शनिवार, 30 जुलाई 2011

नहाने वाले पावडर (Bath salts) पर क्यों हो रहा है हंगामा

Bath Salts का अगर हिंदी में अनुवाद करना हो तो यही तो कहेंगे--- नहाने वाले पावडर या फिर बिल्कुल देसी भाषा में नहाने वाले मसाले। सुना तो मैंने इन के बारे में बहुत बार था ...लेकिन कभी विस्त्तृत से इन के बारे में जानने की कोई कोशिश नहीं की। याद आ रहा है कि जहां पर भी इन के बारे में पढ़ा बड़ा नैगेटिव सा पढ़ा जैसे कोई इन्हें इस्तेमाल कर के बहुत बुरा काम कर रहा है। जो भी हो, मेरी सोच यही थी कि ये bath salts कुछ पावडर-वाउडर होंगे जो बाहर देशों में नहाने के समय पानी में डाल लेते होंगे। लेकिन मेरा अनुमान केवल आंशिक रूप तक ही सही था, इस की थोड़ी चर्चा करते हैं।

आज सुबह भी जब मैं न्यू-यार्क टाइम्स देख रहा था तो फिर एक बार कुछ ऐसी खबर दिखी कि बॉथ-साल्ट के ऊपर प्रतिबंध लगाया जा रहा है। सुबह समय मेरे पास कम था लेकिन मैंने सोचा कि आज तो इन के बारे में जानना ही होगा कि इन के इस्तेमाल का आखिर लफड़ा है क्या। मैंने तभी गूगल बंधु की सहायता से इस के बारे में जानना चाहा।

मैं बहुत खुश हुआ कि मेरा अनुमान सही निकला कि यह तो बस कुछ साल्ट हैं जिन्हें नहाते समय पानी में मिला कर ताज़गी का अहसास हो जाता है, स्फूर्ति सी महसूस होने लगती है। इस के बारे में और पढ़ कर पता चला कि ये समुद्र से प्राप्त होने वाले साल्ट हैं (‌sea salts) हैं....और अगर ये शुद्ध रूप में मिलते हैं तो ताज़गी का अहसास होता है, नहाने वाला हल्कापन महसूस करता है...नहाने समय इस पावडर की केवल एक चुटकी ही काफ़ी है.....और बताया गया था कि अगर इस को किसी तरह से मार्कीट में मॉडीफाई किया जाता है तो इस के बहुत से गुण नष्ट हो जाते हैं।

लेकिन मेरी उत्सुकता बढ़ रही थी ....भला ऐसी छोटी मोटी चीज़ को प्रतिबंधित किये जाने का क्या फितूर है? लेकिन एक दो पन्ने देखने पर सारी बात समझ में आ गई।

हां, तो bath salts (बॉथ-साल्ट) जिन पर प्रतिबंध लगाने की बात की जा रही है उस का इन नहाने वाले बाथ-साल्ट (जो कि समुद्री साल्ट है) से कोई संबंध नहीं है।

बाथ-साल्ट के नाम से दरअसल कुछ नशे मिलते हैं ... और ये पावडर एवं क्रिस्टल रूप में बिकने वाले नशे समुद्री साल्ट (बाथ साल्ट) की तरह दिखते हैं इसीलिये इन्हें बॉथ-साल्ट कह दिया जाता है .....एक बहुत ही भयानक तरह की नशा है..इस नशे को अधिकतर ऑन-लाइन खरीदा जाता है –इस का इंजैक्शन लगाया जाता है, या तो इसे किसी सिगरेट आदि में डाल के पी लिया जाता है(smoking) ..या फिर इसे नसवार की तरह सूंघ कर ही काम चला लिया जाता है।

बाथ-साल्ट नामक नशे में भयानक साल्ट – Mephedrone एवं methylenedioxypyrovalerone (MDPV) होते हैं और इन के इस्तेमाल से नशा इतना गहरा होता है कि आदमी बिल्कुल अजीबो-गरीब हरकतें करना लगता है, उसे यह लगने लगता है कि कोई उसे मार देगा या बहुत बड़ा नुकसान पहुंचा देगा (paranoid symptoms) ....बिल्कुल अजीबो गरीब हरकतें ....और इन की वजह से इन्हें एमरजैंसी विभागों में लेकर जाना पड़ता है।

तो एक बात अब समझ में आ गई कि यह जो बाथ-साल्ट हैं इन में आदमी के बनाए हुये कैमीकल(रासायन) मौजूद रहते हैं -- Mephedrone एवं methylenedioxypyrovalerone (MDPV) जिन का प्रभाव बिल्कुल ख़त के पत्तों जैसा होता है ...अब यह ख़त के पत्ते किस बला का नाम है, इसे जानने के लिये मेरे इस लेख पर चटका लगाएं।

यह बाथ-साल्ट बहुत महंगे मिलते हैं ... 50 मिलीग्राम (एक ग्राम का बीसवां हिस्सा) 25 से 50 यूएस डालर में मिलता है... पहले यह नशा ब्रिटेन में खूब चलता था लेकिन वहां पर इस पर प्रतिबंध 2010 में लगा दिया गया था .... बस ज़रा ठहरिये ... किसी ऐसी वैसी बात में हम कैसे पीछे रह जाएं ... विशेषज्ञों का कहना है कि इन बाथ-साल्टों की अधिकतर सप्लाई चीन एवं भारत से आती है क्योंकि वहां पर कैमीकल बनाने वाली फैक्टरियों के ऊपर सरकारी निगरानी इतनी पुख्ता नहीं है ... यह मेरी स्टेटमैंट नहीं है ...न्यू-यार्क टाइम्स के इस लेख में ऐसा ही कुछ लिखा है।

बात एक और भी है, अधिकतर सप्लाई चीन और भारत से जाए और यहां के बशिंदे इस से महरूम रह जाएं ....लगता नहीं ना ऐसा हो सकता है ....तो फिर का मतलब यह कि ये सब नशे इस देश में भी इस्तेमाल तो ज़रूर होते होंगे ....किसी दूसरे नाम से .... कभी यह बाथ-साल्ट नाम पहले नहीं सुना.....लेकिन नशा करने वालों को नाम से क्या लेना देना, नाम में रखा ही क्या है। खैर, मेरा काम था आगाह करना और इस बाथ-साल्ट की मिस्ट्री को हल करना..................ये नशीले बाथ-साल्ट नहाने वाले बेकसूर बाथ-साल्ट से बिलकुल अलग हैं, दूर दूर से भी कुछ भी लेना देना नहीं।

सेहत खराब करने वाली दवाईयां आखिर बिकती ही क्यों हैं?

