शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

50 बरस पहले देखी "शोले" से जुडी़ यादें....








पिछले कुछ दिनों से अखबार में शोले से जुड़ी बहुत सी बातें पढ़ रहा था, यू-ट्यूब पर कुछ कुछ देख रहा था इस फिल्म से जुड़ा हुआ….मुझे ऐसे ही ख्याल आया कि हम सब के पास एक कहानी है और वह कहानी हमें कहनी चाहिए….


अच्छा, शोले से जुड़ी मेरी यादों से पहले गांधी जी की यादों की एक बात कर लूं….एक किताब है गांधी जी की आत्मकथा…सत्य के साथ मेरे प्रयोग। इस किताब के बारे में भी बचपन से ही जानते थे …और मज़े की बात है कि मैंने इस किताब को शायद चार या पांच बार ज़रूर खरीदा भी होगा….लेकिन पता नहीं कभी एक दो पन्ने पढ़ कर रख दी ….और फिर वे ऐसे गुम हो जातीं कि कभी फिर दिखी ही नहीं….खैर, असल बात यह थी कि इसे पढ़ने की कभी इच्छा हुई ही नहीं….



लेकिन कल क्या हुआ कि मुझे यही किताब इंगलिश में लिखी हुई मिल गई…यह किताब ठीक 100 बरस साल पुरानी लिखी है …गांधी जी इस आत्मकथा का परिचय भी ज़ाहिर सी बात है बापू ने ही लिखा है …और चार पन्ने के उस परिचय को गांधी जी ने साबरमती आश्रम में 26 नवंबर 1925 को लिखा है ….



बेहद रोचक किताब है…रोचकता के साथ साथ यह प्रेरणात्मक है, मैं सोच रहा था कि यह हर उम्र के इंसान को पढ़नी चाहिए….मैंने तो सब तरह की किताबें देखता-पढ़ता रहता हूं और इस आधार पर कह सकता हूं कि एक बार इसे पढ़ने लगें तो फिर इस को छोड़ने का मन नहीं करता …ऐसी ऐसी बातें हैं…रोचक, सूचनापरक…..और सब से बड़ी बात यह कि जब कोई सोलह आने सच बात कह रहा हो तो उस की विश्वसनीयता को तो चार चांद लगने ही हैं….

अभी मैंने 15-20 बीस पन्ने ही पढ़े हैं….दो पंक्तियां आप भी सुनिए…..


…..मैं राजकोट से पोरबंदर जाने के लिए तैयार हो गया…उन दिनों रेलवे होती नहीं थी, बैल-गाड़ी से जाने पर पांच दिन लग जाते थे …मैंने धोराजी तक तो एक बैल-गाड़ी कर ली और वहां से पोरबंदर जाने के लिए मैंने एक ऊंठ कर लिया ताकि मैं पोरबंदर एक दिन पहले पहुंच सकूं….पहली बार मैं ऊंठ के ऊपर यात्रा कर रहा था….

आखिर मैं पहुंच गया पोरबंदर …
(यह बात तब की है जब बापू की आयु 15-16 बरस की थी).....


अब आप देखिए, अगर इस तरह की मज़ेदार जानकारी से भरपूर बातें किसी ने 100 साल पहले लिखीं तो न यह हमारे पास पहुंची हैं, और हमने इस को सहेज कर रखा है ….


कट-टू-शोले फिल्म की यादें…


साल 1975 अगस्त का महीना ….मैं 12-13 साल का था, आठवीं में पढ़ रहा था …उन दिनों मेरी बड़ी बहन की सगाई की तैयारियां चल रही थीं और उस के बाद दिसंबर में होने वाली शादी की तैयारियां जोरो शोरों पर थीं…आज के जैसे शापिंग नहीं होती थी …शादी के लिए एक एक चीज़ के लिए बाज़ार अलग से जाना पड़ता था …तीन चार महीने चक्कर ही लगते रहे (कभी दुपट्टे पर गोटा, किनारी, कभी साड़ी की कढ़ाई, कभी गहने देखने जाना, कईं बार, फिर खरीदने जाना, कभी बेडशीट्स, कभी रज़ाईयां, फिर बर्तन, कभी सिलाई-मशीन, तो फिर फर्नीचर आइटम.....😂….कभी एक साथ सभी के, कभी मैं और मेरी बड़ी बहन ही जाते …यह वह दौर था जब लड़कियों को घर से बाहर जाने के लिए या तो सहेलियों का साथ होना ज़रुरी था या फिर घर का कोई सदस्य साथ ज़रूर जाता था …और यह सब तब था जब वह एम.ए (इक्नॉमिक्स) की पढ़ाई अच्छे से कर चुकी थीं….


