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रविवार, 3 मई 2009

जब ढंग से की दो बातें ही इलाज होता है

मैं अकसर सोचता हूं कि उम्र के साथ बहुत सी तकलीफ़ें ऐसी आ जाती हैं ( चलिये, हम यहां कैंसर की बात नहीं करते) ---जिन तकलीफ़ों का कोई विशेष इलाज होता ही नहीं है।

हर डाक्टर के पास ऐसे ही कईं मरीज़ रोज़ाना आते हैं जिस के बारे में उसे बिलकुल अच्छी तरह से पता है कि इस अवस्था के बारे में कुछ नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी मरीज़ का मन बहलाये रखना भी बहुत बड़ा काम है।

चलिये, एक उदाहरण लेते हैं ओसटियो-आर्थराइटिस की जो कि बड़ी उम्र में लोगों को ओसटियोपोरोसिस के साथ मिल कर बहुत ही ज़्यादा परेशान किये रहती है। चलने में दिक्कत, घुटने में बेहद दर्द ------अब ये तकलीफ़ें ज़्यादातर केसों में तो इसलिये होती हैं कि लोग विभिन्न कारणों की वजह से अपने शरीर की तरफ़ कईं कईं साल तक ध्यान दे ही नहीं पाते --- और बहुत से केसों में यह उम्र का तकाज़ा भी होता है।

मुझे बहुत साल पहले एक हड्डी रोग विशेषज्ञ का ध्यान आ रहा है जो कि बड़ी-बुजुर्ग महिलाओं को एक झटके में बड़े आवेग से कह दिया करता था कि अब उन के घुटनों में ग्रीस खत्म हो चुकी है, कुछ नहीं हो सकता अब इन हड्डियों का। इतना ब्लंट सा जवाब सुन कर अकसर मैंने देखा है कि लोगों का मन टूट जाता है।

इस का यह मतलब भी नहीं कि इन बुजुर्ग मरीज़ों को झूठी आशा दे कर, रोज़ाना अच्छी अच्छी बातों की मीठी गोलियां दे देकर उन से पैसे ही ऐंठते रहें ----या और नहीं तो वही एक्स-रे, वही सीटी स्कैन करवा कर उन की जेबें हल्की कर रहें।

जो मैं कहना चाह रहा हूं वह बस इतना ही है कि मरीज़ की स्थिति कैसी भी हो ----उस को हम ठीक ठीक बता तो दें लेकिन अगर आवेग में आकर बिना सोचे समझे बडे़ स्पष्टवादी बनते हुये सब कुछ एक ही बार में कह देते हैं तो मरीज़ का मन बहुत दुःखी होता है। दवाईयों ने तो जो काम करना होता है वह भी नहीं कर पाती ----क्योंकि मरीज़ का मन ठीक नहीं है। लेकिन अहम् बात यह है कि अगर मरीज़ का मन ठीक नहीं है, डाक्टर की बात से वह खफ़ा है तो उस के शरीर की जो प्राकृतिक मुरम्मत करने की क्षमता ( natural reparative capacity) है , कमबख्त वह भी मौके का फायदा उठा कर हड़ताल कर देती है।

बहुत सी तकलीफ़ें ऐसी हैं जिन का कोई सीधा समाधान है ही नहीं ----- बस, मरीज़ का अगर मन लगा रहे तो यही ठीक होता है। बाकी, आज लोग काफ़ी सचेत हैं उन्हें भी पता होता ही है कि फलां फलां तकलीफ़ें उम्र के साथ हो ही जाती हैं और ये सारी उम्र साथ ही चलेंगी लेकिन फिर भी वे डाक्टर के मुंह से कुछ भी कड़े निराशात्मक शब्द सुनना नहीं चाहते।