परसों मेरा एक मित्र मुझ से पूछने लगा कि वज़न बढ़ाने के लिये ये जो फूड-सप्लीमैंट्स आते हैं इन्हें खा लेने में आखिर दिक्तत है क्या। मैंने कहा कि लगभग इन सब में कुछ ऐसे प्रतिबंधित दवाईयां –स्टीरॉयड आदि – होते हैं जो कि सेहत के लिये बहुत नुकसानदायक हैं। अच्छा, आगे उस ने कहा कि यह जो जिम-विम वाले हैं वे तो कहते हैं कि जो डिब्बे वो बेच रहे हैं, वे बिल्कुल ठीक हैं। बात वही है कि अगर उन्होंने इन डिब्बों को आठ-नौ सौ रूपये में बेचना है तो इतना सा आश्वासन देने में उन का क्या जाता है, कौन सा ग्राहक इन की टैस्टिंग करवाने लगा है, और सच बात तो यह है कि किसी को पता भी तो नहीं कि यह टैस्टिंग हो कहां पर सकती है।

पिछले सप्ताह अस्पताल में एक युवक मेरे से कोई दवाई लेने आया ...अच्छा, अब पता झट चल जाता है कि सेहत का राज़ क्या है, शारीरिक व्यायाम, पौष्टिक आहार या फिर वही डिब्बे वाला सप्लीमेंट से डोले-शोले बना रखे हैं ....मुझे लगा कि यह डिब्बों वाला केस है ...मेरे पूछने पर उस ने बताया कि सर, दो महीने डिब्बे खाये हैं, पहले महीने तो मुझे अपने आप में लगा कि मुझ में नई स्फूर्ति का संचार हो रहा है तो दूसरे महीने मुझे देख कर लोगों ने कहना शुरू कर दिया। आगे पूछने लगा कि सर, क्या आप अपने बेटे को ये सप्लीमैंट्स खिलाने के लिये पूछ रहे हैं.....उस के बाद मुझे इन सप्लीमैंट्स की सारी पोल खोलनी पड़ी।

हां, तो मैं उस मित्र की बात कर रहा था जो कह रहा था कि जिम संचालक तो कहते हैं कुछ नहीं इन में सिवाए बॉडी को फिट रखने वाले तत्वों के ......लेकिन जो बात उस ने आगे की, मुझे वह सुन कर बहुत शर्म आई क्योंकि मेरे पास उस की बात का कोई जवाब नहीं था।

हां, जानिए उस मित्र ने क्या पूछा....उस ने कहा ..डाक्टर साहब, मैं आप के पास आया हूं, आप ने बता दिया और मैंने मान लिया ...लेकिन उन हज़ारों युवकों का क्या होगा जो ये सप्लीमैंट्स खाए जा रहे हैं.... उस ने यह भी कहा कि इन डिब्बों पर तो स्टीरायड नामक प्रतिबंधित दवाईयों के उस पावडर में डाले जाने की बात कही नहीं होती।

अब इस का मैं क्या जवाब देता ? – बस, यूं ही यह कह कर कि कोई कुछ भी कहें, इन में कुछ प्रतिबंधित दवाईयां तो होती ही हैं जो शरीर के लिये नुकसानदायक होती हैं। लेकिन उस का प्रश्न अपनी जगह टिका था कि अगर ये नुकसानदायक हैं तो फिर ये सरे-आम बिकती क्यों हैं, अब इस का जवाब मैं जानते हुए भी उसे क्या देता!! बस, किसी तरह यह बात कह कर इस विषय को चटाई के नीच सरका दिया कि लोगों की अवेयरनेस से ही सारी उम्मीद है। लेकिन उस बंदे के सारे प्रश्न बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करने वाले हैं।

परसों उस मित्र से होने वाली इस बातचीत का यकायक ध्यान इसलिए आ गया क्योंकि कल मैंने अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की साइट पर एक पब्लिक के लिये नोटिस देखा जिस में उन्होंने जनता को आगाह किया था एक गर्भनिरोधक दवाई न लें क्योंकि वह नकली हो सकती है, इस से नुकसान हो सकता है.....यह उस तरह की दवाई थी जो एमरजैंसी गर्भनिरोधक के तौर पर महिलाओं द्वारा खाई जाती है.....असुरक्षित संभोग के बाद (unprotected sex) ….. वैसे तो अब इस तरह की दवाईयों के विज्ञापन भारतीय मीडिया में भी खूब दिखने लगे हैं....इन की गुणवत्ता पर मैं की प्रश्नचिंह नहीं लगा रहा हूं लेकिन फिर भी कुछ मुद्दे अब महिला रोग विशेषज्ञ संगठनों ने इन के इस्तेमाल से संबंधित उठाने शुरू कर दिये हैं।

सौजन्य .. फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन
पहला तो यह कि कुछ महिलाओं ने इसे रूटीन के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है ... दंपति यह समझने लगे हैं कि यह भी गर्भनिरोध का एक दूसरा उपाय है....लेकिन नहीं, यह एमरजैंसी शब्द जो इन के साथ लगा है यह बहुत ज़रूरी शब्द है. वरना रूटीन इस्तेमाल के लिये अगर इसे गर्भनिरोधक गोलियों (माला आदि) की जगह इसे इस्तेमाल किया जाने लगेगा तो अनर्थ हो जाएगा, महिलाओं की सेहत के ऊपर बुरा असर – after all, these are hormonal preparations-- और दूसरी बात यह कि लोगों को यह गलतफहमी है कि इस तरह का एमरजैंसी गर्भनिरोधक लेने से यौन-संचारित रोगों की चिंता से भी मुक्ति मिलती है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है।

हम भी कहां के कहां निकल गये ....वापिस लौटते हैं उस अमेरिकी एफडीआई की चेतावनी की तरह जिस में उन्होंने एक ऐसे ही प्रोडक्ट की फोटो अपनी वेबसाइट पर डाल दी है ताकि समझने वाले समझ सकें, लेकिन मेरी भी तमन्ना है कि जो किसी भी नागरिक के लिये खराब है ...पहली बात है वो कैमिस्टों की दुकानों पर बिके ही क्यों और दूसरी यह कि क्यों न अखबारों में, चैनलों पर इन के बारे में जनता को निरंतर सूचित किया जाए ..........आखिर चैनल हमें प्रवचनों की हैवी डोज़ या फिर सास-बहू के षड़यंत्र दिखाने-सिखाने के लिए ही तो नहीं बने....सामाजिक सरोकार तो भी कोई चीज़ है। कोई मेरी बात सुन रहा है या मैं यूं ही चीखे जा रहा हूं?

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शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

तंबाकु धुएं वाला नहीं तो भी कोई बात कैसे नहीं....

एक तंबाकू जिसे चबाया जाता है, चूसा जाता है, गाल के अंदर-होठों के अंदर दबा कर रख दिया जाता है, गुटखा चबाया जाता है, खैनी खाई जाती है, मशेरी (powdered tobacco) जिसे दांतों पर घिसा जाता है, नसवार (Snuff) जो नाक से सूंघी जाती है, मसूड़ों पर लगाई जाती है... अकसर तंबाकू के ये वे रूप हैं जिन के साथ धुआं नहीं दिखता.......लेकिन कोई बात नहीं धुआं चाहे उस वक्त न दिखे लेकिन बाद में कभी न कभी तो ये सब वस्तुएं बंदे का धुआं निकाल के ही दम लेती हैं।

इस देश में हथेली में तंबाकू-चूना मसल के, और फिर उस को दाएं हाथ से छांट के जब आपस में थोड़ा थोड़ा बांटा जाता है तो राष्ट्रीय एकता का नज़ारा देखते बनता है ...लेकिन उस एकता का आचार डालें जिस में ज़हर ही बंटे।
हां, तो मुझे भी कईं बार मरीज़ पूछते पूछते झिझक से जाते हैं कि ना ना कोई बीड़ी सिगरेट नहीं, बस थोडा सा तंबाकू दिन में दो-एक बार और वह भी बस थोड़ा पेट की सफ़ाई के लिए।

अब मीडिया में इस धुएं-रहित तंबाकू के मुद्दे भी उछलते रहते हैं इसलिये लोग थोड़ा सा समझने तो लगे हैं कि इस से कैंसर –विशेषकर मुंह का कैंसर – होता है। और लगभग यह भी लोग जानते तो हैं कि इस से दांतों में सड़न होती है, मसूड़ों की बीमारी होती है और मसूड़े दांतों को छोड़ने लगते हैं। लेकिन तीन चीज़ें इस के अलावा जो लोग नहीं जानते उन्हें यहां रेखांकित किया जाना ज़रूरी है ..