खैर, जुलाई 1975 में हमारा दिल्ली जाना हुआ….वहीं से खबर मिली थी हमें कि शोले फिल्म आ रही है ..क्योंकि मैंने देखा कि हमारी एक बड़ी कज़िन …टेपरिकार्ड लेकर हर वक्त शोले फिल्म के डॉयलाग और गाने सुनती रहती थी….पहले एक चपटा सा टेपरिकार्डर होता था ..बस वह हर वक्त उस के पास ही होता ….और इतनी तन्मयता से वह उस टेप को सुनती थीं जैसे कोई सिलेबस का पाठ सुन रही हो ….10 साल के करीब हम से उम्र में बड़ी थी…और जब भी मैं या दूसरा कोई भी उन के कमरे में जा कर थोड़ा सा भी शोर करने लगता तो वह हमें कभी डांटती न थी , बस अपने होठों पर उंगली रख कर चुप रहने का इशारा ज़रूर कर देती थीं…..और हम भी सोचते कि पता नहीं क्या है इस टेप में …..


खैर, अगस्त 1975 में देश के दूसरे हिस्सों की तरह अमृतसर में भी शोले लग तो गई होगी…ज़रूर लग गई होगी…वैसे तो कुछ शहरों में फिल्म पहले लगती थी और कुछ में थोड़े हफ्तों के बाद ….लेेकिन अमृतसर शहर में तो कोई भी फिल्म कभी भी देर से नहीं लगी….जितना मुझे याद है …


थियेटर में लग फिल्म लग गई ….

स्कूल में जाते तो वही चर्चा …कोई सहपाठी देख आए, वे उस की बातें किया करते ….हमें भी था कि हम भी देर सवेर देख ही लेंगे…वैसे तो कोई बड़ी फिल्म लगने के कुछ दिनों तक तो अधिकतर लोग नहीं जाते थे …क्योंकि टिकटों की कालाबाज़ारी सरेआम होती थी …पांच रुपए की टिक्ट ..20 में, 30 में…खरीदने वाले थे ..लेकिन उन दिनों में हम ने कभी ब्लैक में टिकट नहीं खरीदी….हम लौट कर घर आ जाते थे …भुनते-कोसते उन ब्लैकियों को ….


जैसे कि मैंने लिखा कि शोले को देखने का तो उन महीनों में कोई चांस ही नहीं था क्योंकि दीदी की शादी की तैयारियों जोरों पर थी….(फिल्म के उतरने की कोई चिंता न होती थी उस दौर में...कईं कईं महीने एक थियेटर में लगी रहती थी फिल्म।)

लेकिन इन दिनों भी …जब तक शोले देखी नहीं, सिर पर सवार रही …

क्यों, वह कैसे ?

लीजिए, सुनिए…..मैं डीएवी स्कूल अमृतसर में पढ़ता था और दोपहर में लंच-ब्रेक के बाद हमारा साईंस का पीरियड हुआ करता था ….बोरियत से भरपूर….मिरर फार्मूला, कंकेव, कंवेक्स और बिजली की घंटी की संरचना और उस की कार्य-प्रणाली…..मैं तो वैसे ही साईंस के नाम से ही ऊब जाता था …और ऊपर से मास्टर जी का पढ़ाने का तरीका नीरसता से भरा हुआ….

लेकिन कहते हैं न कि हर बादल में सिल्वर लाईनिंग होती है …उम्मीद का दामन नही छोड़ने के लिए कहते हैं यह बात ….

