अरसा हुआ एक विज्ञापन आया करता था ...दाग अच्छे हैं...बच्चे बारिश के खड़े पानी में उछल कूद करते हैं, कपड़े खराब कर लेते हैं...यह सब टीचर के घर के सामने हो रहा होता है ...टीचर जी किसी पर्सनल लॉस की वजह से बड़ी उदास सी बैठी दिखाई देती है लेकिन इन नन्हे-मुन्नों को कीचड़ में उछल कूद करते देखती है तो वह हंस पड़ती है ....दाग का क्या है, वह तो मां सर्फ-एक्सेल से साफ कर ही देगी....लेकिन उस विज्ञापन की टैग लाइन मुझे बहुत पसंद है...दाग अच्छे हैं।
ठीक उसी तरह झुर्रियां भी मुझे अच्छी लगती हैं...अपनी भी और दूसरों की भी....वाटसएप पर एक मैसेज आया था कईं बरस पहले एक बुज़ुर्ग महिला की तस्वीर थी जिस के चेहरे पर अनेकों झुर्रियां थीं और वह बहुत सुंदर लग रही थी...और साथ में लिखा था कि चेहरे की इन सिलवटों का मतलब यह है कि उस इंसान ने ज़िंदगी को उतना भरपूर जिया है ....एक एक सिलवट ज़िंदगी के कड़वे-मीठे अनुभवों की संदूकची है .. और एक बात यह भी तो है झुर्रीदार चेहरों को देखते ही हमें अपनी नानी-दादी की गोद मे बिताए हसीन पल याद आ जाते हैं...
जैसे आज के बाज़ारवाद में कईं धंधे चल निकले हैं...वैसे ही इन झुर्रियों को मिटाने का भी एक नया धंधा चल निकला है...पहले सफेद बालों को काले करने का फितूर, फिर झुर्रियों को मिटाने की ललक, और कुछ सर्जन या प्लास्टिक सर्जन आज कल जो कारनामे कर रहे हैं उस के बारे में तो लिखते भी नहीं बनता, वे शरीर के अंगों का कसाव बढ़ाने में लगे हुए हैं..😂..ईश्वर का शुक्र है कि ये सब काम सरकारी अस्पतालों में नहीं होते ...और मैं उन चमड़ी रोग विशेषज्ञों की दिल से इज़्ज़त करता हूं जो इन चक्करों से अभी भी दूर हैं...वरना प्रलोभन तो हर जगह बिखरे पड़े हैं।
बाल काले हों या सफेद, ब्यूटी-पार्लर में कोई हो कर आया है या नहीं, झुर्रियां दो हैं, चार हैं या सैंकड़ों हैं ....इस का कुछ भी तो फ़र्क़ नहीं पड़ता....सच में मुझे ऐसे लोगों के ऊपर तरस आता है जिन को ये सब काम करवाने की ललक सवार हो जाती है ...लेकिन वे भी क्या करें, पैसा है तो खर्च कहां करें..
हर उम्र की अपनी सुंदरता है ...सफेद बालों की वजह से, झुर्रियों की वजह से ...उम्र के साथ साथ शरीर में कम होती शक्ति की वजह से भी एक अलग तरह की सुंदरता दिखने लगती है....यही कहीं मैंने वाटसएप पर पढ़ा था कि बुज़ुर्ग लोगों में सुंदरता कभी भी कम नहीं होती ...बस वह उन के चेहरों से सिमट कर उन के दिल में वास करने लगती है ...
उम्र के साथ होती कम ताकत से याद आया ...लखनऊ में मैं पुष्पेश पंत के एक प्रोग्राम मे शिरकत करने गया ....वह पाक कला के बारे में भी बहुत कुछ जानते हैं...वह बता रहे थे कि आटा गूंथने की मशीने आ गईं ...लेकिन जो बुज़ुर्ग महिलाएं अपनी कमज़ोर मुठ्ठियों के इस्तेमाल से आहिस्ता आहिस्ता आटा गूंथती हैं, उस का एक अलग ही लुत्फ है ...क्योंकि आटा को गूंथने के लिए उतनी ही सहजता और उतनी ही शक्ति दरकार होती है ...😎
ये झुर्रियां वुरीयां मिटाने-छिपाने-हटाने का धंधा भी बरसों पुराना है ...मेरे पास कईं एंटीक मैगज़ीन हैं ५०-६०साल पुराने, ऑनलाइन खरीदने की मुझे भी धुन सवार रहती है ...उन में भी इस तरह की चीज़ों के विज्ञापन ठूंसे पड़े हैं...हैरानी होती है सच में ...
दिक्कत यह है कि पहले तो शो-बिज़नेस से जुड़े लोग ...सिने तारिकाएं, हीरो, माडल ही ये सब काम करवाते थे ...कितनों की शक्लें ही बदल गईं, हम ने देखा ....लेकिन अब आम लोग भी जिन के पैसे की भरमार है वे भी इन चक्करों में पड़ने लगे हैं...लेकिन जो भी है, सुंदरता इन चीज़ों से तय नहीं होती, सुंदरता हमारी शख्शियत की होती है ....क्यों होता है कि कुछ लोगों के साथ हमारा बार बार बात करने को मन होता है ....और कुछ को देखते ही हमारी ब्लड-प्रैशर १५-२० डिग्री शूट कर जाता है...उन के हाव-भाव ही कुछ ऐसे होते हैं...
लोग आज़ाद हैं, कुछ भी करवाएं, कहीं भी पैसा खर्च करें ...लेकिन हम जैसे ओपिनियन-मेकर्स की भी तो एक छोटी सी ड्यूटी है...और हां, एक बात और भी ...ये जो लोग मेक-अप-वेक-अप के चक्कर में ज़्यादा रहते हैं ....उन्हें अगर बिना मेक-अप के कभी देख लेते हैं तो भई हम तो डर ही जाते हैं ....सोचने वाली बात यह भी है कि मैं डर जाऊं या कुछ भी हो मुझे ...यह तो मेरी एक खामखां वाली बात है ....जीने दो लोगों को जैसे लोग जीना चाहते हैं ....हर किसी को कोई न कोई फितूर है ..मुझे भी है सभी तरह की एंटीक चीज़ों को सहेजने का ....उसी सिलसिले में ही कहीं मैं झुर्रीदार चेहरों को भी तो नहीं ढूंढता रहता ...
जवान रहकर भोगने की लालसा तो ययाति के वक्त से रही है... आज बस उस लालसा को पूरा करने के साधन उपलब्ध हो गये हैं... इसलिए जिनके पास सहूलियत रहती है वह अपनी इस इच्छा को पूरी करने की कोशिश करते हैं...
जवाब देंहटाएंहकीकत से कतराना है ये बस।
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