गुरुवार, 19 नवंबर 2015

डाक्टर, आप की बात टेप ही कर लेता हूं!

इस से पहले की मैं आप को एक वाकया सुनाऊं, मैं आप को उस परिवेश से रू-ब-रू करवाना चाहूंगा जिस में हम पले-बढ़े और जिस में डाक्टर और मरीज कैसे हुआ करते थे!

स्कूल कालेज के दिनों तक हमारा वास्ता इस तरह के सरकारी डाक्टरों से पड़ा जो अपने मरीज़ों की तरफ़ देखे बिना कुछ न कुछ लिख दिया करते थे...बात करना और चेक करना तो दूर, वे पूरी तकलीफ़ सुने बिना अस्पताल में मौजूद दो चार तरह की दवाईयों में से दो का नुस्खा लिख कर थमा देते थे, वे हमें वहीं से मिल जाती थीं...हम घर आकर एक दो खुराक खा लेते थे... बाकी दवाईयां फैंक दिया करते थे, डाक्टरी की बेरूखी की वजह से दवाई खाने की इच्छा ही कहां हुआ करती थी! 

एक दो दिन में तकलीफ़ ठीक हो गई तो ठीक, वरना हमारे पिता जी किसी कैमिस्ट से दो चार खुराकें लाते और वे हमें लग भी जाया करती थी, नहीं तो माता जी के साथ अमृतसर के एक नामचीन डाक्टर कपूर के पास जाना होता था...वह भी बातें कम करते थे लेकिन काम में एक्सपर्ट थे... मुझे अच्छे से याद है मरीज़ सभी डरे-सहमे-सिमटे उन की क्लिनिक की बेंचों पर बैठे रहते थे. बातें ज़्यादा नहीं करते थे, अपना काम जानते थे, लेकिन बंदा चिड़चिड़ा सा था थोड़ा, एक से दूसरी बात पूछने पर भड़क जाता था, आज से चालीस साल पहले वाला ज़माना सीधे साधे लोगों का था, कहने का मतलब यही कि सब तरह के डाक्टर बस जैसे तैसे चल जाया करते थे। 

और जहां तक डाक्टर के पास जाकर ज़्यादा बात करने की बात है, तौबा भई तौबा ...यह हम ने कभी बचपन में देखा ही नहीं, हमारे मां-बाप से ही एक से दूसरी बात डाक्टरों के साथ नहीं होती थी तो हम ने ही क्या करनी थी! बस, दब्बू गूंगे से बन कर बैठे रहते थे।

आज के दौर में जिस तरह से छोटे बच्चे भी आत्मविश्वास से बात करते हैं ...अधिकतर ...उस समय लगता है कि हां, ज़माना बदल चुका है बहुत.... लेकिन कईं बार जब हद पार हो जाती है तो थोड़ा अजीब सा लगता है, मैंने यह नहीं कहा गलत लगता है, यही कहा कि कुछ अलग सा लगता है जैसा कि मैं आप को एक असल वाकया सुनाने लगा हूं।

उस दिन वह अधिकारी मेरे पास आया था... सेकेंड ओपिनियन के लिए...उस की पत्नी का कहीं से इलाज चल रहा था, उसे सेकेंड ओपिनियन चाहिए था। बता रहा था कि घर दूर है, इसलिए बीवी को साथ नहीं ला सकता था। 

जब मुझे उस से बात करते पांच मिनट हो गये तो...उसने कहा कि डाक्टर, अच्छा होगा अगर मैं आप की बात टेप कर लूं..(उसने यही शब्द टेप ही बोला था).....मुझे अजीब नहीं, बहुत ही अजीब लगा था, शायद अटपटा भी ...क्योंकि इस तरह की बातें सुनने की शायद आदत नहीं है ...यह मेरे साथ पहली बात हुआ।

