4 अक्टूबर 2021 - सुबह 9 बजे
पश्चिम रेल की लोकल चर्चगेट जाती हुई ....2-3 मिनट में दादर स्टेशन आने वाला है ...फर्स्ट क्लास में डिब्बे में बैठा मैं अखबार पढ़ रहा था तो कहीं से बड़ी तेज़ तर्रार बहस की आवाज़ सुनाई दी..अकसर ऐसा लोकल गाड़ियों के फर्स्ट क्लास में मैंने कम ही देखा है। मैंने पीछे मुड़ के देखा...55-60 की उम्र का एक शख्स दरवाजे के पास खड़ा था ...और करीब तीस साल की उम्र का एक युवक उस से बहस कर रहा था...बहस, कुछ ज़्यादा ही गर्म लगी मुझे..लड़के ने उस अधेड़ उम्र के शख्स को कह रहा था...काका, यह जो अपनी ...(सुना नहीं मुझे कुछ) है, यह अपने घर के लिए रखो।
जैसा कि बंबई में होता है ..कोई किसी के मामले में अकसर पड़ते नहीं लेकिन मैं अपनी सीट छोड़ कर उस नौजवान की सीट के सामने वाली खाली सीट पर बैठ गया...उसे मैंने उसे इशारा किया कि चुप रहे ...फिर मैंने उस खड़े हुए शख्स को भी इशारा कर के कहा कि कोई बात नहीं, जाने दीजिए....कुछ नहीं ..कुछ नहीं....लेकिन इस के बाद भी वे दोनोें एक दूसरे को कुछ न कुछ कहते रहे ..लेकिन मेरी बात का कुछ तो असर दिखा मुझे ..मुझे अपने सफेद बालों का बहुत बड़ा फायदा यही लगने लगा है कि लोग मेरी बात सुन लेते हैं...दोनों कुछ कुछ नरम पड़ रहे थे ...इतने में मेरे साथ बैठे एक दूसरे आदमी ने भी उन्हें कहा कि कोई बात नहीं, रहने दीजिए..चलिए, जल्द ही वह गर्मागर्म बहस ठंड़ी पड़ गई..
बात इसलिए यहां लिख रहा हूं जो मैंनेे देखा है कि जब दो लोग झगड़े पर उतारू हो ही जाते हैं न तो अकसर दिल से वह यह सब सिरदर्दी मोल नहीं लेना चाहते हैं...बस, कोई बीच-बचाव कर के ...उस आग पर पानी डालने वाला पास नहीं होता...तमाशबीन लोग मज़ा लेने के चक्कर में होते हैं...हम तो भाई रह नहीं पाते....अंजाम कुछ भी हो, लेकिन कोशिश तो की जाए...और बहुत बार कोशिश रंग लाती ही है...
4 अक्टूबर 2021- रात 10 बजे - कुर्ला स्टेशन
मध्य रेल के कुर्ला लोकल स्टेशन का पुल जो हार्बर लाइन से मेन लाइन प्लेटफार्म पर आने के लिए इस्तेमाल होता है। अभी मैं उस के ऊपर पहुंचा ही था..कल मेरे दाएं घुटने में कुछ ज़्यादा ही दर्द था, और मैंने नी-कैप भी नहीं पहनी थी ...खैर, ऊपर पहुंचते ही मुझे ज़ोर ज़ोर से मार-कुटाई की आवाजें सुनाई दीं...ध्यान से देखा तो दो 20-25 साल के युवक एक 20-22 साल के युवक को बुरी तरह से पीट रहे थे ...उस सिर पर और मुंह पर मुक्के मार रहे थे ...मुझे यह देख कर बहुत दुःख हुआ कि कोई भी बीच बचाव नहीं कर रहा था ....सब पास ही खड़े तमाशा देख रहे थे ... मैंने हिम्मत नहीं की आगे आने की क्योंकि जितने आक्रोश में वे दोनों युवक थे, वे कुछ भी कर सकते थे ..और साथ में यह कहे जा रहे थे कि मोबाइल पर हाथ मार रहा है ....ख़ैर, एक आधे मिनट में देखते ही देखते उस पिटने वाले जवान के मुंह से खून निकलना शुरू हो गया...मैंने सोचा मैं आगे बढ़ कर रूमाल ही दे दूं.....लेकिन न ही जेब में रूमाल था और न ही मेरे पास उस वक्त पानी की बॉटल ही थी....मुझे इस बात से बहुत आत्मग्लानि हुई।
जब उसके मुंह से खून आने लगा तो वे दोनों युवक वहां से हट कर जाने लगे..इतने में वहां एक सिपाही पहुंच गया.....अब 30-40 लोग जो अब तक तमाशा देख रहे थे ...उन्होंने उन युवकों को मां की गाली निकाली और उन के पीछे हो लिए ...वे रुक गए...सिपाही उन के पास पहुंच गया...घायल युवक भी वहीं था...मामले की जांच होने लगी ...