वह हमारी भी बात बन गई….

उन दिनों बडे़ बड़े लाउड-स्पीकरों पर फिल्मी गीत बजाने का बड़ा रिवाज था …हमारी क्लास में ठीक उसी वक्त बाहर से शोले फिल्म के गाने बजने लगते ….सभी गाने ..एक के बाद एक ….वक्त का पता नहीं चलता …जब तक मास्टर जी अपने पास बुला कर बिजली की घंटी की संरचना पर रोशनी डालने को न कह देते …
फिर आगे क्या…..

वही, जिस का डर होता था ….

एक करारा सा तमाचा…..उन का हाथ भारी था और एक सोने की मोटी सी अंगूठी भी वह इस प्रक्रिया के दौरान पहने रहते थे ….किसी न किसी का रोज़ नंबर आ जाता था…..ज़ाहिर सी बात है मेरा भा आने ही था ….आया कईं बार …….लेकिन साईंस मुझे कभी समझ न आई आठवीं कक्षा तक …..नवीं कक्षा में मास्टर जी बदले और इंगलिश मीडियम में पढ़ाई शुरू हुई तो सब कुछ अच्छे से समझ आने लगा…..


अच्छा, बहन की शादी दिसंबर में हो गई तो उस के बाद मैंने अपनी मां को कहा कि मुझे भी शोले फिल्म देखने ले चलो…….वह कभी किसी काम के लिए मना नहीं करती थीं…कभी नहीं….ले गईं मुझे वह प्रकाश टाकीज़ (अमृतसर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने) में शोले फिल्म दिखवाने ….


मैं बड़ा डर गया……हां, डरने से याद आया …कुछ दिन पहले इसी शोले के बारे में मेरी बात एक मित्र से हो रही थी …उसने बताया कि उन के पापा को तो किसी भी थियेटर में फिल्म देखने के लिए पास मिला करते थे …लेकिन वह बच्चों को फिर भी फिल्म दिखाने नहीं ले कर गए क्योंकि यह फिल्म डाकूओं और डकैती के बारे में थी …..अब यहां से आप यह अंदाज़ा लगाइए कि पहले बच्चों को क्या देखना या क्या दिखाना है उस का भी कितना मजबूत सेंसर उपलब्ध था ….और अब देखिए अबोध बच्चों के हाथ में मोबाईल है …किसी को पता ही नहीं कि अगली रील में उसे किस नज़ारे के दीदार हो जाएं…..


फिल्म के गाने सभी मुझे बहुत बढ़िया लगे ….और मेहबूबा ओ मेहबूबा का म्यूज़िक तो मुझे आज भी 50 साल बाद भी बेहद पसंद है …..(और बाबी फिल्म के उस गीत के म्यूज़िक की तरह ….अंदर से कोई बाहर न आ सके…..) आर डी बर्मन - दा ग्रेट…..ग्रेट नहीं, ग्रेटेस्ट।


चलिए, फिल्म देख ली….और जैसे पहले होता था कोई भी फिल्म देखने के बाद अगले पांच-सात दिन तक दिलो-दिमाग़ पर उस का नशा तारी रहता था …..और देखने के बाद ही कहां, कोई फिल्म देखने से पहले कईं कईं दिन तक उस के बारे में सोचना,और स्कूल कालेज आते जाते रास्ते में उसके पोस्टर निहारने, और कभी उस थियेटर की तरफ से निकलना होता तो कुछ छोटे छोटे ट्रेलर टाइप पोस्टर (लेमिनेटेड तस्वीरें) देख कर ही मन को तसल्ली दे दी जाती कि देख लेंगे, जल्दी देख लेंगे.... हा हा हा हा हा ...मज़ेदार दिन, और चाश्नी से भी मीठी उस दौर की यादें....


