मुझे अभी अभी पता चला कि सिगरेट छुड़वाने के लिए यूरोप में एक प्राकृतिक कंपाउंड भी है जिस का नाम है साईटीसीन जो वहां पर उगने वाले एक गोल्डन-रेन नामक पौधे में पाए जाता है।
वैज्ञानिकों ने अध्ययन में यह पाया है कि इस का इस्तेमाल सिगरेट छुड़वाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाले निकोटीन पैच, गम आदि से भी ज़्यादा कारगर है....अगर इस तरह के इलाज के बारे में ज़्यादा जानकारी चाहिए तो आप इसे स्वयं इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं...... Cheap Natural Product May Help Smokers Quit.
मैंने भी इस अच्छे से पढ़ तो लिया...लेकिन जब पता चला कि यह नेचुरल कंपाउंड तो वहां योरूप में भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है तो फिर यहां तक कैसे पहुंच पाएगा, यही सोच कर मैंने इस के बारे में और जानकारी हासिल करना ज़रूरी न समझा....और अगर कहीं यहां आ भी पहुंचा तो कितना महंगा मिलेगा, कौन जाने। लेकिन एक बात तो है इस कंपाउंड का विवरण पढ़ कर अच्छा तो लगा कि ऐसा भी कोई कुदरती जुगाड़ है।
मेरे अनुभव कैसे रहे हैं.......मैंने तो दो-तीन दशकों में देखा है जिसने भी धूम्रपान छोड़ा है, अपनी विल-पावर के बलबूत ही छोड़ा, उन लोगों की इच्छाशक्ति ही इतनी प्रबल थी कि उन्होंने इस जानलेवा लत को लत मार दी।
वैसे मैंने कब किसी को देखा जिस ने निकोटीन च्यूईंग गम या फिर पैच आदि का इस्तेमाल कर के धूम्रपान छोडा हो, मुझे तो याद भी नहीं। मैंने कभी इस तरफ़ इतना ध्यान भी नहीं दिया....
ध्यान इसलिए नहीं दिया क्योंिक यहां पर रोना सिर्फ़ सिगरेट पीने वालों का ही तो नहीं है, बीड़ी, चिलम, हुक्का, ज़र्दा-पानमसाला, गुटखा, खैनी, तंबाकू वाले मंजन, तंबाकू वाले पान........सारा िदन इन्हीं के चक्कर में गायब हो जाता है कि सिगरेट वालों तक तो पहुंचने को मिलता ही नहीं....अब बीड़ी वाले को कहूं कि निकोटीन च्यूईंग गम चबाया कर, तो इस के परिणाम आप जानते ही हैं...इसलिए दस पंद्रह मिनट तक हर ऐसे आदमी में इन चीज़ों के प्रति नफ़रत पैदा करना ज़्यादा मुनासिब लगता है, वही करता हूं......बाकी इन का मुकद्दर, मानें ना मानें।
वैसे मैंने इस तरह के जानलेवा उत्पादों को लोगों को छोड़ते देखा है, जानना चाहेंगे कब........जब कोई गले के कैंसर का मरीज़ मिलता है तो अकसर बताता है पिछले दो महीने से तंबाकू बंद कर दिया है, मुंह के कैंसर का मरीज़ कहता है कि पिछले १५ दिनों से तंबाकू छुआ नहीं....मुझे गुस्से और रहम की बड़ी मिक्स सी फीलिंग आती है।
सीधी सीधी बात है.....चाहे चिकित्सक कितनी भी मीठी मीठी बातें कर लें.....मरीज़ का हौंसला रखने के लिए, उस के परिवारजनों का दिल रखने के लिए...गले के, फेफड़े और मुंह के कैंसर के मरीज़ के हश्र के बारे में क्या उसे पता नहीं होता.........मेरा तो कईं बार ऐसे मरीज़ की इस बात की तरफ़ गौर करने की भी इच्छा नहीं होती कि तूने क्या छोड़ दिया, क्या नहीं छोड़ा..........लेकिन नाटकीय अंदाज़ में कहना तो पड़ता है ...बहुत अच्छा किया।
