लखनऊ में एक जेल रोड है...मेरा उधर से निकलना अकसर होता है...आगे चल कर यह वीआईपी रोड़ के साथ मिल जाती है...इस जेल रोड़ पर सुबह ६-७ बजे के बाद से ही सारा दिन यातायात की आवाजाही खूब रहती है...मैं शाम के समय विशेषकर जब इस रोड़ पर किसी को टहलते देखता हूं तो मुझे रूक कर उसे कुछ कहने की इच्छा होती है..लेिकन विभिन्न कारणों की वजह से ऐसा कर नहीं पाता हूं..बस, कुछ महीने पहले एक नवयुवक जो जॉगिंग कर रहा था इस रोड़ पर उसे मैंने रूक कर ज़रूर कहा था कि इस तरह के ट्रैफिक में इस तरह की ऐरोबिक कसरत का फायदा कम और नुकसान ज़्यादा हो सकता है..शाम के समय प्रदूषण भी खूब बढ़ जाता है। बात उस की समझ में आ गई थी, मुझे ऐसा लगा था।
इसी रोड़ पर सुबह ६-७ बजे जब लोग टहलते हैं तो कोई चिंता की बात नहीं है, उस समय वातावरण ठीक ही होता है। लेकिन शाम के समय केवल जॉगिंग करना ही नहीं, आधा-एक घंटा टहलना भी ऐसी रोड़ पर सेहत के लिए अच्छा नहीं हो सकता।
लिखते लिखते ध्यान आ गया...आज कल के जिम कल्चर के दिनों में...मैंने जो नोटिस किया है ...लोग कुछ इस तरह से सोचने लग गये हैं कि जिस समय टाइम मिले या जो स्लॉट जिम का खाली हो, उसी समय जा कर वर्क-आउट कर आएंगे...विभिन्न कारणों की वजह से महिलाओं में तो मैंने विशेष देखा है कि सुबह नाश्ते के बाद जिम या लंच से पहले जिम या दोपहर में जिम हो कर आ जाती हैं। मुझे लगता है कि यह भी बॉयोलॉजिक क्लाक की कहीं न कहीं अनदेखी है...ईश्वर ने हमारे शरीर में एक बेहद सुंदर, नैसर्गिक घड़ी फिट कर रखी है कि हर काम करने का एक टाइम लगभग फिक्स कर दिया गया है--खाने का समय, काम करने का, टहलने का, सोने का, पढ़ने का ...कुछ भी। अगर हम उस के अनुसार चलते हैं तो फायदे में रहते हैं, वरना अपने मेटाबॉलिज़्म को गड़बड़ा देते हैं।
यह जो मैंने वक्त बेवक्त जिम जाने की बात करी है, इस से यह तो ज़रूर होगा कि चर्बी पिघल जाए...ज़रूर वजन कम हो जाता होगा... (अब जब भी मैं यह शब्द "होगा" इस्तेमाल करता हूं तो मुझे फिल्म आंखो-देखी याद आ जाती है...
बड़ी मजेदार फिल्म है, देखिएगा...मैंने तो तीन चार बार देख ली, मुझे बहुत पसंद आई) ...लेिकन जब हम लोग सुबह टहलने निकलते हैं, योगाभ्यास, प्राणायाम् करते है, कुछ भी व्यायाम आदि करते हैं....प्रकृति के सान्निध्य की वजह से ..सेहतमंद रहने की हमारी कोशिशों में चार चांद तो लग ही जाते हैं...उन से होने वाले लाभ कईं गुणा बढ़ जाते हैं....प्रदूषण ना के बराबर होता है, एक बात....दूसरी बातें, जैसे प्रातःकाल की अनुपम छटा, उदय होता सूरज, पक्षियों का चहचहाना....सब कुछ कितना आनंद देने वाला होता है...यह नैसर्गिक अनुकम्पा हमें दिन की शुरूआत अच्छे से करने में बेहद मदद करती हैं...
ये सब बातें आज आप से करने की इच्छा सुबह से हो रही थी...आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में एक खबर पढ़ी कि चिकित्सा विशेषज्ञों ने लोगों को सचेत किया है कि शाम के समय टहलना सेहत के लिए खराब है...यह बात उन्होंने विशेषकर सांस के रोगियों के लिए कही है.....आप इस खबर को नीचे दी गई तस्वीर पर क्लिक कर के अच्छे से पढ़ सकते हैं... देखिएगा... बाकी, बातें तो ऊपर आप से साझा कर ही ली हैं।
लेकिन जाते जाते मन हो रहा है कि कुछ ऐसी बातें तो ज़रूर यहां दर्ज कर ही दूं जिस के द्वारा हम लोग अपनी बॉयोलाजिक घड़ी को खराब करने में और अपनी मैटाबॉलिज्म को पटरी से उतारने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते ..