रेडियो और लाउड-स्पीकर ….लेकिन दूसरी फिल्मों की तरह रेडियो पर शोले के गाने बजते थे तो मज़ा आता था….और हर गली-मोहल्ले में मौके-बेमौके (लाड़ले के मुंडन हों, या पीर बाबा पर मीठे चावल चढ़ाने हों या रामलीला या कोई ब्याह-शादी-सगाई…रिटायरमैंटी की पार्टी हो या कुछ भी जश्न- उन दिनों लोग मौके ढूंढ लिया करते थे) ….बडे़ बडे़ लाउड-स्पीकर लगा कर गीत बजते थे ….बस, फिर जब तक वह लाउड-स्पीकर बजता था, हमारी पढ़ाई चौपट और हमें यह राहत मिलने से बड़ा सुकून हासिल होता था ….और हम बीच में मौका मिलने पर उस लाइड-स्पीकर वाले के पास जा कर देख आते…कईं बार उसके पास ही बैठ जाते थोड़ी देर कि हमारी पसंद वाला रिकार्ड लगा दे…..( और वह लगा भी देता था…..उस का रुतबा वैसा था या उस से भी बड़ा जैसे आज कल डी.जे का होता है …) …और हां, होली के दिन भी इस तरह के रिकार्ड बजते थे ….और शोले का वह गीत भी …होली के दिन दिल मिल जाते हैं…. 


टीवी आ गया…..

हमारी तकलीफ आसान हो गई शोले फिल्म के दो तीन साल बाद ही ….टीवी आ गया …और उस के चित्रहार में उस गीत दिखने-सुनने को मिल जाते ….मुझे यह याद तो नहीं इस वक्त कि टीवी पर शोले फिल्म कब पहली बार दिखाई गई थी लेकिन इतना पक्का याद है कि जब लोकसभा या विधानसभा चुनावों का रिजल्ट आना होता था …मतगणना चलती थी जिस दिन उस दिन दूरदर्शन में सुबह से शाम तक 3-4 सुपर हिट फिल्में दिखाई जाती थीं ….और मुझे लगता है उसी सिलसिले में शोले भी ज़रूर दिखाई गई होगी…..


टेपरिकार्ड - तब तक वेस्टन-सोनी के टेपरिकार्ड भी आ गए थे और हम लोग हिंदी फिल्मी के गानों की टेप भी ले आते थे …मैंने 1978 में टेपरिकार्डर खरीदा था ….मैंने एक दिन इच्छा ज़ाहिर की और मेरे बडे़ भाई ने मुझे 2000 रुपए दिए कि जो पसंद हो ले आओ। उन दिनों मैं प्री-यूनिवर्सिटी में पढ़ता था ….शायद 16 या 17 सौ कर आया था, वेस्टन टेपरिकार्डर  ….अकेले बाज़ार जा कर वह मेरी पहली खरीदारी थी …फिर मैंने उसे अगले 8-10 तक बहुत घसीटा….


यह सिलसिला तब तक चला जब तक वीसीपी वी सी आर नहीं आ गए….फिर तो मनोरंजन की दुनिया ही बदल गई …आगे तो आप सब जानते हैं ….एमपी थ्री, सी डी, डीवीडी…..


लेकिन पुरानी फिल्मों के साथ - शोले, रोटी, दुश्मन, तलाश, रोटी कपड़ा और मकान, शोर, बॉबी, लव-स्टोरी…..चितचोर, घरौंदा, प्रेमरोग, हिना , डान, पलकों की छांव में, यादों की बारात, जूली, अखियों के झरोखों से, तपस्या…..परवरिश, अमर-अकबर-एंथोनी के साथ नाता जुड़ा रहा …..एक दम पक्के से ……..और यह आज भी बरकरार है। 


शोले फिल्म ने पूरे किए 50 बरस ……संयोग देखिए, महात्मा गांधी की किताब ने 100 साल पूरे किए और शोले ने 50 बरस…..पिछले कुछ दिनों से कुछ न कुछ खबर शोले के बारे में दिख जाती थी ..इस फिल्म से इतना ज़्यााद भावनात्मक जुड़ाव है कि अखबार के उस पन्ने की वह कतरन काट कर रखता रहा ….और एक बात, जो यह ब्लॉग पढ़ रहे हैं और इसे पढ़ते पढ़ते यहां तक पहुंचे हैं उन को यह बताना चाहता हूं कि आज की टाइम्स में भी शोले के बारे में दो-तीन पन्नों में सहेजी गई बहुत रोचक जानकारी है …..अगर ज़रूर देखिए और सहेज लीजिेेए, अगर चाहें तो …


