ओह माई गुडनैस, मैं आज भी सोचता हूं तो कांप सा जाता हूं कि आखिर मैं उस फोटोस्टैट मशीन को देख कर इतना खौफज़दा क्यों था......बात जुलाई1980 की है....मैंने कुछ दिन पहले ताज़ा-ताज़ा पीएमटी टैस्ट क्लियर किया था....यूनिवर्सिटी से रिज़ल्ट कार्ड मिल चुका था। अब बारी थी एडमीशन के लिए अप्लाई करने की ...जिस के लिये एक अदद अटैस्टैड कापी उस रिज़ल्ट कार्ड की भी चाहिये थी। अब इस से पहले तो हमें तो यही पता था कि ऐसे किसी भी डाक्यूमैंट की कापी का मतलब तो यही होता था कि किसी टाईपिस्ट के साथ बैठ कर उस सर्टिफिकेट की कापी टाइप करवाओ और फिर किसी आफीसर से उसे सत्यापित करवाने का जुगाड़ ढूंढो।
लेकिन उन्हीं दिनों मैंने पता नहीं कहां से सुन लिया था कि एक ऐसी मशीन आ गई है जिस से किसी भी सर्टिफिकेट की हुबहू कापी हो जाती है। ऐसे में मैं कैसे पीछे रह जाता। हां तो पता चला कि अमृतसर के पुतलीघर एरिया में एक दुकान पर ऐसी मशीन लग गई है। सो, मैं भी दो-तीन किलोमीटर साइकल हांक कर पहुंच गया । और ,. उस दुकानदार को दे दिया वह सर्टिफीकेट कापी करने के लिये ।
वह दुकानदार मेरा रिज़ल्ट कार्ड लेकर अंदरवाले कमरे में चला गया......लेकिन यह क्या ,. मैं एक बार तो डर ही गया कि यार मैं कहां आ गया , कहीं कोई पंगा तो नहीं हो जायेगा, मेरा इतनी मेहनत से कमाया हुया रिज़ल्ट कार्ड तो मुझे सही सलामत वापिस मिल जायेगा ना....बस , मैं तो इन्हीं विचारों में सहमा सा खड़ाथा कि उस दुकानदार ने एक स्टूल उठाया..............अरे, यह क्या , पहले थोड़ा मशीन की फिजिकल अपीयरेंस के बारे में तो लिखूं.....तो सुनिए, हज़रात, वह मशीन लगभग इतनी लंबी-चौड़ी थी कि आप यह समझ लो कि उस ने इतनी ज़मीन घेरी हुई थी जितनी किसी पुरानी स्टाईल की प्रिंटिंग मशीन ने घेरी होती थी।
हां, तो मैं बता रहा था कि उस दुकानदार ने एक बड़ा सा स्टूल उठाया, और उस पर चढ़ कर मशीन के ऊपर चढ़ गया....और फिर उस ने बहुत बड़ी-बड़ी दो प्लेटें सी उठाईं और उन्हें हिलाया -डुलाया....उन में सी बडी़ सुरीली सी आवाज़े छन-छना-छन- छन आ रही थीं..................मैं तो बस यही प्रार्थना मन ही मन किये जा रहा था कि कहीं मेरे रिज़ल्ट कार्ड पर कालिख ही न पुत जाये। क्योंकि दुकानदार के हाथ भी इस स्याही वगैरह की वजह से काले पड़े हुये थे। लेकिन अभी कहां, अभी तो टाइम लग रहा था....शायद फोटोस्टैट की दो कापियां करने में 3-4मिनट भी लग गये थे.। और हां, एक कापी करवाने के उन दिनों दो रूपये लगते थे....लेकिन यह कमबख्त दो रूपये उस रोमांच के आगे तो कुछ भी नहीं थे !!
लेकिन आज सोचता हूं कि उस मशीन को देख कर यही लग रहा जैसे कि वह दुकानदार न हो कर, इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाइज़ेशन का कोई वरिष्ट साइंटिंस्ट है जो स्टूल पर चढ़ कर अभी कोई सैटेलाइट को स्पेस में लांच करने की तैयारी में है। लेकिन जो भी यह फोटोस्टैट का पहला एक्सपीरीयैंस बेहद रोमांचक था। पोस्ट लंबी हो रही है, इसलिए किसी अगली पोस्ट में लिखूंगा कि आने वाले सालों में इस फोटोस्टैट कागजों ने मेरी लाइफ में क्या क्या गुल खिलाये हैं।
रोचक अनुभव।
जवाब देंहटाएंबहुत खुब इन्त्जार रहे गा,अगली पोस्ट का
जवाब देंहटाएंरोचक तरीके से लिखा है आपने!
जवाब देंहटाएंचलिए इंतजार रहेगा!!
हमारे शहर में तो लिखा होता था, "आधुनिक जापानी तकनीक वाली मशीन से फ़ोटोस्टेट/इलेक्ट्रोस्टेट"
जवाब देंहटाएंउस समय बडा अच्छा सा लगता था जब हमारे कागज को मशीन के काँच पर उल्टा रखकर ढक्कन बंद करके बडा सा हरा बटन दबाते थे और जरा सी झिर्री से तेज प्रकाश की लकीर पलभर में इधर से उधर हो जाती थी और उसके तुरन्त बाद कागज पर फ़ोटोस्टेट आ जाता था ।
मैं तो अपनी कागज की फ़ोटोस्टेट के बाद भी खडा रहकर उसी प्रकाश की लकीर को देखने का प्रयास करता था जब दुकानदार बाकी लोगों की फ़ोटोस्टेट कर रहा होता था ।
मैं भी एक फ़ोटोकॉपी वाला हूँ, इसलिये अगली किस्त का इन्तजार रहेगा…
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