अगर ऐसे ओसटियोआर्थराइटिस के केस में डाक्टर इतना ही कह दे कि आप अपना थोड़ा वज़न कम करें , थोडा़ बहुत टहलना शुरू करें ---- खाने पीने में दूध-दही का ध्यान रखें ---- तो मरीज़ बड़े उत्साह के साथ इन बातों को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करने लगता है। और साथ में अगर योग, प्राणायाम् के लिये भी प्रेरित कर दिया जाये तो क्या कहने !! ठीक है, वह दर्द के लिये हड्डियों पर लगाने वाली ट्यूब, कभी कभार या नियमित विशेषज्ञ की सलाह से कोई दर्द-निवारक गोली या वह गर्म पट्टी ----ये सब अपना काम तो करती ही हैं लेकिन सब से तगड़ा काम होता है डाक्टर के शब्दों का जिन्हें बहुत ही तोल-मोल के बेहद सुलझे ढंग से निकालना निहायत ही ज़रूरी है।

बस और क्या लिखूं ? ---पता नहीं इन बातों का सुबह सुबह कैसे ख्याल आ गया ---- कहना यही चाह रहा हूं कि डाक्टर और मरीज़ के बीच का वार्तालाप बेहद महत्वपूर्ण है ---इन में एक एक शब्द का चुनाव बहुत ही सोच समझ कर करेंगे तो ही मरीज़ों का मनोबल बढ़ेगा -------------वरना वे हमेशा बुझे बुझे से हर हफ्ते डाक्टर ही बदलते रहेंगे जब तक कि वह किसी आस पड़ोस के बहुत ही मृदुभाषी नीम हकीम के ही हत्थे नहीं चढ़ जायेंगे जो कि बातें तो शहद से भी मीठी करेगा लेकिन खिलायेगा उन को स्टीरॉयड जो कि इन मरीज़ों का शरीर दिन-ब-दिन खोखला कर देती हैं।

जब छोटे से तो बड़े-बुजुर्गों से सुनते थे, अपने हिंदी और संस्कृत के मास्टर जी अकसर कबीर जी, तुलसी दास के दोहे पढ़ाते हुये यह बताया करते थे कि वाणी कैसी हो, इस पर क्यों पूरा नियंत्रण हो ----------और आज इतना साल चिकित्सा क्षेत्र में बिताने के बाद यही सीखा है कि सही समय पर कहे गये संवेदना से भरे दो मीठे शब्द कईं बार इन दवाईयों से भी कईं गुणा ज़्यादा असर कर देते हैं। मेरी अभी तक की ज़िंदगी का यही सारांश है। आप का इस के बारे में क्या ख्याल है ?

सोमवार, 2 मार्च 2009

मरीज़ की प्राईवेसी नाम की चीज़ भी तो होती है ----1.

अकसर मैं अपने कॉलेज के जमाने से देख रहा हूं कि मैडीकल फील्ड में अकसर किसी मरीज़ की प्राइवेसी की तरफ़ इतना ध्यान नहीं दिया जाता। बिल्कुल नये नये तैयार हुये बहुत से डाक्टर तो इस के बारे में रती भर सचेत नहीं हैं ----यह नहीं कि मरीज़ की प्राइवेसी की तहज़ीब आती ही नहीं है ---आती तो शायद कुछ लोगों को ज़रूर है लेकिन साठ-पैंसठ साल की उम्र यूं ही बिताने के बाद ।

यार, मैं अगर अपना ब्लड-प्रैशर भी किसी फ़िजिशियन से चैक करवाने जाऊं तो मुझे महसूस होता है कि उस समय उस के चैंबर में कोई और मरीज़ न ही हो, अगर मैं अपनी श्रीमति जी के चैंबर में भी अपने स्वास्थ्य से संबंधित कोई परामर्श उन से लेने जाता हूं तो मेरी इच्छा होती है कि उस समय कमरे में वार्ड-ब्वॉय भी न हो ---- दोस्तो, यह एक स्वाभाविक चेष्ठा है। इस में कोई बुराई तो नहीं है भई। लेकिन अकसर मैं जगह जगह घूमता रहता हूं और यही देखता हूं कि हमें मरीज़ की प्राइवेसी का आदर करने की तरफ़ भी बहुत ही ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है ।

