पार्क ...खुब हरा-भरा ...मज़ा आया वहां जाकर ...दस मिनट टहले, फिर डयूटी जाने का ख्याल आया तो लौट आए....वहां पर राजेश खन्ना की सुपर-डुपर फिल्मों के पोस्टर भी लगे थे जिन्हें देख कर तो और भी अच्छा लगा...मैंने किसी से पूछा कि इस का नाम राजेश खन्ना पार्क है, क्या यह उसने बनाया था...एक टहल रहा बंदा रूक गया और बताने लगा कि हां, बनाया तो उसने था, लेकिन बाद में बीएमसी ने इस का रखरखाव अपने पास ले लिया...
चलिए, रखरखाव कोई भी करे, हमारे लिए अच्छी बात यह है कि पार्क बहुत सुंदर है, बहुत से लोग वहां पर अपने दिलो-दिमाग की चार्जिंग अपने अपने अंदाज़ में बड़े जोशो-खरोश से कर रहे थे, देख कर बहुत ही अच्छा लगा....हमने भी यह निश्चय किया कि किसी दिन आते हैं यहां पर फुर्सत में दो एक घंटे बैठ कर मज़ा लेंगे ...देखते हैं, वे फुर्सत के पल कब आते हैं...
ज़्यादा दूर न भी जाएं या जा पाएं तो घर ही के आसपास गलियों की खाक छानते ही हमें ऐसी ऐसी चीज़ें, कलाकारों के ऐसे काम दिख जाएंगे कि एक बात तो दांतों तले अंगुली दबाते दबाते रह जाएं...
दो-तीन साल पहले की बात है ...मैं अपनी बहन के पास जयपुर गया तो हमने एक पार्क में जाने का प्रोग्राम बनाया...इतना बड़ा पार्क ...हम लोग वहां दो घंटे घूमते रहे ...हमें वापिस निकलने का रास्ता ढूंढने में दिक्कत हुई ....बहन ४० साल से जयपुर में है, वहां पर पहली बार मेरे साथ गई थी...यही हाल हम सब का है, हम अपने शहरों को अमूमन इतना ही देख पाते हैं, जानने की बात न ही करें...
डयूटी से आने पर आज दो तीन घंटे सोया रहा ...सिर दर्द से परेशान था...रात साढ़े आठ नौ बजे उठा तो ख्याल आया कि एक दवाई खरीदनी है ..नानावटी अस्पताल का नुस्खा था...पाली हिल के एरिया में तीन-चार दुकानें छान लीं...नहीं मिली दवाई .. दिन-रात चलने वाली वेलनैस कैमिस्ट की एक दुकान है ...उन के यहां भी न मिली ..कहने लगे कल शाम को मिलेगी...लेकिन इतना वक्त किस के पास होता है आजकल कि चक्कर मारते फिरो एक दवाई के लिए...
मैंने वेलनैस वाले कैमिस्ट से ही पूछा कि यह मिलेगी कहां ...कहने लगा कि किसी अस्पताल की फार्मेसी से ही मिल पाएगी...मैंने पूछा होली-फैमिली से मिलेगी? - उसने कहा कि हां, वहां ज़रूर मिल जाएगी। मैं होली-फैमिली की तरफ़ चल दिया...रास्ते में मुझे यही ख्याल आ रहा था कि दवाई तो यह बहुत सस्ती होगी, इसलिए ही नहीं मिल रही। वरना, महंगे टॉनिक, सप्लीमैंट जैसी दवाईयां तो आज कल छोटे से छोटे कैमिस्ट ऱखने लगे हैं...