टहलने, घूमने, व्यायाम करने की बातें चलती हैं तो फिर जागर्ज़ पार्क फिल्म का ध्यान आ ही जाता है, क्या आपने वह फिल्म देखी है, अगर नहीं तो देखिएगा...यू-ट्यूब पर पड़ी है...
इसी रोड़ पर सुबह ६-७ बजे जब लोग टहलते हैं तो कोई चिंता की बात नहीं है, उस समय वातावरण ठीक ही होता है। लेकिन शाम के समय केवल जॉगिंग करना ही नहीं, आधा-एक घंटा टहलना भी ऐसी रोड़ पर सेहत के लिए अच्छा नहीं हो सकता।
लिखते लिखते ध्यान आ गया...आज कल के जिम कल्चर के दिनों में...मैंने जो नोटिस किया है ...लोग कुछ इस तरह से सोचने लग गये हैं कि जिस समय टाइम मिले या जो स्लॉट जिम का खाली हो, उसी समय जा कर वर्क-आउट कर आएंगे...विभिन्न कारणों की वजह से महिलाओं में तो मैंने विशेष देखा है कि सुबह नाश्ते के बाद जिम या लंच से पहले जिम या दोपहर में जिम हो कर आ जाती हैं। मुझे लगता है कि यह भी बॉयोलॉजिक क्लाक की कहीं न कहीं अनदेखी है...ईश्वर ने हमारे शरीर में एक बेहद सुंदर, नैसर्गिक घड़ी फिट कर रखी है कि हर काम करने का एक टाइम लगभग फिक्स कर दिया गया है--खाने का समय, काम करने का, टहलने का, सोने का, पढ़ने का ...कुछ भी। अगर हम उस के अनुसार चलते हैं तो फायदे में रहते हैं, वरना अपने मेटाबॉलिज़्म को गड़बड़ा देते हैं।
यह जो मैंने वक्त बेवक्त जिम जाने की बात करी है, इस से यह तो ज़रूर होगा कि चर्बी पिघल जाए...ज़रूर वजन कम हो जाता होगा... (अब जब भी मैं यह शब्द "होगा" इस्तेमाल करता हूं तो मुझे फिल्म आंखो-देखी याद आ जाती है...
बड़ी मजेदार फिल्म है, देखिएगा...मैंने तो तीन चार बार देख ली, मुझे बहुत पसंद आई) ...लेिकन जब हम लोग सुबह टहलने निकलते हैं, योगाभ्यास, प्राणायाम् करते है, कुछ भी व्यायाम आदि करते हैं....प्रकृति के सान्निध्य की वजह से ..सेहतमंद रहने की हमारी कोशिशों में चार चांद तो लग ही जाते हैं...उन से होने वाले लाभ कईं गुणा बढ़ जाते हैं....प्रदूषण ना के बराबर होता है, एक बात....दूसरी बातें, जैसे प्रातःकाल की अनुपम छटा, उदय होता सूरज, पक्षियों का चहचहाना....सब कुछ कितना आनंद देने वाला होता है...यह नैसर्गिक अनुकम्पा हमें दिन की शुरूआत अच्छे से करने में बेहद मदद करती हैं...
इसे अच्छे से पढ़ने के लिए इस पर क्लिक करिए....और इस बात को गांठ बांध लीजिए |
लेकिन जाते जाते मन हो रहा है कि कुछ ऐसी बातें तो ज़रूर यहां दर्ज कर ही दूं जिस के द्वारा हम लोग अपनी बॉयोलाजिक घड़ी को खराब करने में और अपनी मैटाबॉलिज्म को पटरी से उतारने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते ..
- रात को देर से सोना, सुबह देर से उठना, नींद का पूरा न होना...
- सुबह नाश्ता नहीं करना
- दोपहर को खाना टाल देना, जंक-फूड से काम चला लेना ..बार बार चाय पीते रहना
- रात को बहुत लेट खाना और भारी खाना, और खाते ही बिस्तर पकड़ लेना
टहलने, घूमने, व्यायाम करने की बातें चलती हैं तो फिर जागर्ज़ पार्क फिल्म का ध्यान आ ही जाता है, क्या आपने वह फिल्म देखी है, अगर नहीं तो देखिएगा...यू-ट्यूब पर पड़ी है...
बड़े काम और पते की बाते....... शुक्रिया जी।
जवाब देंहटाएंDhanyawaad....
हटाएंThanks
जवाब देंहटाएं