मैंने तो हिंदोस्तान में तंबाकू छोड़ते लोग तभी देखे हैं जब एक ज़ोर का झटका लग जाए......चाहे तो दिल पर जब कोई आंच जा जाए और अचानक जान बच जाए, या फिर कोई भयंकर बीमारी लगने के बाद ही समझ ठिकाने आती है.....मुंह के कैंसर से पहले भी कुछ लोगों की होश ठिकाने तब आती है जब मुंह खुलना ही बंद हो जाता है और वे एक कौर तक मुंह में नहीं डाल पाते........मुंह के कैंसर की इस पूर्वावस्था (ओरल-सबम्यूकोसिस नामक बीमारी) का इलाज ही कितना पेचीदा, सिरदुखाऊ, महंगा है, इसकी आप कल्पना न ही करें तो बेहतर होगा। हर जगह यह हो भी नहीं पाता।
अब मुझे जगह जगह मुंह में गुटखे के पैकेट मुंह में उंडेलते लोगों से कोई विशेष सहानुभूति नहीं रही.......क्या करें, मानने का नाम ही नहीं लेते, जब पैकेट पर उसे बनाने वाली कंपनी ने ही ज़ाहिर कर दिया कि इस से कैंसर हो सकता है तो फिर इस से बड़ा क्या प्रूफ़ चाहिए भाई। अब यह किसे होगा किसे नहीं होगा, यह तो जुआ है, फैसला केवल आपका है कि आप क्या जिंदगी को एक जुअे की तरह दाव पर लगा दोगे?
मुझे मुन्नाभाई का वह गीत अकसर ध्यान में आ जाता है जब एक मृत्यु-शैया पर मरीज़ की फरमाईश पर डा मुन्नाभाई एक नाचने वाली का इंतज़ाम करता है........सीख ले, आंखों में आंख डाल, सीख ले, हर पल में जीना यार सीख ले.......
मरने से पहले जीना सीख ले...
वैज्ञानिकों ने अध्ययन में यह पाया है कि इस का इस्तेमाल सिगरेट छुड़वाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाले निकोटीन पैच, गम आदि से भी ज़्यादा कारगर है....अगर इस तरह के इलाज के बारे में ज़्यादा जानकारी चाहिए तो आप इसे स्वयं इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं...... Cheap Natural Product May Help Smokers Quit.
मैंने भी इस अच्छे से पढ़ तो लिया...लेकिन जब पता चला कि यह नेचुरल कंपाउंड तो वहां योरूप में भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है तो फिर यहां तक कैसे पहुंच पाएगा, यही सोच कर मैंने इस के बारे में और जानकारी हासिल करना ज़रूरी न समझा....और अगर कहीं यहां आ भी पहुंचा तो कितना महंगा मिलेगा, कौन जाने। लेकिन एक बात तो है इस कंपाउंड का विवरण पढ़ कर अच्छा तो लगा कि ऐसा भी कोई कुदरती जुगाड़ है।
मेरे अनुभव कैसे रहे हैं.......मैंने तो दो-तीन दशकों में देखा है जिसने भी धूम्रपान छोड़ा है, अपनी विल-पावर के बलबूत ही छोड़ा, उन लोगों की इच्छाशक्ति ही इतनी प्रबल थी कि उन्होंने इस जानलेवा लत को लत मार दी।
वैसे मैंने कब किसी को देखा जिस ने निकोटीन च्यूईंग गम या फिर पैच आदि का इस्तेमाल कर के धूम्रपान छोडा हो, मुझे तो याद भी नहीं। मैंने कभी इस तरफ़ इतना ध्यान भी नहीं दिया....