होली फैमिली वाले सिक्योरिटी गार्ड ने अंदर जाने से पहले नुस्खा चैक किया...मैंने फार्मेसी के काउंटर पर बैठी महिला को पर्चा दिया तो उसे देखते ही वह अपनी साथी फार्मासिस्ट से बुदबुदाई...नानावटी अस्पताल की प्रिस्क्रिप्शन है। खैर, वह दो मिनट तक कंप्यूटर में तांका-झांका करने के बाद कहने लगी कि हम तो अपने अस्पताल के डाक्टर की प्रिस्क्रिप्शन पर ही दवाई देते हैं। खैर, बंबई में किसी से भी बहस फिज़ूल है ..यह ज्ञान बहुत ज़रूरी है। उसने कहा कि अस्पताल के बाहर जो कैमिस्ट है, उस से पता कर लीजिेए।
बाहर आते वक्त मैंने उस सिक्योरिटी गार्ड से पूछा कि तुमने मेरा पर्चा चैक तो किया लेकिन उसमें देखा क्या...अगर मुझे यहां से दवाई नहीं मिलनी थी, तो मुझे यहीं से लौटा देते, क्योंकि ये तो बाहर के नुस्खे पर दवाई देते ही नहीं। सिक्योरिटी वाला कहता है कि अगर हम अंदर नहीं जाने देते तो लोग हम से उलझते हैं, हम क्या करें...और उसने बताया कि ऐसा नहीं है कि बाहर के नुस्खे पर दवाई नहीं मिलती, किसी को मिल जाती है, किसी को नहीं देते ....मैंने वहीं पर उस बात पर मिट्टी डाली और उस महिला के द्वारा बताए गये कैमिस्ट के पास चला गया लेकिन वहां भी नहीं मिली...कहने लगा कि इस की खपत कम है, इसलिए रखते नहीं। हां, उसने यह कहा कि लीलावती अस्पताल से पता कर लीजिए, वहां ज़रूर मिल जाएगी।
मैं लीलावती अस्पताल पहुंच गया...वहां पर भी उसने कंप्यूटर में देख कर यही बताया कि यह दवाई इस स्ट्रैंथ की नहीं है, इस से ज़्यादा की है ...आप इधर ही लैफ्ट में चले जाइए...नोबल कैमिस्ट है, वहां से पता कर लीजिए। मुझे तो आते वक्त कोई न कोई नोबल, न कोई क्रयूएल कैमिस्ट दिखा...लेकिन लगभग एक डेढ़ किलोमीटर के बाद हिल रोड पर मेहबूब स्टूडियो के सामने एक दवाई की दुकान पर नज़र गई तो नोबल लिखा था...उस के अंदर जा कर पूछा तो वहां से दवाई मिल गई ...कुल चालीस रूपये की दवाई थी ....और एक-डेढ़ घंटे की स्कीम हो गई।
मुझे यही लगता है ..पता नहीं अब ठीक लगता है या नहीं, कि ऐसी सस्ती दवाईयां रख कर वे लोग अपनी इंवेंट्री क्यो बढ़ाने लगें...इन में कमाई ही क्या है...अभी मैं दवाई ले रहा था कि एक जेंटलमेन आया कि खांसी की दवाई लेनी है। मुझे अपना बचपन याद आ गया कि हम लोग या हमारे मां-बाप भी तो ऐसे ही अमृतसर इस्लामाबाद चौक पर सरदार कैमिस्ट के पास जा कर खड़े हो जाते थे कि हमें यह तकलीफ है, वह एक दो सवाल पूछता और हमें दो-तीन खुराक दे देता ...यही कोई १५-२० रुपये में (४५-५० साल पुरानी बातें ...) ...मेरे माता पिता की नज़रों में वह अमृतसर का सब से सयाना कैमिस्ट था ...जब भी मेरा गला खराब होता, थूक निगलने में भी दिक्कत होने लगती तो मेरे पापा दफ्तर से लौटते वक्त वहां से दो-चार टैरामाइसिन की खुराकें ले आते ...और हम एक-दो कैप्सूल और पापा से हल्की सी डांट खाने के बाद टनाटन हो जाते ...और पापा की डांट यही होती कि यार, खट्टे चूरन मत खाया कर, उसमें टाटरी पड़ी होती है, तू समझता क्यों नहीं ...
आज इस ४० रूपये की दवाई खरीदने के चक्कर में मुझे जब इतनी भाग-दौड़ करनी पड़ी तो मुझे यही ख्याल आ रहा था कि एक तो यह हालत है और दूसरी तरफ़ सरकारी अस्पतालों में दवाईयों के अंबार लगे हुए हैं...फिर भी !!!!!😷चुप रह यार, चुप भी रहना सीख ले...वरना किसी दिन बुरा फंसोगे तुम ....खुद को समझाने की कोशिश कर रहा हूं...
अभी अभी उठा हूं...आज बड़ा दिन है ...हैपी क्रिसमिस है ...लेकिन इतनी शांत और ठहरी ठहरी सी सुबह...चलिए, सुबह की इस सुंदर बेला का जश्न मनाने के लिए एक खूबसूरत गीत सुनते हैं पहले...बातों का क्या है, वे तो होती ही रहेंगी...
