कुछ मैसेज वाट्सएप पर ऐसे मिलते हैं जो सारा दिन दिमाग में हलचल मचाए रहते हैं...कोई आइडिया मन को इतना अच्छा लगता है कि इच्छा होती है कि इसे अपना ही लिया जाए...
आज सुबह मुझे भी खुशियों का आचार डालने वाला एक मर्तबान मिला ...आप भी इस के दर्शन कर लीजिए..
इस मर्तबान पर लिखा है कि यह खुशियों का जार है ...हर दिन एक ऐसी बात लिखिए जिसने आप को खुश किया हो ..उस कागज़ के पुर्ज़े को इस जार में डालते जाईए...और साल भर यह काम करिए...साल के अंत में उस जार को खोलिए ...और यह देख कर आप हैरान हो जाएंगे की कितनी सुंदर और अद्भुत घटनाएं सारे साल के दौरान घटती रहीं जो आप को खुश करती रहीं...
मुझे यह आइडिया बहुत अच्छा लगा.. मैं सोच रहा हूं कि मैं भी यह काम शुरू कर दूं...देखता हूं...अगर आज ही से शुरू हो जाए तो और भी बढ़िया...मेरे विचारों का कुछ भरोसा नहीं..
मुझे ध्यान यह भी आया कि अकसर हर रोज़ हमें बातें तो वही खुश करती हैं जहां पर हम ने किसी के साथ अच्छे से बर्ताव किया है, ढंग से बात की है, किसी की बात अच्छे से सुन कर उसे रास्ता सुझाया हो ....लंबी लिस्ट है...
और यह संभावना भी है कि अपने बारे में बस अच्छी अच्छी ही बातें लिखते रहना होगा... लेकिन फिर ध्यान आया कि खुशियों के मर्तबान की ऐसी कोई शर्त भी तो नहीं कि अपने मुंह मियां मिट्ठू भी नहीं बन सकते...सीधी सी बात है कि जो मन को खुश करे दिन भर में ...उसे लिखिए और इस मर्तबान में डाल कर छुट्टी करिए..
आज एक ग्रुप पर बात करते हुए यह भी बात ध्यान में आई कि जब हम लोग पुराना समय याद करते हैं तो अकसर दिनों को नहीं याद करते, चंद लम्हें हमारे दिलो-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं...है कि नहीं?
चलिए, मैं कुछ वाकया लिखूंगा....ज़ाहिर है जो बातें मुझे खुश करती हैं वही लिखूंगा...इसे अन्यथा न लिया जाए...वैसे तो मैं भी कमियों का पुतला हूं...जानता हूं...लेिकन यहां पर लिखने के लिए मुझे खुशी देने वाली बातों का जिक्र करूंगा...बिल्कुल एक उदाहरण के तौर पर....शायद किसी को प्रेरणा मिले...
मुझे लगता है कि यह सब लिखना बड़ा घटिया सा लगेगा...जिन बातों को मैंने अभी तक किसी से भी शेयर नहीं किया..लेकिन फिर ब्लॉग तो ब्लॉग है ही...जहां आप अपनी ज़िंदगी की किताब के कुछ पन्ने खोलने की हिम्मत जुटाने लगते हैं...
प्रसाद का भोग..