मैंने तुरंत उसे हल्के अंदाज़ में कहा ...नहीं, नहीं, उस की कोई ज़रूरत नहीं है, आप की पत्नी जब आएंगी तो मैं ये सब बातें दोबारा फिर से बता दूंगा.... लेकिन उसने मेरी बात सुनी-अनसुनी कर दी ... और तब तक वह स्मार्ट अधिकारी अपने से भी स्मार्ट फोन पर उंगली चलाने लगा और रिकार्ड का बटन दबा कर फोनवा जेब में रख कर मेरे सामने बैठ गया.......मैंने अगले १५-२० मिनट उस से बात की....लेिकन मुझे बीच बीच में थोड़ा सा अजीब ज़रूर लगता रहा।

अब आप सोच रहेंगे कि मैंने उसे इजाजत ही क्यों दी कि वह मेरा इतना लंबा वार्तालाप रिकार्ड कर ले, उस का जवाब एक तो यह है कि मैं तो इजाजत तभी देता अगर वह मांगता, लेिकन यह तो एक तरह की जबरजस्ती ही समझें......और दूसरी बात जो मेरे ज़हन में उस समय कौंध रही थी वह यही थी कि इसने तो पूछ कर बात रिकार्ड की है, अगर मेरे चेंबर के बाहर ही से यह मोबाइल फोन ऑन कर के अंदर आ जाता तो मैं क्या कर लेता, मुझे क्या पता चल पाता!

और एक ध्यान यह भी आया कि वैसे भी दिन में पता नहीं कितने लोग क्या क्या रिकार्ड कर ले जाते होंगे, हर हाथ में एक स्मार्ट फोन होता है, रिश्तेदार इलाज करवा रहे होते हैं और साथ आने वाला हमारे सामने वाली कुर्सी पर बैठ कर स्मार्ट फोन के साथ लगा रहता है...यही सब सोच कर लगा कि इस अधिकारी को सख्ती से मना ना ही करना मुनासिब है।

वैसे भी आज कल रिकार्डिंग डिवाइस कुछ ज़्यादा ही दिखने लगे हैं....स्टिंग आप्रेशन स्टाईल के ...दो दिन पहले मैं लेपटाप के लिए एक केबल खरीदने गया  था, वहां पर सब तरह के खुफिया कैमरे जो हम लोग टीवी के विज्ञापनों में ही देखते हैं, वे सब बिक रहे थे...खुफिया कैमरे से लैस पेन भी...लेिकन मैंने उन्हें देखने का भी कष्ट नहीं किया......जब ये सब घटिया हरकतें करनी ही नहीं कभी तो इन के चक्कर में पड़ना ही क्यों!

मैंने कभी भी किसी की फोन की बातचीत भी रिकार्ड नहीं की है......मैंने अपने किसी भी फोन में यह फीचर ढूंढने तक की ज़हमत नहीं उठाई...क्योंकि किसी के साथ इस से बड़ा विश्वासघात क्या होगा कि आप बिना उस की जानकारी के उस की बातचीत रिकार्ड कर लें, फिर उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करें.....मैं जिस परिवेश में पला-बढ़ा हूं और जो हमें घर-बाहर से सिखलाई मिली है ,उस के मुताबिक इसे पीठ में छुरा (back stabbing)घोंपना कहते हैं... इसे बहुत गलत समझा जाता है....जब किसी ऐसे आदमी के बारे में पता चल जाता है तो उस की साख ज़ीरो हो जाती है....कोई उस से सलाम-दुआ तक नहीं करना चाहता। आदमी की करेडिबिलिटी बहुत बड़ी पूंजी है, मैं ऐसा समझता हूं....इसलिए किसी के साथ भी विश्वासघात बहुत महंगा पड़ता है। 