मेरी ट्रेन का समय हो गया था, मैं वैसे ही लेट हो चुका था...मैं सीड़ियां उतर कर नीचे प्लेटफार्म पर पहुंच गया...और गाड़ी में चढ़ गया। मैं यही सोच रहा था कि इतना आक्रोश क्यों है आज लोगों में ...चंद लम्हों में कुछ भी कर सकते हैं...यह तो जंगल का कानून हो गया...अगर मोबाइल पर हाथ मार ही रहा था तो कानून है, पुलिस है ....यह कानून की किस किताब में लिखा है कि हम किसी को भी बुरी तरह से घायल कर दें...यह पागलपन है, दादागिरी है ..जो किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार नहीं की जा सकती।
5 अक्टूबर 2021 - शाम - दादर (मध्य रेल) की इस्ट साइड - लक्ष्मी नारायण मंदिर वाली साइड -
उधर से गुज़रते हुए देखा ..कुछ पुलिस वाले एक फुटपाथ के पास खड़े हैं...जल्द ही वे चले गए ..और एक युवक देखा जिस की बाजू से खून टपक रहा था ... कोई कह रहा था कि इस ने अपनी नस काट ली है, किसी की सुन नहीं रहा ...कुछ कुछ बोले जा रहा था...एक औरत ने कुछ कपड़ा देना चाहा तो भी ऊंची ऊंची आवाज़ में कुछ कहने लग गया...उस के पास जाने की कोई हिम्मत न कर पा रहा था ...
जी हां, यह है मुंबई की आंखों-देखी तस्वीर ....मुझे लगा इसे भी दर्ज कर दूं क्योंकि जब लोग अमिताभ का 45 साल पुराना गीत सुने ...यह है बंबई नगरिया..तू देख बबुआ....तो वे यह भी देखें कि अमिताभ की तरह बंबई भी बदल चुकी है ...अमिताभ भी अब इतना सब कुछ पा लेने के बाद भी पान मसाले की सरोगेट-विज्ञापन करने लगा है ...ख़ुदा जाने उस की क्या मजबूरी रही होगी...और बंबई के रंग ढंग भी बदल चुके हैं....सब के तेवर चढ़े रहते हैं...कुढ़ते रहते हैं, दिन भर पिसते हैं....कुंठित हैं.... बस बहाना ढूंढते हैं ...किसी के गले पड़ने का.. और लोगों को उन के पहनावे, झूठी शानो-शौकत और बाहरी दिखावे से ही पहचानने की भूल करते हैं अकसर ...
रोज़ाना सुबह यह प्रार्थना कर लेनी चाहिए...और जितना हो सके ..आग में घी की जगह, पानी छिड़कते रहिए....इस तपिश में ठंडक की बेहद ज़रूरत है...बाकी सब बेकार की बातें हैं...
बंबई की लाइफ बहुत ही तेज रफ्तार है... आदमी परेशान रहता है और इधर उधर भागते हुए अपना जीवन व्यतीत करता जाता है और ऐसे में अक्सर चिढ़ा रहता है क्योंकि इतनी भाग दौड़ के बाद न चैन की रोटी उसे नसीब होती है और न कुछ आराम... बस गर्दी ही गर्दी और इस गर्दी में जीवन काटना उसकी मजबूरी बन जाता है... शायद इसलिए भी लोग उधर तपे रहते हैं... और मौका मिलते है अपनी चिढ़ निकालते हैं... फिर ज्यादातर झगड़ों में लोग पुलिस के पास इसलिए नहीं जाती है क्योंकि सब जानते हैं कि ऐसे छीना झपटी के मामले में पुलिस वाले ले देकर उस बंदे को छोड़ ही देंगे.. इसलिए भी न्याय वहीं पर देने की कोशिश करते हैं... शायद यह सिस्टम पर भरोसा न होना ही दर्शाता है..
जवाब देंहटाएंजी, विकास जी, आप बिल्कुल सही फरमा रहे हैं....धन्यवाद, पोस्ट देखने के लिए...मुझे अच्छा लगा।
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