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बुधवार, 21 मई 2008

शिक्षण संस्थानों का यह धंधा बढिया है !

मुझे बहुत ही ज्यादा आपत्ति है उन सारे शिक्षण संस्थानों से जो अपने प्रोस्पैक्ट्स महंगे महंगे मोलों पर बेचते हैं कि कईं बार डिसर्विंग छात्र इसलिये ही इन प्रोस्पैक्ट्स को खरीद ही नहीं पाते। इन का मोल जो अकसर दिखता है...पांच सौ रूपये, हज़ार रूपये..........यह इन संस्थानों की डकैती है, लूट है, सरे-आर धांधली है। और जब उस प्रोस्पैक्ट्स को देखो तो इतना अजीब सा लगता है कि यार इन चार पन्नों की कीमत पांच सौ रूपये। दरअसल होता ऐसा है कि इन संस्थानों ने अप्लाई करने की फीस भी इस में शामिल की होती है। एक बार जब प्रोस्पैक्ट्स लोग खरीद लें,तो कालेज, यूनिवर्सिटी एवं संस्थानों की बला से........अप्लाई करें या न करें, इलिजिबल हैं कि नहीं ....उन से इस से क्या लेना-देना.....उन का तो सीधा सा काम है रूपये इक्ट्ठा करने .....सो वे पहले ही से कर चुके हैं।
एक बार इतने महंगे महंगे प्रोस्पैक्ट्स खरीदने के बाद छात्रों के पास इन कोर्सों के लिये अप्लाई करने के सिवाय कोई विकल्प रहता ही नहीं। बस, यह सब धांधली देख कर बहुत दुख होता है। अकसर इस समय मैं यही सोच रहा होता हूं कि लोग डाक्टरो का तो कईं बार रोना रोते हैं लेकिन इस तरह के रोने राते किसी को देखा नहीं......न तो कभी प्रिट मीडिया में ही इस तरह से आवाजें उठती देखीं, न ही शायद इलैक्ट्रोनिक मीडिया में ही इस के बारे में कभी कुछ सुना.......................पता नहीं लोग अपनी बात कहने के लिये किस बात का इंतजार कर रहे हैं।
मैं मानता हूं कि किसी मैकडोनाल्ड में जाकर पांच सौ रूपये के बर्गर -फिंगर चिप्स खाने वाले लोगों पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आम आदमी किसे अपना दुखडा सुनाये।
मुझे ही बतलाईये की इस के लिये किस को अपनी बात लिख कर भेजनी होगी.......मैं ही करूं थोड़ी शुरूआत। मेरे विचार में यह बहुत गंभीर मसला है। आप क्या सोचते हैं इस के बारे में।

गुरुवार, 6 मार्च 2008

सिर्फ़ दस रूपये खर्च कर कीजिये बच्चों की सारी टेंशन खल्लास.....


जी हां, सवाल सिर्फ़ दस रूपये के एक नोट का है और आप अपने बच्चे की सारी टेंशन छू-मंतर कर सकते हैं। लेकिन नहीं, मैंने कोई इस तरह का काउंसलिंग का धंधा शुरू नहीं किया है और सर्विस में होने की वजह से ना ही कुछ ऐसा वैसा शुरू कर सकता हूं। तो, सुनिये फिर आप ने ये दस रूपये का नोट किसे थमाना है।

बात ऐसी है कि अभी अभी बाज़ार से लौटा हूं.....दुकान पर बिकते ये पोस्टर देखे। पोस्टर देखते ही माथा ठनका कि हो ना हो ये किसी प्रैक्टीकल की ही तैयारी हो रही है। जब पूछा तो पता चला कि ये पोस्टर आज कल खूब बिक रहे हैं.....ये मैट्रिक के साईंस प्रैक्टीकल के लिए बच्चों को खरीदने पड़ रहे हैं( अच्छी तरह से नोट कर लें इन शब्दों को .....खरीदने पड़ रहे हैं) ....। मज़े की बात तो यह भी है कि इन को किताबों की दुकान से खरीद कर लाने के लिये भी बच्चे को अपने बापू के साथ बाज़ार आने की ज़हमत उठाने की ज़रूरत ही नहीं है.....बस, बापू को इतना बताना ही काफी है कि आज रात से पहले पहले दो फलां-फलां पोस्टर उस दुकान से ज़रूर ले आईयो, अगर आप लोग मुझे साईंस में पास देखना चाहते हो। ठीक है, बेटा, तुम तब तक अगर टीवी के रोडीज़ शो से फ्री हो भी गये तो तुम आराम से थोड़ी इम्पार्टैंट तरह की छोटी-मोटी पर्चियां ज़रूर तैयार कर लेना।

