मंगलवार, 11 मार्च 2008
आ जाओ पंजाब दा इक गीत सुनिये( आइए पंजाब का एक जबरदस्त गीत सुनें !)
अभी अभी मुझे बैठे बैठे एक बहुत ही मशहूर पंजाबी गीत की याद आ रही है.....आप भी सुनिए और आनंद लूटिये। इस में एक पंजाबी मुटियार अपने ट्रक-ड्राइवर पति की प्रतीक्षा करते करते बेहाल हो रही है, उस की सखियां उस से छेड़खानी कर रही हैं ,उस का प्यारा सा बेटा अपनी दुनिया में खोया रहता है और आग इधर ही नहीं लगी, दूसरी तरफ उस का घरवाला ( पति) भी अपने ट्रक के टूर के दौरान अपनी बीवी और बच्चे की याद में टाइम धकेलता रहता है। फिर वे अपनी अपनी जगह पर एक साथ बिताये हुये पलों को याद कर खुश होते रहते हैं।
रविवार, 9 मार्च 2008
जागो ग्राहक जागो, लेकिन फिर ?
हां, लेकिन ग्राहक जाग कर भी आखिर कर क्या लेगा ! अभी अभी बाज़ार से हो कर आ रहा हूं। कुछ दिन पहले एक दुकानदार को कोर्डलैस फोन के लिए पैनासॉनिक की ओरिजिनल बैटरी के लिये बोल कर आया था। कह रहा था कि दिल्ली से मंगवानी पड़ेगी.....सो, आज लेने गया तो उस ने एक बैटरी उस कोर्डलैस के हैंड-सैट में डाल दी और मैं उसे 125 रूपये थमा दिये।
लेकिन जब मैंने उस बैटरी की तरफ़ देखा तो मुझे लगा कि यह तो ऐसे ही कोई चालू सा ब्रांड है, ऐसे ही लोकल मेक....बस उस की पेकिंग पर केवल ग्रीन-पावर लिखा हुया था....ना कोई आईएसआई मार्क, न ही कोई अन्य डिटेल्स..........सीधी सी बात कि मैं एक बार फिर उस दुकानदार के हाथों उल्लू बन गया था।
मैंने उस से पूछा कि तुम्हें तो ओरिजिनल बैटरी के लिये कहा था , लेकिन वह कहने लगा कि ओरिजिनल अब कहां मिलती हैं....यह जो आप ने पहले से इस में डलवाई हुई है,वह तो बिल्कल ही डुप्लीकेट है जो कि 75रूपये में ही मिल जाती है और यह केवल आठ महीने चलेगी। लेकिन यह जो बैटरी अभी मैंने डाली है ...इस की कोई कंप्लेंट हमारे पास आई नहीं है और कम से कम एक साल तक चलेगी। मैं समझ गया कि अब एक बार फिर से बेवकूफ़ बन तो गया हूं ....अब ज़्यादा इस से बात करने से कुछ हासिल होने वाला तो है नहीं। इसलिए मैंने उस को यह भी बताना ठीक नहीं समझा कि यह जो बैटरी जिसे वह डुप्लीकेट कह रहा है वह तो इस कोर्डलेस के साथ खरीदते वक्त ही मिली थी और पिछले चार सालों से ठीक ठाक बिना किसी कंप्लेंट के चल रही थी....अब खत्म हुई है।
सही सोच रहा हूं कि हमारे यहां पर ग्राहक का तो बस हर तरफ़ शोषण ही शोषण है....पढ़ा-लिखा बंदा कहीं यह सोचने की हिमाकत भी न कर बैठे कि अनपढ़ या कम पढ़े लिखे लोग ही उल्लू बना करते हैं। देखिए, इस की एक जीती-जागती उदाहरण आप के सामने मौज़ूद है। क्या है ना , इन सब बातों से फ्रस्ट्रेशन होती है कि जब कोई ओरिजिनल चीज़ के लिये कहता है और मोल-भाव भी नहीं करता तो भी उसे ओरिजिनल चीज़ नहीं मिलती। अब यहां पर रोना तो इसी बात का है।
यह तो एक उदाहरण है..............ऐसे सैंकड़ों किस्से हम और आप अपने मन में दबाये हुये हैं और दबाये ही रहेंगे क्योंकि दैनिक दिनचर्या में हम लोग इतने पिसे हुये हैं कि हमारा यही एटिट्यूड हो जाता है......यार, भाड़ में जायें ये सौ-दो-सौ रूपये..................दफा करो..............कौन इतनी माथा-पच्ची करे ! बस, इतना सुकून है कि एक लेखक होने के नाते अपनी सारी फ्रस्ट्रेश्नज़ ( सारी बिल्कुल नहीं, बहुत कुछ दबा कर रखा हुया है, लेकिन आप लोगों से प्रोमिस कर चुका हूं कि एक न एक दिन सारा पिटारा आप के सामने खोल दूंगा.....फिर चाहे उस का कुछ भी हो अंजाम....परवाह नहीं करूंगा.................लेकिन वह समय कब आयेगा, मुझे भी पता नहीं) ...अपनी उंगलियों को की-बोर्ड पर पीट पीट कर निकाल लेता हूं...............what a great stress-buster, indeed!.....Isn’t it?.
लेकिन, हां, यकीन मानिये मैं किसी ग्राहक संगठन या किसी ट्रेंडी से नाम वाले उपभोक्ता संगठन में अपना दुःखड़ा रोने नहीं जाऊंगा। बस, आप तक अपनी बात पहुंचा दी है ना, चैन सा आ गया है..............जो कि दोपहर में किसी दूसरे दुकानदार के द्वारा मूर्ख बनाये जाने से पहले बहुत ज़रूरी था।
लेकिन, हां, यकीन मानिये मैं किसी ग्राहक संगठन या किसी ट्रेंडी से नाम वाले उपभोक्ता संगठन में अपना दुःखड़ा रोने नहीं जाऊंगा। बस, आप तक अपनी बात पहुंचा दी है ना, चैन सा आ गया है..............जो कि दोपहर में किसी दूसरे दुकानदार के द्वारा मूर्ख बनाये जाने से पहले बहुत ज़रूरी था।
मैंने भी आज संडे के दिन आप का मूड भी आफ कर दिया है.....सो, चलिये अब थोडा मूड फ्रैश करते हैं , चलिये आप मेरी पसंद का एक गाना सुनिये..................यह गाना भी वह गाना है जिसे मैं सुनते कभी थक नहीं सकता !!...
पंजाबी अखबार पढ़ के वी हुन मज़ा नहीं आंदा..
मैं समझदा हां कि अपनी मां -बोली दा गियान होना वी बहुत ज़रूरी है.....सानू्ं अपनी गल अपनी मां-बोली विच कहन च फखर वी महसूस होना चाहीदै। साडे सिर ते अपनी इस मां बोली दा इक बड़ा वड्डा करजा ऐ जिहडा सानूं थोडा़ जिहा तां लाउन दी कोशिश करनी ही चाहीदे ऐ......पूरा भार तां असीं लाउन दी सोच ही नहीं सकदे। पता नहीं अज कल मियारी अखबार क्यों नहीं लभदे.............इक आम बंदा ऐ ..उस नूं नेट नाल कोई सरोकार नहीं, उस दा महंगे महंगे रसालियां नाल वी कोई ऐडा कोई रिश्ता नहीं.....बस, उस दा तां रिश्ता है उस दी अपनी लोकल भाषा दे अखबार नाल....पर , हुन ऐह वी मसला बनिया होया ऐ कि आम बंदे तक असीं किवें अपनी गल बिना तोडे -मरोडे पहुंचा सकिये।
हां, जे कर तुसीं किसे पंजाबी ब्लोग ऐगरीगेटर बारे जानदे हो तां मैंनूं दसियो......होर तुसीं की की चाहंदे हो कि इस ब्लोग विच कवर होवे ,मैनूं लिखयो.....मैं पूरी कोशिश करांगा। अपनी मां-बोली विच वी लिखना किन्ना आसान ऐ ...बंदा नूं लगदै जिवे अपने यारा मितरां नाल गप्पां ही मार रिहा होवे। बस अजे एत्थे ही ब्रेक लानां वां.............मितरो, बोर ते नहीं हो रहे ना, जेकर कुछ अजेही गल वी होवे तां दस ज़रूर देयो................आपां उस्से वेले बंद कर दियांगे।
अच्छा , बेलीयो....................अगली पोस्ट तक रब राखा
आ जाओ मितरो थोडी गप-शप वी तां कर लईये !
चलो, अपने पिंड अंबरसर तो ही गल शुरू करदा हां....मैं उत्थे ही जमिया पलिया और उत्थे ही अपनी सारी पढ़ाई होई है, सो, मैंनू उस शहर नाल बहुत ही प्यार है। किहड़ा दिन होवेगा जदों मैं अपने शहर नूं याद नहीं करदा। बस, सब पुरानी गलां लगदियां हन ते तुहाडे सारेयां नाल दिल खोल के सांजियां करनीयां ने।
वैसे हुने हुने मैंनू उस कमल हीर दा उह गाना जिहडा मैंनू बडा ही पसंद है याद आ रिहा ऐ।
बैठ के त्रिंजना च सोहनीये,
कड्ढें जदों चादर उत्ते फुल तूं..
किन्नू याद कर कर हसदी ,
चुन्नी च लुका के सूहे बुल तूं।...
बस, अज ते मैं थोडी इंटरोडक्शन ही देनी सी। दसियो, तुहानूं मेरा ऐह ख्याल किद्दां दा लग्गा ऐ। वीरो, जे पसंद करोगे ठीक ऐ...नहीं ते अपने इस ने वगाह के परे सुटांगे..........असीं किहडा किसे कोलों कुछ पुछन जाना ऐ....बस, चुप चुपीते आप्शन्स ते जा कर के डिलेट दा ब्लाग ते ऊपर जा कर के उंगली रूपी सोटा नाल इक छोटा जिहा वार ही करना ऐ ना...................ते बलाग गायब।
वेखो, मैंनू मेरे इस अजीब जिहे आइडिये बारे ज़रूर लिखियो, चंगा लग्गेगा.................हां, इक गल दा होर ध्यान रखियो कि इस पोस्ट दे थल्ले टिप्पणी वगैरा लिखन विच कोई भी भाषा इस्तेमाल कर लियो, हिंदी , पंजाबी , अगरेजी.........मैंनू बहुत खुशी होवेगी। पर लिखियो ज़रूर।
अच्छा फेर हुन तां चलदा हां............फेर आपां मिलदे गिलदे रहां गे, बेलियो। तद तक रब राखा.........अपना ध्यान रखियो।
जिऊंदे-वसदे रवो।।।।।।।।
शनिवार, 8 मार्च 2008
कश्मीर सिंह दी बल्ले बल्ले....
अज दीयां अखबारां विच इह पढ के बहुत तसल्ली होई कि पंजाब सरकार ने उन्नां दोवां नूं हर महीने पंज पंज हज़ार दी पैंशन देन दा फैसला वी कीता है। ऐह पढ़ के वी बहुत खुशी होई कि उन्नां नूं इक प्लाट वी दित्ता जा रिहा है ते उस प्लाट दे उत्ते मकान उसारन दा सारा खरचा वी सरकार ही अपने सिर लवेगी।
तुसीं इक गल पड़ी.....अखबार विच लिखिया होईया सी कि उस महान बंदे दे इक पुत्तर नूं पोलियो होईया होया है पर तुसीं उस दी फैमली दी ऐह वडीयाई वाली गल सुनी ऐ कि उन्नां ने उस नूं इन्नां 35सालां विच दसिया ही नहीं कि उस दे पुत ने ऐह तकलीफ ऐ....सिर्फ इसे कर के ओह पराये देश विच बैठिया होईया है ते उत्थे बैठा उह ऐवें ही दुखी होवेगा।
उस दी तीवीं न दसिया की पहलां पहलां उस दे घरवाले दी इक चिट्ठी आई सी....बस उस तो बाद उस ने उन्नां ने कईं चिटठीयां पाईंयां..............मैं तां इह पढ़ के हैरान ही रह गया कि उह बीबी दसदी ऐ कि असीं तां चिट्ठीयां पांदे रहे...सानूं तां इह वी नहीं सी पता कि साडीयां चिट्ठीयां उस तक पहुच रहीयां वी हन कि नहीं........
बस, दोस्तो, जे कर मेरे वस विच हुंदा तां मैं तां अज दे दिन उस महान औरत नूं सारे दुनिया दे किसे प्लेटफार्म उत्ते खड़ा कर के सनमानत करदा तां जो दुनिया दीयां अखां खुलियां दीयां खुलियां रह जांदीयां कि ऐ वेखो, मेरे देश पंजाब दी इक महान बीबी जिहड़ी 35 वरेयां दा वड्डा समां अपने साईं दी आस विच कढ दित्ता ......वैसे कोई पता वी नहीं सी कि उह वापिस आंदा वी कि न आंदा।
हां, काशमीर सिंह तां अपने पिंड विच आ के ऐडा खुश है कि उस ने आखिया कि मैंनूं तां अपने पिंड विच आ के ऐवें लगदै जिवें मैं पैरिस ही आ गिया हां। वैसे वेखिया जावे तां गल है वी किन्नी वड़डी.....असीं अपनी आज़ादी दी कीमत शायद पूरी तरह जानदे ही नहीं हा।
चलो सारे रल मिल के अरदास करीये कि इक दूजे दे देशे विच बंद सारे कैदी आपो-अपने घर पुज जान............ऐवें ही तां नहीं कहंदे कि ...जो सुख छज्जू दे चौबारे, उह न बलख न बुखारे।
दिल को देखो...चेहरा न देखो...चेहरों ने लाखों को लूटा !!
वैसे आप के यहां यह ब्राड-बैंड रखा किस कौने में है ?