1. अगर गर्भवती महिला इस तरह के तंबाकू का सेवन कर रही है तो उस में गर्भवस्था में होने वाली जटिलताओं जैसे कि शरीर में सूजन आ जाना (preeclampsia) , नवजात् शिशु का जन्म के समय वजन कम होना और समय से पहले ही बच्चा पैदा हो जाना(premature babies)

2. ऐसा भी नहीं है कि महिलाओं में तंबाकू अपने बुरे असर दिखाता है... पुरूषों में भी फर्टिलिटि से संबंधित इश्यू हो जाते हैं जैसे कि शुक्राणु का असामान्य हो जाना और शुक्राणुओं की संख्य़ा कम हो जाना।

3. और एक बहुत बड़ा पंगा यह है कि शौक शौक में चबाया जाने वाला तंबाकू वाला पान, खैनी, गुटखा, नसवार (creamy snuff) ...धीरे धीरे फिर यह बंदे को सिगरेट-बीड़ी की तरफ़ ले ही जाता है क्योंकि अगर कोई बिना धुएं वाला तंबाकू ही इस्तेमाल कर रहा है फिर भी उस में निकोटीन होने की वजह से इस की लत लगना तो लाजमी है ही।

हमारे देश में इस धुएंरहित तंबाकू की समस्या बहुत विकराल है। महिलाएं भी गांवों में बिंदास तंबाकू चबाती हैं ...किसी भी रूप में ...चाहे पान में डाल कर, चाहे पावडर-तंबाकू को दांतों पर घिस कर ..या फिर तंबाकू वाली पेस्टें मसूड़ों एवं दांतों पर घिस घिस कर मुंह के कैंसर को बुलावा दे बैठती हैं।

इस हैल्थ-टिप --- Smokeless Tobacco Isn’t a Safe Alternative…जो आप तक अमेरिका की सरकारी संस्था –सैंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के सौजन्य से प्राप्त हो रही है, इस में लिखा एक एक शब्द आप कह सकते हैं पूर्णतया तथ्यों एवं सत्य पर आधारित होता है.... नो तीर, नो तुक्का, प्लेन सच।

आज कल अमेरिका जैसे देशों में भी स्मोकलैस तंबाकू काफी चलने लगा है... विशेषकर युवा वर्ग और खिलाड़ी इस स्मोक-लैस (धुएं रहित तंबाकू) तंबाकू का सेवन नसवार के रूप में करते हैं......इसलिये वहां पर किसी भी हालत में इस व्यसन को आगे नहीं बढ़ने के लिये सरकार कृत्त-संकल्प है ..........बिल्कुल जैसे हमारे यहां है.....क्या कहा? ..मुझे सुना नहीं .... नहीं, नहीं, आप यह कैसे कह सकते हैं कि हम लोग इस लत को जड़ से उखाड़ फैंकने के लिये कृत्त-संकल्प नहीं हैं, अरे यार, हम लोग कितने कितने वर्ष इन के पैकेटों पर दी जाने वाली डरावनी तस्वीरों पर राजनीति करते हैं !!

तंबाकू से संबंधित लेखों का पिटारा यह है .....तंबाकू का कोहराम

डिप्रेशन से उभरने के लिए क्या करते हैं हिंदोस्तानी?

आज जो मैंने एक खबर देखी कि अमीर देशों में लोग डिप्रेशन के ज़्यादा शिकार होते हैं .. अमेरिका में ही कहा जा रहा है कि 30 प्रतिशत से भी ज़्यादा जनसंख्या अवसाद में डूबी हुई है लेकिन साथ ही भारत का भी नाम लिखा हुआ है कि यहां भी अवसाद के बहुत से केस हैं। मैडलाइन पर यह खबर दिखी .. Depression higher in wealthier nations.

भारत में अवसाद के अधिकतर रोगियों की समस्या यह है कि वे कभी किसी मनोरोग विशेषज्ञ के पास गये ही नहीं... अब इन के किसी विशेषज्ञ के पास न जाने के दो पहलू हैं...इसी हम सीधा यह नहीं कह सकते कि ये किसी विशेषज्ञ से परामर्श न लेकर ठीक नहीं कर रहे।

कभी कभी मीडिया में बताया जाता है कि अवसाद जैसे रोगियों की संख्या भारत में बहुत ज़्यादा हैं लेकिन अकसर लोग सोचते हैं कि इस के बारे में किसी विशेषज्ञ के पास जाने से उन की लेबलिंग कहीं यह न हो जाए कि इस का दिमाग खिसका हुआ है, चाहे है यह भ्रांति लेकिन है तो !

मैडीकल नज़रिये से नहीं कह रहा हूं और न ही कह सकता हूं ...लेकिन व्यक्तिगत विचार लिख रहा हूं कि बहुत कम लोग हैं जो डिप्रेशन के लिये अंग्रेज़ी दवाईयां लेकर ठीक होते मैंने देखा है। हां, अगर अवसाद इस तरह का है कि दैनिक दिनचर्या में ही रूकावट पैदा होने लगी है... तो समझा जा सकता है कि एमरजैंसी उपाय के रूप में थोड़ी अवधि के लिये अंग्रेज़ी दवाईयां लेना उचित सा लगता है। एक बार फिर से लिख रहा हूं कि यह मेरी अनुभूति हो सकती है ...क्योंकि मैंने अकसर देखा है कि इस तरह की दवाईयां लेने वाले सुस्त से रहते हैं ....वो चुस्ती वाली कोई बात देखी नहीं। और भी एक बात है कि लोगों के मन में यह भी डर रहता है कि कहीं इन दवाईयों की लत ही न लग जाए ....अब काफ़ी हद तक लोगों का यह सोचना ठीक भी है।

अच्छा, अवसाद के लिये श्रेष्ठ चिकित्सक है आप का फैमिली डाक्टर जो आप के सारे परिवार को, स्रारी पारिवारिक परिस्थितियों को जानता है ... अकसर मनोरोग चिकित्सक के पास आम लोग जा ही नहीं पाते ... उन के पास भी काउंसिलिंग तकनीक द्वारा मरीज को अवसाद से बाहर निकालने की क्षमता होती है लेकिन मैंने यह देखा है लोग अकसर इस चक्कर में पड़ते नहीं... बस, यूं ही कुछ भी जुगाड़ कर के अपने आप इस अवसाद की खाई से बाहर निकलते रहते हैं, फिर फिसलने लगते हैं, फिर किसी सहारे की मदद मिल जाती है।

