कभी कभी हमें जब पुराने दौर के लोग यकायक याद आते हैं तो उन के साथ एक ज़माना याद आ जाता है ....
कुछ दिन पहले मुझे किसी ने कहा कि उनके यहां जो डाक्टर है न ..दिल्ली में ... उसने अपने सारे कमरे को अपनी डिग्रीयों, प्रशंसा पत्रों और यहां तक कि जितनी कांफ्रेंसों में वह जा चुका है वहां से मिले सर्टिफिकेटों को सजा रखा है? ....मुझे उस बंदे का बात सुनते ही बड़ी हैरानी सी हुई, मन ही मन मैंने सोचा कि इसे सजा रखा कहते हैं....मेरे नज़र में तो इसे कहेंगे बेचारे ने अपना जीना ही दूभर कर रखा है..
ऐसे ही मुझे याद आया कि कुछ साल पहले - यही कोई चार पांच साल पहले की बात होगी- तब हम लोग टीवी देखा करते थे...एक बार किसी बहुत बड़े आर्मी के डाक्टर की कोई ब्रीफ सी इंटरव्यू दिखी - इंटरव्यू में उसने क्या कहा, उस तरफ़ तो कुछ ध्यान नहीं गया, ट्राफियों, शील्डों से खचाखच भरे उस के कमरे को तकते ही सिर दुखने लगा था...कोई कोना ऐसा न था जिसे बंदे ने छोड़ दिया हो ...हर तरफ़ यही सब फ्रेमों में लटका रखा था...शेल्फों पे सजा रखा था...
1997 की बात है ...छोटे बेटे का जन्म अभी न हुआ था... यही कुछ दो चार दिन ही बाकी थे...महिला रोग विशेषज्ञ को कुछ संदेह हुआ होगा...उन्होंने ग्रांट रोड में एक अल्ट्रासाउंड क्लिनिक में भेजा...ज़ाहिर सी बात है हम बहुत टेंशन में थे...होता ही है...लेकिन आज भी याद है कि जब उस के क्लिनिक के वेटिंग एरिया मे एक पोस्टर को देखा तो जैसे कहते हैं न मन ठहर सा गया...मन की सुकून मिल गया...मैंने तो उसे बार बार पढ़ा...मिसिज़ तो अंदर चली गईं...लेेकिन मैं जितनी बार भी उसे पढ़ रहा था मुझे अच्छा लग रहा था, उस में लिखे अल्फ़ाज़ हमेशा मेरे साथ रह गए....वहां टंगे एक साधारण से पोस्टर पर (जो पहले कागज़ के न आते थे, जिन्हें फ्रेम करवा लिया जाता था...) यह लिखा था...Seek the will of God, nothing more, nothing less, nothing else!
उस दिन पढ़ी यह बात कहीं न कहीं हमारी मोटी बुद्धि में भी घर कर ही गई 😎 |
बात है भी तो कितनी बढ़िया, होता तो वही है मंज़ूरेख़ुदा होता है ....बाकी तो हम जितना मर्ज़ी हाथ पांव मार लेते हैं...ये बातें हमने प्रत्यक्ष रूप से देखी हैं अनेकों बार...यह क्या मैंंने एक उर्दू लफ़्ज़ लिख दिया..मंज़ूरेख़ुदा- कोई बवाल न उठ जाए...ये जो नया फितूर हम लोगों के दिलो-दिमाग पर चढ़ गया है न ...उर्दू लिखने से हिंदुत्व कम न हो जाए, इस के बारे में भी बहुत से विचार आ रहे हैं जब से फैबइंडिया ने अपनी फेस्टिवल रेंज को लॉंच करते वक्त लिख दिया जश्ने-रिवाज़ ....एक दम ट्विटर पर तो जैसे बवाल उठ गया कि ये क्या है। इस वक्त इस मज़मून के बारे में लिखना मुनासिब नहीं है, इस पर बाद में बात करेंगे कभी..लेकिन करेंगे ज़रूर...
मैं जब किसी डाक्टर के कमरे मे जाता हूं और अगर वहां पर किसी तरह की न तो फोटो ही होती है...हमारे लाखों-करोड़ों देवी-देवताओं में से भी किसी की नहीं, और न ही कोई शील्डें, ट्राफीयां.....बस, डाक्टर का मुस्कुराता हुआ चेहरा ही दिखता है ...तो मुझे बहुत अच्छा लगता है...सोचने वाली बात है कि जब कोई मरीज़ भी किसी डाक्टर के पास जाता है तो उसे इस के अलावा चाहिए भी क्या! बिल्कुल कुछ नहीं...
