रविवार, 3 अक्टूबर 2021

किताबों के ज़रिए भी हम दुनिया से रू-ब-रू होते हैं...

शादी के कुछ महीने बाद 1990 में हम लोग एक रात दिल्ली में मिसिज़ की मौसी के घर पहुंचे...सुबह श्रीमति जी का यूपीएससी इंटरव्यू था ..मौसा जी इंगलिश पढ़ाते थे दिल्ली में ...अरोड़ा साब...लेकिन वह रात मेरे लिए यादगार थी ...मैं उन के कमरे में उन के साथ था ...लेकिन कमरा क्या, वह तो भाई लाईब्रेरी ही दिख रही थी...हर तरफ़ किताबें ...और मेरी तो उत्सुकता थी ही किताबें के बारे में ...वह देर रात तक अपनी किताबों के बारे में बताते रहे ....देर रात कब नींद आ गई, पता न चला। कुछ दिन पहले उन के नाती की शादी पर दिल्ली गए तो मैं कितनी खुशी से उस दिन को याद कर रहा था .. हर तरफ़ किताबें, बेड के अंदर किताबें, गद्दे के नीचे किताबें....मैंने पूछा उन के बेटे से कि डैड की अगर कोई किताब रखी हो तो बताएं। लेकिन किसी किताब का अब नामो-निशां न बचा था। 

अब मैं उन अरोड़ा साब को जब याद करता हूं तो बहुत हंसता हूं ...हंसी की वजह यह भी होती है कि मुझे क्या पता था कि हमारे घर मेंं भी वही मंज़र दिखने वाला है। हर तरफ़ किताबें ...हर तरफ़ मैगज़ीन....सभी विषयों के ऊपर किताबें ...हिंदी, पंजाबी, इॆगलिश, उर्दू ज़ुबानों में ....मां को भी पढ़ने की आदत थीं...मुझे बहुत बार कहतीं कि इतनी सारी किताबों पर पैसा खर्च करने के लिए भी दिल चाहिए होता है...उन का सानिध्य 88 बरस की उम्र तक हमें मिला ... कोई न कोई किताब पढ़ती दिखतीं, इंगलिश-हिंदी का अखबार भी पढ़ती...कभी कोई लफ़्ज़ मुश्किल लगता तो अपने साथ ही रखी डिक्शनरी में उसे देख कर अपनी नोटबुक में नोट कर लेतीं...और जैसा हमें बचपन से वह सिखाती आईं ..पांच-दस बार लिखती उसे। मेरे नाना भी जालंधर में एक उर्दू अखबार के सब-एडिटर रहे...और बहुत सालों तक अपने एक दोस्त के लिए जो हिंदी का नामचीन लेखक था ..उस के लिए ghost-writing करते रहे-उसे कहानियां उर्दू में लिख कर देते,  दोस्त उन्हें हिंदी में अपने नाम से छपवा लेते। 

घर में भी सब को बचपन से ही कुछ न कुछ पढ़ते ही देखा...आज से पचास साल पहले घर में इलस्ट्रेटेड वीकली, धर्मयुग, सरिता, फिल्मफेयर पढ़े जाते थे ...पापा भी इंगलिश की अखबार को जैसे चबा जाते थे ...😂और उन के लिखने का तो जवाब ही क्या....कंटैंट तो टापक्लास होता ही था...और खुशख़त लिखते थे ...किसी ख़त का जवाब लिखने में भी उन्हें कोई जल्दी नहीं होती थी...पोस्ट कार्ड हो या अंतर्देशीय उसे पूरी तरह से भर कर ही डाक पेटी के हवाले करते थे। रिश्तेदार उन के ख़त संभाल कर रखते थे.. और मिलने पर अकसर तारीफ़ किया करते थे..

गुलज़ार साब की याद आ गई...जहां हम रहते हैं वहां बिल्कुल पास ही में, पैदल की दूरी पर ही गुलज़ार साब का बंगला है ...उस रोड़ पर चलते हुए जब दरवाज़ा खुला होता है तो उन के घर की पहली मंज़िल में रखी उन की किताबों की अल्मारीयां दिखती हैं...मैं जब भी उधर से गुज़रता हूं उस तरफ़ ज़रूर देखता हूं (उस तरफ़ देखना ही सजदा करने जैसा लगता है) ....कुछ महीने पहले एक सुखद अनुभव हुआ....वह उसी बालकनी में खड़े थे ...नीचे उन के स्टॉफ में चल रही किसी गुफ्तूग का आनंद ले रहे थे, गले में तौलिया लपेटे थे... अचानक उन्होंने बाहर देखा तो मैंने उधर से गुज़रते हुए उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम किया .... जितनी आत्मीयता से उन्होंने वहां खड़े खड़े मुझे इस का जवाब दिया, वह मुझे ताउम्र याद रहेगा। 