ध्यान इसलिए नहीं दिया क्योंिक यहां पर रोना सिर्फ़ सिगरेट पीने वालों का ही तो नहीं है, बीड़ी, चिलम, हुक्का, ज़र्दा-पानमसाला, गुटखा, खैनी, तंबाकू वाले मंजन, तंबाकू वाले पान........सारा िदन इन्हीं के चक्कर में गायब हो जाता है कि सिगरेट वालों तक तो पहुंचने को मिलता ही नहीं....अब बीड़ी वाले को कहूं कि निकोटीन च्यूईंग गम चबाया कर, तो इस के परिणाम आप जानते ही हैं...इसलिए दस पंद्रह मिनट तक हर ऐसे आदमी में इन चीज़ों के प्रति नफ़रत पैदा करना ज़्यादा मुनासिब लगता है, वही करता हूं......बाकी इन का मुकद्दर, मानें ना मानें।
वैसे मैंने इस तरह के जानलेवा उत्पादों को लोगों को छोड़ते देखा है, जानना चाहेंगे कब........जब कोई गले के कैंसर का मरीज़ मिलता है तो अकसर बताता है पिछले दो महीने से तंबाकू बंद कर दिया है, मुंह के कैंसर का मरीज़ कहता है कि पिछले १५ दिनों से तंबाकू छुआ नहीं....मुझे गुस्से और रहम की बड़ी मिक्स सी फीलिंग आती है।
सीधी सीधी बात है.....चाहे चिकित्सक कितनी भी मीठी मीठी बातें कर लें.....मरीज़ का हौंसला रखने के लिए, उस के परिवारजनों का दिल रखने के लिए...गले के, फेफड़े और मुंह के कैंसर के मरीज़ के हश्र के बारे में क्या उसे पता नहीं होता.........मेरा तो कईं बार ऐसे मरीज़ की इस बात की तरफ़ गौर करने की भी इच्छा नहीं होती कि तूने क्या छोड़ दिया, क्या नहीं छोड़ा..........लेकिन नाटकीय अंदाज़ में कहना तो पड़ता है ...बहुत अच्छा किया।
मैंने तो हिंदोस्तान में तंबाकू छोड़ते लोग तभी देखे हैं जब एक ज़ोर का झटका लग जाए......चाहे तो दिल पर जब कोई आंच जा जाए और अचानक जान बच जाए, या फिर कोई भयंकर बीमारी लगने के बाद ही समझ ठिकाने आती है.....मुंह के कैंसर से पहले भी कुछ लोगों की होश ठिकाने तब आती है जब मुंह खुलना ही बंद हो जाता है और वे एक कौर तक मुंह में नहीं डाल पाते........मुंह के कैंसर की इस पूर्वावस्था (ओरल-सबम्यूकोसिस नामक बीमारी) का इलाज ही कितना पेचीदा, सिरदुखाऊ, महंगा है, इसकी आप कल्पना न ही करें तो बेहतर होगा। हर जगह यह हो भी नहीं पाता।
अब मुझे जगह जगह मुंह में गुटखे के पैकेट मुंह में उंडेलते लोगों से कोई विशेष सहानुभूति नहीं रही.......क्या करें, मानने का नाम ही नहीं लेते, जब पैकेट पर उसे बनाने वाली कंपनी ने ही ज़ाहिर कर दिया कि इस से कैंसर हो सकता है तो फिर इस से बड़ा क्या प्रूफ़ चाहिए भाई। अब यह किसे होगा किसे नहीं होगा, यह तो जुआ है, फैसला केवल आपका है कि आप क्या जिंदगी को एक जुअे की तरह दाव पर लगा दोगे?
मुझे मुन्नाभाई का वह गीत अकसर ध्यान में आ जाता है जब एक मृत्यु-शैया पर मरीज़ की फरमाईश पर डा मुन्नाभाई एक नाचने वाली का इंतज़ाम करता है........सीख ले, आंखों में आंख डाल, सीख ले, हर पल में जीना यार सीख ले.......
मरने से पहले जीना सीख ले...