लिखते लिखते ख़्याल आया है कि कहीं पढ़ने वाले यही न सोच लें कि मैं यह सब इसलिए तो नहीं लिख रहा हूं कि मेरे पास कमरे में टांगने के लिए कुछ न होगा...चलिए, छोटा मुंह और बड़ी बात कर ही लेते हैं थोड़ी सी ..हमें भी 60 बरस तक पहुंचते पहुंचते इतना कुछ तो हासिल हो ही गया है कि पूरा कमरा हम भी आसानी से भर सकते हैं...डिग्रीयां ही इतनी हैं, अवार्ड इतने हैं (जिन के बारे में हमने किसी को बताया भी नहीं कभी)...यह काम हम भी कर सकते हैं...लेकिन हमें इन सब का डिस्पले करने में बहुत लज्जा आती है...(मेरे जैसे इंसान को आनी तो नहीं चाहिए, लेकिन यह बीमारी पता नहीं कहां से लग गई ....) इसलिए सब कुछ एक अल्मारी के किसी कोने में छिपा कर रखते हैं...कईं बार चोरी भी हो जाती है ...1989 में मुझे यहीं बंबई में हाटेल पाम-ग्रोव में फेडरेशन ऑफ आप्रेटिव डेंटिस्ट्री ऑफ इंडिया की काँफ्रेस में बेस्ट-पेपर अवार्ड मिला था...पहली बार ...बहुत बड़ा कप था..लेकिन वह कप ही कोई चुरा कर ले गया....बाद में मुझे हंसी भी आती है जब सोचता हूं कि शायद उसे भी पता होगा कि मुझे इन सब चीज़ों को सजाने का कोई शौक नहीं है, इसलिए वह मेरा भार हल्का कर गया....एक मज़ेदार बात बताऊं...वह कप बहुत बड़ा था, मुझे लगा चांदी का है, होगा कई हज़ारों का...मैं कुछ दिनों बाद उसे एक ज्यूलर-शाप में दिखाने भी गया (बेचने नहीं, बस दिखाने ही 😎)- वहां पता चला कि यह चांदी-वांदी कुछ नहीं है ...लेकिन उन दिनों मेरे लिए इसे हासिल करना ही बहुत बड़ा सम्मान था, अखबारों में ख़बर भी आई थी...
अपना राग अलापना कुछ ज़्यादा ही न हो जाए....लेकिन अपने बारे में इतना ही कहूंगा कि थोथा चना बाजे घना...इस के आगे कुछ नहीं...सोचने वाली बात यह भी है कि अगर हम सच में तीस मार खां हैं, डाक्टरी की बहुत सी किताबें पढ़ी हैं, मरीज़ों को ठीक किया है, तो यह समझ लीजिए कि मरीज़ भी इतने अनाड़ी नहीं हैं, वे यह सब कुछ सुन कर ही आ रहे हैं हमारे पास....अगर हमारे पास हुनर है तो हमें अपने कमरों में, अपने वेटिंग रूम में इतना कुछ डिस्पले करने की कुछ भी ज़रूरत नहीं है, और अगर मेरे जैसे बंदे के पल्ले कुछ भी नहीं है तो मेरी सैंकड़ों, ट्राफियों की पोल मरीज़ के सामने चार दिन में खुल जाएगी...यकीन मानिए, यही होता है ...लेकिन हम समझते नहीं, हमारी दिक्कत यही है कि हम समझते हैं कि हम अपने आप को ही स्मार्ट समझते हैं, मरीज़ को कुछ नहीं पता ऐसा लगता है हमें, लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, अनपढ़ मरीज़ भी दुनिया की पढ़ाई अच्छे से किया हुआ है...वह ऐसे ही अपना शरीर डाक्टर के सुपुर्द नहीं कर रहा ...ज़्यादातर तो वह सोच-विचार कर के ही आप तक पहुंचता है...