कईं साल पहले की बात है ...आठ दस साल पहले की...हमें एक बंदे का पता चला जो सब की बातें रिकार्ड कर लिया करता था ..फिर उसे अपने स्वार्थ के लिए यूज़ भी किया करता था....मुझे याद है कि जिस दिन मुझे यह पता चला... उस दिन से ही मैं उस के साथ फोन पर बात करने से ही कतराने लगा... यहां तक कि वह जब कहीं मिल भी जाता तो यही लगता कि जेब में रखे अपने फोन से ये सारी बातें रिकार्ड कर रहा होगा......और ज़ाहिर सी बात है कि कुछ समय बाद उस के साथ वार्तालाप का स्टाईल कुछ इस तरह का हो गया कि जैसे वह हर बात रिकार्ड कर रहा है... यह कहूं कि उस के बाद उस के साथ बात करने में मज़ा ही नहीं आया...लेिकन अब समय इस तरह से बदला है कि अब यह टेंशन बिल्कुल भी नहीं रही, अब तो ये सब बातें इतनी आम हो गई हैं कि यह इश्यू ही नहीं रहा.....करो, यार, करो रिकार्ड ...और कर लो जहां चाहते हो इसे इस्तेमाल ...लेिकन फिर भी उस दिन जब उस अधिकारी ने मुझे कह कर मेरी बात रिकार्ड की तो मुझे अटपटा सा लगा.......सोचने की बात है कि आखिर मुझे ऐसा लगा क्यों ? कभी फुर्सत में अपने आप से फिर पूछूंगा। मेरे पास भी छिपाने के िलए कुछ भी तो नहीं था!

उस अधिकारी के पास अपनी पत्नी के एक्स-रे की सी.डी थी...जिसे उसने अपने लैपटाप में लगा लिया ...और फिर मेरे से वार्तालाप शुरू किया....सेकेंड ओपिनियन तो क्या, बीच बीच में मुझे उस के प्रश्नों से लग रहा था जैसे वह मेरा वाईवा (viva voce) ले रहा हो.. a sort of structured interview...और मेरे चेंबर से बाहर निकलने से पहले उसने मेरे को दूसरे विशेषज्ञ की प्रिसक्रिप्शन भी दिखाई और पूरी तरह से आश्वस्त हो गया कि जो इलाज चल रहा है वह बिल्कुल दुरूस्त है। 

डाक्टर मरीज के संबंध भी बड़े नाज़ुक और अजीब होते हैं, there are many layers to it...जहां तक हो सके इसे जटिल न बनाया जाए, ऐसा मैं सोचता हूं....सोचता ही नहीं हूं...इसे व्यवहार में भी लाता हूं.....मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता कि मैं किसी विशेषज्ञ को यह पाऊं कि मैं उस की बात को रिकार्ड करना चाहता हूं। 


यह वाकया मेरे साथ उस दिन पहली बार हुआ... लेिकन इस ने मुझे एक सबक सिखा दिया....मैं खुलेपन की बात तो बहुत करता हूं लेिकन मैं इतना भी नहीं खुल पाया हूं कि इस तरह के कोई पहले बता के सारा वार्तालाप रिकार्ड कर के ले जाए.... (बिना बताए चाहे वीडियो बना ले जाए.......हा हा हा हा हा हा हा ....है ना विडंबना...लेिकन जो है, सो है , मैं महानता का ढोंग भी करने से नफ़रत करता हूं!) .... यही सोचा है कि अगली बात जब कोई इस तरह से किसी वार्तालाप को रिकार्ड करने की बात करेगा तो उसे साफ़ साफ़ मना ही कर दूंगा.....मुझे यही ठीक लगता है....विशेषकर जब मरीज साथ आया नहीं है , उस का रिकार्ड दिखा नहीं रहे हो ...बस एक्स-रे दिखा कर ही मुकम्मल रिकार्डिंग कर लेना चाहते हो।

कोई बात नहीं, रिकार्डिंग तो हो गई , लेकिन ना चाहते हुए भी मैंने अपने मन में उस बंदे के बारे में एक ओपिनियन कायम कर लिया(इस काम में तो हम सब एक्सपर्ट हैं ही!!) ...अब जो है सो है! ...I can't help it!

अच्छा, अब चित्रहार की बारी है.....कोई गीत समझ में ही नहीं आ रहा.....चलिए, बचपन के िदनों का एक सुपरहिट गीत ही लगा देते हैं...अभी याद आ रहा है... बड़े दिनों बाद ध्यान में आया है.. अच्छा लगता है!

2 टिप्‍पणियां:

  1. शुक्रिया.....
    सीख देती है ये आलेख
    ऐसा अब करना ही चाहिए....
    भविष्य के लिए
    बिठाया दिमाग में...
    सादर

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