चाहे हम कुछ भी कहें अभी भी भारत में ऐसी परिस्थितियों के लिये सोशल-बैकअप भी काफ़ी हद तक कायम ही है ....थोड़ा बहुत अवसाद घेरने लगता है तो किसी के यहां मिलने चले जाते हैं, कोई इन्हें मिलने आ जाता है, हंसी ठठ्ठा हो जाता है, बस मजाक मजाक में इन्हें अच्छा लगने लगता है।

और एक खूबसूरत बात देश में यह है ...अधिकांश लोग अपनी आस्था के अनुसार किसी मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या किसी अन्य धर्म-स्थल में जा बैठते हैं ...कीर्तन –पूजा-पाठ , भजन, प्रवचन करते हैं, सुनते हैं और इन्हें अच्छा लगने लगता है। कहने का मतलब यही है कि यहां बैक-अप है, लोग अभी भी आपस में बात करते हैं, त्योहार एक साथ मनाते हैं, हर्षोल्लास में भाग लेते हैं ..............यही ज़िंदगी है ... बाकी तो जितना किसी मैडीकल विषय की पेचीदगीयों में पड़ेंगे, कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है।

और ये जो बातें मैंने लिखी हैं अवसाद से निकलने के लिये ये कोई अंधश्रद्धा को बढ़ावा देने वाली नहीं हैं....मैं ऐसे अध्ययन देख चुका हूं जिनमें विकसित देशों के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि जो लोग आध्यात्मिक बैठकों आदि से जुडे रहते हैं वे अकसर ऐसी तकलीफ़ों से दूर रहते हैं......अच्छा, आप एक बात बताईए, आप जिस भी सत्संग में जाते हैं वहां आप को कभी कोई उदास सा, बिल्कुल हारा हुआ, बिल्कुल चुपचाप, गुमसुम बंदा दिखा है....................कोई जल्दी नहीं, आराम से सोच विचार करना कि आंकड़ें चाहे जो भी कहें कि इतने ज़्यादा भारतीय अवसाद के शिकार हैं, लेकिन फिर भी ये सीमित संसाधनों के बावजूद भी, बहुत सी दैनिक समस्याओं को झेलते हुए ..बस किसी तरह खुश से दिखते हैं।

इसीलिए मुझे कोई उदास सा प्राणी दिखता है तो मैं उसे किसी मनोरोग विशेषज्ञ का रूख करने की बजाए किसी सत्संग में जाने की सलाह दिया करता हूं ... मनोरोग विशेषज्ञ चाहे कहें कि मैं ठीक नहीं करता ....लेकिन मैं तो ऐसा ही ठीक समझता हूं और ऐसा ही करता हूं।

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अवसाद के लिए टेबलेट -- हां या ना?

अस्पताल जाने से ज़्यादा सुरक्षित है हवाई यात्रा—ऐसा क्या?

दो-तीन दिन पहले जब मैंने भी ऐसी बात पढ़ी तो मैं भी सकता में आ गया कि अब यह क्या नया लफड़ा है लेकिन जब पूरी बात पता चला तो समझ में आ गया कि कुछ लोग हवाई-यात्रा का यूं ही डर पाले बैठे हैं, अस्पताल में इलाज करवाने से आगे तो यह रिस्क कुछ भी नहीं!

वैसे यह ऊपर दिया गया व्यक्तव्य मेरा नहीं है, यह विश्व स्वास्थ्य संगठन के सौजन्य से मैडलाइन में पढ़ने को मिला है कि विश्व भर में लाखों लोग चिकित्सा से संबंधी गल्तियों एवं हेल्थ-केयर व अस्पताल से ग्रहण किये गये संक्रमणों (infections) का शिकार हो जाते हैं।
"If you were admitted to hospital tomorrow in any country... your chances of being subjected to an error in your care would be something like 1 in 10. Your chances of dying due to an error in health care would be 1 in 300," Liam Donaldson, the WHO's newly appointed envoy for patient safety, told a news briefing.
This compared with a risk of dying in an air crash of about 1 in 10 million passengers, according to Donaldson, formerly England's chief medical officer.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े हैं कि अमेरिका में हर वर्ष इस तरह के अस्पताल से मिलने वाले संक्रमणों के 17 लाख केस होते हैं जिन में से एक लाख अल्ला को प्यारे हो जाते हैं। और यूरोप में यह वार्षिक आंकड़े 45 लाख बताये जा रहे हैं जिन में से 37 हज़ार लोग इस अस्पताल संक्रमण का शिकार हो जाते हैं।

यह पढ़ते पढ़ते आप को भी शायद ध्यान आ रहा होगा कि यार, हमें तो भारत के आंकड़े बताओ। अफ़सोस ऐसे आंकड़े मैंने तो कहीं देखे नहीं ... और शायद यह कभी दिखेंगे भी नहीं। मुझे ध्यान है इस संबंध में कुछ आंकड़े आज से बीस साल पहले टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ हैल्थ साईंसस में हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन पढ़ते हुये कुछ हमें बताया करते थे कि अस्पताल से होने वाले संक्रमणों की तादात 35-40 प्रतिशत है ... लेकिन मैंने कभी अपने यहां के आंकड़ें देखे ही नहीं.... भरोसेमंद या गैर-भरोसेमंद आंकड़ों की बहस तो तब शुरू हो अगर ये कहीं दिखे...तभी तो।

तो हमारे देश की समस्या इन अस्पताल संक्रमणों के संदर्भ में तो और भी गंभीर है। कारण? –हर जगह लीपा-पोती वाली अप्रोच ...कैसे भी जुगाड़बाजी कर के अस्पताल की बात बाहर न निकलने पाए ..वरना मार्केट में जो दूसरे अस्पताल हैं, उन को बात उछालने का मौका मिल जाएगा।

और यह जो मैडीकल ऑडिट की बात है, यह भी अपने देश में तो बस जुबानी जमा-खर्ची तक ही सीमित है ...मैडीकल ऑडिट का मतलब है ऐसी व्यवस्था जिस के अंतर्गत मैडीकल जगत को अपनी गलतियों से सीखने का अवसर मिलता है ....अच्छे अच्छे अस्पतालों में जब कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है तो छोटे मोटे अस्पतालों की तो बात ही क्या करें।

जब मैं एक आलेख पढ़ रहा था जिसमें लिखा था कि मरीज़ों को प्रश्न पूछने की आदत डालनी चाहिए और अपने इलाज के लिये जाने वाले निर्णय में उन की भागीदारी होनी चाहिए ....यह पढ़ कर मुझे यही लगा कि कहने को तो गालिब यह ख्याल अच्छा है ....बस, अगली पंक्ति नहीं पाती।

इसी रिपोर्ट में मैं एक जगह पढ़ रहा ता कि आज कल चिकित्सा व्यवस्था बड़ी आधुनिक हो गई है ..उदाहरण दी जा रही थी कि हृदय-रोग के लिये आप्रेशन के लिये लगभग 60 लोगों की टीम काम करती है और इतनी ही टीम एक जंबो-जैट को चलाने के लिये चाहिए होती है। कहने का भाव, आज हर चिकित्सा कर्मी तनाव में काम कर रहा है, और ऊपर से यह चिकित्सा ढांचा की अपना-बचाव-कर-लो वाली प्रवृत्ति भी इस तनाव को बढ़ाने का काम कर रही है। लेकिन कहीं न कहीं ऐसा करने में उन की भी अपनी मजबूरी है।