हां, कुछ एक्सेपशन्ज़ हैं. जैसे बच्चे के डाक्टरों के यहां कुछ ऐसा रखा हो, कुछ ऐसा टंगा हो...जैसा भी शिशुरोग विशेषज्ञ चाहें, तो बच्चों का मन लगा रहता है, उन को बिंदास और खुश देखकर साथ उन के मां-बाप भी बच्चे की तकलीफ़ तो भूल ही जाते हैं, कुछ ही समय के लिए ही सही तो भी काफ़ी है ....क्योंकि बाकी तकलीफ़ अंदर बैठा कोई डाक्टर आर के आनंद जैसा शिशु रोग विशेषज्ञ दूर कर देगा। जी हां, हमें 23-24 साल पहले की इस डाक्टर की बड़ी ख़ुशनुमा यादे हैं...मैं किसी से भी बहुत कम इंप्रेस होता हूं..इसे नखरा कहें या कुछ कहें ..लेकिन एक बार होता हूं तो फिर ताउम्र उस का कायल रहता हूं...हम छोटे बेटे को इन के पास लेकर जाते रहे ...नियमित जांच के लिए ...वह कहते हैं न कुछ कुछ महीने बाद बच्चों के डाक्टर के पास शिशु के लेकर जाना चाहिए..इन का क्लिनिक इतना शांत और ये डाक्टर साहब और इन की मैडम डबल शांत....बच्चा तो बच्चा, उस के मां-बाप भी उस की बीमारी भूल जाएं...इतनी चोटी का डाक्टर होते हुए भी इतनी हलीमी, आंखों से झलकता कंसर्न....क्या कहें, कुछ लोग होते ही ऐसे हैं....लेकिन जो बात मैं कहना चाह रहा हूं वह यही कि पूरे क्लिनिक में एक भी पोस्टर नहीं, एक भी बाबा-फाबा की कोई तस्वीर नहीं ....कहीं किसी डिग्री या किसी अवार्ड की कोई नुमाइश नहीं....बस, इन के बारे में फिर कभी डिटेल में बात करूंगा...अभी डा आनंद को इस वक्त थैंक-यू-फॉर एवरीथिंग कह कर इन से रूख्सत होते हैं...
अब आप को लेकर चलते हैं पंजाब में एक जगह ...शहर नहीं बताऊंगा ...न ही डाक्टर कौन था....वैसे पता मुझे भी नहीं, बिलकुल सुनी सुनाई बाते हैं, कहीं से सुन ही रखा होगा...रिटायरमैंट के बाद कुछ रह गए हिसाब चुकता करने हैं, तब इन बातों को ठीक से पता करूंगा ...तो सुनिए जनाब बीस साल पहले एक डाक्टर के बारे में सुना करते थे जिसने अपने कमरे में दुनिया भर के देवी-देवताओं की तस्वीरें, अपने दोनों हाथों की दसों उंगलियों में दस तरह के नगीने, नग, स्टोन (जो भी आप कहें, मुझे में कभी इन में कोई रूचि रही नहीं) ...हमें तो एक अंगूठी पहनना भी गले की फांस जैसा लगता है...और हां, यही नहीं, हाथों पर तरह तरह के धागे, माथे पर टीका..सुनते हैं कमबख़्त घोर पाखंडी था या है, कमरे में धूप, ज्योति, अगरबत्ती....लेकिन उस का काम करने का तरीका था एकदम शर्मनाक..बिना पैसा लिए किसी का कोई भी काम न करता था...एक तरह से बिकाऊ था, यही कहना मुझे मुनासिब लगता है...सुबह सुबह निगेटिव लोगों से न तो बात करना चाहिए और न ही इन का ख़्याल ही करना चाहिए, सारे दिन की वाट लग जाती है....रिटायरमेंटी के बाद फ़ुर्सत में लिखने के लिए मोमायर्ज़ के लिए भी तो कुछ मसाला और किरदार चाहिए...उस दौरान भी तो टाइम-पास का कोई ज़रिया चाहिए, वरना तो पगला जाने के पूरे चांस हैं, क्योंकि दिमाग में ठूंस ही इतना कुछ रखा है 😎...लेकिन मैं इतना ज़रूर कहता हूं कि मैं लिखूं चाहे कितना भी खराब, व्याकरण के नज़रिए से या लिटरेचर के तयशुदा मापदंडों के नज़रिए से भी , लेकिन लिखता मैं हमेशा सच ही हूं....वरना झूठ बात कहने से जो आत्मग्लानि होती है, वह मेरा सिर दुखा देती है ...जो फिर सारा दिन ठीक नहीं होता, बिना डिस्प्रिन की एक गोली खाए।