“ अंकल, आप जाइए, यह आप के काम की चीज़ नहीं है।”—दो-चार दिन पहले जब मैं जयपुर के एक इंटरनेट कैफे पर बैठा अपना कुछ काम कर रहा था तो मेरे सामने वाले एन्क्लोज़र में बैठे दो 13-14 साल के लड़कों के मुंह से निकली इस बात को सुन कर मैं दंग रह गया। हुया हूं कि उस इंटरनैट कैफे का सुपरवाईज़र-सा दिखने वाला वर्कर जब उन के सामने बस थोड़ा अभी खड़ा ही हुया था कि उन दोनों लड़कों ने उसे वहां से यह कह कर हटने के लिये कह दिया कि जो काम वे कर रहे हैं वह उस के काम की चीज़ नहीं है।
लेकिन ये इंटरनैट वाले भी सब कुछ समझते हैं....उन का रोज़ का काम है और पता नहीं कितने ऐसे बच्चों से उन का रोज़ाना पाला पड़ता होगा। शायद वह सुपरवाईज़र उन दोनों बच्चों को जानता था, सो पहले तो उस ने उन दोनों को बहुत गुस्से से बोला कि चलो, तुम लोग चलो यहा से......मैं कहता हूं निकलो यहां से......। लेकिन जब उन बच्चों के कान पर जूं तक न रेंगी तो उस ने झट से अपने जेब से मोबाइल फोन निकाला और उन बच्चों से पूछने लगा कि फोन करूं ?......शायद वह सुपरवाईज़र उन बच्चों के मां-बाप को फोन करने की बात कर रहा था। बस, मुझे यहां तक ही पता है, उस के बाद मेरा ध्यान अपने काम की तरफ़ चला गया......और मुझे नहीं पता कि आगे उन का क्या हुया !
लेकिन उस दिन मैं यही सोचता रहा कि हमारे आज के बच्चे भी कितने आगे निकल चुके हैं.....एक इंटरनैट कैफे के एक कर्मचारी को इस तरह से ब्लंट्ली कह देना कि यह तुम्हारे काम की चीज़ नहीं है ....। और वह भी जब इस तरह की बात 13-14 साल के बच्चों के मुंह से निकल रही हो। यह तो कोई बात ना हुई कि यह आप के काम की चीज़ नहीं है......अब उन बच्चों को यह भी तो समझने की ज़रूरत है कि यह कोई वीडियो गेम पार्लर नहीं है !!
मुझे वैसे यह भी लगा कि इंटरनैट के ऊपर जो अपने लोगों के मन में तरह-तरह के एडवैंचर करने की धुन है ना, यह भी कुछ समय की ही बात है। बहुत जल्द सब कुछ सामान्य सा हो जायेगा। मुझे ध्यान आ रहा है कि ये जो इंटरनैट पर यूज़र्स को कुछ ज़्यादा ही प्राइवेसी उपलब्ध करवाई जाती है, इस का भी थोड़ा दोष ही है...............ठीक है, हरेक को कंप्यूटर पर थोड़ी प्राईवेसी तो चाहिये ही, लेकिन क्यूबिकल्स के आगे परदे टांग देने या शीशे की पार्टिशन्ज़ लगवा देना मुझे ठीक नहीं लगता। वैसे तो इन सब को भी हमें कुछ दिन का मेहमान ही समझना चाहिये...जैसे जैसे इंटरनैट का यूज़ देश में बढ़ेगा इस तरह के मिस-एडवेंचर्ज़ कम होते जायेंगे.........हां, हां, जब किसी चीज़ पर भी ज्यादा अंकुश लगा होता है तो उसे जानबूझ कर ट्राई करने में एक अलग तरह के आनंद की अनुभूति सी होती है.....वो ठीक ही कहते हैं ना “Stolen kisses are always sweeter!!”.....शायद यही आज हमारे यहां इंटरनैट पर हो रहा है।
मुझे ध्यान आ रहा था कि हमारे दिनों में कुछ रैस्टराओं में नवविवाहित युगलों अथवा प्रेमी युगलों के लिये एक दो कक्ष अलग से हुया करते थे.....और उन के बाहर एक परदा( अकसर बहुत गंदा सा) टंगा हुया करता था। अच्छा, आप को भी यह सब याद आने लगा है, अच्छा है। लेकिन आज कल ये परदे टंगे कहां दिखते हैं !.....एक बात और भी है ना कि उस ज़माने में जब हम लड़के लोग कोई सिनेमा देखने जाते थे.........और जब कभी बालकनी की टिकट लेने की हैसियत हुया करती थी तो कोशिश रहती थी कि सब से पिछले वाली पंक्ति में ही बैठा जाये....केवल बस इसलिये कि बॉक्स में बैठने वालों युगलों की एक्टिविटिज़ (सिर्फ़ कानाफूसी का !) का थोड़ा बहुत पता चलता रहे और हम दोस्तों का फिल्म के साथ साथ हंसी-ठट्ठा भी चलता रहे। शायद उस समय तो आंखे केवल दो ही और वह भी मुंह के आगे वाले हिस्से में लगाने के रब के इस मनमाने से लगने वाले फैसले पर गुस्सा भी आता था कि काश दो आंखे पीछे भी लगी होती। वो भी क्या दिन थे......बस हर तरफ मस्ती ही मस्ती, यकीन मानिये, हाल में घुसते हुये इन बाक्सों की तरफ कुछ इतनी हसरत से देखा जाता था कि क्या यहां बैठना हमें भी नसीब होगा.................लेकिन क्या कभी वहां बैठना नसीब हुया कि नहीं........sorry, friends, that I can’t share with you right now….that will be going too far !!... लेकिन आज बॉक्स तो क्या , शहरों में थियेटर ही नहीं दिखते हैं.................हां, तो मैं यही कह रहा था कि यह सब नया नया अच्छा लगता है, रोमांच देता है।
लेकिन इतना मुझे ज़रूर लगता है कि अगर हम अपने घर में इंटरनैट के कनैक्शन को किसी कॉमन जगह...जैसे कि लॉबी वगैरह में रखें तो कुछ तो समस्यायें कम हो ही सकती हैं।क्या है ना, कॉमन एरिया में घर के किसी न किसी सदस्य का आना जाना लगा रहता है जिस की वजह से बच्चों की इंटरनैट एक्टिविटि पर थोड़ा नज़र भी रखी जा सकती है और वे भी कुछ हैंकी –पैंकी देखने या करने से थोडा झिझकते /डरते हैं। वैसे मैं यह भी समझता हूं कि यह कोई फूल-प्रूफ तरीका नहीं है, लेकिन वही बात है ना कि ..something is better than nothing!!.....और हां, अगर यह ब्राड-बैंड कनैक्शन घर की किसी भी कामन जगह पर रखा हुया है तो बच्चे तो क्या, बड़े भी अपने काम से ही काम रखते हैं................हिंदी ब्लोगिंग, ब्लोवाणी, चिट्ठाजगत और ज्यादा से ज्यादा किसी पोस्ट पर टिपियाने के इलावा इस इंटरनैट से कोई सरोकार ही नहीं । कभी भूल से भी कोई एडवेंचर (मिस-एडवेंचर!) करने की कोई चाह ही नहीं होती !!
शुक्रवार, 7 मार्च 2008
क्या है आखिर इस तरह के फ्रूट-जूस में ?
दो-तीन दिन से गर्मी के मौसम के पदचाप सुनाई देने लगे हैं....ऐसे में आने वाले दिनों में फलों के जूस वगैरह का बाज़ार गर्म होता नज़र आयेगा..........फलों के ताज़े जूस का नहीं पिछले कुछ समय से तो टैट्रा-पैक में मिलने वाले कुछ फलों के जूसों ने भी तो धूम मचा रखी है। कल जब एक ऐसे ही टैट्रा-पैक को देखा तो उस के बारे में अपने व्यक्तिगत विचार लिखने की बात मन में आई।
इस मिक्सड़ फ्रूट जूस (जिसे वर्ल्ड के नंबर वन होने का दावा किया गया है) की एक लिटर की पैकिंग के बारे में टैट्रा-पैक के बाहर लिखा हुया है (अंग्रेज़ी में) कि इस में ये सब इन्ग्रिडीऐंट्स मौजूद हैं........ पानी, सेब के जूस का कंसैन्ट्रेट, अनानास के जूस का कंसैन्ट्रेट , चीनी( शूगर), संतरे के जूस का कंसैन्ट्रेट, आम के जूस का कंसैन्ट्रेट, अमरूद की पलप, एसिडिटी रैगुलेटर( 330), विटामिन-सी। और साथ में फलेवर्ज़ डले होने की बात भी कही गई है.....( contains added flavor….natural flavouring substances)..
यही सोच रहा हूं कि अगर इतने सारे फलों के रस इस में मौज़ूद हैं तो आखिर इस में विटामिन-सी बाहर से डालने की आखिर क्या ज़रूरत आन पड़ी है। क्या कोई मेरी इस प्रश्न का जवाब देगा ?
लेकिन इस के बारे में ग्राहकों को कुछ नहीं बताया गया कि ये सब इन्ग्रिडीऐन्ट्स कितनी मात्रा में उपलब्ध हैं.......अब ग्राहक को तो लगता है कि इस से कुछ लेना देना है नहीं, बस उसे तो जूस का स्वाद अच्छा लगना चाहिये जो उसे चंद पलों के लिए ठंडक पहुंचा दे.....चाहे यह कंपनी तो यह दावा कर रही है कि इस का ज़ायका आप को सारा दिन मज़ा देता रहेगा ( लेकिन कंपनी तो आखिर ठहरी कंपनी !)..
अब अगर ग्राहक दस-गिलास ताजे जूस के दाम के बराबर कोई ऐसे जूस का डिब्बा खरीद रहा है तो उसे क्या इतना जानने का अधिकार भी नहीं है कि उस में कितनी चीनी(शक्कर ) मिली हुई है ! …..शायद नहीं। अब ये सब बातें आप को कंपनी बताने लगेगी तो उसे बड़ी दिक्कत हो जायेगी। ताजे जूस में हमारे पड़ोस वाला जूसवाला क्या कम शक्कर उंडेलता है जो हम इस डिब्बे वाले जूस में शक्कर के इतना पीछे पड़ रहे हैं। इस के बारे में आप भी सोचिए....। मेरी पत्नी, डा.ज्योत्स्ना चोपड़ा, जो एक जर्नल फिजिशियन हैं ....उन्हें भी इस के बारे में ( शक्कर वाली बात) जान कर बहुत हैरानगी हुई। खैर, चलिये आगे चलते हैं।
इस स्वीटंड फ्रूट-जूस ( sweetened fruit juice) के डिब्बे के ऊपर यह भी लिखा हुया था कि इस में न तो कोई एडेड कलर है और न ही प्रिज़र्वेटिव..........(No added colour and preservative)………लेकिन यह इस में किसी प्रिज़र्वेटिव के ना होने वाली बात मुझे तो हज़म नहीं हो रही है ( क्या करूं ?.......हाजमोला ले लूं !........ठीक है , वह भी ले लूंगा, पहले आप से दो बातें तो कर लूं। ) .....लेकिन हाजमोला लेने के बाद भी मुझे इस नो-प्रिज़र्वेटिव वाली बात की बदहज़मी बनी रहेगी क्योंकि मैं बड़े विश्वास से यह सोच रहा हूं कि ऐसी कौन सी वस्तु है जो बिना प्रिज़र्वेटिव के छःमहीने पर ठीक ठाक रहती है..........इस की पैकिंग पर लिखा हुया है कि दिसंबर 2007 में बना यह जूस का डिब्बा जून 2008 तक ले लेना बैस्ट है ( Mfd…Dec.2007, Best before June 2008)..
