रविवार, 17 अक्टूबर 2010

सुबह-सवेरे टहलने का प्रेरणादायी जज़्बा

मैं अभी अभी साइकिल पर टहल कर आ रहा हूं—जहां हम रहते हैं वहां आसपास हरे-भरे खेतों से घिरे गांव हैं। मैंने एक-डेढ़ महीने से यह रूटीन बनाई है कि दिन में लगभग एक घंटा साईकिल चला लेता हूं। अच्छा लगता है। तीन-चार किलो वजन भी कम हुआ है। लेकिन जिस बात ने आज सुबह मुझे हिला दिया और जिस ने मुझे आज तीन महीने बाद वापिस चिट्ठा लिखने के लिये विवश किया वह यह है।

मैंने आज सुबह एक बुज़ुर्ग को गांव में टहलते देखा ---इस में क्या खास बात है? लेकिन इस में खास बात यह है कि वह बंदा कोई सामान्य बंदा नहीं था --- उस की एक टांग में कुछ समस्या थी जिस की वजह से वह मुश्किल से चल पा रहा था, और दूसरे हाथ में उस ने लाठी पकड़ रखी थी लेकिन मैं जिस वजह से उसे देखता रह गया वह यह थी कि उस के यूरिन-बैग लगा हुआ था जिसे उस ने अपनी बाजू पर टांग रखा था। मैं वापिस लौटता उस बहादुर इंसान के ज़ज़्बे की मन ही मन प्रशंसा कर रहा था।

मैं उस की शारीरिक मानसिक परिस्थिति के बारे में नहीं जानता लेकिन इतना तो मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि उस की जैसी भी हालत है उसे इस टहलने का लाभ तो मिलेगा ही। और मैंने उस अनजान आदमी के स्वास्थ्य लाभ की भरपूर कामना की।

मैं लगभग तीन महीने चिट्ठाकारी से दूर रहा –कईं कारण थे, जॉब में व्यस्त था। और मुझे कुछ कुछ यह लगने लग गया था कि इंटरनेट की वजह से मुझे सिरदर्द और गरदन में दर्द होने लगा है और मैं चिड़चिड़ा सा होने लगा हूं –सुबह उठते ही मैं लैपटाप के आगे सज जाता था। लेकिन अब वह आदत छूट चुकी है--- अपने आप को भी समय देना इंटरनेट से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है। वैसे इस दौरान मैंने अपनी एक वेबसाइट भी लांच की है --- हैल्थ बाबा.... कभी हो सके तो देखना।

हां, तो मैं उस बुज़ुर्ग बंदे की बात जब सोच रहा था तो यही ध्यान आ रहा था कि बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो हृष्ट-पुष्ट होते हुये भी किसी तरह की शारीरिक कसरत से दूर भागते हैं, टहलने से कतराते हैं और अकसर इस सब के चलते हम लोग बीसियों तरह की शारीरिक एवं मानसिक विपदाओं को बुलावा दे बैठते हैं। काश, हम सब लोग समय रहते समझ जाएं और सुबह सवेरे लैपटाप की बजाए प्रकृति के साथ अपना समय बिताना शुरू कर दें ---सिर का दर्द, गरदन का दर्द अपने आप भाग जायेगा---जैसे मेरा भाग गया।