मुझे लगता है कि इस का मुख्य कारण यह है कि कॉलेज स्तर पर चिकित्सकों को कम्यूनिकेशन स्किल्ज़ नाम का कोई विषय नहीं है ---- मैं समझता हूं कि इस की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी विषय के बारे में जानता है तो ही वह उसे प्रैक्टिस भी कर सकता है। पता नहीं डाक्टर लोग मेरे इस लेख को किस भाव से लेंगे, लेकिन मेरा तो भई दृढ़ विश्वास है कि मरीज़ों की प्राइवेसी की धज्जियां जगह जगह उड़ रही हैं। यह इतना महत्वपूर्ण एरिया है और किसी भी मरीज़ के इलाज का परिणाम इस से भी बहुत हद तक जुड़ा हुआ है।

मैं भी कभी इस तरफ़ ज़्यादा दिमाग लगाया नहीं करता था ---कभी इस के बारे में सोचा ही नहीं था – 1992 तक ---- उस साल मैंने बंबई के टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेज़ से एक वर्ष के डिप्लोमा इन हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन में एडमिशन लिया था। वहां पर हमारा एक विषय था –कम्यूनिकेशन । उसे पढ़ कर मुझे बहुत अच्छा लगा ----मेरी सोच कर नज़रिया बहुत फैला। और उस कोर्स के बाद मैंने मरीज़ की प्राइवेसी का लगभग पूरा पूरा ध्यान रखा है।

वैसे आप इस प्राइवेसी से क्या समझ रहे हैं ----- इस से मतलब यह है कि जब मरीज़ हमारे सामने अपनी बात रख रहा है तो उस समय किसी तीसरे का उस कक्ष में होने का कोई मतलब है ही नहीं। लेकिन किसी सार्वजनिक क्षेत्र के हास्पीटल में काम करते वक्त इस को पूरा पूरा निभा पाना शायद नामुमकिन सा लगता है--- लेकिन इस में भी मुझे लगता है कि हमारी इच्छा शक्ति की ही कमी होती है कि हम लोग चंद प्रभावशाली लोगों तक अपना यह संदेश पहुंचा ही नहीं सकते कि यार, सारे मरीज़ों की प्राइवेसी एक जैसी ही है। अकसर डाक्टर लोग ऐसी परिस्थितियों में ज़्यादा पंगा मोल लेना के इच्छुक नहीं होते और यूं ही बिना बारी के अंदर घुस चुके ( इन्हे गेट-क्रेशर्ज़ कह दें तो कैसा रहेगा !!) इन चंद so-called “व्ही-आई-पी” (manytimes - "self-styled" as well !!) की वजह से बहुत से आम मरीज़ों के इलाज में व्यवधान ही पैदा होता ही दिखता है।

ज़रा इस तरफ़ ध्यान करें कि ये लोग बिना किसी दूसरे की प्राइवेसी का ध्यान किये हुये अंदर क्यों घुस आते हैं --- सरकारी सैट-अप की बात करें तो शायद इस का कारण यह है कि किसी भी डाक्टर का जो अटैंडैंट हैं वह इतनी कड़ाई से इस नियम का पालन कर ही नहीं पाता क्योंकि शायद वह इस का पालन करना ही नहीं चाहता क्योंकि वह भी सिस्टम से डरता है। उस का डाक्टर उसे चाहे कितनी बार ही क्यों न कह दे कि एक मरीज़ के अंदर होते हुये दूसरा अंदर नहीं आयेगा तो भी इन "व्ही-आई-पी " की बॉडी-लैंगवेज़ ही कुछ इस तरह की होती है कि उस की उस कर्मचारी की कमज़ोर सी इच्छा शक्ति उसी समय उसे बाहर ही रूक कर इंतज़ार करने के लिेये कहने वक्त और भी कमज़ोर पड़ जाती है। यह काम वो करता है लेकिन आम आदमी के साथ ----उस के साथ इतनी कड़की बरती जाती है जितनी कि शायद ज़रूरी भी नहीं होती --- मैंने देखा कि आम आदमी को तो कोई एक बार हल्के से भी कह दे कि आप को अपनी बारी की शांति से प्रतीक्षा करनी होगी और वे दो घंटे टस से मस नहीं होते और न ही किसी तरह का व्यवधान किसी दूसरे के इलाज में डालते हैं ------ मैडीकल फील्ड इन की सहनशीलता को सैल्यूट करती है !!

