और जब मैं धौला कुआं से वापिस दिल्ली के अंतर्राजीय बस अड्डे की तरफ़ लौट रहा था तो दिल्ली का मिजाज बदला बदला सा लग रहा था --- कारण ?--- मुझे नहीं पता कि इस मिजाज को बदले कितना अरसा हो गया होगा क्योंकि मेरे ख्याल में मैं किसी रविवार के दिन इस दरियागंज वाली सड़क से 18-20 साल बाद ही गुज़र रहा था।
दरअसल मैं अक्टूबर एवं नवंबर 1988 में दो महीने के लिये बिना सर्विस के यूं ही सबर्बन पास बना कर दिल्ली की सड़कों की खाक छानने रोहतक से लगभग रोज़ निकल जाया करता था --- वास्तव में एक जगह से नियुक्ति-पत्र आने में ही देरी लग रही थी --- लेकिन फिर भी मैं दिल्ली में भी किसी नौकरी की तलाश में चला जाया करता था। इन दिनों मैं अपने खाली समय में नेशनल मैडीकल लाइब्रेरी में भी बहुत जाया करता था।
और हां, जो बात विशेष रहती थी कि रविवार के दिन जब कभी दरियागंज के रास्ते से निकलना होता था तो वहां फुटपाथ पर कहीं कहीं पर किताबों वाले ज़रूर दिख जाते थे --- इसलिये इन से कभी कभी किताब भी खरीद ली जाती थी --- कौन सी किताबें ?- अब यह तो मत पूछो ---अंग्रेज़ी की वही किताबें जिन की इस उम्र में हमारे समय में पढ़ने की चाहत हुआ करती थी। अब जब उन किताबों के बारे में सोचता हूं तो हंसी आती है। लेकिन वह भी दौर था --- इस को कैसे नकारा जा सकता है।
लेकिन इस बार रविवार को मैं इस दरियागंज वाली सड़क का बहुत ही अलग नज़ारा देख रहा था --- यहां पर फुटपाथ पर सैंकड़ों किताबों की दुकानें बिछी पड़ी थीं और किताबों के प्रेमी लोग इन को खरीदने में व्यस्त थे। यह नज़ारा देखते ही बन रहा था। ये सब तस्वीरें उसी दरियागंज एरिया की ही हैं--- अब सोचता हूं कि किसी दिन रविवार के दिन इस जगह ज़रूर जाऊंगा।
इस क्षेत्र में बहुत रौनक थी --- किताबों की दुकान के पास ही अंग्रेज़ों की पहनी हुई जैकेटें, स्वैटर भी मिल रहे थे --- यह सब कुछ भी हम लोग पिछले तीस सालों से देख रहे हैं लेकिन मैं इस बात की खोज करूंगा कि स्वास्थ्य के पहलू से ये वस्त्र कितने सुरक्षित हैं --- मैं इस के बारे में बहुत बार सोचता हूं। लेकिन इस तरह के कपड़े बेचने वालों के अड्डों पर भी बहुत भीड़ थी।
और भीड़ यहां पर इतनी थी कि लगता था जैसे कोई मेला लगा हो --- मुझे ध्यान आ रहा था कि इसी फुटपाथ से शायद बीस साल पहले कईं बेल्ट भी खरीदे थे --- शायद दो-चार टाईयां भी खरीदी थीं ----क्या है न इंटरव्यू के लिये ये सब करना ही पड़ता था । बस, याद आ रहा है कि जैसे ही यह नौकरी लग गई यह दिल्ली जा कर यूं ही लगभग बिना वजह जा कर घूमना बंद सा हो गया --- और फिर दो एक साल बाद जब यह नौकरी छोड़ कर यूपीएससी द्वारा नियुक्त कर लिया गया तो सीधा बंबई पहुंच गया।
उस दिन मुझे दरियांगज एरिया से जुड़ी सारी यादें एक चलचित्र की भांति याद आ रही थीं --- बिल्कुल उसी तरह जिस तरह लगभग रोज़ आज कल जब मैं शाम को हास्पीटल से ड्यूटी करने के बाद बाहर निकलता हूं तो मुझे अपने पिता जी अकसर याद आते हैं ---दरअसल यहां यमुनानगर में शाम को अंधेरा बहुत जल्दी हो जाता है और जब मैं ड्यूटी के बाद छः बजे बाहर आता हूं तो मुझे मेरे ख्यालों में अपने स्वर्गीय पिता जी का चिंतित चेहरा अकसर दिख जाता है ---बात 1974 की हैं –अमृतसर के डीएवी स्कूल में मैं पढ़ा करता था ---छठी कक्षा में ---हिसाब में थोड़ी मुश्किल होती थी इसलिये स्कूल में ट्यूशन रखी हुई थी जो साढ़े पांच बजे तक चलती थी और फिर स्कूल से पैदल आना होता थी ----चूंकि मुझे आते आते थोड़ा अंधेरा हो जाया करता था तो अकसर मेरे पिता जी मुझे अकसर रास्ते में ही देखने आ जाया करते थे ---- आज सोचता हूं कि मेरे में आत्मविश्वास बहुत था, बहुत निडर था लेकिन अपने पिता के लिये तो एक 11 साल का बालक ही था---- उन के चिंतित चेहरे को जो सुकून मुझे देखने के बाद मिलता था वह मैं ब्यां नहीं कर सकता --- शायद उन्हें यही लगता होगा कि उन्हें कुबेर का खजाना मिल गया ।
जो भी था उन दिनों मुझे यह अनुमान नहीं होता था कि अपने बच्चों की इंतज़ार में बिताये गये चंद मिनट क्यों सदियों जैसे लगते हैं --- क्योंकि अब अपने पिताजी वाला काम मैं अपने बच्चों के साथ करता हूं --- और जिंदगी का चक्र चल रहा है ---- The history repeats itself----इतिहास अपने आप को दोहराता है !!
आपने पुरानी याद दिला दी डाक्टर साहब। तीन दशक पहले दरियागंज के फुटपाथ पर किताबें छानते कई दिन कई घण्टे बिताये हैं मैने!
जवाब देंहटाएंlagey raho phoopha jee.........good job
जवाब देंहटाएंit ws nice knwin 'bout u.......
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