इस जूस के 100 मिलीलिटर की न्यूट्रिश्नल वैल्यू भी तो आप जानना चाहेंगे.....तो सुनिये इस में प्रोटीन है – 0.4 ग्राम, फैट और कोलेस्ट्रोल ज़ीरो ग्राम, कार्बोहाइड्रेट- 13.7ग्राम ..............आगे लिखा हुया है सोडियम 5मिलीग्राम, पोटाशियम 103मिलीग्राम और विटामिन-सी 40मिलीग्राम। अब इन के बारे में अलग अलग से बतलाना शुरू करूंगा तो भी पोस्ट कुछ ज़्यादा ही लंबी न हो जायेगी, यही सोच कर आगे बढ़ रहा हूं। वैसे यह जो फैट और कोलेस्ट्रोल के नाम के आगे ज़ीरो ग्राम लिखने का चलन शुरू हो गया है ना, इस के बारे में फिर कभी लिखूंगा।
इस डिब्बे बंद जूस की पैकिंग पर यह घोषणा भी बेहद शानदार तरीके से की गई है कि इस जूस के एक पाव-किलो( 250मिलीलिटर) का गिलास पी लेने पर आप सारे दिन में उन पांच फलों एवं सब्जियों की सर्विंग्स (जिन की डाक्टर सलाह देते हैं)...में से एक सर्विंग हासिल कर लेते हो और यह गिलास पीने से आप सारे दिन की विटामिन-सी की सप्लाई प्राप्त कर लेते हो। इस के बारे में भी मेरे विचार अलग हैं.....(कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली !)..क्या है ना, कहां वे ताज़े फल और सब्जियां ...और कहां ये डिब्बे में मिलने वाले जूस...........और जहां तक सारे दिन की विटामिन-सी की पूरे दिन की सप्लाई की बात है, उस बात में भी कुछ ज़्यादा वज़न लगा नहीं ...क्योंकि उस सप्लाई को प्राप्त करने के लिये इतने रूपये खर्च करने की क्या ज़रूरत है....वह तो कोई भी ताज़ा फल( संतरा, कीनू इत्यादि और यहां तक कि बहुत ही प्रचुर मात्रा में आंवले से भी मिल ही सकता है) ..बड़ी आसानी से दिला सकता है।
और हां, एक बात की तरफ़ और भी ध्यान दीजियेगा कि टैट्रा-पैक तो यह भी लिखा हुया है कि अगर आप को यह डिब्बा फूला हुया सा लगे तो इसे न खरीदें। वैसे उन्होंने इसे लिखवा कर अच्छा किया है।
सीधी सी बात है कि ताज़े फल का कोई सानी नहीं है.....हां,अगर आप किसी ऐसे टापू पर जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं जहां पर ताज़े फल का जूस नहीं मिलेगा या फल ही न मिलेंगे, वहां पर आप इस डिब्बा-बंद जूस को ज़रूर ले कर जा सकते हैं। लेकिन, एक बात जो मैं अकसर बहुत बार कहता हूं और जो हम सब को हमेशा याद रखनी है , वह यही है कि ज़ूस से भी कहीं ज्यादा बेहतर होगा अगर हम ताज़े फलों को ही खा सकें....क्योंकि इन फलों में कुछ अन्य फायदेमंद इन्गर्डिऐन्ट्स भी हैं जो हमें केवल ताज़े फले खाने से ही प्राप्त हो सकते हैं .....वैसे एक बात और भी है कि इन फलों में तो कुछ ऐसी अद्भुत चीज़ें भी हैं जिन का राज़ इस प्रकृति ने अभी भी राज़ ही बना कर रखा हुया है।......अभी तो वैज्ञानिक इन चमत्कारी घटकों के बारे में कुछ पता ही नहीं लगा पाये हैं।
दो-चार दिन पहले मैं स्टेशन पर बैठा हुया था तो दो पुरूष आपस में बैठे प्लेटफार्म के बैंच पर बातें कर रहे थे...उन में से एक शायद किसी कोल्ड-ड्रिंक कंपनी में काम करने वाला था। जब दूसरे बंदे ने यह पूछा कि यार, वैसे पीछे बड़ा सुनने में आ रहा था कि इन ठंडे की बोतलों में कीटनाशक हैं और यह फलां-फलां बाबा जी अपने प्रवचनों में इन ठंडों की बड़ी क्लास लेते हैं तो उस कोल्ड-ड्रिंक कंपनी वाले ने इस पर कुछ इस तरह से प्रकाश डाल कर उस की ( साथ में मेरी भी !)…जिज्ञासा शांत कर डाली......................देख, भई, ये ठंडे तो बिकने ही हैं...चाहे कुछ भी हो जाये....कोई कुछ भी कहता रहे.......ठीक है , लोग खरीद कर ना भी पियेंगे, लेकिन विवाह-शादियों एवं अन्य पार्टियों में जहां ये फ्री में मिलते हैं....इन जगहों पर तो वे इन पर टूटने से बाज़ आयेंगे नहीं, तो फिर कंपनियों को टेंशन लेने की क्या ज़रूरत है...........इन पार्टियों वगैरह में तो एक एक बंदा चार-पांच गिलास तक गटक जाता है। बस, हमारी कंपनियों के लिये इतना ही काफी है............अब तुम्हें बताऊं यह जो सारी तरह की पब्लिसिटि इन ठंडों के बारे में पीछे हो रही थी ना, इस में कंपनियों की सेल में सिर्फ़ 3-4 प्रतिशत का ही फर्क पड़ा है, लेकिन इस से भी जूझने के लिये कंपनियों के पास बहुत से रास्ते हैं..........................
लेकिन अफसोस इन रास्तों के बारे में मैं कुछ ज़्यादा सुन नहीं पाया क्योंकि उसी समय प्लेटफार्म पर ऐंटर हो रही मेरी गाड़ी के शोर में उन दोनों की बातें मेरी ऑडिबल-रेंज से बाहर हो गईं।
क्या है आखिर इस तरह के फ्रूट-जूस में ?
दो-तीन दिन से गर्मी के मौसम के पदचाप सुनाई देने लगे हैं....ऐसे में आने वाले दिनों में फलों के जूस वगैरह का बाज़ार गर्म होता नज़र आयेगा..........फलों के ताज़े जूस का नहीं पिछले कुछ समय से तो टैट्रा-पैक में मिलने वाले कुछ फलों के जूसों ने भी तो धूम मचा रखी है। कल जब एक ऐसे ही टैट्रा-पैक को देखा तो उस के बारे में अपने व्यक्तिगत विचार लिखने की बात मन में आई।
इस मिक्सड़ फ्रूट जूस (जिसे वर्ल्ड के नंबर वन होने का दावा किया गया है) की एक लिटर की पैकिंग के बारे में टैट्रा-पैक के बाहर लिखा हुया है (अंग्रेज़ी में) कि इस में ये सब इन्ग्रिडीऐंट्स मौजूद हैं........ पानी, सेब के जूस का कंसैन्ट्रेट, अनानास के जूस का कंसैन्ट्रेट , चीनी( शूगर), संतरे के जूस का कंसैन्ट्रेट, आम के जूस का कंसैन्ट्रेट, अमरूद की पलप, एसिडिटी रैगुलेटर( 330), विटामिन-सी। और साथ में फलेवर्ज़ डले होने की बात भी कही गई है.....( contains added flavor….natural flavouring substances)..
यही सोच रहा हूं कि अगर इतने सारे फलों के रस इस में मौज़ूद हैं तो आखिर इस में विटामिन-सी बाहर से डालने की आखिर क्या ज़रूरत आन पड़ी है। क्या कोई मेरी इस प्रश्न का जवाब देगा ?
लेकिन इस के बारे में ग्राहकों को कुछ नहीं बताया गया कि ये सब इन्ग्रिडीऐन्ट्स कितनी मात्रा में उपलब्ध हैं.......अब ग्राहक को तो लगता है कि इस से कुछ लेना देना है नहीं, बस उसे तो जूस का स्वाद अच्छा लगना चाहिये जो उसे चंद पलों के लिए ठंडक पहुंचा दे.....चाहे यह कंपनी तो यह दावा कर रही है कि इस का ज़ायका आप को सारा दिन मज़ा देता रहेगा ( लेकिन कंपनी तो आखिर ठहरी कंपनी !)..
अब अगर ग्राहक दस-गिलास ताजे जूस के दाम के बराबर कोई ऐसे जूस का डिब्बा खरीद रहा है तो उसे क्या इतना जानने का अधिकार भी नहीं है कि उस में कितनी चीनी(शक्कर ) मिली हुई है ! …..शायद नहीं। अब ये सब बातें आप को कंपनी बताने लगेगी तो उसे बड़ी दिक्कत हो जायेगी। ताजे जूस में हमारे पड़ोस वाला जूसवाला क्या कम शक्कर उंडेलता है जो हम इस डिब्बे वाले जूस में शक्कर के इतना पीछे पड़ रहे हैं। इस के बारे में आप भी सोचिए....। मेरी पत्नी, डा.ज्योत्स्ना चोपड़ा, जो एक जर्नल फिजिशियन हैं ....उन्हें भी इस के बारे में ( शक्कर वाली बात) जान कर बहुत हैरानगी हुई। खैर, चलिये आगे चलते हैं।
इस स्वीटंड फ्रूट-जूस ( sweetened fruit juice) के डिब्बे के ऊपर यह भी लिखा हुया था कि इस में न तो कोई एडेड कलर है और न ही प्रिज़र्वेटिव..........(No added colour and preservative)………लेकिन यह इस में किसी प्रिज़र्वेटिव के ना होने वाली बात मुझे तो हज़म नहीं हो रही है ( क्या करूं ?.......हाजमोला ले लूं !........ठीक है , वह भी ले लूंगा, पहले आप से दो बातें तो कर लूं। ) .....लेकिन हाजमोला लेने के बाद भी मुझे इस नो-प्रिज़र्वेटिव वाली बात की बदहज़मी बनी रहेगी क्योंकि मैं बड़े विश्वास से यह सोच रहा हूं कि ऐसी कौन सी वस्तु है जो बिना प्रिज़र्वेटिव के छःमहीने पर ठीक ठाक रहती है..........इस की पैकिंग पर लिखा हुया है कि दिसंबर 2007 में बना यह जूस का डिब्बा जून 2008 तक ले लेना बैस्ट है ( Mfd…Dec.2007, Best before June 2008)..
इस जूस के 100 मिलीलिटर की न्यूट्रिश्नल वैल्यू भी तो आप जानना चाहेंगे.....तो सुनिये इस में प्रोटीन है – 0.4 ग्राम, फैट और कोलेस्ट्रोल ज़ीरो ग्राम, कार्बोहाइड्रेट- 13.7ग्राम ..............आगे लिखा हुया है सोडियम 5मिलीग्राम, पोटाशियम 103मिलीग्राम और विटामिन-सी 40मिलीग्राम। अब इन के बारे में अलग अलग से बतलाना शुरू करूंगा तो भी पोस्ट कुछ ज़्यादा ही लंबी न हो जायेगी, यही सोच कर आगे बढ़ रहा हूं। वैसे यह जो फैट और कोलेस्ट्रोल के नाम के आगे ज़ीरो ग्राम लिखने का चलन शुरू हो गया है ना, इस के बारे में फिर कभी लिखूंगा।
इस डिब्बे बंद जूस की पैकिंग पर यह घोषणा भी बेहद शानदार तरीके से की गई है कि इस जूस के एक पाव-किलो( 250मिलीलिटर) का गिलास पी लेने पर आप सारे दिन में उन पांच फलों एवं सब्जियों की सर्विंग्स (जिन की डाक्टर सलाह देते हैं)...में से एक सर्विंग हासिल कर लेते हो और यह गिलास पीने से आप सारे दिन की विटामिन-सी की सप्लाई प्राप्त कर लेते हो। इस के बारे में भी मेरे विचार अलग हैं.....(कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली !)..क्या है ना, कहां वे ताज़े फल और सब्जियां ...और कहां ये डिब्बे में मिलने वाले जूस...........और जहां तक सारे दिन की विटामिन-सी की पूरे दिन की सप्लाई की बात है, उस बात में भी कुछ ज़्यादा वज़न लगा नहीं ...क्योंकि उस सप्लाई को प्राप्त करने के लिये इतने रूपये खर्च करने की क्या ज़रूरत है....वह तो कोई भी ताज़ा फल( संतरा, कीनू इत्यादि और यहां तक कि बहुत ही प्रचुर मात्रा में आंवले से भी मिल ही सकता है) ..बड़ी आसानी से दिला सकता है।
और हां, एक बात की तरफ़ और भी ध्यान दीजियेगा कि टैट्रा-पैक तो यह भी लिखा हुया है कि अगर आप को यह डिब्बा फूला हुया सा लगे तो इसे न खरीदें। वैसे उन्होंने इसे लिखवा कर अच्छा किया है।
सीधी सी बात है कि ताज़े फल का कोई सानी नहीं है.....हां,अगर आप किसी ऐसे टापू पर जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं जहां पर ताज़े फल का जूस नहीं मिलेगा या फल ही न मिलेंगे, वहां पर आप इस डिब्बा-बंद जूस को ज़रूर ले कर जा सकते हैं। लेकिन, एक बात जो मैं अकसर बहुत बार कहता हूं और जो हम सब को हमेशा याद रखनी है , वह यही है कि ज़ूस से भी कहीं ज्यादा बेहतर होगा अगर हम ताज़े फलों को ही खा सकें....क्योंकि इन फलों में कुछ अन्य फायदेमंद इन्गर्डिऐन्ट्स भी हैं जो हमें केवल ताज़े फले खाने से ही प्राप्त हो सकते हैं .....वैसे एक बात और भी है कि इन फलों में तो कुछ ऐसी अद्भुत चीज़ें भी हैं जिन का राज़ इस प्रकृति ने अभी भी राज़ ही बना कर रखा हुया है।......अभी तो वैज्ञानिक इन चमत्कारी घटकों के बारे में कुछ पता ही नहीं लगा पाये हैं।
दो-चार दिन पहले मैं स्टेशन पर बैठा हुया था तो दो पुरूष आपस में बैठे प्लेटफार्म के बैंच पर बातें कर रहे थे...उन में से एक शायद किसी कोल्ड-ड्रिंक कंपनी में काम करने वाला था। जब दूसरे बंदे ने यह पूछा कि यार, वैसे पीछे बड़ा सुनने में आ रहा था कि इन ठंडे की बोतलों में कीटनाशक हैं और यह फलां-फलां बाबा जी अपने प्रवचनों में इन ठंडों की बड़ी क्लास लेते हैं तो उस कोल्ड-ड्रिंक कंपनी वाले ने इस पर कुछ इस तरह से प्रकाश डाल कर उस की ( साथ में मेरी भी !)…जिज्ञासा शांत कर डाली......................देख, भई, ये ठंडे तो बिकने ही हैं...चाहे कुछ भी हो जाये....कोई कुछ भी कहता रहे.......ठीक है , लोग खरीद कर ना भी पियेंगे, लेकिन विवाह-शादियों एवं अन्य पार्टियों में जहां ये फ्री में मिलते हैं....इन जगहों पर तो वे इन पर टूटने से बाज़ आयेंगे नहीं, तो फिर कंपनियों को टेंशन लेने की क्या ज़रूरत है...........इन पार्टियों वगैरह में तो एक एक बंदा चार-पांच गिलास तक गटक जाता है। बस, हमारी कंपनियों के लिये इतना ही काफी है............अब तुम्हें बताऊं यह जो सारी तरह की पब्लिसिटि इन ठंडों के बारे में पीछे हो रही थी ना, इस में कंपनियों की सेल में सिर्फ़ 3-4 प्रतिशत का ही फर्क पड़ा है, लेकिन इस से भी जूझने के लिये कंपनियों के पास बहुत से रास्ते हैं..........................