मुझे आज अचानक ख्याल आ रहा है कि आज से ४०-५० साल पहले कोई भी तीज-त्यौहार का दिन हो या कहीं भी जागरण हो, रामलीला हो, होली-दीवाली हो या पड़ोस में किसी के घर में महिलाओं की कीर्तन मंडली ने दोपहर में कीर्तन ही करना होता या कहीं पर सुंदर-पाठ का आयोजन होता, सत्यनारायण की पूजा होनी होती, सरकारी पब्लिसिटी महकमे की ओर से कोई फिल्म ही दिखाई जानी होती तो उस से कईं घंटे पहले हमें ऊंची ऊंची आवाज़ में बड़े बड़े लाउड-स्पीकरों पर बज रहे अपने मनपसंद फिल्मी गीतों के ज़रिए उस की सूचना मिल जाती ..
लाउड स्पीकर ही क्यों...राखी, भैया दूज आदि के दिन तो सुबह सुबह सभी घरों में ऊंची ऊंची आवाज़ में राखी से जुड़े सुपर-डुपर गीत बजने लगते ...हमें भी यूं लगता कि हां, यार, आज जश्न का दिन है ..
इन फिल्मी गीतों की अहमियत हमारे लिए इतनी थी कि वे उम्र भर के लिए हमारे साथ ही हो लिए...होली के दिन जब तक वे गीत नहीं बजते ..होली जैसा लगता ही नहीं कुछ ...😂😂प्रूफ के लिए इस लिंक पर क्लिक करिए और यह गीत सुनिए....आज न छोडेंगे...खेलेंगे हम होली...
मेरी तो बचपन-जवानी की सारी यादें अमृतसर शहर की हैं...लेकिन अकसर यह सभी शहरों की ही दास्तां होगी ... गली,मोहल्ले और अड़ोस-पड़ोस में किसी के घर किसी शादी का आयोजन होता तो सुबह ही छत पर बड़े बड़े स्पीकर से हमें अपने मनपसंद फिल्मी गीत सुनने लगते ....बहुत मज़ा आता था ...बार बार सुन कर भी हम कहां बोर होते थे ...यह कमबख्त बोर लफ़्ज़ ही से हम वाकिफ़ न थे, हमें तो वैसे भी हर पल उत्सव जैसा लगता था..हर वक्त अपनी ही सुनहरे ख़्वाबों में खोए-खोए से अपने आप में मस्त रहना ...ज़िंदगी को एक वक्त में एक ही दिन के लिए ही जीना ही हमें जीना लगता था...
१९७५ की बात है ...शोले फिल्म जब आई तो हमें बडे़ बड़े लाउड स्पीकरों पर दिलकश फिल्मी गीतों के साथ साथ फिल्मों के ़डायलॉग भी हमें सुनने को मिलने लगे ...गब्बर, कालिया, जय-वीरू की बातें और बसंती की चुलबुली बातें जैसे हमें रट गईं ....अपने सिलेबस से भी कहीं ज़्यादा अच्छे से...लोगों में सहनशक्ति थी ...किसी के दुःख सुख का ख्याल रखते थे ...थोड़ी बहुत असुविधा भी होती थी तो चुपचाप सह लेते थे ...पंजाबी च कहंदे ने जर लैंदे सी...लेकिन हमें तो यह सब बहुत अच्छा लगता था...
हम भी उस वक्त किताब-कापी लेकर मेज़ पर पढ़ने का नाटक करने बैठ तो जाते थे लेकिन कमबख्त सारा ध्यान उस लाउड-स्पीकर से बज रहे गीतों पर ही हुआ करता था ...
किसी के यहां रात में जागरण होना होता तो शाम ही से माता की भेंटे बजने लगती ...कहने का मतलब की पूरा माहौल तैयार हो जाता था रात होते होते ...अभी लिखते लिखते ख्याल आ रहा कि अमृतसर के इस्लामाबाद एरिया में एक पीर की जगह थी ..जहां पर लोग वीरवार के दिन सरसों का तेल कटोरी में ले जाकर चढ़ाया करते थे ...कहते थे इस से मन्नत पूरी हो जाती है ...लेकिन मेरी तो न हुई ...बेवकूफी की हद यह कि नवीं-दसवीं कक्षा में जब स्वपन-दोष (वेट-ड्रीम्स) की शुरूआत हुई तो मैं तो भई परेशान रहने लगा, पढ़ाई में मन ही न लगता...यही लगने लगा कि यह कौन सी बीमारी लग गई....मन ही मन मैंने देखा कि पीर बाबा के बारे में बताते हैं कि वह जगह बड़ी पहुंची हुई है ...
