परसों रात हम लोगों ने काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस से लखनऊ से दिल्ली जाना था..यह गाड़ी रात पौन बजे लखनऊ स्टेशन से छूटती है।
लगभग १५-२० मिनट पहले हम लोग स्टेशन पर पहुंच गये थे...मैंने अपनी श्रीमति जी और बेटे को बोलो कि वे आगे चलें और आराम से गाड़ी में जा कर बैठे...तब तक गाड़ी प्लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी...उद्घोषणा हो रही थी।
मैं मां के साथ धीरे धीरे चल रहा था...हम लोग किसी दूसरे प्लेटफार्म तक पहुंचने वाले पुल पर चले गये...फिर वहां से दूसरे पुल के लिए सीढियां चढ़ना...बुज़ुर्ग शरीर के लिए मुश्किल सा था...फिर भी धीरे धीरे चलते रहे।
लेकिन अभी प्लेटफार्म नं ६ तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां उतर ही रहे थे ..बस पांच छः सीढ़ियां ही उतरनी बाकी थीं कि गाड़ी चल दी।
मन में बहुत अफसोस तो हुआ चंद मिनट....कि काश १०-१५ सैकेंड के लिए ट्रेन थम जाती तो हम लोग किसी भी डिब्बे में चढ़ ही जाते ...उसी समय मैंने बेटे को फोन लगाया कि मम्मी को कहो कि गाड़ी रोकने के लिए चेन खींच दें। मैं भी यही उम्मीद के साथ वहां खड़ा था कि अगर गार्ड मुझे देख लेगा और मेरे कहने पर शायद गाड़ी रोक देगा..मुझे हल्की सी बस यही उम्मीद थी।
मैं और मेरी मां स्टेशन पर खड़े थे...गाड़ी आगे निकल रही थी...भाग कर पकड़ने का सवाल ही नहीं होता था...लखनऊ वाले घर की चाभीआं श्रीमति जी के पास थीं...मन को थोड़ा बुरा तो लगा।
लेकिन तभी गाड़ी धीमी हुई और थम गईं....सामने जनरल डिब्बा आया...उस में घुसना नामुमकिन था...साथ वाला डिब्बा पेन्ट्री कार वाला था...उस में हम जल्दी जल्दी चढ़े और ट्रेन चल दी...आप यह जानिए की ट्रेन १०-१२ सैकेंड के लिए ही थमी थी।
हम लोग धीरे धीरे अपने रिज़र्वेशन वाले कोच तक पहुंच गए। वहां जाकर पता चला कि श्रीमति जी ने ट्रेन की ज़ंज़ीर खींचने की कोशिश तो की ...लेकिन वह जंज़ीर टस से मस न हुई। तो फिर सोचने वाली बात यही है कि आखिर ट्रेन १० सैकेंड के लिए कैसे रूक गई.....मैं इन बातों को ज़्यादा समझने की कोशिश नहीं करता......बस ईश्वरीय अनुकंपा समझ कर इस ईश्वर का शुकराना करना नहीं भूलता।
यह स्टोरी क्यों लिखी, आप को बोर करने के लिए?.... नहीं, ऐसा कोई उद्देश्य नहीं था......बस, जब उस दिन गाड़ी में चढ़े तो यही ध्यान बार बार आ रहा था कि हम लोग भी अकसर बहुत से लोगों को मिलते ही हैं जो बड़े बेबस, लाचार होते हैं.....अपनी परिस्थितयों की वजह से.....लेकिन वे इतनी दयनीय स्थिति में होते हैं कि वे अपनी बात भी ठीक से हमारे समक्ष नहीं रख पाते, हमारा कुछ भी बिगाड़ने की स्थिति में होते नहीं, हमें भविष्य में उन से कोई काम निकालने की अपेक्षा होती नहीं......मैं तो बस इतना जानता हूं कि इस तरह के लोगों की उन की बेबसी के इन क्षणों में हमारा व्यवहार उन के साथ कैसा होता है, बस यही ज़िंदगी का फ़लसफ़ा है.......जो मैं समझ पाया हूं.......बाकी तो भाई सब लेन देन के सौदे हैं, उस से मुझे यह काम है, उसे मुझ से यह काम है....वह मेरे कितने काम है....बस, हमारा व्यवहार इसी तरह की बातों पर निर्भर करता है..अधिकतर, लेकिन यह तो बिजनेस है, है कि नहीं?
मैं अपने आप से अकसर यह प्रश्न करता रहता हूं कि किसी अनजान, बेबस, लाचार इंसान की मदद करने के लिए आखिरी बार मैंने कब कुछ किया था?.....दिल की बातें दिल ही जाने!! चलिए, दिल की बात से एक गीत याद आ गया, इसलिये लिखने को यही विराम लगाता हूं...