लेकिन अफसोस इन रास्तों के बारे में मैं कुछ ज़्यादा सुन नहीं पाया क्योंकि उसी समय प्लेटफार्म पर ऐंटर हो रही मेरी गाड़ी के शोर में उन दोनों की बातें मेरी ऑडिबल-रेंज से बाहर हो गईं।
गुरुवार, 6 मार्च 2008
सिर्फ़ दस रूपये खर्च कर कीजिये बच्चों की सारी टेंशन खल्लास.....
जी हां, सवाल सिर्फ़ दस रूपये के एक नोट का है और आप अपने बच्चे की सारी टेंशन छू-मंतर कर सकते हैं। लेकिन नहीं, मैंने कोई इस तरह का काउंसलिंग का धंधा शुरू नहीं किया है और सर्विस में होने की वजह से ना ही कुछ ऐसा वैसा शुरू कर सकता हूं। तो, सुनिये फिर आप ने ये दस रूपये का नोट किसे थमाना है।
बात ऐसी है कि अभी अभी बाज़ार से लौटा हूं.....दुकान पर बिकते ये पोस्टर देखे। पोस्टर देखते ही माथा ठनका कि हो ना हो ये किसी प्रैक्टीकल की ही तैयारी हो रही है। जब पूछा तो पता चला कि ये पोस्टर आज कल खूब बिक रहे हैं.....ये मैट्रिक के साईंस प्रैक्टीकल के लिए बच्चों को खरीदने पड़ रहे हैं( अच्छी तरह से नोट कर लें इन शब्दों को .....खरीदने पड़ रहे हैं) ....। मज़े की बात तो यह भी है कि इन को किताबों की दुकान से खरीद कर लाने के लिये भी बच्चे को अपने बापू के साथ बाज़ार आने की ज़हमत उठाने की ज़रूरत ही नहीं है.....बस, बापू को इतना बताना ही काफी है कि आज रात से पहले पहले दो फलां-फलां पोस्टर उस दुकान से ज़रूर ले आईयो, अगर आप लोग मुझे साईंस में पास देखना चाहते हो। ठीक है, बेटा, तुम तब तक अगर टीवी के रोडीज़ शो से फ्री हो भी गये तो तुम आराम से थोड़ी इम्पार्टैंट तरह की छोटी-मोटी पर्चियां ज़रूर तैयार कर लेना।
कुछ इस तरह के ही आदेशों की पालना करता मुझे अपने साथ खड़ा बंदा दिख रहा था। बहुत सारे पोस्टर देखने के बाद आखिर उस ने दुकानदार को एक आंख वाला और एक बॉयोगैस वाला पोस्टर पैक करने का आर्डर दे ही डाला। पांच रूपये का एक पोस्टर था, सो कुल खर्च आया ..दस रूपये।
लेकिन अफसोस इस तरह के बॉयोगैस के कंसैप्ट और आंख की जानकारी तो भई उस पोस्टर पर ही रह जायेगी। जब तक तीन-चार बार अपनी समझ से बार बार इरेज़ करने वाले रबड़ का प्रयोग नहीं किया जायेगा, कैसे हो पायेगा यह पोस्टर को समझने वाला काम। लेकिन क्या करें................इतना टाईम नहीं है भई, अभी इंडियल आयडल से फ्री हुये ही थे कि ये फिल्मों के अवार्ड्स वाले कार्यक्रम धन-धना-धन शुरू हो गये हैं , फिर यह रोडीज़ भी तो देखना ज़रूरी है......ऐसा मौका फिर कहां मिलेगा...................इतना टाईट शैड्यूल और ऊपर से इन पोस्टरों को बनाने के झंझट में कौन पड़े..............क्या है ना पापाजी, चार रूपये का पोस्टर वैसे आता है और पूरी तरह से तैयार बना-बनाया पोस्टर अगर पांच रूपये में मिल रहा है तो आखिर फायदा ही है ना...................न स्कैच पैन खरीदने का झंझट, ना कहीं और माथा-पच्ची करने की ज़रूरत।क्या है ना डैड, आज कल सब कुछ फास्ट चलता है।
सोच रहा हूं कि प्रैक्टीकल के लिये रेडीमेड पोस्टरों की बाज़ार में उपलब्धता का तो मुझे आज पता चला है , लेकिन प्रैक्टीकल की कापियां तो हमारे समय में भी कई विद्यार्थी बाज़ार से ही 15-20 रूपये दे कर बनवाते थे। यह सिलसिला आठवीं कक्षा से शुरू हो जाया करता था..........लेकिन मुझे आज तक यही लगता था कि नो डॉयट, आज भी यह चलन तो है , लेकिन मैट्रिक तक ही है।
लेकिन मैंने फिर भी प्लस टू में पढ़ रहे एक लड़के से फैक्टस वैरीफ़ॉय करने में ही बेहतरी समझी। ---उस का जवाब मिला ...जी हां, आज कल तो बारहवीं की भी बनती हैं...बताने लगा कि ग्यारहवीं की भी बाज़ार से बनती तो हैं ,लेकिन अकसर बच्चे इन को इतना सीरियस्ली लेते नहीं है क्योंकि ये एग्ज़ाम तो स्कूल ही में निबट जाते हैं। आगे उस ने बताया कि इन्हें बनाने में 55, 65, 80 और 100 रूपये तक लगते हैं। मुझे यह क्रयूसिटि होनी लाज़मी थी कि इतना अंतर....................उस ने झट से उस का निवारण भी यह बतला कर कर ही दिया..............अंकल, दिस ऑल डिपेंड्स ऑन दा आर्टिस्ट्री।
बस , एक बार यही सोचने पर मजबूर हो गया हूं कि हमारे देश में यहां के युवाओं में वैज्ञानिक टेंपरामैंट को बढ़ावा देने के लिए इतने यत्न हो रहे हैं और ये दस रूपये खर्च कर के अपनी टेंशन खल्लास करने की फ़िराक में हैं।
बुधवार, 5 मार्च 2008
मैं उस फोटोस्टैट मशीन को देख कर इतना खौफज़दा क्यों था!
ओह माई गुडनैस, मैं आज भी सोचता हूं तो कांप सा जाता हूं कि आखिर मैं उस फोटोस्टैट मशीन को देख कर इतना खौफज़दा क्यों था......बात जुलाई1980 की है....मैंने कुछ दिन पहले ताज़ा-ताज़ा पीएमटी टैस्ट क्लियर किया था....यूनिवर्सिटी से रिज़ल्ट कार्ड मिल चुका था। अब बारी थी एडमीशन के लिए अप्लाई करने की ...जिस के लिये एक अदद अटैस्टैड कापी उस रिज़ल्ट कार्ड की भी चाहिये थी। अब इस से पहले तो हमें तो यही पता था कि ऐसे किसी भी डाक्यूमैंट की कापी का मतलब तो यही होता था कि किसी टाईपिस्ट के साथ बैठ कर उस सर्टिफिकेट की कापी टाइप करवाओ और फिर किसी आफीसर से उसे सत्यापित करवाने का जुगाड़ ढूंढो।
लेकिन उन्हीं दिनों मैंने पता नहीं कहां से सुन लिया था कि एक ऐसी मशीन आ गई है जिस से किसी भी सर्टिफिकेट की हुबहू कापी हो जाती है। ऐसे में मैं कैसे पीछे रह जाता। हां तो पता चला कि अमृतसर के पुतलीघर एरिया में एक दुकान पर ऐसी मशीन लग गई है। सो, मैं भी दो-तीन किलोमीटर साइकल हांक कर पहुंच गया । और ,. उस दुकानदार को दे दिया वह सर्टिफीकेट कापी करने के लिये ।
वह दुकानदार मेरा रिज़ल्ट कार्ड लेकर अंदरवाले कमरे में चला गया......लेकिन यह क्या ,. मैं एक बार तो डर ही गया कि यार मैं कहां आ गया , कहीं कोई पंगा तो नहीं हो जायेगा, मेरा इतनी मेहनत से कमाया हुया रिज़ल्ट कार्ड तो मुझे सही सलामत वापिस मिल जायेगा ना....बस , मैं तो इन्हीं विचारों में सहमा सा खड़ाथा कि उस दुकानदार ने एक स्टूल उठाया..............अरे, यह क्या , पहले थोड़ा मशीन की फिजिकल अपीयरेंस के बारे में तो लिखूं.....तो सुनिए, हज़रात, वह मशीन लगभग इतनी लंबी-चौड़ी थी कि आप यह समझ लो कि उस ने इतनी ज़मीन घेरी हुई थी जितनी किसी पुरानी स्टाईल की प्रिंटिंग मशीन ने घेरी होती थी।
हां, तो मैं बता रहा था कि उस दुकानदार ने एक बड़ा सा स्टूल उठाया, और उस पर चढ़ कर मशीन के ऊपर चढ़ गया....और फिर उस ने बहुत बड़ी-बड़ी दो प्लेटें सी उठाईं और उन्हें हिलाया -डुलाया....उन में सी बडी़ सुरीली सी आवाज़े छन-छना-छन- छन आ रही थीं..................मैं तो बस यही प्रार्थना मन ही मन किये जा रहा था कि कहीं मेरे रिज़ल्ट कार्ड पर कालिख ही न पुत जाये। क्योंकि दुकानदार के हाथ भी इस स्याही वगैरह की वजह से काले पड़े हुये थे। लेकिन अभी कहां, अभी तो टाइम लग रहा था....शायद फोटोस्टैट की दो कापियां करने में 3-4मिनट भी लग गये थे.। और हां, एक कापी करवाने के उन दिनों दो रूपये लगते थे....लेकिन यह कमबख्त दो रूपये उस रोमांच के आगे तो कुछ भी नहीं थे !!
लेकिन आज सोचता हूं कि उस मशीन को देख कर यही लग रहा जैसे कि वह दुकानदार न हो कर, इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाइज़ेशन का कोई वरिष्ट साइंटिंस्ट है जो स्टूल पर चढ़ कर अभी कोई सैटेलाइट को स्पेस में लांच करने की तैयारी में है। लेकिन जो भी यह फोटोस्टैट का पहला एक्सपीरीयैंस बेहद रोमांचक था। पोस्ट लंबी हो रही है, इसलिए किसी अगली पोस्ट में लिखूंगा कि आने वाले सालों में इस फोटोस्टैट कागजों ने मेरी लाइफ में क्या क्या गुल खिलाये हैं।
मंगलवार, 4 मार्च 2008
लेकिन इस परी के पंख काटने से तुझे क्या मिला ?
तब मैं अपने हाथ खड़े कर ही देता हूं !
सोच रहा हूं कि एक डाक्टर होने के नाते मेरे लिए कुछ पल बेहद निराशात्मक होते हैं .....उन क्षणों के दौरान मैं अपने आप को बेहद फ्रस्टरेटड महसूस करता हूं। उन में से एक नज़ारा जो मुझे परेशान करता है , वह यह है कि जब मैं किसी को भी मुंह में गुटखा उंडेलते देखता हूं.........मुझे एक बार तो उसी समय लगता है कि इस के लिए मैं ही उत्तरदायी हूं और मैं एक बार फिर अपना संदेश इस बदकिस्मत इंसान तक पहुंचाने में नकामयाब रहा। और अपने आप पर यह खुन्नस तो और भी ज़्यादा होती है जब किसी युवा को , किसी बच्चे को इस का इस्तेमाल करते देखता हूं। मैं ब्यां नहीं कर पा रहा हूं कि यह सब देखना कितना फ्रस्टरेटिंग अनुभव है।
यार, यह भी कोई डाक्टरी है कि पहले इन को गुटखों, तंबाकू, शराब से आत्महत्या करते देखते रहो, फिर जब ये बदकिस्मत इंसान( वैसे इमानदारी से बतला दूं तो इतनी सहानुभूति भी मुझे इन से कम ही होती है क्योंकि मैं समझता हूं कि मान भी लिया पढ़ाई लिखाई नहीं आती, किसी बड़े –बुजुर्ग ने बताया ही नहीं , लेकिन वह जो सारा दिन एफएम वाला 100रूपये में खरीदा डिब्बा चिल्ला कर कहता रहता है उस की भी तो सुनो। वह सैक्स में संयम रखने की सलाह दे रहा हो, गुटखे, तंबाकू, शराब से बचे रहने की सलाह दे रहा है, बड़े से बड़े विशेषज्ञों को यह रेडियो आप की खाट पर आप के तकिये के किनारे खड़ा कर देता है.........तो फिर भी इन की बेशकीमती बातें अच्छी नहीं लगतीं क्या.................बस, वही गाना ही अच्छा लगता है..........थोड़ी सी जो पी ली है, चोरी तो नहीं की है.....इतना सब कुछ यह रेडियो बतला रहा है....................और 100 रूपये में क्या इस की जान ही निकाल लोगो क्या ?............................................हां, तो मैं बात कर रहा था....जब ये सब पदार्थ अच्छी तरह इस्तेमाल करने के बाद.....अपने फेफड़े खतरनाक हद तक सिंकवाने के बाद, लिवर को बुरी तरह से जला लेने पर, मुंह के कैंसर या मुंह की किसी अन्य गंभीर बीमारी हो जाने पर, या दिल को एक-आध छोटा-मोटा झटका लगने के बाद होश में आये तो क्या खाक होश में आये.....................सोच रहा हूं कि ज़्यादातर केसों में इन सब नशीली वस्तुओं के प्रभाव लंबे समय तक चलने वाले होते हैं या कईं बार तो स्थायी ही होते हैं.....................ऐसे में चिकित्सक के पास ऐसी कौन सी संजीवनी बूटी है जिसे पिलाने के बाद पिछला सब हिसाब छु-मंतर हो जायेगा।
नहीं, नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा, .....जब तक इस प्रकार की सभी लतों को पूरे ज़ोर से लात नहीं मारी जायेगी, कुछ नहीं होगा। अब सांस लेने में दिक्कत होगी, चलने पर सांस फूलेगा तो डाक्टर कोई टैबलेट थमा ही देगा....लेकिन यह कब तक चलेगा। दारू पी पी कर अगर लिवर ही जल गया तो क्या कर लेगा डाक्टर......................मुझे तो नहीं लगता कि कोई भी इलाज प्रभावी होगा अगर कोई बंदा यह अधिया मारना बंद नहीं करेगा...................तंबाकू से जनित मुंह के रोग क्या तंबाकू बिना छोड़े ठीक हो जायेंगे? ---यह आप भी जानते हैं।
Oh, my goodness, day in and day out ….this all is so very much frustrating. We keep on seeing these souls consuming all sorts of harmful stuffs recklessly, we keep on seeing all other high-risk activities…………………But I always ask myself what else to do… to make them aware of all this is your duty and that you have done…………….What else?