एक ज़माना बीत गया ...हरियाणा में एक महिला रोग विशेषज्ञ के अस्पताल में दो-तीन बार जाने का मौका मिला ...लेकिन यह क्या, यह तो यार मेडीकल कालेज के अनॉटमी डिपार्टमैंट का म्यूज़ियम दिखाई पड़ रहा था, हर तरफ़ बड़े बड़े मर्तबानों में बड़ी बडी़ रसौलियों, ट्यूमरों आदि के स्पैसीमेन और साथ में टंगी हुई ऐसी ही ख़तरनाक तस्वीरें....आसपास बैठे बीसियों मरीज़, वे भी ज़्यादातर आस पास के गांव वाले...सोचने वाली बात यह है कि इन सब को देख कर उन सब के मन में क्या ख्याल आते होंगे...अनुमान लगाइए....वैसे तो अनुमान भी क्या लगाना है, बात तय है कि इन्हें देख कर उन के मन में डर, खौफ़ का भाव ही पैदा होता होगा....और क्या...। एक बार मैं अपने आप को रोक नहीं पाया ...वो कहते हैं न मुझे खामखां की तरह दूसरों के झमेलों में पड़ने की पुरानी आदत है ...मैने उस डाक्टर साहिबा को बेहद शालीनता से, विनम्रता से अपने मन की बात कह दी ....मैम ने सुन तो ली, पता नहीं उस का कुछ असर हुआ भी कि नहीं।
जिस सामाजिक परिवेश में लोग ़डाक्टर के सफेद कोट को देख कर अपना ब्लड-प्रैशर 10-20 प्वाईंट बढ़ा लेते हों, उन्हें क्या इतने बड़े बडे़ मर्तबान मानसिक तौर पर प्रताडि़त न करते होंगे...ज़रूर करते होंगे...
अधिकतर मरीज़ हमारे पास हमेशा नहीं आते....कुछ तो चंद मिनट के लिए आते हैं, फिर कभी उन का आना हो ही नहीं पाता...विभिन्न कारणों की वजह से ...लेकिन वे अपनी यादें तो छोड़ ही जाते हैं...हमारा बहुत कुछ भी साथ ले कर चले जाते हैं.....हमारे कमरे का माहौल, हमारे स्टॉफ का बर्ताव, हमारी बोलचाल, हमारा दोस्ताना रवैया....और हां, हमारा नुस्खा भी .....(दर्द से बेहाल, परेशान, फटेहाल उसे हमारी उपलब्धियों को निहारने की फ़ुर्सत कहां...) ....मुझे इस पोस्ट के अंत तक पहुंचते पहुंचते यही लगने लगा है कि मैने कुछ ज़्यादा ही आईडियल चीज़ें लिख दी हैं...लेकिन वह भी ठीक है, कम से कम हम उन की तरफ़ ताकते रह सकते हैं जैसे हम एक अरसा पहला उस अल्ट्रा-साउंड के माहिर डाक्टर के वेटिंग रूम में बैठे एक साधारण सी बात को ताकते-पढ़ते रह गए थे और वह बात हमारे अंदर भी कहीं न कहीं घर कर गई...
जाते जाते एक मशविरा और...डाक्टर एक से एक बढ़ कर हैं, कोई किसी से कम नहीं...लेकिन फिर भी इस वाट्सएपिया दौर में मरीज़ों की प्राईव्हेसी और देखने वालों के मानसिक स्तर को देखते हुए तस्वीरें वही शेयर करें जिन्हें देखने वाले झेल पाएं.....बहुत बार सुना है कि डाक्टर अपने मरीज़ों को भी अपने सर्जीकल कारनामों की फोटो फारवर्ड कर देते हैं.....लेकिन क्या यह इमेज बिल्डिंग है, या मरीज़ों की मोरल-बूस्टिंग है......नहीं, यार, कुछ नहीं है यह, सिवाए उसे डराने के।
अब इतनी सारी भारी-भरकम बोरिंग बातें कर के, इतना फालतू ज्ञान बांटने के बाद मेरे लिए अगला मुद्दा है ...अपने माइंड को फ्रेश करने का ....जिसके लिए मुझे इस वक्त मेरे दौर के इस गीत के अलावा कुछ नहीं सूझ रहा ....जिसे मैं अब कईं बार सुन कर ही दम लूंगा....आप भी सुन लीजिए, गुज़रे दिनों की यादों के समंदर में गोते लगाने का थोड़ा तो लुत्फ़ लीजिए...