बुधवार, 19 जनवरी 2022

ख़तो-किताबत वाले दिनों की यादें ....

यादें...यादें...यादें ....ख़तो-किताबत की दुनिया की पचास साल पुरानी यादों की गठरियां हैं मेरी उम्र के लगभग सभी लोगों के पास...कुछ लोग इन से जुड़े अपने जज़्बात ब्यां कर पाते हैं, कुछ नहीं कर पाते ...इस से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता...कुछ लिख कर न सही, सुना कर अपनी यादें ताज़ा कर लेते हैं ...

आज दो तीन बातें सोच रहा हूं लिख कर दर्ज कर दूं ..इससे पहले कि मैं भूल जाऊं...मेरा ननिहाल अंबाला में था...अमृतसर से जब मैं अपनी मां के साथ स्टीम इंजन वाली गाड़ी में बैठ कर अंबाला पहुंचता तो बहुत मज़ा आता...भौतिक सुख-सुविधाओं से उन दिनों घरों को नहीं आंका जाता था ... प्यार ही प्यार था ... मेरे नाना जी ट्यूशन पढ़ाते थे ...80-82 साल की उम्र तक ट्यूशन पढ़ाते रहे ...रीडर-डाइजेस्ट पढ़ते थे ...रात के वक्त रेडियो पर खबरें सुनने के लिए उस के बटन घुमाते रहते ...लेकिन हमने तो कभी उस रेडियो को कोई भी स्टेशन पकड़ते देखा नहीं ...अब पता नहीं रेडियो में खराबी थी या किस्मत में ...वैसे आज से 50 साल पहले रेडियो पर कोई स्टेशन लग जाना किसी छोटी मोटी लॉटरी लगने से कम न था ...और हां, मैं यह तो बताना भूल ही गया कि मैं रात में 12-1 बजे उठ कर अपनी नानी से चीनी वाले परांठे खाने की ज़िद्द करने लगता ...मां कहती सुबह खा लेना..लेकिन नहीं, नानी उसी वक्त उठ कर स्टोव जला कर बड़े बड़े चीनी के परांठे मुझे खिला कर ही दम लेती ....

हां, बात तो करनी थी हमारी नानी के घर डाइनिंग टेबल के पास क्राकरी वाली अलमारी के साथ ही लगे एक कील की ...और उस पर लोहे की सीख को मरोड़ कर उस में पिरोए ढेरों खतों, बिजली-पानी के बिलों की ....न वहां कोई रेडियो होता था, बाद में टीवी भी था, लेकिन वह भी हमेशा खराब ही नज़र आता था...ऐसे में बहुत बार हम उस तार में संभाल कर रखे हुए ख़तों को ही पढ़ने लग जाते ...हमारे लिए यही साहित्य था ...यही लिटरेचर था ....जितने पढ़े जाते या जितने देखे जाते देख लेते, बाकी के फिर से उस लोहे की तार में पिरो कर टांग देते ...क्योंकि सारे घर में वह तार पर टंगे हुए कागज़ात ही सब से ज़रूरी दस्तावेज हुआ करते थे ..बाकी, किसी को पता भी न था कि कोई प्राईव्हेसी नाम की चीज़ भी होती है ....सब कुछ खुला पड़ा रहता था, सब लोग मिल कर खुली बातें करते थे ...किसी से कुछ भी छुपा हुआ नहीं होता था...

मैं शायद अपने किसी ब्लॉग में लिखा था कि ख़त तो अब एंटीक की तरह हो गये हैं ...आज ही क्यों आज से 25-30 साल पहले ही हम ने जो ख़त वत लिखने थे लिख लिए ....अब कहां लिखते हैं हम लोग ख़त ...पहले सब कुछ फोन पर हो जाता था, अब बहुत कुछ वाट्सएप पर निपट जाता है, जो रह जाता है, वह फोन पर निपटा दिया जाता है ...लेकिन यकीन मानिए आज की गुफ्तगू से रूह गायब है ...सब कुछ सतह पर होता था, गहराई बिल्कुल नहीं है ...बहुत से कारण हैं, हम सब जानते हैं ...मैं तो एंटीक की दुकानों पर जाता रहता हूं ...वहां पर मुझे पचास-साठ साल पुराने ख़त देख कर बडी़ हैरानी हुआ करती थी किसी ज़माने में ...अब नहीं होती ...एक एक पोस्टकार्ड पचास रूपये में बिकते देखा है ...खरीद तो मैंने भी बहुत कुछ रखा है ...लेकिन उस की नुमाइश करने की कभी ज्यादा इच्छा हुई नहीं ... बस, ये सब चीज़ें दिल की तरंगों को झंकृत करती हैं जब भी इन को निहारता हूं ...

कल वाट्सएप पर मुझे कहीं से 45-46 साल पुराना एक ख़त मिला ... लेकिन उस ख़त को पढ़ते मज़ा आ गया ...उस से लिखने वाले के अहसास जैसे उस कागज़ पर खुदे हुए थे ...ख़त लिखने वाले ने लिखा था कि अब उस से और ज़्यादा लिखा नहीं जा रहा, उस के आंसू नहीं थम रहे हैं....मुझे भी वह ख़त ने बड़ा भावुक कर दिया ... लेकिन होता था लोग पहले ख़तों में ऐसी ऐसी दिल की बातें लिख दिया करते थे जो आज वाट्सएप के ज़माने में सोच भी नहीं सकते ...यह जो मैं 45-46 साल पुराने खत की बात कर रहा हूं इस ख़त ने बहुत सी यादें ताज़ा कर दीं ...

ख़तों के बारे में मैं अकसर अपने ख्याल लिखता रहता हूं इस ़डॉयरी नुमा ब्लॉग में और नीचे गीत भी वही बार बार लगाता रहता हूं ....डाकिया डाक लाया ....डाकिया डाक लाया ....लेकिन आज सोच रहा हूं इस रिकार्ड को भी थोडा़ बदल ही दूं ...चलिए, सुनते हैं ..

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