I had read something very interesting somewhere which I want to share …..
Cancer cures smoking !!!
आज जब मैं यह लिख रहा हूं तो मेरी अंतर्रात्मा ने मुझे यह कह कर झकझोरा है तू करता तो है बहुत कुछ .......लेकिन यह तेरी हाथ खड़े करने वाली बात मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आई। मेरा मन मेरे से पूछ रहा है कि तू इस बात की कल्पना कर कि अगर कल को तेरा बेटा ही यह गुटखा शुरू कर दे तो क्या हाथ पर हाथ रख कर बैठा रहेगा या फिर बेबसी से तब भी अपने हाथ खड़े कर देगा....................नहीं, नहीं,....................मेरी अंदर से आवाज़ आई......मैं तो उस की यह लत छुड़वाने के लिए ज़मीन-आसमां एक कर दूंगा।
तो फिर अपने आप से जो प्रश्न किया वह यही था कि क्या तू इस देशों के लाखों बच्चों के लिए भी ज़मीन-आसमां एक नहीं कर सकता...............तुझे ऐसा करने से कौन रहा है................ये भी तो किसी के बच्चे हैं ....किसी के सगे हैं....................सो, ऐसे हाथ खड़े करने से काम नहीं चलेगा। चल उठ जा, और इन नशीले पदार्थों के विरूद्ध छेड़ी जंग को पूरी बहादुरी से बिना किसी बात की परवाह किये बिना लड़।
इसलिए अब तो वह हाथ खड़े करने वाली बात के बारे में कभी सोचूंगा भी नहीं... क्योंकि अभी तो इस जंग की शुरूआत ही हुई है।
इसे दुनिया का आठवां अजूबा न कहूं तो और क्या कहूं?
एक एक्सपेरीमैंट( प्रयोग) की तरफ़ मेरा ध्यान जा रहा है.......क्या है ना, कि अगर हम एक किसी दिन दाल या सब्जी की एक सी मात्रा अपने किसी नज़दीकी रिशतेदार महिला( मां, नानी-दादी, पत्नी, बहन, भाभी, मौसी.....) को दें और साथ एक जैसे मसाले एक ही मात्रा में दे दें, उसे पकाने के बर्तन भी एक जैसे ही उपलब्ध करवा दें, किस प्रकार की आंच सभी प्रतिभागियों द्वारा उस दाल-सब्जी को बनाने में इस्तेमाल होगी, लगे हाथों इस को भी स्टैंडर्डाइज़ड कर दिया जाये.........................इतना सब करने के बावजूद क्या आपको लगता है कि उन सब के द्वारा बनाये हुये खाने का ज़ायका एक सा ही होगा। नहीं ना, कभी हो ही नहीं सकता, आप भी मेरी तरह यही सोच रहे हैं ना..........बिल्कुल सही सोच रहे हैं। अपनी नानी के हाथ के पकवान आखिर क्यों हम सब उस कागज की किश्ती और बाऱिश के पानी की तरह हमेशा अपनी यादों की पिटारी में कैद कर लेते हैं..........आखिर यार कुछ तो बात होगी। क्यों हमारी माताओं द्वारा हमें बेहद प्यार से बना कर खिलाये गये पकवान अगली पीढ़ी के लिए बिल्कुल एक स्टैंडर्ड का काम करते हैं......यार, मां तो ऐसा बनाती है या बनाती थीं........इस में अगर मां के बनाये पकवान की तरह यह होता तो क्या कहने......। बस, ऐसी ही बहुत ही बातें , जो इस देश के घर-घर में नित्य-प्रतिदिन होती रहती हैं।
सोचता हूं कि यह तो थी ...रोटी, दाल, सब्जी की बात......लेकिन अगर इसी प्रयोग को चाय के ऊपर भी किया जाये तो भी इस के परिणाम हैरतअंगेज़ ही निकलेंगे.....आप एक घूंट भर कर ही बतला दोगो कि आज चाय बीवी ने बनाई है या यह मां के हाथ की है.............................सोचता हूं कि ऐसा कैसे संभव है, घर की सभी महिलायें इन में एक जैसा चीज़ें डालती हैं, .....आंच भी एक जैसा , समय भी लगभग एक ही जैसा, लेकिन आखिर यह सब संभव कैसे हो पाता है कि हम झट से ताड़ लेते हैं कि आज की दाल तो पानी जैसी पतली बनी है , सो यह करिश्मा तो सुवर्षा मौसी ही कर सकती है ...................केवल फिज़िकल अपियरैंस ही क्यों, इस की महक, इस का स्वाद सब कुछ एक दम बदल सा जाता है। मेरी लिये तो भई यह ही इस दुनिया का आठवां अजूबा है.......क्या आप को यह किसी भी तरह के अजूबे से कम लगता है। लेकिन इस का जवाब देने से पहले अपने नानी –दादी के प्यार से बनाये गये और उस से दोगुने लाड से परोसे गये पकवानों की तरफ़ ध्यान कर लेना और तब अपने दिल पर हाथ रख कर इस बात का जवाब देना।
चलते चलते ज़रा इस की तरफ़ भी तो थोड़ा झांके कि आखिर ऐसा क्यों है......ऐसा इसलिये है क्योकि चाहे एक जैसे मसाले यूज़ हो रहे हैं, एक ही प्रकार का आंच यूज़ हो रहा है( बार –बार मैं इस आंच के एक ही तरह के होने की बात जो किये जा रहा हूं ...वह केवल इसलिए ही है कि इस हिंदी ब्लोगिंग कम्यूनिटि में कुछ युवा लोग ऐसे भी तो होंगे जिन्होंने कभी चुल्हे पर पकाई गई दाल खा कर उंगलीयां न चाटी हों......etc.) …….तो आखिर फिर यह अंतर कैसे पड़ जाता है ....................मेरा विचार है यह जो एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटक है ना....इसे आप प्यार कहिए, दुलार कहिए, इसे आप भावना कहिये, इसे आप श्रद्धा कहिये.......................मेरा क्या है, मैं तो लिखता हूं जाऊंगा.........सारा अंतर इस की वजह ही से होता है............हमें वह बात तो पहले ही से पता है...जाकी रही भावना जैसी.....................। बाकी इस पर ज़्यादा प्रकाश तो निशा मधुलिका जी डाल सकती हैं जो कि अपने हिदी बलोग के माध्यम से नाना प्रकार के व्यंजनों से तारूफ करवाती रहती हैं।
और हां, एक बात और भी याद आ रही है कि पहले तो इन मसालों वगैरह के नाप-तोल के लिए ये चम्मच तक भी इसेतमाल नहीं होते थे........................मेरी नानी के के चौके में भी एक लकड़ी की नमकदानी( पंजाबी में इसे लूनकी और आज कल रैसिपि बुक के एक एक लाइन पढ़ कर खाना बनाने वाले कुछ लोग इसे masala-box भी कह देते हैं---क्या है ना कम से कम नाम तो ट्रेंडी हो.....ऐसा भी ना हो कि लूनकी कह दो और किसी की भूख ही मर जाये) .....................हुया करती थी, और मुझे अच्छी तरह से याद है कि चुस्तीलेपन से, बेपरवाह लहजे से, पूरे आत्मविश्वास के साथ बस झट से कुछ चुटकियां भर भर कर वह सब्जी बनाते समय पतीले में या कडाही में उंडेल दिया करती थीं..............और लीजिए तैयार है खाना –खजाना शो-वालों को ओपन-चैलेंज देता हुया एक डिश............ओह नो, सारी, डिश नहीं भई, तब तो सीदी सादी दाल, रोटी , सब्जी ही हुया करती थी.........जिसे खाने के बाद एकदम खूब नशा हो जाया करता था।
लेकिन इन फाइव-स्टारों के खाने में मज़ा क्यों नहीं आता......................क्योंकि मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस खाने में टैक्नीकली सब कुछ ठीक ठाक होता है, शायद शुद्धता भी पूरी, परोसने का सलीका भी रजवाड़ो जैसे, ...........लेकिन आखिर इस में फिर कमी क्या रह जाती है...........................बस वही भावना की कमी होती है, और क्या । इस भावना से एक बात और भी याद आने लगी है कि पहले जब रसोई-घर में सब एक साथ बैठ कर खाना खाते थे तो ज़ायका अच्छा हुया करता था....या अब ड्रैसिंग-टेबुल पर सज कर जो खाया जाता है......................ओ.के......ओ.के..........मैं भी थोड़े अनकम्फर्टेबल से प्रश्न पूछने लगा हूं.....ठीक है, हमारा मन तो सच्चाई जानता है, बस इतना ही काफी है, लेकिन भई आखिर क्या करें, इस संसार में रहना भी तो है, थोड़ा दिखावा भी तो ज़रूरी है।
मेरा ख्याल है अब बस करूं........इसे चाहे तो आप मेरे द्वारा इस महान देश की हर मां, हर बहन, हर बीवी, हर भाभी , हर नानी, हर दादी ....................के मानवता की अलख जगाये रखने के लिए उस के द्वारा दिये गये अभूतपूर्व योगदानों के लिए उसे थोड़ा याद कर लेने का एक तुच्छ प्रयास ही समझें , चाहे कुछ और समझें......लेकिन मेरे लिए तो यही दुनिया का आठवां अजूबा है.........................
अफसोस, इन्हें कभी किसी समारोह में लाइफ-टाइम अचीवमैंट अवार्ड से सम्मानित नहीं किया.... वैसे पता है क्यों., क्योंकि इस देवी को किसी भी बाहरी सम्मान की न तो कभी भूख थी, न ही कभी भूख रहेगी। इस ने तो बस केवल अपने आप को इस मेहनत-मशक्तत की भट्ठी में जलाना ही सीखा है...................लेकिन वह इस में भी खुश है.................। पता नहीं, कईं बार सोचता हूं कि इस देश की नारी के ऊपर , उस के द्वारा दिये जा रहे योगदानों के ऊपर यथार्थ-पूर्ण किताबैं लिखी जानी चाहिये।
और एक तरफ हम हैं............हमारी नीचता देखिए ...कितने सहज भाव से बिना कुछ सोचे-समझे कितने बिनदास मोड में कईं बार कह देते हैं , कह चुके हैं और शायद कहते रहेंगे.....................कि यार, अपनी नानी भी थी बिल्कुल अनपढ़ लेकिन खाना बनाने में तो बस उस का कोई जवाब भी नहीं था। सोचने की बात है कि इस तरह के वाक्य बोल कर हम इन महान देवियों के योगदान को कितनी आसानी से नज़र-अंदाज़ करने का प्रयत्न कर लेते हैं। तो, फिर अब आप कब अपनी नानी-दादी की बातें हम सब को सुना रहे हैं।
पोस्ट लंबी ज़रूर है , लेकिन मुझे तो बस इतना ही लग रहा था कि मेरी स्वर्गीय नानी मेरे पास ही बैठी हुई थीं जिस से मैं बातें कर रहा था.......................अब बारी आप की है !!!!
शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008
हिंदी बलोगरी के मंजे हुये खिलाडीयों के नाम एक खुला पत्र.....
मेरा तो शिकायत बस यही है कि हिंदी बलोगर्ज़ अकसर किसी के प्रश्नों का जवाब नहीं देते। किसी की ब्लोग पर ,किसी की इ-मेल पर कोई टैक्नीकल बात अच्छी लगे और अगर किसी से किसी प्राइमरी स्कूल के बच्चे जैसी विनम्रता से भी पूछ लो तो भी दूसरी तरफ वाला शायद यही सोचता है कि .....चल हट, खुद ढूंढ ले। अब मुझे लगता है कि इस के बारे में आप मेरे से सहमत नहीं होंगे ...आप शायद कहेंगे कि नहीं, नहीं ,यहां तो सब बहुत ही हैल्पिंग हैं, तुम कुछ भी पूछ कर तो देखो, देखो कितने लोग जवाब देने को तैयार खड़े हैं। ........लेकिन मेरा अनुभव इस मामले में कुछ ठीक तरह का नहीं है। ठीक है, हम सब अच्छे पढ़े लिखे लोग हैं.............इंटरनैट पर बैठे हैं तो यह तो कह ही सकता हूं....कोई बात ढूंढनी होगी तो ढूंढ ही लेंगे...इंटरनैट भरा पड़ा है...सभी विषयों पर ताज़ा तरीन जानकारी से....लेकिन फिर हिंदी बलोगरी में कुछ ऐसी बात है कि आदमी किसी तरह के उम्र के भेदभाव के बिना भी अपने से छोटों को भी कईं बातें पूछ बैठता है, लेकिन अकसर मैं देखता हूं कि जिन से भी यह प्रश्न पूछे जाते हैं उनका वही कंधे झटकाने वाला एटीट्यूड नज़र आता है.......आई डोंट केयर। हैल विद यू । हां, अगर आप को लगता है कि यह हैल्पिग आप के अपने नेटवर्क ( टिप्पणीकारों का म्यूचूयल एडमाईरेशन क्लब)में ही हो रही है तो भी ठीक बात नहीं है, सारे संसार को पता लगने दो , भाई, कि हम लोग एक दूसरे से क्या सीख रहे हैं। इस में आखिर दिक्कत है क्या !