एक वाकया है कुछ महीने पहले का...मैं सत्संग के लिए बेसन के लड्डूओं का प्रसाद लेकर जा रहा था ..अचानक एक सड़क के किनारे पर मैंने देखा कि एक कमज़ोर दिखने वाली महिला अपने रिक्शे से नीचे उतर कर बैठी हुई है ...अपना माथा पकड़े ...रिक्शेवाला भी परेशान सा पास ही खड़ा है...अब इतना पूछना तो बनता ही था कि क्या हुआ ?..मैंने स्कूटर पास में खड़ा कर दिया और मुझे पता नहीं क्यों लगा कि यह प्रसाद खाने से यह ठीक हो जायेगी...पानी की बोतल तो उन के पास थी ही ....मैंने पूछा कि प्रसाद लेंगे?...तो उस महिला ने मेरी तरफ़ ऐसे देखा जैसे कि मौन सी हामी भरी हो कि हां, लेंगे.....मैंने उसी समय उस डिब्बे को खोला ...उस महिला को, उस के साथ खड़े पुरूष को ...और रिक्शेवाले को वे बेसन के लड्डू दिए...मुझे पता नहीं आज भी लगता है कि जैसे वह उस औरत उस प्रसाद को भोग लगाने की ही इंतज़ार कर रही थी...मेरे सामने ही उस महिला ने प्रसाद खाया और मैं दो मिनट वहीं था...मुझे लगा कि उसे कुछ ठीक सा लग रहा है ...अगर मैं उस दिन वहां से उन लोगों को प्रसाद का भोग लगाए बिना आगे निकल आता...तो शायद मैं अपने आप को कभी माफ़ न कर पाता....मुझे लगा कि मैंने प्रसाद को सही भोग लगवा लिया है .....इस बात ने मुझे बहुत खुशी दी थी...
एक बुज़ुर्ग को लिफ्ट..
अस्पताल के बाहर आते ही जब मैंने एक बुज़ु्र्ग को लिफ्ट दी तो वह झिझकते हुए बैठ तो गए...फिर कहने लगे, वहां छोड़ देना, वहां से आटो ले लूंगा...लेकिन मैंने उन के घर का पता पूछ कर उन्हें घर पर ही पहुंचा दिया...उस दिन भी मुझे बहुत अच्छा लगा...और विशेषकर यह सोच कर और भी अच्छा लगता है कि मैंने यह काम निःस्वार्थ किया...
इस तरह की बातें भी क्या गिनाने के लिए होती हैं...लेकिन अगर ऐसा न करूं तो आप को मेरे हल्केपन का पता कैसे चलेगा!
चलिए..अब आज से मैं तो शुरुआत कर रहा हूं..मेरी मशविरा है कि आप भी कर दीजिए...अच्छा ही नहीं, बहुत ही अच्छा लगेगा....और आप का इस में जा क्या रहा है?..कुछ भी नहीं....आप का मर्तबान आप के पास है, ठीक लगे तो ठीक, वरना वे पर्चियां बाहर कूड़ेदान में फैंक कर आम का आचार उस में भर दीजिएगा....its as simple as that!
वैसे विचारों की उड़ान का भी क्या है, आज खुशियों के मर्तबान को सुबह देख कर आचार तैयार करने वाले पुराने दिनों की रील दिमाग में घूम गई...आज भी आचार तो डाले ही जाते हैं...लेकिन मुझे ४० साल पहले की बातें याद आ गईं जब आचार डालना एक उत्सव से कम नहीं होता था..आधे मोहल्ले को पता होता था कि किस किस घर में आचार तैयार हो चुका है..कौन सी गृहिणी किस आचार में परफैक्ट है ....सब कुछ पता होता था...और जब रिश्तेदार के पास दूसरे शहरों में जाते हुए बिस्तरबंद, सुराही, ट्रंक, एक कमबख्त डालडे का डिब्बा आचार का भर कर भी ले कर जाना होता था...इस के बारे में किसी दिन फिर ठिकाने से लिखेंगे...
वैसे तो आप को ऊपर बताए गये खुशियों के आचार वाले मर्तबान वाला ख्याल कैसा लगा?...हो सके तो लिखिएगा....वरना कोई बात नहीं।
उस मर्तबान के बारे में मेरे मन में एक विचार यह है कि क्या साल बाद इसे खोलने के बाद क्या वे पर्चियां दूसरों के साथ शेयर कर सकते हैं?...I don't think there is any harm!. I won't mind sharing those special happy moments with anybody around whosoever cares to peep into those moments!
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