इस बात से मुझे हमेशा से बड़ी तकलीफ़ होती है कि अधिकतर धार्मिक संस्थानों में अथवा इन के द्वारा किए गए विभिन्न आयोजनों में जैसे सत्संगों इत्यादि में कुछ लोगों को व्हीआईपी ट्रीटमैंट दी जाती है। मुझे यह बहुत ओछा लगता है। यार, सारी जिंदगी़ तो हम झूठ में ही निकाल देते हैं---बस एक इन सत्संगों में ही तो एकदम सच्चाई से अपने अंदर झांकने का मौका मिलता है जो भी इस हरकत से छीन ही लिया जाता है। वैसे तो यह बात इतनी बड़ी नहीं लगती- लेकिन आप इस के दूसरे भी परिणाम देखिए तो -- सत्संग में बैठे दूसरे लोगों के मन मैं कैसा लगता होगा, वहां पर बैठे सब लोग एक ही हैं न तो फिर उन में कौऩ ऊंचा कौन नीचा। कई बार तो अच्छे कपड़े पहने हुए सज्जनों को पीछे जा कर- जहां पर भी उस समय जगह उपलब्ध हो-बैठना बहुत अखरता है। मेरा तो दृढ़ विश्वास यही है कि अगर सत्संग में जाकर भी हमारे मन से यह भावना नहीं गई तो फिर सत्संग में जाकर करना क्या .......
आयोजकों को भी इस तरफ ध्यान देना जरूरी है। वैसे अगर व्ही आई पी ही थोड़ी विनम्रता से इस तरह की ट्रीटमैंट से इंकार कर दिया करें तो क्या अच्छा नहीं होगा............................आप का क्या ख्याल है?
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