कुछ बातें जो नोट की जा सकती हैं... अगर सभी चिकित्सक मरीज़ों का इलाज करने से पहले अच्छी तरह से साबुन से अपने हाथ धोने लगें तो यह समस्या पचास फ़ीसदी तक कम हो सकती है और इस के साथ साथ अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बनाई सर्जरी चैक-लिस्ट की तरफ़ पूरा ध्यान दिया जाए तो मैडीकल गल्तियां काफ़ी हद तक टल सकती हैं।

जितना ज़्यादा किसी मरीज़ को आईसीयू (गहन चिकित्सा केंद्रों) में रखा जाता है.. उस में अस्पताल से ग्रहण करने वाले संक्रमणों का खतरा उतना ही बढ़ जाता है, यही हाल है...कैथीटर डले हुये मरीज़ों का जितना लंबे समय तक कैथीटर (पेशाब की थैली) किसी को लगा रहता है उतना ही रिस्क तरह तरह के इंफैक्शन का बढ़ जाता है। उसी तरह से नवजात शिशुओं को जब गहन चिकित्सा के लिये रखा जाता है..... तो उन का भी स्टे ज़्यादा होने पर अस्पताल संक्रमण जैसी समस्या उत्पन्न हो सकती है।

लिखने को हम कितना भी लिख लें ....लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि यह बिल्कुल ग्रे-एरिया है... न तो कोई मरीज़ और न ही उस के अभिभावक ऐसे निर्णय ले पाने में सक्षम होते हैं .... और एक बात, ये जो झोलाछाप हैं, गांवों कसबों में जो नीम-हकीम बैठे हैं, बंदे बंदे को ग्लुकोज़ की बोतलें चढ़ा देते हैं, दूषित सिरिंजों एवं सूईंयों से इंजैक्शन लगाते रहते हैं, सर्जीकल औज़ार –जिन से पट्टी वट्टी करते हैं उन्हें जीवाणुरहित करते नहीं ...........सब कुछ अनाप-शनाप चलाते जा रहे हैं, ऐसे में तो ये अमेरिका और यूरोप के अस्पताल इंफैक्शन के आँकड़े पढ़ के आप को कहीं डर तो नहीं लग रहा कि अच्छा है, हमें अपने यहां के आंकड़ें पता नहीं हैं.....................लेकिन क्या कबूतर की आंखें बंद कर लेने से बिल्ली उस पर झपटने से गुरेज कर लेगी? …. नहीं ना !!

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गुरुवार, 28 जुलाई 2011

पीलिया के उचित इलाज में क्यों आती हैं इतनी दिक्कतें

आज पहला विश्व हैपेटाइटिस दिवस है ...विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 28 जुलाई को हर वर्ष विश्व हैपेटाइटिस दिवस मनाना निश्चित किया गया है ताकि विश्व का ध्यान इस बीमारी की तरफ़ खींचा जा सके।

भारत में अभी भी ज्यादातर लोग पीलिया का मतलब ठीक से नहीं समझते ...इस के बहुत से कारण हैं ..जितने भी कारण हैं उस लिस्ट में सब से ऊपर है तरह तरह की भ्रांतियां जिस की वजह से बहुत बार तो वे किसी चिकित्सक तक पहुंच ही नहीं पाते। बस झाड़-फूंक, टोने-टोटके.. तरह तरह के गुमराह करने वाले तत्व।

हैपेटाइटिस अर्थात् लिवर की सूजन और ये विभिन्न कारणों से हो सकती है ...जब यह सूजन वॉयरस की वजह से होती है तो इसे वॉयरस हैपेटाइटिस कहते हैं...और इन वायरसों की अलग अलग किस्में हैं –ए, बी, सी, डी एवं ई...और फिर इसी अनुसार कहा जाता है हैपेटाइटिस ए, हैपेटाइटिस बी, हैपेटाइटिस सी आदि।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े हैं कि हर वर्ष लगभग 10लाख मौतें वॉयरल हैपेटाइटिस की वजह से हो जाती हैं। और विश्व भर में हैपेटाइटिस बी और सी वायरस से इंफैक्शन लिवर(यकृत) के कैंसर का एक प्रमुख कारण है... लगभग 75 प्रतिशत केसों में इन वॉयरसों का संक्रमण लिवर कैंसर के लिये दोषी पाया जाता है।

हैपेटाइटिस ए एवं ई खाने आदि की वस्तुओं से एवं पानी से होता है और अकसर विश्व में विभिन्न जगहों पर यह बीमारी फूट पड़ती है।

यह लेख लिखते लिखते ध्यान आ गया कि मैंने पहले भी हैपेटाइटिस विषय एवं इस से संबंधित विषयों पर कुछ लेख लिखे थे ...चलिये इन में से कुछ के लिंक यहां लगाता हूं ...

हैपेटाइटिस सी लाइलाज तो नहीं है लेकिन
हैपेटाइटिस सी के बारे में सब को जानना क्यों ज़रूरी है
टैटू गुदवाने से हो सकती हैं भयंकर बीमारियां
जब चिकित्सा कर्मी ही बीमारी परोसने लगें
दूषित सिरिंजों से हमला करने वालों की पागलपंथी
वो टैटू तो जब आयेगा, तब देखेंगे
चमत्कारी दवाईयां --लेकिन लेने से पहले ज़रा सोच लें..
और जहां तक हैपेटाइटिस के इलाज में आने वाली दिक्कतों की बात है, उन्हें शाम को एक दूसरी पोस्ट में करते हैं... क्रमश:.................

कहीं आप भी बस कैलोरियां गिनने के चक्कर में तो नहीं पड़े हुए

अमेरिका में एक विशाल अध्ययन हुआ.. एक लाख बीस-हजार पढ़े लिखे लोगों पर और यह स्टडी 12 से 20 वर्ष की लंबी अवधि तक चली। यह अध्ययन यह जानने के लिये था कि आखिर लोगों का उम्र के साथ वज़न कैसे बढ़ने लगता है।

यह रिपोर्ट पढ़ कर यही लग रहा था कि खाने-पीने की भ्रांतियां शायद सारे संसार में लगभग एक जैसी ही हैं। अपने यहां भी ऐसे लोगों से अकसर मुलाकात हो जाती है जो सोचते हैं कि वज़न कम करना है या भविष्य में बढ़ने नहीं देना है तो बस खाना-पीना कम कर दें तो सब ठीक हो जायेगा। यह एक बड़ी गलतफहमी है। और दूसरी गलतफहमी कि जितनी खुराक हमें दिन में खानी है, अर्थात् जितनी कैलोरियां हमें दिन में चाहिएं, वह कैसे हम पूरी करते हैं उस के बारे में ज़्यादा कुछ सोचना ज़रूरी नहीं ....बस, यहां तो यही फंडा है कि सब कुछ थोड़ा थोड़ा खाते-पीते रहना चाहिए ....कुछ नहीं होता, लेकिन हमारी इसी मानसिकता से ही सब कुछ होता है। संतुलित आहार के साथ साथ शारीरिक व्यायाम ही बहुत आवश्यक है।

ध्यान दें कि इतनी वैज्ञानिक स्टडी एक लाख बीस लाख पढ़े लिखे लोगों ने 12 से 20 वर्ष तक इस स्टडी में हिस्सा लिया। जिन दस चीज़ों को इस स्टडी में विलेन माना गया अर्थात् जो लोग इन चीज़ों का सेवन करते रहे उन्हें मोटापे ने घेरे में ले लिया। इन चीज़ों की यहां थोड़ी चर्चा करते हैं......

