फिर थोड़ी सी समझ आने लगी तो दियासिलाई से, लेड-पैंसिल से ... स्वेटर बुनने वाली सिलाई से ....थोड़ी बहुत एहतियात से कान की खुजली शांत की जाने लगी ...मैल निकल आए तो ठीक, नहीं निकले तो भी कोई टेंशन नहीं, बस, यह सब करते हुए कान से खून निकल पड़े तो फिर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ता था...पहले तो घर में हरेक से डांट फटकार खाओ और बाद में ईएनटी विशेषज्ञ के गुस्से को झेलो...जहां तक मुझे याद है हम बचपन में कान में छोटी छोटी स्लेटी भी डाल कर कुछ न कुछ तो करते थे ...और कईं बार वह अंदर टूट भी जाती थी ...जब, दुनिया की नज़रों में हम समझदार हो गए तो कान में जमी हुई वेक्स को पिघलाने के लिए दो बूंदे दवाई की डालने लगे ..लेकिन फिर भी उस के बाद भी ईएऩटी विशेषज्ञ के पास जाने से परहेज ही किया ....
ईमानदारी से सोचता हूं तो लगता है कि फुटपाथ पर जो लोग किसी कान के नीम-हकीम कारीगर से कान का इलाज करवाने लगते हैं हम अपने आप को ज़्यादा बुद्धिजीवि कहने या समझने वाले लोग भी उन के मरीज़ों से थोड़ा सा ही कम हैं ....यह ठीक है, हम उन के पास नहीं जाते लेकिन विशेषज्ञ के पास भी तो हम तब तक नहीं जाते जब तक जान पर ही नहीं पड़ आती...है कि नहीं ?
खैर, ये जो मुझे फुटपाथों पर अलग अलग इलाकों में कान साफ करने वाले मजदूर दिखते हैं ...इन के अनुशासन से मैं बहुत मुतासिर हूं ... इस की टोपी या इन का ड्रेस-कोड बड़ा कड़क है ...दूर ही से इन के मरीज़ इन को ताड़ लेते हैं ... लेकिन आज लिखते लिखते यह ख्याल आया कि इलाकों के मुताबिक ही इन की वेश-भूषा भी होती है ... यानि ड्रेस-कोड...
कुछ दिन पहले जब कोविड़ के बहुत से केस हो रहे थे तो कान की सफाई जैसे गैर-ज़रूरी (दूसरे किसी इलाज की तुलना में) काम बड़े अस्पतालों में होने बंद थे ... ऐसे में इन नीम हकीमों की पौ-बारह थी ...किसी पेड़ के नीचे अपने शिकार को लेकर बैठे ये अकसर दिख जाते थे ...एक दिन तो मुझे एक पढ़ा-लिखा बंदा किसी ऐसे ही कारीगर के शिकंजे में पड़ा दिख गया ....हैरानी हुई ...वह बंदा इतने इत्मीनान से अपने कानों का इलाज करवा रहा था कि क्या कहें ....
दो तीन दिन पहले की बात है कि यह मंज़र दिखाई दिया ....फोटो ले ली ...लेकिन खड़े खड़े इस तरह से कान साफ़ करवाना तो ज्यादा ही जोखिम वाला काम लगा ...वैसे तो इन नीम हकीमों के हाथों को कान पर लगवाना ही खतरे से खाली नहीं है ...अगर कान का परदा इन से न भी फट पाए तो भी ये ऐसी ऐसी बीमारियां (संक्रमण) फैलाने के बाइस हो सकते हैं ...हो सकते क्या, होते हैं ...जो जानलेवा भी हो सकती हैं। और अगर कान का परदा फट जाए तो उस के क्या नतीजे निकलते हैं, उस के बारे में न ही जानिए तो अच्छा है, जानिए तो बस आप इतना ही कि रास्ते में आते जाते ऐसे नीम हकीमों के शिकार मत बनिए...
मैं वहां कुछ पल ही रूका ....इतने में मरीज़ ने कान के इस मजदूर को कुछ सिक्के दिए ...मुझे भी बेवजह की उत्सुकता की बीमारी है ..मैंने फोटो तो खींच ली ...लेकिन जैसे ही मरीज़ चलने लगा तो उस से पूछे बिना रह न सका कि कितने पैसे लेते हैं कान की सफाई के ...उसने बताया कि तीस रूपये ... कईं बार बंदा कितनी बेवकूफी की बात कर देता है ...लेकिन अपने साथ यह कभी कभी नहीं, अकसर ही होता है ...जब मैंने उसको अगला सवाल दाग दिया ...दोनों कानों की सफाई के!! चलते चलते उसने कह तो दिया कि हां..लेकिन मुझे पता है वह मन ही मन मेरा सवाल सुन कर क्या सोच रहा होगा ...किस बारे में ?- मेरे बारे में ही, और क्या!!
अभी नींद आ रही है ...सोने से पहले मेरा यह संदेश है कि कान ही नहीं, दांतों की भी सफाई आज कल फुटपाथ पर लोग करने करवाने लगे हैं, आंखों में तरह तरह के अंजन-सुरमे एक ही सुरमचू से डलवाने लगे हैं ...पैरों की ब्याईयां, नाखूनों के इलाज सभी फुटपाथ से करवाने लगे हैं .......लेकिन यह सब खतरनाक काम है, बच कर रहिए....
सडकें, फुटपाथ, गलियां बुरी नहीं हैं ...जीवन के दर्शन वहीं होते हैं .... लेकिन बस दर्शन तक ही ठीक है, किसी के झांसे में, बहकावे में मत आइए....याद रखिए....वह पुरानत कहावत ...नीम हकीम खतराए जान....और हां, सड़क की बात हुई ...फुटपाथ की बात हुई तो सोने से पहले आप भी आशा फिल्म का यह सुपर हिट गीत सुनिए ...इसमें जो छोटा बच्चा नाच रहा है, वह रितिक रोशन है ...यह फिल्म उस के नाना ने बनाई थी ... क्या नाम था उन का ... जे ओमप्रकाश, निर्माता-निर्देशक...
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