शोले फिल्म मेरे लिए कुछ उन चंद फिल्मों में से है जिन को मैं कितनी बार भी देख सकता हूं …..चलिए, मैंने तो अपनी 50 साल पुरानी इस फिल्म के साथ जुड़ी यादें पाठकों के साथ साझा कर दीं….आप भी कुछ तो साझा करिए, अपने यादों के झरोखों से ….अच्छा लगेगा, और किसी को लगे न लगे, आप को ज़रूर लगेगा…..एक तरह से वे पुराने लम्हें फिर से जीने जैसा मौका मिलता है ….यादों की कड़ाहे में खोमचे मारने जैसा है ….पता नहीं कहां कहां से यादें उमड़-गुमड़ कर उभर आती हैं….


हां, एक बात तो लिखनी भूल ही गया….कुछ साल पहले मैंने एक किताब खऱीदी थी, यही कोई पांच सात साल पहले ….मेकिंग ऑफ शोले ….इंगलिश में लिखी यह बड़ी रोचक किताब है ….सोच रहा था कि आज ब्लॉग में उस में से भी कुछ लेकर शेयर करूंगा …लेकिन मेरे कबाड़खाने में मुझे कब कहां कुछ मिलता है वक्त पर ….नहीं मिली किताब। वैेसे भी शोले टॉपिक ही ऐसा है कि इस पर ब्लॉग तो क्या कोई भी एक किताब लेिख दे, वह भी कम पड़ेगी।


फिल्म में एक डॉयलाग था .....जब गब्बर पूछता है ....होली कब है ....उस के बाद आता है यह सुपर डुपर गीत ....तो चलिए, देख लेते हैं फिर एक बार ....यह गीत और इस तरह के गीत मैं एक बार दस-बीस बार एक साथ सुन सकता हूं ....पहले तो टेप को आगे पीछे करना पड़ता था, अब तो यू-ट्यूब के बटन के प्ले-बटन पर क्लिक ही करना है ....यह आसानी हो गई है .... हा हा हा हा हा हा हा ....



यह सब लिखने के बाद यही लग रहा है कि कुछ बढ़िया नहीं लिख गया….बस इत्मीनान है, जब डॉयरी में लिख रहे हैं तो जो भी दर्ज हो रहा है, मुबारक है। इस कुव्वत के लिए भी ईश्वर का तहेदिल से शुक्रिया ….


3 टिप्‍पणियां:

  1. Sab se pehle shukriya aap ne blog akhirkar daal hi diya aur kuchh gyan, revision aur recalling those daz. Gandhi ji ke baare kya likha ja sakta hai. Simple, spashth aur theer ki tarah insaan ke dil ko chhu jata hai. Rais se fakir bannewala shayad Gandhi ji hi rahe hogen. Mahatama ki upadhi to Subhash Chander Bose di thi. Gandhi ki darshan aur vichhaar aaj bhi bhi relevant hain.
    Gabbar Singh to aik hi hua hai shole me aur hamesha se zinda rahega. Shole picture ki publicity na ke barabar thi. Agar aap ko yaad ho to. Lekin jab theatre me laga aur logon ko itna achchha laga ki one to one advertisement itna ho gya. Bus kya, redi kya, chai ki d7kan kya , her taraf shole ke audio ne dhoom macha dee. Log aa j bhi shole ke dialogue nahi bhoolen hain. Mere khayal me Shole film, Pyasa film aur Mugale Azam film kabhi bhi nahi maregen. Shole me dance number gana jab tak mene film d3kha nahi tha, to mujhe achchha nahi laga tha. Mujhe s3xy numbers kabhi bhi achchhe nahi lagte the pta nahi kyon per jab picturisation dekha, situational relevance se ganne ki gunvata samajh me aaya. Mene zarurat se jyada comments dala. Thank you.

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