1. फ्रैंच फराई – अगर हम सोचें कि फ्रैंच फराई किसी महंगे माल ही में मिलते हैं तो हम गलत हैं। जो हम लोग आए दिन आलू लंबे काट कर उन्हें तलने के बाद नमक आदि लगा कर खाते रहते हैं ये रिश्ते में फ्रैंच-फ्राई के भी बाप हुआ करते हैं। आपने भी देखा होगा इन में से कैसे तेल रिसता रहता है। कईं बार इन्हें वेसन में तला जाता है.. लेकिन ये आलू ही क्यों यहां तो जगह जगह पकौड़ें(भजिया), ब्रेड पकौडे आदि जगह जगह दिखते हैं,....दफ्तरों में तो ये रोज़ाना ऐसे खाए जाते हैं जैसे कि वर्कर किसी दावत में आए हों.............क्यों न हम इन चीज़ों से बच कर रहें।

2. आलू के चिप्स ---- उस आर्टीकल में पैटेटो चिप्स लिखा हुआ था ...हिंदोस्तान के बच्चे जो इन आलू के चिप्स को खा रहे हैं वे तो अपनी सेहत खराब कर ही रहे हैं, लेकिन यहां पर इन का भी देशी ( या ओरिजिनल स्वरूप) रूप भी मिलता है ... आलू के चिप्स बिना तले मिलते हैं बाज़ार में जिन्हें लोग घर में तलते हैं और सोचते हैं कि केवल पैकेटे में आने वाले आलू चिप्स ही विलेन हैं।

3. शूगर-वाले पेय (sugar-sweetened drinks) – हम जानते हैं कि इस तरह की बोतलों वोतलों का बाहर काफ़ी चलन है...यहां पर भी इस तरह की कोल्ड -ड्रिंक्स नईं जैनरेशन में बहुत पापुलर हो रही हैं। बात ऐसी है कि अगर इन ड्रिंक्स को लेने का एक मिजाज सा बन जाता है तो यह सेहत के साथ खिलवाड़ तो है ही ....और वजन बढ़ने से कैसे रह सकता है। ये कोल्ड-ड्रिंक्स तो हैं ही, लेकिन इन के साथ ही साथ देश में यह बड़ी बुरी आदत है हर पेय में मीठा डालने की बात ...लस्सी मीठी, शिकंजवी मीठी.....सब कुछ मीठे से लैस होना चाहिए.....चलिये, शिकंजवी में थोडा बहुत मीठा हो भी जाए तो फिर भी यह जो सुबह से लेकर रात को चादर तानने तक आठ-दस बास मीठी, शर्बत जैसी चाय के दौर दनादन चलते रहते हैं, क्या इन के बावजूद वज़न नियंत्रण में रह सकता है।

4. रैडमीट एवं प्रोसैस्ड-मीट (Red Meat & Processed Meat) – मीट तो शायद इतनी समस्या है नहीं ...कमबख्त महंगा ही इतना है कि आम आदमी की पहुंच स दूर होता जा रहा है और शुक्र है कि एक आम देशवासी अपने धार्मिक विश्वासों की वजह से भी इन से अकसर दूर ही भागता है। लेकिन यहां समस्या है, खऱाब मीट मिलने की ... जिन की कईं बार ठीक से चैकिंग भी नहीं होती... मुझे नहीं लगता अभी प्रोसैस्ड मीट की यहां इतनी समस्या है, लेकिन कोई बात नहीं जिस तरह से हम दूसरी सारी बातें वेस्ट की अपनाने में लगे हैं, बड़े बडे माल खुल रहे हैं, तो यह सब भी आ ही जाएगा, शायद आ ही गया हो....मैंने ही शायद कभी इन शेल्फ़ों को न देखा हो।

5. आलू के अन्य रूप – (Other forms of potatoes) .. अब इन चीज़ों को हमारे हिसाब से देखें तो ये समोसे, आलू की टिक्की, चाट पापड़ी में आलू, आलू भजिया,..... यह क्या, मुझे आलू के अन्य रूप ही ध्यान में नहीं आ रहे ....यहां तो भाई हर जगह आलू ही आलू है .... यहां तक की बालीवुड के गीतों में ...जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहूंगा तेरा ओ मेरी शालू...............हा हा हा ...........ध्यान आ गया कुछ ही दिन पहले एक हृदय-रोग विशेषज्ञ से एक महिला ने पूछ लिया –डाक्टर साहब,मैं आलू ले लिया करूं ? --- उस ने हल्के फुल्के अंदाज़ में उसे समझा दिया ...ऐसा है कभी कभार सब्जी में डले हुये जैसे आलू मेथी, आलू गोभी आदि में खाने से कोई परहेज़ नहीं लेकिन अगर आप दम आलू का बड़ा कटोरा लेंगी तो गड़बड़ है।
कुछ भी हो, यहां आलू की बहुत भरमार है...और ये जो समोसे, टिक्की वाले यह पिछले दिन (या दिनों) वाले आलू अकसर इस्तेमाल करते हैं ...जिस से खाने वाले को दूसरी बीमारियां तुरत घेर लेती हैं।

6. कुछ मीठा हो जाए .... (sweets & desserts) --- इस के बारे में तो क्या कहें, सभी जानते हैं कि हम लोग कुछ मीठा हो जाए के कितने बडे दीवाने हैं लेकिन यह भी ध्यान रहे कि यह तो एक बडा विलेन है ही हमारी तोंद एवं कमर का हिसाब-किताब बिगाड़ने के लिए।

7. रिफाईंड ग्रेन्स --- ( पतले अनाज) --- यह जो आज कर पतला आटा, मैदा जैसा खाने का एक ट्रेंड है, इस को भी एक विलेन का एक दर्जा दिया गया है .... इस के बारे में भी इस ब्लॉग में पहले ही से कईं लेख पड़े हैं, थोड़ा देख लीजिएगा। और ऊपर से यह जो मैदा, सूजी एवं पालिश राईस ....ये सब रिफाईंड ग्रेन्स में ही आते हैं।

8. दूसरे तले हुये खाध्य पदार्थ – (Other fried foods) -- अब अमेरिका में तो इन फास्ट-फूड ज्वाईंटों के अलावा कैसे कैसे तले माल मिलते हैं .. मैं नहीं जानता लेकिन यहां के ऐसे माल हमें हर गली नुक्कड़ पर दिखते हैं ...खोमचे वालों के पास, दुकानों पर .... जलेबी, अमरती, बालूशाही ...तरह तरहकी मिठाईयां, कचौड़ी, समोसे, गुलाब-जामुन, गंदे तेल में हर नुक्कड़ पर तैयार होते नूडल, बर्गर, चोमीन.............अब क्या क्या गिनाएं ......यहां तो भाई हर दिन दीवाली है ...भूख हो न हो, बस रेहड़ी दिखनी चाहिए। लेकिन अगर वज़न बढ़ाना ही है तो कोई इन चीज़ों से कैसे करे इंकार।