किसी किसी हास्पीटल में तो डाक्टर के कमरे में घुस कर ऐसा लगता है जैसे कि वह उस का हास्पीटल कक्ष न होकर उस के घर का ड्राईंग-रूम हो ---- वहां पर मरीज़ों का चैक-अप चल रहा होता है ---और साथ ही कुर्सीयों पर वे लोग सजे होते हैं जो लोग मैटर करते हैं ( people who really matter !!) – पास ही कंपनियों के मैडीकल-रैप अपनी नईं दवाईयों की तारीफ़ के पुल बांधने में लगे होते हैं, चाय का दौर चल रहा है ----- और डाक्टर साहब की मल्टी-स्किलिंग देखिये कि वह इस के साथ साथ मरीज़ की छाती को स्टैथोस्कोप से जांच भी रहे हैं और उसे गहरे सांस दूसरी तरफ़ छोड़ने के लिये कह भी रहे हैं।

मैंने तो देखा है कुछ प्राईवेट क्लीनिकों में मरीज़ों की इस प्राइवेसी का सम्मान ज़्यादा होता है --- आप का क्या ख्याल है ?---बहुत से सरकारी हास्पीटलों के डाक्टरों द्वारा भी शायद इस का ध्यान रखा जाता है ----लेकिन जो मेरी आब्जर्वेशन थी वह मैंने आप से साझी की है। जो भी डाक्टर –सरकारी या प्राइवेट प्रैक्टिस में – किसी मरीज़ को यह पर्सनल स्पेस उपलब्ध करवाता है इस से उस का भी काम आसान हो जाता है ---मरीज़ उस में अपने एक सहानुभूति से भरे मित्र की छवि देखने लगता है जो उस की बात सुनने के लिये आतुर है और उस बातचीत के वक्त उस के लिये कोई भी अन्य काम महत्वपूर्ण नहीं है ।
बाकी बातें अगली पोस्ट में करते हैं !!

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

डाक्टर क्या करें?...मरीज अपनी जगह सच्चे हैं, वे क्या करें ?

आज मेरे पास एक अधेड़ महिला आई...दांतों का इलाज करवाने के बाद कहने लगी कि मेरे शरीर में बेहद खारिश रहती है..उस के लिये भी मुझे दो-टीके लिख दो...मैंने कहा कि यह तो मेरा फील्ड नहीं है। आप किसी चमड़ी रोग विशेषज्ञ से मिलें.....कहने लगी कि पिछले 15 वर्षों से जगह जगह धक्के खा चुकी हूं। बस, ऐसे ही चल रहा है। कहने लगी कि कुछ समय देसी दवाई की पुड़ियां भी खूब खाई हैं, लेकिन बाद में पता चला कि वह नीम-हकीम तो स्टीरायड्ज़ ही पीस-पीस कर लोगों को खिलाता रहा...जिस की वजह से शरीर फूल गया है। फिर कहने लगी कि उस के बाद मैंने होम्योपैथिक दवाई भी ली, लेकिन मेरी तकलीफ़ दूर नहीं हुई। पीजीआई तक के चमड़ी-रोग विभाग के डाक्टरों को दिखा के आ चुकी हूं। बेहद निराश सी थी।