लगभग १५-२० मिनट पहले हम लोग स्टेशन पर पहुंच गये थे...मैंने अपनी श्रीमति जी और बेटे को बोलो कि वे आगे चलें और आराम से गाड़ी में जा कर बैठे...तब तक गाड़ी प्लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी...उद्घोषणा हो रही थी।
मैं मां के साथ धीरे धीरे चल रहा था...हम लोग किसी दूसरे प्लेटफार्म तक पहुंचने वाले पुल पर चले गये...फिर वहां से दूसरे पुल के लिए सीढियां चढ़ना...बुज़ुर्ग शरीर के लिए मुश्किल सा था...फिर भी धीरे धीरे चलते रहे।
लेकिन अभी प्लेटफार्म नं ६ तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां उतर ही रहे थे ..बस पांच छः सीढ़ियां ही उतरनी बाकी थीं कि गाड़ी चल दी।
मन में बहुत अफसोस तो हुआ चंद मिनट....कि काश १०-१५ सैकेंड के लिए ट्रेन थम जाती तो हम लोग किसी भी डिब्बे में चढ़ ही जाते ...उसी समय मैंने बेटे को फोन लगाया कि मम्मी को कहो कि गाड़ी रोकने के लिए चेन खींच दें। मैं भी यही उम्मीद के साथ वहां खड़ा था कि अगर गार्ड मुझे देख लेगा और मेरे कहने पर शायद गाड़ी रोक देगा..मुझे हल्की सी बस यही उम्मीद थी।
मैं और मेरी मां स्टेशन पर खड़े थे...गाड़ी आगे निकल रही थी...भाग कर पकड़ने का सवाल ही नहीं होता था...लखनऊ वाले घर की चाभीआं श्रीमति जी के पास थीं...मन को थोड़ा बुरा तो लगा।
लेकिन तभी गाड़ी धीमी हुई और थम गईं....सामने जनरल डिब्बा आया...उस में घुसना नामुमकिन था...साथ वाला डिब्बा पेन्ट्री कार वाला था...उस में हम जल्दी जल्दी चढ़े और ट्रेन चल दी...आप यह जानिए की ट्रेन १०-१२ सैकेंड के लिए ही थमी थी।
हम लोग धीरे धीरे अपने रिज़र्वेशन वाले कोच तक पहुंच गए। वहां जाकर पता चला कि श्रीमति जी ने ट्रेन की ज़ंज़ीर खींचने की कोशिश तो की ...लेकिन वह जंज़ीर टस से मस न हुई। तो फिर सोचने वाली बात यही है कि आखिर ट्रेन १० सैकेंड के लिए कैसे रूक गई.....मैं इन बातों को ज़्यादा समझने की कोशिश नहीं करता......बस ईश्वरीय अनुकंपा समझ कर इस ईश्वर का शुकराना करना नहीं भूलता।
यह स्टोरी क्यों लिखी, आप को बोर करने के लिए?.... नहीं, ऐसा कोई उद्देश्य नहीं था......बस, जब उस दिन गाड़ी में चढ़े तो यही ध्यान बार बार आ रहा था कि हम लोग भी अकसर बहुत से लोगों को मिलते ही हैं जो बड़े बेबस, लाचार होते हैं.....अपनी परिस्थितयों की वजह से.....लेकिन वे इतनी दयनीय स्थिति में होते हैं कि वे अपनी बात भी ठीक से हमारे समक्ष नहीं रख पाते, हमारा कुछ भी बिगाड़ने की स्थिति में होते नहीं, हमें भविष्य में उन से कोई काम निकालने की अपेक्षा होती नहीं......मैं तो बस इतना जानता हूं कि इस तरह के लोगों की उन की बेबसी के इन क्षणों में हमारा व्यवहार उन के साथ कैसा होता है, बस यही ज़िंदगी का फ़लसफ़ा है.......जो मैं समझ पाया हूं.......बाकी तो भाई सब लेन देन के सौदे हैं, उस से मुझे यह काम है, उसे मुझ से यह काम है....वह मेरे कितने काम है....बस, हमारा व्यवहार इसी तरह की बातों पर निर्भर करता है..अधिकतर, लेकिन यह तो बिजनेस है, है कि नहीं?
मैं अपने आप से अकसर यह प्रश्न करता रहता हूं कि किसी अनजान, बेबस, लाचार इंसान की मदद करने के लिए आखिरी बार मैंने कब कुछ किया था?.....दिल की बातें दिल ही जाने!! चलिए, दिल की बात से एक गीत याद आ गया, इसलिये लिखने को यही विराम लगाता हूं...