9. 100% फ्रूट-जूस (100-percent fruit juice) ---मुझे यह लगता नहीं कि यह हमारी समस्या है .. मुझे पता चला है कि कुछ लोग अमेरिका जैसे देशों में केवल यह 100%फ्रूट-जूस ही लेते हैं.. शायद यह बात उन के लिये होगी... लेकिन एक बात और भी है कि अमेरिका में अधिकतर इस तरह के जूस कैन में मिलते हैं (canned fruit juices) ..जो कि जूस के साथ साथ एडेड शुगर आदि से भी लैस होते हैं ...यह समस्या ऐसी है जो मुझे लगता है हमारे यहां किसी दूसरे रूप में है ...क्योंकि हमारे यहां तो 100% जूस वैसे ही नहीं मिलता ... जूस वाला वैसे ही इतनी मिठास उस में घोल देता है कि उसे पीना हरेक के बश की बात ही नहीं होती....वैसे इस के बारे में विस्तार से कभी चर्चा करेंगे कि इसे उस अध्ययन में क्यों विलेन बताया गया है। वैसे इतना तो हम जानते ही हैं कि अगर संभव हो तो फलों को खा लेना ज़्यादा लाभदायक होता है।

10. मक्खन – मक्खन नहीं तो कुछ नहीं, सारा देश इस चिंता में घुला जाता है कि दूध से मक्खन कितना निकलता है। और तो और साथ में यह घुटन की पड़ोसी के दूध से मक्खन कैसे हमारे दूध से ज़्यादा आ रहा है .... है कि नहीं, गृहणियों की दक्षता का एक मापदंड सा बन के रह गया है ... मैंने भी देखा सुना है कि अकसर चुगली शैशन में यह मक्खन की मात्रा ज़रूर कहीं न कहीं से आ ही जाती है। हमारे यहां भी एक अजीब सी समस्या हो गई ... भैंस के दूध से इतना मक्खन निकलने लगा कि हम परेशान हो गए ... अब हम सब लोग मक्खन से वैसे ही दूर भागते हैं ...और ऊपर से इतनी मात्रा, हर समय यही लगता रहता था कि यार, यह तो ज़रूर दूध में कई कैमीकल लफड़ा है, इतना मक्खन .... फिर एक साल से हम लोग वापिस गाय के दूध पर लौट आए। यह तो थी हमारी बात, लेकिन सच यह है कि मक्खन आज भी भारतवासियों के दिलों पर राज़ करता है.... दाल मक्खनी, बटर चिकन, नॉन मक्खनी.........जहां मक्खन शब्द का इस्तेमाल हो गया, स्टेट्स बढ गया ..खिलाने वाला का भी और खाने वाले का भी। लेकिन इस से वजन बढ़ता है। लेकिन एक बात तो है कि मक्खन चाहे कितना भी बड़ा विलेन क्यों न हो, जो लोग यहां पर मक्खन लगाने के मंजे खिलाड़ी होते हैं, उन का तो रूतबा भी इस से बढ़ता है ....कोई ज़रूरत नहीं काम-वाम की, बस बिना वजह "बटरिंग "करने वाले देखते ही देखते दूसरों के कंधों पर चड़कर कहां के कहां पहुंच जाते हैं...मक्खनबाजी की करामात !!

मैंने जिस आर्टीकल की बात शुरू में की थी उस में आगे जाकर यह भी लिखा है कि यह जो मूंगफली से मक्खन तैयार होता है इतना बुरा नहीं है, आप भी डिटेल में पढने के लिये इस न्यू-यार्क टाइम्स में छपे इस आर्टीकल को तो एक बार देख ही लें-- Still counting calories? ... Your weight-loss plan may be out-dated!

देखो यार, ये सब बातें मेरी दिमाग से उड़ते पाप-कान (cerebral pop-corn) तो हैं नहीं, अमेरिका में अगर उन्होंने बीस साल तक सवा लाख लोगों के साथ माथापच्ची कर के कुछ अनुभव बांटें हैं तो बिना किसी टकराव के हमें मानने में क्या दिक्कत है। वैसे मैं इस स्टडी से पूर्णतया सहमत हूं और आज से मीठा और फ्राईड खाते समय इस की तरफ़ जरूर ध्यान कर लिया करूंगा। और आप सुनाईए, आप ने इतना लंबा लेख पढ़ कर के क्या फैसला किया है ? मेरा फैसला तो यह गाना ब्यां कर रहा है .....

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

रहिमन निज मन की बिथा....

मैं आज कोई बात कर रहा था कि कोई बात मैंने फलां फलां को बताई.... पता नहीं कैसे ठीक उसी समय महान कवि रहीम जी के दोहों को रट रहा था ...अचानक उसने शायद एक दोहा मेरे को समझाना ज़रूरी समझा .. जो कि मैं भी तुरंत ही समझ गया। और मैंने उस से यह वायदा किया कि अब आगे से रहीम जी की बात को ध्यान में रखा जाएगा ...ध्यान में क्या, उस पर अमल किया जायेगा।
आदमी जिस परिवेश में जिस क्षेत्र में पलता बढ़ता है उस एरिया के सभी गुण सहज ही उस में आ ही जाते हैं, मैं इस बात पर पूर्ण विश्वास करने लगा हूं।
हरेक को अपनी जन्मभूमि से प्यार होता है ... मुझे भी है अमृतसर से ...जहां मेरा जन्म हुआ और सारी पढ़ाई-लिखाई वहीं पर हुई... वहां के लोगों की विशेषता है कि बड़े खुले विचारों के हैं, यह नहीं कि हर बात छुपा छुपा कर के रखना-करना.... सब कुछ एकदम खुल्लम खुल्ला.... छिपाने का कोई चक्कर ही नहीं।
लेकिन धीरे धीरे अब समझ आने लगी है कि रहीम बाबा ठीक ही कहते हैं ...कोशिश करूंगा कि अब इस पर पूर्ण अमल करूं ... वरना लोगों का क्या है, बस जैसे अमृतसर में अकसर हम यार-दोस्त कह दिया करते थे कि बस, यार, कुछ नहीं .....बस सुक्के स्वाद...... सच में किसी की परेशानियों से किसी को कोई लेना-देना नहीं होता, हम हरेक के आगे बंद मुट्ठी खोलने की भूल करते रहते हैं।
हां, हां, लिख रहा हूं वह दोहा जो बेटा मेरे को सुना कर उस पर अमल करने के लिये कह रहा था ......
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बांटि न लैहैं कोय ।।
बेटे की नोट बुक में उस ने इस का अर्थ यह लिखा हुआ है – रहीम मनुष्य को सलाह देते हुए कहते हैं कि हमें अपने मन की पीड़ा, तकलीफ़, दुःख, दर्द को छिपा कर रखना चाहिए अर्थात् उन्हें हर किसी के सामने नहीं प्रकट करना चाहिए क्योंकि हमारी तकलीफ़ को सुन कर उनको कोई बांट तो लेगा नहीं बल्कि हमारी हंसी और उड़ायेगा अर्थात् हमारी तकलीफ़ से वह मज़े ज़रूर करेगा।
ठीक ए, राघव, अज तो तेरी गल मन लई यार, गल तो एह मैंनूं वी बड़े कम दी लग्गी ऐ......ऐस्से ही तरां यार वधीया वधीया गल्लां दसदा रिहा कर .... ताकि पापा भी अपनी कमियां दूर करता रहे।
चलो, गुज़रा जमाना ही याद कर लेते हैं ....