मैंने उस को इतना ज़रूर समझाना चाहा कि जितने भी इलाज आप ने मेरे को बताये हैं, उन में से जब तक आप चमड़ी-रोग के माहिर डाक्टर की देख-रेख में इलाज करवाती रहीं...वही श्रेष्ट था। मैंने कहा कि मैं भी अगर आप को खारिश बंद करने का कोई टीका लिख भी दूंगा या कोई ट्यूब का नाम लिख कर दे भी दूंगा तो मैं आप का कोई इलाज-विलाज नहीं कर रहा हूं.....बस, आप को कुछ दिनों के लिये कुछ राहत दे रहा हूं ....लेकिन हो सकता है कि उस ट्यूब से आप का रोग दब तो जाये लेकिन कुछ अरसे बाद वह रोग और भी उग्र रूप में सामने आ जाये।
मैंने उसे यह भी बताया कि यह तो आप जान ही गई होंगी कि कुछ चमड़ी-रोगों का ठीक होना इतना आसान भी नहीं होता, ऐसे में अगर आप किसी विशेषज्ञ से सलाह लेकर दवाई या परहेज करती रहेंगी तो कम से कम बीमारी के अंधाधुध फैलने के चांस तो कम होंगे या बिना-वजह ऐसे ही तरह-तरह की दवाईयां खाने या लगाने से जो बुरे प्रभाव शरीर पर होंगे, उन से तो बचे रहेंगे।

सोच रहा हूं कि उस महिला के मन में तो मैंने दो बातें डालने की कोशिश की, लेकिन पता नहीं कितना असर हुआ होगा। लेकिन आजकल मुझे यह ध्यान आने लगा है कि इस तरह से सारा दिन बोलते रहना ही हम जैसे डाक्टरों का कर्म है.....मरीज के ऊपर होने वाले असर रूपी फल का विचार छोड़ दें, क्या ऐसा संभव है ?

मैं और मेरी डाक्टर पत्नी अकसर यह डिस्कशन कर के बहुत फ्रस्टरेटेड होते हैं कि यार, क्या आज कल क्या हो गया है ......मरीज़ों को क्या हो गया है, हमें क्या हो गया है, दवाईयों को क्या हो गया है, ओवर-ऑल सारा सिस्टम ही ऊपर-नीचे हो गया लगता है।

अस्पताल में आम साधारण बीमारियों के मरीज़ों की लंबी लंबी लाइनें लगी होती हैं.....मैं अनेकों बार कहता हूं कि ये छोटी मोटे खांसी-जुकाम के लिये हम लोग मुलैठी चूसने वाले हैं, गरारे करने वाले हैं, शहद-नींबू लेते हैं और शायद ही कोई डाक्टर होगा जो इन छोटे मोटे रोगों के लिये इतने ऐँटीबॉयोटिक वगैरा लेता होगा.......लेकिन.......अब क्या लिखूं ?

8-10 साल के बच्चे आते हैं .....इतने कमज़ोर से....आंखें अंदर धंसी हुईं......मां-बाप ने तीन टॉनिकों की शीशीयां पकड़ी होती हैं कि ये खिलाने के बावजूद भी यह बढ़ नहीं रहा.......बार बार कहना पड़ता है कि बंद करो इस का सारा जंक-फूड् और इसी टॉनिक की शीशीयों की बजाये दाल-रोटी-सब्जी खिलाना शुरू करो।

कुछ दिन पहले मैं एक इंजैक्शन को देख रहा था, जो कि एंकाईलोज़िंग-स्पांडीलाइटिस के एक मरीज़ को लगना था, उस की कीमत देख कर मैं दंग रह गया.....उस की कीमत 42000रूपये( ब्यालीस हज़ार रूपये) थी.....और ऐसे कईं इंजैक्शन इस तरह के मरीज़ों को लगाने पड़ते हैं। मैं सोच रहा था कि ठीक है, हमारा विभाग अपने कर्मचारियों एवं उन के परिवारजनों को इस तरह की सुविधा उपलब्ध करवाता है, लेकिन बाहर, प्राइवेट ज़्यादातर लोग इस तरह का इलाज कहां करवा पाते होंगे !!

समस्या बहुत विषम है.....इलाज इतना महंगा है कि ज़्यादातर लोगों की पहुंच से बाहर है। समस्या इस लिये भी विकट है कि बहुत से लोग तो उपर्युक्त डाक्टर तक पहुंच ही नहीं पाते और अगर पहुंच भी जाते हैं तो इलाज करवाना इतना महंगा है कि पूरा करवा ही नहीं पाते !!