अच्छा एक बात और यह भी कहनी है कि मेरी दूसरी पोस्ट मेरी स्लेट ( http://chopraparveendr.blogspot.com) पर मैंने पिछले दिनों कुछ प्रश्न पूछे थे (देख लेंगे तो बेहतर होगा) कि क्या हम हिंदी बलोगिंग में कुछ याहू, आंसर्ज़ जैसा कुछ शुरू नहीं कर सकते। कोई रिस्पांस नहीं आई। मेरी शिकायत यही है कि कुछ इस तरह के प्लेटफार्म बनाये जायें जिस से कि कोई नया हिंदी बलोगर जो भी इस बलोगरी में कदम रखे , वो अपने आप को खोया हुया सा महसूस न करे। और तो और, अगर हम ऐसा कुछ नहीं भी कर सकते ......तो कम से कम मिल जुल कर एक ऐसा ग्रुप ब्लाग ही शुरू करें जिस में विभिन्न बलोगर्ज़ ( जो भिन्न भिन्न विषयों के अच्छे जानकार हों) हों, और वे उन से पूछे सभी प्रश्नों के जवाब देने की कोशिश करें। लेकिन उस में शर्त यह होनी चाहिए कि किसी भी तरह के उत्पादों को प्रमोट नहीं किया जाये। बिल्कुल सटीक जानकारी प्रश्न पूछने वाले को उपलब्ध करवा दी जाये, बस। या, अगर नहीं भी पता उस के प्रश्न के बारे में कुछ तो कम से कम उसे थोड़ा मार्ग-दर्शन तो दे ही दिया जाये। क्या है ना जब कोई किसी से प्रश्न पूछता है तो बहुत उम्मीद से पूछता है, यह शायद एक डाक्टर से ज्यादा कोई नहीं समझ सकता।
इस यज्ञ में मेरी आहूति.........मेरी यही आहूति है कि किसी तरह के भी स्वास्थय एवं चिकित्सा विज्ञान से संबंधित विषयों के प्रश्नों के जवाब मैं हिंदी में देने की शत-प्रतिशत कोशिश करूंगा......अगर मुझे उस विषय के बारे में नहीं भी पता तो मैं कहीं से भी ढूढ कर , किसी विशेषज्ञ का साक्षात्कार करने के बाद , बिल्कुल सटीक जानकारी उस तकलीफ के बारे में आप तक पहुंचाऊंगा। यह मेरा प्रोमिस है और मैं यह प्रतिज्ञा करता हूं कि अगर आप कोई ऐसी पहल करेंगे तो मैं जब तक भी इस हिंदी बलोगिंग से जुड़ा रहूंगा.............आप में से किसी को भी डिच नहीं करूंगा। हैल्थ-साइंसज़ के हिंदी में प्रचार-प्रसार की सारी जिम्मेदारी आप मेरे ऊपर बिना झिझक डाल सकते हैं।
देखना ,दोस्तो, अगर कुछ इस के बारे में कर सकें तो ........................Please dont feel offended if you find some words a bit harsh......लेकिन मेरी यही बुरी आदत है कि लिखते हुये फिर मैं न तो आव देखता हूं न ही ताव। इसलिए हाथ-जो़ड़ कर पहले से ही क्षमा-याचना कर लेता हूं...........इसी में ही बचाव है।
वैसे गिफ्ट का यह आइडिया कैसा है ?
हां, मैं बेहद इमानदारी से कह रहा हूं कि इस एफएम रेडियो के डिब्बे के बारे में मुझे इस से पहले कुछ भी पता न था. मैं सोचता था पता नहीं कितना ज्यादा कम्पलिकेटेड मामला है इस को मेनटेन करना । सो, अगले दिन ही मैं भी उठा लाया एक वैसा ही एफएम रेडियो.......चार पांच तो शुरू शुरू में बांट भी डाले....घर में जो भी आता , उस को सारा उस गंगाधर की बातें दोहरा देता और साथ में वह डिब्बा थमा देता। हमारे यहां काम करने वाली को भी वह बहुत अच्छा लगता था----एक दो बार उस ने श्रीमति से इतना पूछा कि यह कितने का आता है , तो दूसरे दिन उस को भी ला कर दे दिया। जब मेरी मासी को मैंने वह गंगाधर से प्रेरणा लेने वाली बात बताई तो उऩ्होंने ठहाके लगात हुये कह दियाय........प्रवीण, तू तो देखना कभी भी नहीं बदलेगा....मैंने कहा था ...कि आखिर ज़रूरत ही क्या है।
मैं यह ही नहीं कहता कि मैं तो एफएम रेडियो का शैल्फ-स्टाइलड ब्रैंड अम्बैसेडर हूं क्योंकि जब लोग किसी डाक्टर के यहां---घर में और हस्पताल में --एफ एम वाला डिब्बा बजता देखते हैं ना तो वे भी इसे सुनने के लिये प्रेरित होते हैं...........और वैसा देखा जाये तो कितना सस्ता, सुंदर और टिकाऊ साधन है यह मनोरंजन का .................तो , सोचता हूं कि ऐसा नहीं हो सकता कि आने वाले समय में लोग विवाह शादियों में भाग लेने के बाद आये रिश्तेदारों को बर्फी के डिब्बे की बजाए .........एक एक एफएम का डिब्बा थमा दिया करेंगे....बर्फी से तो मोटापा ही बढ़ेगा और यह एफएम पर आने वाले रोज़ाना डाक्टरों के प्रवचन सुन कर कुछ तो असर होगा ही । और एक बात भी तो है कि अगर मेरा यह सपना (गिफ्ट में यह डिब्बा देने वाला) पूरा हो गया तो भई अपने ब्लागर-बंधुओं ...यूनुस जी , कमल शर्मा जी (मैं समझता हूं कि वे भी रेडियो की दुनिया के साथ जुड़े हुये हैं) की रेटिंग तो आसमान छूने लगेगी।
और हम सब को बहुत अच्छा लगेगा।
यह क्या हो रहा है ?—कहां गई इन की न्यूज़-सैंस...
एक तरफ़ हो ...संजय दत्त –मान्यता द्वारा अपनी शादी की अर्ज़ी वापिस लेने की खबर और दूसरी तरफ़ यह खबर हो कि मध्य-प्रदेश और झारखंड से आ रहे 16मज़दूर ट्रैक पर चलते हुये पीछे से आती हुई ट्रेन की चपेट में आने से कुचले गये(जिसे 9वें पन्ने पर छापा गया है)......तो, किसी दूसरी कक्षा में पढ़ रहे बच्चे से पूछते हैं कि कौन सी खबर बड़ी है या कौन सी खबर अखबार के पहले पन्ने पर छपनी चाहिए थी। ...........हां, हां, मैं भी यही सोच रहा हूं कि ये मज़दूरों के कुचले जाने वाली खबर पहले पेज पर न सिर्फ़ छपनी ही चाहिए थी , वह तो उस पन्ने पर सब से ऊपर भी छपनी चाहिए थी। लेकिन पता नहीं जो अंग्रेज़ी अखबार मैं पढ़ रहा हूं इस में न्यूज़-सेलेक्शन करने वालों को क्या हो रहा है......क्या हो रहा है इन की न्यूज़-सैंस को जो इन की न्यूज़-वैल्यू को सही ढंग से देख नहीं पा रहे हैं या यह सब कुछ जान-बूझ कर होता है...........जिस के कारण हम सब अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन फिर भी यह सब कुछ हो रहा है। पेज थ्री जर्नलिज्म खूब ज़ोरों से पनप रहा है और आने वाले समय में तो और भी पल्लवित-पुष्पित होगा।
वो 16मज़दूरों वाली खबर तो आप सब ने देख सुन ही ली होगी......अगर उस को फ्रंट पेज पर लिया जाता तो क्या यह पेपर मैला हो जाता.....पता नहीं , लेकिन......। इस खबर से शायद दूसरों को बहुत कुछ सीखने को मिलता । इस खबर को पढ़ कर दुःख बहुत ही हुया ..इन 16 लोगों में से तीन महिलायें और दो बच्चे भी थे। इन लोगों की त्रासदी देखिए कि मर कर भी ये लोग हैड-लाइन नहीं बन पाते....। और वो जो संजय दत्त की शादी वाली बात है , उस की ब्रीफ –न्यूज़ जो पहले पन्ने पर थी, उस के नीचे यह भी लिखा गया था पेज 15 पर इस खबर को विस्तार से पढ़ा जा सकता है।
हां, जिस जगह मज़दूरों वाली खबर छपी थी ,उस के साथ एक खबर यह भी छपी थी कि एक महिला ने चलती रेल-गाड़ी के टॉयलेट में एक प्री-मैच्योर बेबी को जन्म दिया जो उस टायलेट के रास्ते से नीचे पटड़ी पर गिर गई.....जब महिला को होश आया, तो स्टेशन मास्टर को सूचित किया गया और फिर......फाइनल बात यही कि उस मां को अपनी बच्ची मिल गई और दोनों ठीक हैं......इसे पढ़ कर बहुत खुशी हुई। एक बार ऐसी खबर पढ़ लेने के बाद सारी उम्र बंदा उस कहावत को कैसे भूल सकता है.......जाको राखे साईंयां, मार सके न कोय....बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय। हम कह तो देते हैं कि इस देश को वह ऊपर बैठा खुदा ही चला रहा है, लेकिन क्या ऐसी खबरें पढ़ने के बाद इस में कोई शक की गुंजाइश रहती है। अपना मन टटोल कर बतलाइए कि क्या आप को इस मां-बच्ची वाली खबर को पहले पेज़ पर लेने वाली कोई बात नहीं लगती.......................क्या करें, लगती है,भई लगती है , बहुत लगती है...और भी बहुत कुछ लगता है, लेकिन क्या करें भई दाल-रोटी का चक्कर है, बच्चे भी तो पालने हैं............................वैसे,आप भी अपनी जगह पर ठीक हैं, लेकिन यहां ब्लोगिंग में तो कोई ऐसा दाल-रोटी का रोना नहीं है, इस में तो दिल खोल लिया कीजिए।
इस बच्चे पालने वाली बात से याद आया है कि बेटा आवाज़े लगा रहा है कि चल, बापू , अब उठ भी जा, बस स्टैंड पर छोड़ कर आ जा, आज भी बस मिस हो गई तो फिर ब्लोग में अपनी शिकायत डाल देगा। सो, अब तो उठना ही पड़ेगा।
यह खबर यहां कर क्या रही है ?
गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008
यह रही मेरी तीस साल पुरानी कालेज की नोटबुक...
अचानक मुझे ध्यान आया है कि आज मैं अपने कालेज के दिनों की नोटबुक अपनी पोस्ट पर डालूं….यह नोटबुक 1978 की है जैसा कि आप इस में लिखी तारीख से जान ही गये होंगे। तब मैं डीएवी कालेज अमृतसर में प्री-यूनिवर्सिटी (मैडीकल) का विद्यार्थी था। बस कालेज के दिनों की एक अदद यही याद बची हुई है। लेकिन ऐसी नोटबुक मैं हर विषय की बनाया करता था…..हर विषय(फिजिक्स , कैमिस्ट्री, बायोलाजी, इंगलिश) की बनाया करता था। हर विषय की कईं कईं नोटबुक्स तैयार हो जाया करती थी।
आज सोच रहा हूं कि हम दिल से पढ़ते थे…जिस का परिणाम इस कालेज के मैगजीन की इस फोटो में आप देख रहे हैं.।कालेज से आते ही बस यही जल्दबाजी होती थी कि आज के नोट्स आज ही बनाने हैं…सो, बस खाना खाने के बाद रेडियो लगा कर लग जाता था काम करने…ताकि शाम के समय खेलने का समय भी मिल सके। बड़े अच्छे दिन थे…..पर पता नहीं इतने जल्दी बीत गये हैं।
हर विषय के नोट्स बनाने का फायदा यह होता था कि रोज़ का काम एक तो रोज़ ही रीवाइज़ हो जाता था और ऊपर से लिखने की प्रैक्टिस हो जाया करती थी। इन नोट्स को बनाने में मैं अपने कालेज के प्रोफैसरर्ज़ के क्लास नोट्स और किसी एक-दो किताबों की मदद भी ले लिया करता था। बस, यह नोट्स फाइनल ही हुया करते थे….पेपर के दिनों में इधर उधर कहीं भी माथा-पच्ची करने की कोई ज़रूरत ही नहीं होती थी। बस इन्हें अच्छी तरह से रिवाइज़ करना ही काफी होता था।
लेकिन आज कल के बच्चों का रूझान कभी भी नोट्स बनाने की तरफ दिखा नहीं ….ऐसा है ना टाइम तो फिक्स ही है, या तो बीसियों चैनलों की सर्फिंग कर लें, दो-तीन ट्यूशनों से जब तक हो कर आते हैं थक कर टूट चुके होते हैं। यह मेरा बहुत ही पक्का विश्वास है कि इन टयूशनों ने तो हमारी शिक्षा-प्रणाली का बेड़ा ही गर्क कर लिया है। लिखने की तो इन को प्रैक्टिस रही नहीं है।
अच्छा , मुझे पता एक-दो दिन से ये नये ऩये आइडियाज़ कहां से आ रहे हैं…मुझे लगता है यह मैडीटेशन का करिश्मा है जिसे मैंने पुनः नियमति तौर पर रोज़ाना करना शुरू कर दिया है। अब मन की स्लेट रोजाना साफ होगी तो ही मैं अपनी इस स्लेट पर कुछ नया लिखने में कामयाब होऊंगा……आशीर्वाद दें कि यह सिलसिला इस तरह ही चलता रहे।
कृपया नोट करें कि मैं अभी ये फोटो-वोटो अप-लोड करने में अनाडी हूं...फोटो तो और भी बहुत डालने वाली हैं ,कुछ ज़रूरी टिप्स बतलायेंगे तो मैं आभारी हूंगा।
मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008
अब आप होम-वर्क की भी परवाह नहीं करते !