मैंने भी वहां पर वीरवार के दिन सरसों का तेल लेकर पहुंच जाना और वहां पर जल रहे दीयों में उसे डाल कर आना और दिल की गहराईयों से यही अरदास करता कि बाबा, मुझे इस बीमारी से छुटकारा दिला दो ....लेकिन कईं साल बाद पता चला कि यह स्वपन-दोष कोई दोष तो है ही नहीं, यह तो सामान्य सी बात है और सभी को इस अवस्था से गुज़रना ही पड़ता है ...उसमें पीर क्या उखाड़ लेता ...हम लोग भी ऐसे बुद्दू थे...थे से मतलब?😂😎सच में हमें दीन-दुनिया की कुछ समझ न थी, न ही हम लोग लोग किसी बड़े बुज़ुर्ग के साथ, यहां तक कि बड़े भाई के साथ ही ऐसी कोई बात करते थे कि उन से ही पूछ लें कि ऐसा क्यों हो रहा है....लेकिन पूछते कैसे, हमें तो लगता कि इसमें भी हमारा ही कोई दोष है ....😎😎
चलिए, पुरानी बातों पर मिट्टी डालें ...हां, तो पीर बाबे की जगह पर तो फिल्मी कव्वालियां तो लाउड-स्पीकर पर चल ही रही होतीं ...कुछ लोगों के घरों में जिन की मन्नत पूरी हो चुकी होती ....(खुदा जाने उन की क्या मन्नत पूरी हो चुकी होती, मैंने तो अपनी बेवकूफ मन्नत की पोल-पट्टी खुद ही खोल दी है...😎😂)...तो उन के घर मे एक देग में शाम के वक्त गुड़ वाले मीठे चावल पकाए जाते और उस देग को एक साईकिल रिक्शा पर रख कर उस पीर की मजार पर लेकर जाया जाता और वहां आने वाले भक्तों में उसे बांटा जाता ....और उस घर में शाम से ही वहीं फिल्मी सूफी-कव्वालियां बड़े बड़े लाउड-स्पीकरों पर हमें सुनाई देने लगतीं...
और जहां तक धुंधला सा ख्याल आ रहा है कि किसी के यहां शोक में अगर कोई आयोजन होना होता - भोग, श्रद्धांजलि आदि--वहां पर वही माईं डिप्रेसिंग से गीत की माईं तू संसार में लेकर क्या आया है, लेकर क्या जाएगा, ये चौरासी का फेर है, ये सब डराने वाली बातें ..नरक में जाएगा, स्वर्ग में सीट बुक करवा ले .....सच में हमें उस उम्र में ये सब बेकार की बातें ...मन को उदास करने वाली बातें बहुत बुरी लगतीं, हां, आज भी लगती हैं....सच में उस वक्त सारे ऐसे गीत बजते जैसे अगले दो घंटे में सारी दुनिया तबाह होने वाली है ...
और क्या होता था....त्योहारों पर ...मिठाईयां खाई जातीं, केक खाए जाते (तब काटने का चलन न था...बस हमें केक-खाने का ही पता था....)और बहुत से लोग नए-नए कपड़े इन त्योहारों पर पहनने के लिए खरीदते ... देखा जाए तो उस नज़रिए से तो अब दिन जश्न का दिन होना चाहिए ...लेकिन ऐसा है नहीं ...क्यों नहीं है, यह हमें ख़ुद से पूछना होगा...आराम से, इत्मीनान से, सुकून से खुद के साथ बैठ कर ...मुझे लगता है हम इतने समझदार हो गए हैं कि अब हमने जश्न के लम्हों की बजाए सुख-वैभव की चीज़ों में खुशियां ढूंढना शुरू कर दिया है .....
बस करूं, मैं भी बड़े दिन के क्या लिखने बैठ गया..रात में मैं ईज़ी-चियर पर पडे़-पड़े वह गीत याद करता रहा ...हमारे दौर का बहुत ही पापुलर गीत .....
क्रिसमिस की बहुत बहुत बधाईयां ....और भी बहुत सी यादें हैं, इस त्यौहार की ..फिर कभी आप से कहेंगे...😂....अभी यू-टयूब पर बचपन वाले पीर-बाबे को सर्च करना चाहा तो बीसियों रिज़ल्ट आ गए...मैंने चुपचाप उसे बंद कर दिया ...कि कहीं फिर से तेल चढ़ाने के चक्कर में न फंस जाऊं...बहुत मुश्किल से तो पहले ही उस फिसलन से बाहर निकला हूं....आराम से यही गीत वीत ही सुनते हैं...और बड़े दिन के जश्न में शामिल हो जाते हैं....