लिखते लिखते लगने लगा है कि इस विषय पर तो मेरे पास ऐसे ऐसे अनुभव हैं कि मैं एक अच्छी खासी किताब लिख सकता हूं। वही बात है कि डाक्टर आखिर क्या करें ?...और मरीज़ अपनी जगह पर ठीक हैं कि वे क्या करें ?
बाकी अनुभव फिर कभी बांट लेंगे लेकिन अपने इतने लंबे अनुभव का निचोड़ कुछ ही पंक्तियों में रखना चाह रहा हूं.......ज़्यादातर बीमारियों ( 80फीसदी से भी ज़्यादा) का संबंध हमारी जीवन-शैली से है। हमें अपना खान-पीन ठीक ठाक रखना चाहिये, सभी तरह के व्यसनों से दूर रहना चाहिये, शारीरिक कसरत नियमित करनी चाहिये और प्रतिदिन प्राणायाम् करना चाहिये।

पता नहीं ऐसा लिख के मैं ठीक कर रहा हूं कि नहीं, लेकिन आज लिख ही देता हूं कि मेरे लिये तो डाक्टरी पेशा एक बहुत ज़्यादा फ्रस्टरेटिंग एक्सपीरियंस है.....क्या यार, ज़्यादातर बीमारियों क्रॉनिक होती हैं....उस में हमारी दवाईयों ने केवल बीमारी के लक्षणों को दबाना मात्र होता है, मैंने तो यही देखा है कि कोई कुछ भी दावा कर ले जब तक लाइफ-स्टाइल में बदलाव नहीं किया जाता, कुछ भी....बिलकुल कुछ भी ...होना संभव ही नहीं है (इस से संबंधित मेरी एक पोस्ट के लिये यहां क्लिक कीजिये)

अकसर सोचता हूं कि कोई मरीज अगर गुर्दे फेल होने से या लिवर फेल होने से ऑफ हो गया.....तो हम ने उसे उस हालत तक पहुंचने से रोकने के लिये क्या किया ....हम ने उन बीमारियों से बचाव के उपायों को कितनी हद तक इस्तेमाल किया। हां, वो बात दूसरी है कि इन क्रॉनिक रोगों में तो मरीज़ का भी काफी रोल रहता ही है, लेकिन वही बात है कि उस को जागरूक करने का काम क्या सारे समाज का नहीं है ?

पता नहीं, मैंने इस में क्या लिखा है, क्या नहीं लिखा है.....लेकिन कुछ तो हल्का महसूस कर रहा हूं। मैं तो अपने अटैंडैंट से मज़ाक कर रहा था कि यार, हम लोग रिटायर हो कर किसी बड़े से हस्पताल के बारे एक तंबू गाड़ कर डेरा जमा लेंगे.....धूनी रमायेंगे, हस्पताल से बाहर आ रहे निराश लोगों को खूब सारे आशीर्वाद दिया करेंगे....... और उन्हें बीमारियों के बारे में जागरूक किया करेंगे.....तंबाकू, दारू उन का छुड़वाया करेंगे।

इतना सब कुछ लिखने के बावजूद यही कहना चाह रहा हूं कि एक्अूट बीमारियों के लिये तो चलो आज की आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ठीक है, डायग्नोस्टिक टैस्ट बहुत उम्दा चल पड़े हैं.......लेकिन पुरानी बीमारियों के समाधान के लिये और अपनी इम्यूनिटी को परफैक्ट रखने के लिये तो बाबा रामदेव की शरण में जाना ही होगा। इसीलिये मैं सोच रहा हूं कि बाबा को तो मैडीकल फील्ड का नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिेये जिस ने योग क्रिया एवं प्राणायाम् को इतना लोकप्रिय बना दिया कि बाबा के नाम का डंका पश्चिमी देशों में भी बजने लगा है।