मैं बहुत अफसोस से यह कह रहा हूं कि मैंने इसी बलोग की पिछली पोस्ट पर रविवार के दिन आप को एक होम-वर्क दिया था, लेकिन केवल उन्मुक्त जी ने ही उसे सीरियसली लिया है और अपना होम-वर्क कर के दिखाया है। आप क्यों नहीं कर रहे ? ---नहीं , नहीं ,कोई बहानेबाजी यहां नहीं चलेगी। आप अभी इस से पिछली पोस्ट देखिए और एक-दो दिन के अंदर जैसा कहा गया है वैसा करिये।
मैं इस बारे में बहुत ही गंभीर हूं कि हम ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को कंप्यूटर और इंटरनेट के साथ जोड़ने के लिए क्यों ना कुछ हिंदी में याहूआंसर्ज़ या उस से भी बढ़िया कुछ शुरू करें। जिस में तरह तरह के जिज्ञासु हमारी अपनी भाषा के साथ जुड़ेगें। कुछ इस तरह के ही प्रश्न मैंने होम वर्क में दिये हैं , तो क्या आप को यह होम-वर्क मुशिकल जान पड़ रहा है। अगर नहीं, तो दौड़ा डालिए अपनी उंगली को अपनी की-बोर्ड पर......
NOTE……………Please take it seriously ….otherwise matter will be reported to worthy Principal .
ऐसी फुकरापंथी से क्या हासिल ?
तो , आज सुबह सुबह जब टाइम्स ऑफ इंडिया में यह पढ़ा कि मोदीनगर(गाजियाबाद) में किसी विवाह के दौरान ऐसे ही मस्ती में एक देशी पिस्टल से चली गोली से किसी के 14 साल के लाडले ने जान ले ली। खबर में तो यह भी बतलाया गया कि वहां पर मौजूद मेहमानों ने गोली चलाने वाले की इतनी पिटाई की कि उसे हस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा। मैं यही सोच रहा हूं कि एक बंदे की फुकरापंथी से किसी के तो गुलशन में ही वीराना हो गया ना.....अब केस तो उस पर भी चलेगा....।
..( मेरा दिमाग तो मुझे अपने मुंह पर उंगली रखने को कह रहा है और कह रहा है कि तू ज़्यादा मत बोला कर, लेकिन मन मान नहीं रहा.....इसीलिए दोस्तो मैं तो भई अपने आप को सफल बलोगर तभी मानूंगा जब मैं लिखते समय शत-प्रतिशत अपने मन की ही बात मानूंगा..................लेकिन इमानदारी से कह रहा हूं कि मैं कोशिश तो पूरी करता हूं ....लेकिन शत-प्रतिशत मैं अपने मन की नहीं सुन रहा हूं......मेरा तो उद्देश्य यही है कि कुछ भी हो अपने मन की 100% माना करूं....लेकिन क्या करूं ..हूं तो बुझदिल ही ना.......हालांकि यह मुझे भी अच्छी तरह से पता है कि यहां पर 99 और 100 प्रतिशत में भी ज़मीन आसमान का अंतर है। क्योंकि यह जो एक परसेंट है न यही हमें जीने नहीं देता.....कचोटता रहता है कि यार, तू बंदा है , तू अगर लिखने जैसी चीज़ में भी अपने दिल की बात नहीं मान रहा तो आखिर कर क्या रहा है। सो, मुझे तो केवल आशीर्वाद दीजिए कि मैं इस मिशन में सफल हो पाऊं...और मैं आज 26फरवरी 2008 तो आप से यह वायदा करता हूं कि मेरा मिशन ही लेखन में इस स्तर तक पहुंचना है, नहीं तो क्या है, ऐसे ही क्या लिखने का फ्राड करना.....बहुत से बड़े से बड़े विचारक एवं लेखक इस महान देश में पड़े हैं , लेकिन रोना वही है ना कि उन को इस इंटरनैट पर पहुंचने में पता नहीं कितने ज़माने लग जायेंगे......फिर सोचता हूं कि बाबा बुल्लेशाह , भगत कबीर , बाबा फरीद या उस महान मुंशी प्रेमचंद के पास क्या ये सब कुछ सुविधाएं थीं.....नहीं ना, तो फिर क्यों उन सब का नाम दुनिया में हीरे-ज्वाहरातों से लिखा हुया है और हमेशा लिखा रहेगा।
ओ हो , एक तो मैं बाल की खाल बहुत खींचने लगता हूं...शुरू कहां से हुया था और कहां पहुंच गया हूं। हां, तो बात हो रही थी किसी फुकरे की जिस ने एक 14साल के किसी मां के दुलार, किसी बाप के संसार , किसी बहन के नाज़ को गोली का निशाना बना दिया। उस केस का आगे चल कर क्या होगा, इस में क्या पड़ें.....लेकिन इस से क्या वह बेचारा विवाह में हंसी खुशी खेल रहा बच्चा वापिस आ जायेगा। इसलिए मुझे इस तरह की फुकरापंथी करने वालों से बेहद शिकायत है , क्योंकि तुम ने तो भई दिखा लिया अपना शोहदापन , लेकिन किसी परिवार का तो संसार ही लुट गया।
यह तो था कि किसी की जान ही चली गई, लेकिन मैं आप को ब्रीफ में एक ऐसी सच्ची बात बताता हूं जिस में एक छोटी सी लड़की की पूरी दाईं बाजू ही उड़ गई थी। जी हां, यह लड़की अमृतसर में हमारे पड़ोस में ही रहती थी......हम इक्ट्ठे ही खेलते थे...बहुत नेक-दिल लड़की थी, अच्छी दोस्त थी। उस के दाईं बाजू केवल कंधे तक ही थी.....हमें बताया गया था कि वह जब गोद में ही थी तो अपने किसी मामा की शादी में अंबाला गई हुई थी, ...उस के रिश्तेदार ने उसे गोद में उठाया हुया था , इतने में ही बारात में किसी ने हवा में गोली दाग दी...जो गलती से उस की बाजू में लगी ...और उस का खौफनाक रिजल्ट हमारे सामने था। बहुत गुस्सा आता था जब भी कभी उस के बारे में घर में बात चलती थी...खून खौलने लगता था।
और एक रोना यह भी है ना कि अकसर विवाह शादियों में सब रिश्ते की तारों के साथ जुड़े होते हैं , तो किसी के ऊपर कानूनी कार्रवाई करने की बात सोचना ही मूर्खता होगी.....अगर शुरू शुरू की गर्मी में कुछ थोड़ा बहुत कहा-सुना भी जाता है तो उस को हमारे भारतीय समाज के बोझिल रिश्तों का ताना-बाना ऐसा दबा देता है कि यह मात्र एक दबी चीख ही बन कर रह जाती है। हमारे पड़ोस में रहने वाली मेरी मित्र से भी कुछ यही हुया था। लेकिन अभी सोच रहा हूं कि यार , हम लोग कुछ बचपन से ही बहुत सेंसेटिव से, कुछ ज्यादा ही अंडरस्टेंडिंग रहे होंगे ...मुझे नहीं याद, खुदा कसम, कि कभी भी हम में से किसी भी बच्चे ने उस का सपने में भी मज़ाक बनाया हो या चिढ़ाया हो.....। हम उस को इतना अपनी सारी गतिविधियों में इन्वाल्व कर के रखते थे और वह भी बहुत हिम्मत वाली थी....आत्मविश्वास तो उस में कूटकूट कर भरा हुया था.....आज कल वह दिल्ली के एक सरकारी कार्य में सर्विस कर रही है......अपने परिवार में खुश है...अभी दो-तीन साल पहले मिले थे.......।
बस , यार , अब विराम लेता हूं...जब से सुबह वाली खबर पढ़ी है ना मूड खराब है। धिक्कार है ऐसी फुकरापंथी पर। पता नहीं हमें कब इन बातों की अकल आयेगी। आज के ज़माने पर में भी इस तरह के शौक पालने.........मुझे शिकायत है, बहुत शिकायत है,....बहुत ज़्यादा शिकायत है.......................चलिए अकेला ही बकता जाता हूं, कभी तो किसी के मन को लगेगी।
जो भी हो, मुझे वह ऊपर वाला आशीर्वाद( जो मैंने आप से मांगा है) देना न भूलियेगा।
सोमवार, 25 फ़रवरी 2008
चलिए आज छुट्टी का दिन है-- आप सभी हिंदी बलोगर्स को एक होम-वर्क दें.....
अब मुझे ही देखिए ...मैं हमेशा तम्बाकू –गुटखे के पीछे ही पड़ा रहता हूं या अपनी स्लेट बलोग पर बस कुछ भी लिख कर टाइम को धक्के दे रहा हूं, कोई मक्की की रोटियों की विधि बता रहा है, कोई भड़ास निकालने के लिए हल्ला-शेरी दे रहा है, कोई हल्ला बोलने की हिम्मत जुटवा रहा है, कोई निठल्ला चिंतन कर रहा है, किसी की मानसिक हलचल ने धूम मचाई हुई है, कोई टिप्पणीकार सभी टिप्पणी पर नज़र रख रहा है, कोई स्वामी जी इ-जगत के बारे में बताते हैं, किसी की कतरनें हमारा दिल बहला रही हैं, कोई तरकश में बहुत कुछ लिये नज़र आ रहा है, कोई अपनी ही धुन में हिंदो विश्वकोष बनाने में व्यस्त हैं, कोई संता-बंता के चुटकुले सुना रहा है.......दोस्तो, ये सब बहुत ही महान काम हैं....इसमें रत्ती भर भी शक नहीं है, जो बंदा अपनी भाषा से प्रेम के वशीभूत यह सब किया जा रहा है, वह तो एक बहुत सेवा का काम कर रहा है।( कृपया इस पैराग्राफ के भाव को समझते हुए अन्यथा न लें, नोट करें सब से पहले मैंने अपना ही नाम लिया है.......कृपया इसे खेल-भाव से लें...धन्यवाद)
लेकिन एक हिंदोस्तानी के मन में भी शायद कुछ ऐसा प्रश्न हिलोरे खा रहे हैं जिन का जवाब उसे कहीं से ठीक से मिल नहीं रहा, नेट पर सामग्री तो है लेकिन वह अंग्रेज़ी में इतना प्राफीशियेंट नहीं है कि इसे अच्छी तरह से समझ सके। इसलिए जो आम हिंदोस्तानी नेट पर आ रहा है उसे हिंदी की साइट्स तक खींच लाने का मेरे पास एक सुझाव है......मैं सोच रहा हूं कि जैसे याहू. आंसर्ज़ ( Yahoo! Answers) की सर्विस है , हम सब मिल कर इस के बारे में सोचें और कुछ इस तरह का हिंदी में भी एक प्लेटफार्म तैयार करें जिस में लोग अपना प्रश्न लिखें....फिर जो भी चाहे उस का जवाब दे...लिखने वाले को यह सुविधा हो कि वह चाहे हिंदी में प्रश्न पूछे या अंग्रेज़ी में ,लेकिन हिंदी लेखकों की तरफ से यही कोशिश हो कि वे जवाब हिंदी में ही लिखें......इस से लोगों को कंप्यूटर पर हिंदी लिखने के लिए भी प्रेरणा मिलेगी....और खेल खेल में यह सब सीख जायेंगे। और तो और क्या इंटरनैट पर हिंदी की चैटिंग....( बलाग्स पर नहीं , जस्ट खुले में .....किसी दूसरे प्लेटफार्म पर जैसे याहू में होती है) नहीं हो सकती ।
मुझे तो इस के बारे में कुछ खास पता नहीं है लेकिन अगर याहू आंसर्ज की तरह कुछ हिंदी में हो जाये तो मज़ा आ जाये। इस से लगता है कि इंटरनैट पर हिंदी की तस्वीर ही बदल जायेगी। हिंदी भाषा के लेखकों को एक दिशा मिलेगी।......और हां,साथ ही साथ हम सब हिंदी बलोगिंग तो करते ही रहेंगे।
तो , आप सब धुरंधर लिक्खाड़ो के लिए ( जैसा कि वह चिट्ठों का चांदनी चौंक कहता है) यह होम-वर्क है कि इस के बारे में सोचें.....आप में से बहुत से तो टैक्नीकल एक्सपर्ट हैं, बहुत से बहुत पुराने लिक्खाड़ हैं....इस लिए इस के बारे में ज़रूर कुछ करें....जब तक आप इस के बारे में कुछ नहीं करेंगे...मैं आप सब के पीछे पड़ा ही रहूंगा...यानि इस तरह की पोस्टें प्रकाशित कर कर के आप को बोर करता रहूंगा।
चाहे मुझे इस में इन्वाल्व टैक्नीकैलिटिज़ की ज़रा भी समझ नहीं है, लेकिन मुझे इतनी आशा ज़रूर है कि आप सब के सहयोग से हिंदी में याहू, आंसर्ज जैसे कुछ तो क्या ,और भी बहुत कुछ संभव है। तो, चलो, सब मिल कर हम भी कुछ सबक इंटरनैट पश्चिमी देशों को सिखायें.....बहुत हो गया पीछे पीछे चलना, अब घिन्न आने लगी है। तो चलिए कुछ नया सोचॆं , कुछ नया करें और हिंदी की मशाल सारे संसार में प्रज्जवलित करें।
और हां, अगर ऐसा कुछ हिंदी भाषा में पहले से ही कुछ ऐसा हो रहा है तो इस के बारे में मझे भी प्लीज़ बतलाइयेगा....और इस मामले में मेरे अनाड़ीपन को हिंदी बलोगिंग में एक फ्रैशर समझ कर माफ कर दीजिएगा......अब आप सीनियर होने के नाते इतना भी नहीं करेंगे क्या ?
