सोमवार, 2 जून 2008

क्या करें नए रचनाकार....

नए लेखकों को क्या करना चाहिए ?...इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं प्रख्यात लेखक मुद्राराक्षस। ......दोस्तो, मैंने यह जबरदस्त लेख तीन साल पहले एक अखबार में पढ़ा था, इस ने मुझे इतना कुछ कह दिया कि मैंने इस की कतरन अपनी नोटबुक में लगा रखी है। आज अपने स्टडी-रूम की सफाई करते करते जब इस कापी के ऊपर नज़र पड़ी तो सोचा कि यार, यह तो आप सब से शेयर करने वाली क्लिपिंग है। सो, इस को जैसे का तैसे ही लिख रहा हूं।
युवा रचनाकारों को कोई सलाह दे पाना मुश्किल काम है। लगभग 54 बरस हो गए हैं लिखते और छपते लेकिन हर नई चीज़ के लिए कलम उठाने से पहले गहरी उलझन होती है कि वह लिखने के लिए मेरे पास पूरी तैयारी नहीं है।
सार्त्र ने आत्मकथा में लिखा था कि लेखन एक बंदूक होता है। बंदूक सिर्फ उसका घोड़ा दबाने से ही काम नहीं करती । उससे निशाना लेने के लिए लंबे और श्रमसाध्य अभ्यास की जरूरत होती है। फिर बंदूक चलने पर निशाना ही नहीं लगाती, वह चलाने वाले को भी भरपूर धक्का देती है।
कुछ निशानेबाजी तो सिर्फ कौशल के लिए होती है और कुछ कारगर। लेखन भी बहुत कुछ ऐसी ही चीज़ है।
युवा लेखक को सलाह इसलिए भी मुश्किल काम है कि हर लेखक नई दुनिया खोजता है। उसे कौन बता सकता है कि तुम अमुक को खोजो क्योंकि जिस अमुक की सलाहें दी जाएंगी वह तो सलाह देने वाले की खोज है। क्या निराला को किसी ने बताया था कि तुम ऐसी कविता लिखो? आइन्सटाइन को किसने बताया था कि वे क्वाण्टम फिजिक्स का नया इतिहास रचें बल्कि उनके अध्यापक तो उनके काम से गहरी असहमति जताते थे। नए लेखक को एक घबराहट ज़रूर होती है कि उसकी रचना अक्सर छप नहीं पाती या संपादक अस्वीकार कर देता है। कुछ लेखकों को संयोग से यह कभी नहीं झेलना पड़ता लेकिन ऐसा कुछ झेला तो भवभूति जैसे शिखर के संस्कृत नाटककार ने भी , तभी उसने लिखा था कि धरती बहुत बड़ी है और समय निरवधि है, कभी तो लोग पहचानेंगे। और वे पहचाने गए।
निराला का विरोध भी हुआ और उनकी रचनाएं अस्वीकृत भी हुईं....तभी उन्होंने लिखा था ....एक संपादकगण निरानंद, वापस कर देते पढ़ सत्वर, दे एक पंक्ति दो में उत्तर। मुक्तिबोध तो बड़े उदाहरण हैं कि उनकी कोई कविता या निबंध की किताब उनके जीवनकाल में नहीं छपी थी। कभी-कभी किसी तेजस्वी लेखक के साथ यह भी होता है। इसके लिए भी लेखक को तैयार रहना चाहिए।
एक विनम्र सुझाव देना चाहूंगा...किसी भी रचना को लिखने से पहले व्यापक अध्ययन ज़रूरी होता है। अपने समय का ओर अपने इतिहास में जो कुछ लिखा गया वह गंभीरता से पढ़ना चाहिए। दुनिया में क्या लिखा गया, इसका भी बोध होना चाहिय, तभी पता लग सकता है कि कितना और कैसा क्या कुछ लिखा गया है। तभी यह भी पता लगता है कि जो कुछ लिखा जा चुका है उससे अलग और बेहतर कुछ कैसे लिखा जा सकता है।
PS…..मुझे लेखक मुद्राराक्षस जी की सभी बातें बहुत भा गई। हिंदी चिट्ठाकारी में बहुत से साहित्यकार हैं...अगर मुद्राराक्षस जी के लेखन एवं जीवन के बारे में बतलाने का कष्ट करेंगे तो अच्छा लगेगा।
देखिये , आज एक बार फिर इस पोस्ट को लिखने के चक्कर में मेरा स्टड़ी-रूम साफ होते होते रह गया। ....पता नहीं इस कबाड़खाने की किस्मत कब खुलेगी.....दोस्तो, यह रूम इतना ज़्यादा अव्यवस्थित है कि मुझे यहां बैठ कर कुछ लिखे पढ़े महीनों बीत जाते हैं।

2 टिप्‍पणियां:

  1. लेखक मुद्राराक्षस जी की सभी बातें मुझे भी बहुत भा गई। लिखने के साथ साथ पढ़ना तो बहुत ही जरुरी है अन्यथा बस एक सोच, एक लेखन चलता जायेगा जो उबा कर रख देगा.

    आभार इस लेख को यहाँ प्रस्तुत करने का.

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  2. अच्छी बात बताई। मुद्राजी लखनऊ में रहते हैं। राष्ट्रीय सहारा अखबार में उनके नियमित लेख प्रकाशित होते हैं।

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