रविवार, 31 जुलाई 2022

बड़ौदा के बाबा ....

बताते हैं आप को बडौ़दा के बाबा के बारे में ...पहले कुछ इधर उधर की बात हो जाए...तीन चार साल पहले हमें दुबई जाने का मौका मिला...दो तीन दिन वहां रहे ...मुझे वह जगह बिल्कुल भी पसंद नहीं आई...हर तरफ इमारतें ही इमारतें, मैं अकसर कहता हूं कि मुझे अगर वहां जाने का मुफ्त टिकट भी मिले तो भी मैं दूसरी बार वहां न जाऊं...मैं वहां बहुत ऊब सा गया...हर तरफ ईट-सीमेंट के महल, चौबारे, कायदे-कानून....जहां पेड़ भी लगे हुए हैं वे भी इतने करीने से लगे हैं कि नकली दिखाई पड़ते हैं...

वैसे भी किसी भी जगह जाइए अगर वहां पर पुराने इलाकों को देखने का, महसूस करने का मौका ही न मिले तो फिर वहां जाने का फायदा ही क्या हुआ। एयरकंडीशन बसों में या मोटर गाडि़यों में हम कुछ देख ही नहीं पाते, महसूस करने की तो बात क्या करें...। मैं अकसर कहता हूं कि शहरों के अंदर जो पुराने शहर करीने से छुपे पड़े होते हैं उन को अगर किसी को देखना है तो पैदल चलना होगा, या साईकिल या शायद दो पहिया वाहन का सहारा लेना होगा....क्योंकि इन पुराने शहरों की शुरूआत ही वहीं से होती है जहां से उन बाज़ारों में, गलियों में मोटरकारें घुसना बंद होती हैं...अकसर स्कूटर वूटर तो लोग निकाल ही लेते हैं ....इन संकरी गलियों, कूचों में बसे होते हैं पुराने शहर ...इसलिए मैं अकसर सोचता हूं कि जब तक घुटने वुटने चल रहे हैं ..जो कुछ देखना है, जी भर के देख लेना चाहिए...एक बार अगर हम किसी के ऊपर आश्रित हो जाते हैं तो ज़िंदगी वैसे ही बकबकी सी, बोझिल सी लगने लगती है ....खुद को भी और दूसरों को भी ...

कुछ दिन पहले बड़ौदा में था...चार पांच रहना था...मैं जब भी मौका मिलता सुबह शाम साईकिल लेकर एक डेढ़ घंटे के लिए निकल जाता ...अलग अलग रास्तों पर निकलना, अनजान जगहों का रुख करना अच्छा तो लगता ही है ...अकसर मैं कहता हूं कि किसी भी इंसान के पास इतना कुछ है देखने को, एक्सप्लोर करने को .....कि क्या कहें...लेकिन उस के लिए हमें बस थोड़ा सा..ज़्यादा भी नहीं, अपने कंफर्ट ज़ोन से निकलना पड़ता है ..और हां, टीवी का पूर्ण त्याग भी ज़रूरी होता है....मैं जहां पर पांच दिन रहा, मैंने अपने रूम का टीवी ऑन तक नहीं किया...क्योंकि फिर यही अच्छा लगने लगता है कि इस के सामने ही बैठे रहें..

खैर, चलिए, उस दिन मै साईकिल लेकर ऐसे ही बिना किसी ख़ास मकसद के बड़ौदा की सड़के नाप रहा था कि मुझे दूर से लगा कि एक बुज़ुर्ग एक पार्क में चींटीयों को आटा डाल रहे हैं ...यह काम हम लोग बचपन में करते थे ..लेकिन कभी कभी जब ईश्वर से कोई काम होता था तभी ..मैंने साईकिल रोक तो लिया, फिर एक बार झिझक सी लगी कि क्या यार, मैं भी, खामखां, अनजान इंसान के क्या बात करूं.....लेकिन मैं उन तक पहुंच गया, साईकिल खड़ी की और उन से बात करने लगा। 

अब मैं उन से बात कैसे शुरु करता ...मैंने यही कहा कि आप को दाना डालते देख कर बहुत अच्छा लगा, इसलिए रुक गया...वह बुज़ुर्ग हंसने लगा ...उसने मुझ से मेरे बारे में कुछ नहीं पूछा ...मैंने उन से कुछ नहीं पूछा...मैंने बस इतना पूछा कि क्या वह यहां रोज़ आते हैं, कहने लगे कि हां, रोज़ आता हूं ....मैंने वही बेवकूफी वाला सवाल दाग दिया कि और भी लोग आत ेहैंं तो उन्होंने बताया कि कुछ लोग आते तो हैं, कभी कभी, लेकिन मैं तो बिना नागा रोज़ आता हूं....

मैंने देखा वह चींटीयों के झुंड ढूंढ ढूंढ कर आटा डाल रहे थे, उन्होंने बताया कि यह आटा ही नहीं है, इसमें गुड़ और देशी घी मिला हुआ है ...इस के बाद वह कबूतरों को दाना डालने लगे ...कबूतरों के झुंड जैसे उन का इंतज़ार ही कर रहे थे ...उन के पास पॉलीथीन में यह सामान भरा हुआ था ...कबूतरों के लिए दाना तो था ही, साथ में हरे मूंग भी थे, बताने लगे कि कबूतरों को यह खाना बहुत पसंद है ...