और हां, उन की किताबों की अल्मारीयां देख कर मुझे उन की मशहूर कविता ...किताबें झांकती हैं बंद अल्मारी से ....याद आ जाती है ...सोचता हूं यही अल्मारीयां ही यह लिखने की प्रेरणा रही होंगी शायद।

इस मशीनी युग में भी हमें किताबों को साक्षात पढ़ना ही भाता है ... किंडल लिया कुछ अरसा पहले, अनलिमिटेड सब्सक्रिपशन भी ले ली ..लेकिन मज़ा आया नहीं...किताबों के सफ़े पलट कर, उन मेंं बुक मार्क रख कर, कभी कभी पेज़ के किनारे को थोड़ा मरोड़ कर रखने में जो मज़ा है ...वह किंडल-विंडल में कहां। और मोबाइल पर ज़्यादा पढ़ने से तो शायद हम लोग, मेरी पीढ़ी के लोग गुरेज़ ही करते होंगे ...

अभी कुछ दिन पहले देखा-पढ़ा कि महानगरों के कईं फुटपाथों पर लिखा हुआ है कि नो-किसिंग ज़ोन, नो पार्किंग ज़ोन ....और यह पेंट से लिखा हुआ था ...मुझे उस वक्त ख़्याल आ रहा था ..न्यू-यार्क शहर के बीचों बीच एक लाइब्रेरी का ..जिस के फुटपाथ पर बड़े बड़े लेखकों द्वारा कही कुछ बातें लिखी हुई हैं....दो ढ़ाई साल पहले जब वहां गए थे तो वे फुटपाथ देख कर बहुत अच्छा लगा था ...सच कहते हैं कि बरसों पहले लिखी किताबों को पढ़ना भी तो उन पुराने युग के महान लेखकों से मुलाकात करने जैसा है ...








न्यू-यार्क शहर में फुटपाथ पर किताबों की उम्दा सीख यूं बिछी दिखी

आज भला मैं क्यों यह सब लिखने लग गया...क्योंकि मैं दो दिन से एक किताब पढ़ रहा हूं ....अंग्रेज़ी के महान लेखक सोमरसेट मोगम की किताब - समिंग अप ---(W. Somerset Maugham - The Summing Up-) यह 85 साल पहले लिखी हुई किताब 1938 में लिखी गई थी ...क्या गजब किताब है ...उस में उस बंदे ने ज़िंदगी भर के अपने सारे तजुर्बे लिख दिए हैं...पढ़ने लगता हूं ...एक दो सफे पढ़ता हूं तो झट से नींद आ जाती है ...क्या करें, यह लेट कर पढ़ने की बीमारी की वजह से मैंने पहले भी बहुत ख़ता खाई है ..

चलिए, अब इस को बंद करते हैं....लिखता रहूंगा किताबों की सुनहरी दुनिया के बारे में ...हम लोग बचपन से क्या क्या पढ़ते रहे हैं और उन सब से हम ने क्या सीखा ...इन सब के बारे में लिखते रहेंगे ....मैंने कहीं यह भी पढ़ा था कि जहां पर भी आप जाइए, आप अपने पास एक किताब ज़रूर रखिए, किसी को मिलने गए हैं, अभी वक्त लगना है, थोड़ा किताब को ही पढ़ लीजिए...मुझे भी यह बात अच्छी लगी....मैं भी अकसर कहीं भी जाता हूं कुछ न कुछ पढ़ने का मेरे पास रहता ही है...और किताब के हर पन्ने में कुछ सीख है, कोई सवाल है, कोई कौतूहल है, कोई प्रेरणा है....कोई तो उमंग है...और बहुत सी खुशी भी तो है। 

लोगों को सुबह सुबह अल्लाह-ईश्वर याद आता है...मुझे मेरे पसंदीदा बढ़िया बढ़िया 40-50 साल पुराने फिल्मी गीत याद आते हैं...रेडियो पर जिन्हे सैंकड़ों बार सुनते सुनते वे कब हमारे डीएनए में ही शामिल हो गए पता ही न चला .... 😂

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