कुछ इस तरह के ही आदेशों की पालना करता मुझे अपने साथ खड़ा बंदा दिख रहा था। बहुत सारे पोस्टर देखने के बाद आखिर उस ने दुकानदार को एक आंख वाला और एक बॉयोगैस वाला पोस्टर पैक करने का आर्डर दे ही डाला। पांच रूपये का एक पोस्टर था, सो कुल खर्च आया ..दस रूपये।

लेकिन अफसोस इस तरह के बॉयोगैस के कंसैप्ट और आंख की जानकारी तो भई उस पोस्टर पर ही रह जायेगी। जब तक तीन-चार बार अपनी समझ से बार बार इरेज़ करने वाले रबड़ का प्रयोग नहीं किया जायेगा, कैसे हो पायेगा यह पोस्टर को समझने वाला काम। लेकिन क्या करें................इतना टाईम नहीं है भई, अभी इंडियल आयडल से फ्री हुये ही थे कि ये फिल्मों के अवार्ड्स वाले कार्यक्रम धन-धना-धन शुरू हो गये हैं , फिर यह रोडीज़ भी तो देखना ज़रूरी है......ऐसा मौका फिर कहां मिलेगा...................इतना टाईट शैड्यूल और ऊपर से इन पोस्टरों को बनाने के झंझट में कौन पड़े..............क्या है ना पापाजी, चार रूपये का पोस्टर वैसे आता है और पूरी तरह से तैयार बना-बनाया पोस्टर अगर पांच रूपये में मिल रहा है तो आखिर फायदा ही है ना...................न स्कैच पैन खरीदने का झंझट, ना कहीं और माथा-पच्ची करने की ज़रूरत।क्या है ना डैड, आज कल सब कुछ फास्ट चलता है।

सोच रहा हूं कि प्रैक्टीकल के लिये रेडीमेड पोस्टरों की बाज़ार में उपलब्धता का तो मुझे आज पता चला है , लेकिन प्रैक्टीकल की कापियां तो हमारे समय में भी कई विद्यार्थी बाज़ार से ही 15-20 रूपये दे कर बनवाते थे। यह सिलसिला आठवीं कक्षा से शुरू हो जाया करता था..........लेकिन मुझे आज तक यही लगता था कि नो डॉयट, आज भी यह चलन तो है , लेकिन मैट्रिक तक ही है।

लेकिन मैंने फिर भी प्लस टू में पढ़ रहे एक लड़के से फैक्टस वैरीफ़ॉय करने में ही बेहतरी समझी। ---उस का जवाब मिला ...जी हां, आज कल तो बारहवीं की भी बनती हैं...बताने लगा कि ग्यारहवीं की भी बाज़ार से बनती तो हैं ,लेकिन अकसर बच्चे इन को इतना सीरियस्ली लेते नहीं है क्योंकि ये एग्ज़ाम तो स्कूल ही में निबट जाते हैं। आगे उस ने बताया कि इन्हें बनाने में 55, 65, 80 और 100 रूपये तक लगते हैं। मुझे यह क्रयूसिटि होनी लाज़मी थी कि इतना अंतर....................उस ने झट से उस का निवारण भी यह बतला कर कर ही दिया..............अंकल, दिस ऑल डिपेंड्स ऑन दा आर्टिस्ट्री।

बस , एक बार यही सोचने पर मजबूर हो गया हूं कि हमारे देश में यहां के युवाओं में वैज्ञानिक टेंपरामैंट को बढ़ावा देने के लिए इतने यत्न हो रहे हैं और ये दस रूपये खर्च कर के अपनी टेंशन खल्लास करने की फ़िराक में हैं।