शनिवार, 23 फ़रवरी 2008
कैज़ुएल सैक्स भी एक एट्म बम ही है....
श्रीमान, एक मिनट ज़रा मेरी बात सुनिए.....
(अगर आप शादीशुदा नहीं हैं)
तो शादी से पहले संभोग से दूर रहें
(अगर आप शादीशुदा हैं, तो)
अपने जीवन साथी के प्रति सदैव वफादार रहें।
(यदि आप अकसर संभोग करते रहते हैं, तो)
मुझे हमेशा अपने साथ रखिए
मेरा नाम कॉन्डोम है
कॉन्डोम (निरोध) का प्रयोग करने में बिल्कुल भी शर्म न करें
क्योंकि....
कॉन्डोम आपको एस.टी.डी/एच.आई.वी / एड्स से बचाता है।
इस समय , मैं केवल आपको
एस.टी.डी/एच.आई.वी / एड्स
से बचा सकता हूं।
मैं अनचाहे गर्भ से भी रक्षा करता हूं
इसमें कोई संदेह नहीं है कि , कॉन्डोम का प्रयोग करने से आपकी सुरक्षा के साथ-साथ आपकी खुशी में भी इजाफा होगा।
एक मात्र अनुरोध
यह मत भूलिए कि ज्यादातर असुरक्षित यौन संबंधों के कारणों से ही एच-आई-व्ही / एड्स फैलता है। एक से ज्यादा व्यक्तियों के साथ संयुक्त संभोग न करें क्योंकि एच.आई.वी संक्रमण 15से 49वर्ष तक की आयु समूह में बड़ी तेज़ी से फैलता है। ................
तो यह तो था आज विज्ञापन जो मुझे सुबह दिखा । अच्छा खासा क्रियएटिव इश्तिहार है, शायद आप को भी कुछ ऐसा ही लगा होगा।
लेकिन मेरे मन में एड्स से संबंधित कुछ मुद्दे कौंध रहे हैं। अब इस विज्ञापन की पहली पंक्ति की तरफ ध्यान करते हैं कि अगर आप शादीशुदा नहीं हैं तो शादी से पहले संभोग से दूर रहें। अकसर सोचता हूं कि क्या मात्र ऐसा नुस्खा थमा देने से ही यह संभव हो जायेगा कि लोग शादी से पहले संभोग से दूर रहने लग जायेंगे। मुझे पता नहीं आप का इस के बारे में क्या ख्याल है ! ….वैसे सब कुछ कहने में कितना आसान सा लगता है....वो कहते हैं न कि जुबान में हड्डी थोड़े ही होती है। लेकिन मीडिया में आये दिन हो रहे बलात्कार, डेट-रेप, छोटी छोटी उम्र की बच्चियों के साथ दुष्कर्म तो कुछ और ही कह रहा है। ठीक है , ऐसे विज्ञापन लोगों में इस तरह के विवाह-पूर्व संबंधों के प्रति भय पैदा करते हैं और यह खौफ़ पैदा किया भी जाना चाहिए। लेकिन क्या यह काफी है?—मुझे तो नहीं लगता ।
मैं तो ऐसा सोचता हूं कि युवाओं की परवरिश ही कुछ इस तरह से की जानी चाहिए कि उन्हें अपनी ऊर्जा उपयोग करने के सकारात्मक विकल्पों की तरफ प्रेरित किया जाना चाहिए। ज़िंदगी में हर चीज़ का एक समय है....हमारे तो सारे शास्त्र ब्रह्मचर्य के पालन की बातों से भरे पड़े हैं.....हां, वो बात अलग है कि एक तो आजकल इस की कोई परवाह कर नहीं रहा......35-40 साल तक लोग शादी न करवाने में अपनी शान समझने लगे हैं.......लेकिन...... ; एक बात और भी है ना कि सभी तरह के मीडिया में इतनी हद तक अश्लीलता परोसी जा रही है कि युवाओं का बिना बहुत ही उत्तम पारिवारिक संस्कारों की नींव के इस से बच कर रहना बेहद कठिन होता जा रहा है....चाहे वे इसे एक्सपैरीमेंटल कहें , या जस्ट स्टाइल कहें.........कुछ भी कहें , यह स्वीकार्य नहीं है। एक तो सब से बड़ा अजगर एचआईव्ही संक्रमण सारे विश्व के सामने मुंह फाड़े खड़ा है और वैसे भी भावनात्मक स्तर पर भी देखा जाये तो किसी की फीलींग के साथ खिलवाड़ कर के बंदा कभी भी मानसिक तौर पर सही नहीं रह पाता। सो, युवाओं को अपना ध्यान योग में लगाना होगा, खान-पान सादा रखना होगा और लेट-नाइट पार्टियों एवं डेट-वेट के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए.....ये सारे लफड़े बस इन्हीं बातों से ही शुरू होते हैं जो शुरू शुरू में मामूली दिखती हैं, लेकिन अभिभावक शायद अपनी कुछ ज़्यादा ही मसरूफीयात की वजह से देखा-अनदेखा कर जाते हैं। सीधी सी बात है कि शादी से पहले सैक्स संबंधों का कोई स्थान नहीं है। शायद इस ब्लोग में या मेरी हैल्थ टिप्स वाली ब्लोग (http://drchopraparveen.blogspot.com) पर मैंने कुछ समय पहले शादी से पूर्व एचआईव्ही टैस्टिंग की बात शुरू की थी, अगर कभी समय हो तो देख लीजिएगा।
चलिए , वापिस उस विज्ञापन की तरफ आते हैं.....उस में एक बात यह लिखी है कि यदि आप अकसर संभोग करते रहते हैं, तो मुझे हमेशा अपने साथ रखिए --- मेरा नाम कॉन्डोम है।
यह पंक्ति पढ़ कर कुछ इस तरह नहीं लगता कि अकसर संभोग करने को गली के नुक्कड़ में खड़े चाट-पापड़ी वाले से चाट खाने के बराबर खड़ा कर दिया गया है। जब इस तरह की बात होती है तो मुझे यह बेहद आपत्तिजनक लगता है ......क्योंकि मैं यह सोचता हूं कि इस तरह की स्टेटमैंट फेयर सैक्स के साथ सर्वथा फेयर नहीं है......This is not some commodity which anybody can choose to relish anywhere provided he has a condom in his pocket……यह कोई वस्तु थोड़े ही है जिसे जब चाहा भोग लिया बस आपकी जेब में एक कॉन्डोम होना ज़रूरी है। ऐसा कह कर क्या हम नारी को अपरोक्ष रूप में अपमानित नहीं कर रहे......आखिर क्यों हम इसे केवल मैकेनिकल क्रिया के रूप में देख रहे हैं......इस के भावनात्मक पहलूओं को हमेशा नज़र-अंदाज़ कर दिया जाता है , यह मेरी समझ में कभी नहीं आया। आप से अनुरोध है कि मेरी इसी ब्लोग पर या हैल्थ टिप्स वाली ब्लोग पर वह वाली पोस्ट भी ज़रूर पढ़े.....नहीं , मैं किसी ऐसी वैसी जगह पर नहीं जाता।
इस में कोई संदेह नहीं है कि कॉन्डोम का सही इस्तेमाल स्त्री एवं पुरूष दोनों को एचआईव्ही संक्रमण से बचाता है। लेकिन हम क्यों नहीं समझते कि क्या जब कोई व्यक्ति किसी तरह के कैज़ुएल सैक्स में , वन-नाइट स्टैंड(रात गई,बात गई) जैसी जगहों में खोया पाता है तो क्या केवल हमारे द्वारा उस के हाथ में एक कॉन्डोम थमाने से ही सब कुछ ठीक ठाक हो जायेगा। ऐसा मैं इस लिए कह रहा हूं कि शरीर की अन्य फ्लूएड्स( body fluids) में भी कईं तरह के विषाणु, हैपेटाइटिस बी वायरस इत्यादि अथवा अन्य बीमारियों ( जिनके बारे में अभी तक पता ही नहीं है) के जीवाणु मौज़ूद रहते हैं..........तो कहने का भाव यही है कि संक्रमित व्यक्ति द्वारा मुख से मुख चुंबन के दौरान जो कुछ हो रहा है, वह भी इतना सुरक्षित नहीं है जितना लोग समझने लग गये हैं।
सीधी सी बात है कि हम अपनी संस्कृति की तरफ देखें तो इस में इन विकृतियों के लिए कोई जगह ही नहीं है। ऐसे खेल पल भर के लिए रोमांचक तो हो सकते हैं लेकिन जान-लेवा भी सिद्ध हो सकते हैं। मेरी तरफ आप को भी ध्यान आ रहा होगा कि अगर हमारे पुरातन लोग इन विकृतियों से इतने ही अनछुये से थे, तो ये जो प्राचीन इमारतों पर आकृतियां पत्थरों में खुदी हुई हैं, क्या वे मात्र किसी कलाकार की कल्पना ही हैं। इस के बारे में तो मेरा ज्ञान सीमित है ...मैं तो केवल इतना ही कह सकता हूं कि शायद तब एड्स और एस.टी.डी जैसे रोग थे नहीं या किसी को इन के बारे में पता नहीं था....शायद जब कोई इस तरह के रोगों से मरता होगा तो तब भी यही कह दिया जाता होगा कि बस लिखवा कर ही इतनी लाया था।
लेकिन कुछ भी हो आज के दौर में यह यौन-विकृतियों ने कुछ इतना भयानक रूप ले लिया है कि इस के बारे में हमें कुछ करना ही होगा...अगर ऐसा नहीं होता तो इस एड्स कंट्रोल सोसायिटी को अपने विज्ञापन में यह लिखवाने की ज़रूरत भी न पड़ती......एक से ज्यादा व्यक्तियों के साथ संयुक्त संभोग न करें क्योंकि ......।
बात पते की केवल इतनी है कि हमारी लाइफ में कैज़ुएल सैक्स का कोई भी स्थान नहीं है। हर प्रकार का संयम बरतने में ही समझदारी है। एक कॉन्डोम लगा कर कोई अपने आप को तीसमार खां न समझे कि अब तो बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय। यह भी भम्र है.....कभी ऐसी गलती हो जायेगी कि सारी उम्र पछताना पड़ सकता है...तिल तिल मरना पड़ सकता है........क्योंकि यह कॉन्डोम का इस्तेमाल अगर किसी को कैज़ुएल सैक्स के लिए करना पड़ रहा है तो इस का सीधा सादा मतलब है कि उस का सैक्सुयल बिहेवियर हाई-रिस्क है। मुझे उम्मीद है कि पाठक इस कॉन्डोम वाली बात को इस के ट्रयू परस्पैक्टिव में लेगें.....नोट करें कि मैं कॉन्डोम का विऱोध सर्वथा नहीं कर रहा हूं.......जी हां, यह तो सुरक्षा-कवच है ही .......लेकिन मैं तो कैज़ुएल सैक्स का , पैसे देकर खरीदे गये सैक्स का घोर विरोध कर रहा हूं।
आप मेरे विचारों से सहमत हैं कि नहीं , लिखियेगा।
PS….मुझे आभास है कि पोस्ट लंबी हो चुकी है, लेकिन मुझे मेरी इस आदत के लिए क्षमा करें कि जब तक मैं एक बार अपनी बात पूरी तरह से खत्म न कर लूं, मेरे को चैन नहीं पड़ता। सिर-दुखने लग जाता है( हां, आप ठीक सोच रहे हैं कि चाहे पाठकों का दुख जाये) । अच्छा तो आप आशीर्वाद दें कि अपनी बात को कम शब्दों में कहना सीख लूं।
Good evening….have a lots of fun…...and enjoy your weekend !!
4 comments:
भाई, हमें तो कभी ये जूस का आइडिया नहीं पचा। जूस पी जाओ और फल के फाईबर को कूड़े के हवाले करो, ये कौन सी समझदारी है। फिर डिब्बे का क्या। वो गाना नहीं सुना आप ने- खाली की गारंटी दूंगा, भरे हुए की क्या गारंटी। डिब्बा ही चाहिए तो खाली खरीदो।
आँखें खोलने वाली पोस्ट। भाई कभी-कभार हम जूस तो पीते है पर इतनी सारी बातों पर ध्यान नही देते है।
जूस से याद आया, किडनी इन्फेक्शन वाल पेशेंट को जूस पीने से मना किया था एक विशेषज्ञ नें यह कहते हुए कि इससे शरीर में यूरिया की मात्रा बढ़ जाएगी और खतरा होगा इसलिए जू्स पीने की बजाय फल सीधे खाए जाएं बेहतर होगा!!
तो कृपया यह ज्ञानवर्धन करें कि क्या जूस में यूरिया की मात्रा ज्यादा होती है
चोपडा जी,हम यह सब जानते हे फ़िर भी थोडा बहुत पीना ही पढ्ता हे,घर मे हो तो हम सिर्फ़ पानी ही पीते हे, बाहर इस लिये की या बीयर पियो वो भी यहा पानी की तरह हे,या कोक जिसे हम बिलकुल भी नही पीते, फ़िर कोक से अच्छा डिब्बे का जुस ही ठीक हे,
आप का बहुत बहुत धन्यवाद जानकारी देने का
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