उन्होंने बताया कि वे महीने भर के लिए दो हज़ार रूपये का यह सामान इक्ट्ठा खऱीद लेते हैं ...बता रहे थे कि जो लोग अमेरिका में नौकरी धंधा करने गए हैं, वे पैसा भिजवा देते हैं, मैं इस काम में लगा देता हूं...मैंने नहीं पूछा कि कौन लोग हैं वे...कोई मतलब ही नहीं था यह सब पूछने का ...

पांच सात मिनट मैं उन के पास रहा हूंगा...लेकिन बहुत अच्छा लगा...उन के साथ फोटो भी खींच ली जिस के बिना आजकल कोई मुकालात पूरी कहां समझी जाती है...खैर, उन को यह नेक काम करते देख कर मुझे कुछ दूसरे लोग याद आ गए जो गलियो के डॉगीज़ और बिल्लीयों को सुबह सुबह कुछ खिलाने निकल पड़ते हैं...इन सब को देखना कितना सुखद लगता है...







अनजान और अजनबी बाबा को सलाम ...नदी नाम संयोगी मेले ...बहुत से लोगों से हम लोग ज़िंदगी में पहली और आखिरी बार मिलते हैं...हम दोनों एक दूसरे का नाम नहीं जानते...मैं कब उन रास्तों पर फिर से निकलूंगा ...लगभग नामुमकिन ...लेकिन उन के चेहरे की मुस्कान मेरे पास हमेशा के लिए रह गई ...हां, वहां से निकलते२ उन से कह तो दिया कि फिर मिलेंगे बाबा....लेकिन सोच यही रहा था कहां मिलेंगे ..यह भी यार तूने एक डॉयलाग ही बोल दिया ...सब कहने को ...




आप को कभी यह तो नहीं लगता कि बाबा का खिताब हासिल करने के लिए किसी विशेष रंग का चोला पहनना ज़रूरी है, लोगों को प्रवचन देना..और किसी ऊंची गद्दी पर बिराजमान होना ज़रूरी है ....मुझे कभी नहीं लगता क्योंकि मैं उस तरह के नामी-गिरामी बाबा-शाबा बहुत देख चुका हूं ...उन से तो मैं दूर भागता हूं और इस तरह के बेलौस, अनजान, अजनबी, गुमनान नेक बाबाओं को ढूंढता रहता हूं ...बाबा ने बताया कि अस्सी के ऊपर उम्र हो चुकी है, दवाई की कभी एक टिकिया नहीं ली ...अभी हाल ही में इन्होंने आंख का आप्रेशन करवाया है...डाक्टर ने कहा था कि वह १५ हज़ार रूपये लेगा .....लेकिन हंसते हंसते कहने लगे कि आप्रेशन के बाद उसने कहा कि नहीं, आप से कुछ नहीं लेना...हंस हंस कर बता रहे थे ....

मेरा बेटा अकसर कहता है कि बाप, दिल्ली की हवा में धोखा है, बंबई की हवा में मौका है ......उसी क्रम में मैं यह कह सकता हूं कि बडौ़दा की हवा में सुकून है....जैसा मुझे लगा कि अधिकतर लोग यहां पर शाकाहारी हैं, अमन-पसंद हैं, सादे हैं ....अपने आप के साथ सुकून से हैं....यह मेरा अनुभव है ...बाकी बाहरी शहर, शहरों के नए बसे हुए इलाके तो सब एक जैसे ही होते हैं जहां पर महंगी गाड़ियों की खूबसूरत कोठियों-बंगलों की एक अंधी दौड़ सी लगी होती है ....उस तरफ़ मुझे देखना भी नहीं सुहाता ...लेकिन शहर के पुराने इलाके को दो-चार दिन में महूसस करना कहां संभव हो पाता है ....और वह भी अगर सुबह शाम एक दो घंटे का वक्त आप को मिले इस यायावरी के लिए ...खैर, दो दिन पहले मैं ऐसे ही घूम रहा था तो एक बहुत पुरानी और सुंदर इमारत दिखी ...अंदर जा कर पता चला कि वह वहां की यूनिवर्सिटी है ...वहां पढ़ने वाले बच्चों को देख कर अच्छा लगा ....एक बच्चे को मैंने कहा कि मेरी तस्वीर खींच दो, उसने हंसते हंसते खींच दी ...कहने लगा कि उस के दोस्त आप के पीछे खड़े हो कर पोज़ दे रहे हैं...मैंने कहा ...वह तो और भी अच्छी बात है ... 😀😎

बडौ़दा यूनिवर्सिटी में इस को देख कर मुझे चंडीगढ़ का रॉक-गार्डन याद आ गया...खुदा जाने इस की छांव में कितनी प्रेम कहानियों ने जन्म लिया होगा ...अब भी यह आने जाने वालों को खुश कर रहा है ...