सोमवार, 25 जुलाई 2011

जाको राखे साईंयां मार सके न कोई ....

अखबार में छपी कुछ कुछ खबरें ऐसी होती हैं जिन पर नज़र ऐसी टिक जाती हैं कि वहां से उठने का नाम ही नहीं लेतीं.... आज भी एक ऐसी खबर ही दिख गई। सात साल के बच्चे की बाएं हाथ की बाजू लिफ्ट में आने से कोहनी (टखना) तक कट जाती है, वह छठी मंजिल पर इस कटी हुई बाजू को उठा कर अपनी दादी के पास जाता है और सारा किस्सा सुनाता है।

तब तक अड़ोसी-पड़ोसियों का भी लांता लग जाता है और एक पड़ोसी उस कटी हुई बाजू को कूड़ेदान में फैंक देता है ...लेकिन बच्चा झट से उसे वहां से उठा लेता है। उसे पास ही के एक अस्पताल में लेकर जाया जाता है जहां बच्चा डाक्टर से उस बाजू को जोड़ने की बात कहता है। लो जी, बच्चे की बात में कैसा जादू, यह कैसे पूरी न हो .......उस बाजू को माइक्रो-सर्जरी के द्वारा चिकित्सकों ने वापिस जोड़ दिया।

हिम्मत देनी पड़ेगी इस सात साल के बच्चे की जिस ने इतनी हिम्मत दिखाई जो हम जैसे बड़ों को भी सबक सिखा दे ...हम कैसे छोटी मोटी तकलीफ़ में ही अपना धैर्य खोने से लगते हैं कि हाय, मर गये,लुट गये, तबाह हो गये, अब क्या होगा...............क्या होगा, जो होगा, अच्छा ही होगा, होनी को भी कोई रोक पाया है क्या!

अब इस बच्चे की हिम्मत की दाद दें तो उस चार साल को भूलने की हिमाकत कैसे कर दें जो चार घंटे तक एक नदी की लहरों से झूझता रहा ... उस माई के लाल ने हिम्मत नहीं हारी ... आखिर उसे बचा ही लिया गया। हिम्मते मरदां, मददे खुदा .....कोई शक ?


बच्चों को हर साल वीरता पुरस्कार मिलते हैं, क्या हम यह आशा कर सकते हैं कि ऐसा ज़ज़्बा रखने वाले बच्चों का नाम भी उस सूची में इस बार शामिल होगा, हम तो दुआ ही कर सकते हैं!

जब इन हादसों का ध्यान आता है तो इंदोर के निकट पातालपानी वाला वह दिल दहला देने वाला हादसा याद आ जाता है ...कुछ दिन पहले एक ही परिवार के पांच सदस्य किस तरह से एक झरने में कुछ ही लम्हों में सब के देखते ही देखते बह गये .... बस उन के किनारे तक पहुंचने में चंद लम्हों की ही दूरी थी... काश!!!!!
Source : Child carries severed hand to doctor

नसबंदी कॉलोनी में ही बच्चों की भरमार की कैसे घपलेबाजी!

अभी अभी अखबार खोली तो देख कर पता चला कि दिल्ली के पास ही लोनी नामक जगह में एक नसबंदी कॉलोनी है जिस में बच्चों का तांता लगा हुआ है। बात पचती नहीं है ना, लेकिन हुआ यूं कि 1986 में डिस्ट्रिक्ट कलैक्टर ने एक स्कीम चलाई कि नसबंदी करवाओ और 50गज का एक घर पाओ। इसी दौर में 5000 लोगों ने नसबंदी तो करवा ली।

रिज़्लट तो इस नसबंदी का यह होना चाहिए था कि वह नसबंदी कॉलोनी का एरिया एक बिल्कुल शांत सा एरिया बन जाना चाहिए था .... लेकिन इस के विपरीत वहां तो कहते हैं बच्चों का तांता लगा रहता है... नंगे-धड़ंगे बच्चे कॉलोनी की गंदगी में खेलते कूदते जैसे कि इस स्कीम शुरु करने वालों को मुंह चिड़ा रहे हों।

कहते हैं कि जिन लोगों को यह घर मिले नसबंदी करवाने के बाद ...उन में से तो कुछ तो इन को बेच कर पतली गली से निकल गये...लेकिन जो अधिकांश लोग इस मुस्लिम बहुल कॉलोनी में हैं, उन में से अधिकतर ने इस स्कीम के तहत् अपनी बीवी की नसबंदी करवा दी और स्वयं फिर से शादी कर ली ...और एक बार फिर से यह सिलसिला चल निकला।

नसबंदी कॉलोनी ---नाम ही में कुछ गड़बड़ सी लगती है ... ऐसे नाम नहीं रखने चाहिए... किसी को कोई अपना पता क्या बताए ? – हो न हो, ऐसी कॉलोनी में रहना ही एक उपहास का कारण बन सकता है। नसबंदी कॉलोनी और एमरजैंसी के दौरान नसंबदी कार्यक्रम के दौरान नसबंदी के किस्से सुनते सुनते एक और किस्से का ध्यान आ गया .... हमारा एक सहकर्मी बता रहा था कि उसे दस नसबंदी करवाने को लक्ष्य दिया गया ... यानि कि उस ने दस लोगों (पुरूष अथवा महिला) को नसबंदी के लिये प्रेरित करना था एक वर्ष में --- कह रहा था कि वह यह टारगेट पूरा नहीं कर पाया और उस के बॉस ने उस की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में यह दर्ज कर दिया कि यह परिवार कल्याण कार्य में रूचि ही नहीं लेता.... उस चिकित्सक को जब रिपोर्ट मिली तो उस ने प्रशासन को इस के विरूद्ध अपील की और निर्णय उस के हक में हो गया और बता रहा था कि बॉस की वह टिप्पणी उस की ए.सी.आर से हटा दी गई।

हैरानगी यह है कि मैं दिल्ली को अच्छी तरह से जानता हूं ... आज से बीस साल पहले बसों में भी खूब घूमा हूं लेकिन किसी बस पर यह लिखा नहीं पड़ा ... नसबंदी कॉलोनी..........चलो, जो भी है, लेकिन इस कालोनी में दुनिया के आगे कम से कम एक उदाहरण तो पेश की किस तरह के परिवार नियोजन कार्यक्रम फेल हो जाते है।
Source : 'Vasectomy Colony' faces population explosion (Times of India, July25' 2011)

शनिवार, 23 जुलाई 2011

अब तंबाकू की साधारण पैकिंग करेंगी जादू






आस्ट्रेलिया को इस बात की बधाई देनी होगी कि वह पहला ऐसा देश बन गया है जिस ने ऐसा कानून बना दिया है कि सभी तंबाकू प्रोडक्ट्स को बिल्कुल प्लेन पैकिंग (plain packaging) कर के ही बेचा जाए.... कोई ट्रेडमार्क नहीं, मार्केटिंग की और कोई चालाकी भी नहीं होगी अब इन पैकेटों पर।

इस में कोई दो राय हो ही नही सकती कि अगर तंबाकू प्रोड्क्ट्स की पैकेजिंग बिल्कुल प्लेन –साधारण, बिना तड़क-भड़क वाली कर दी जायेगी तो बेशक यह जनता के हित में ही होगा। और अगर पैकिंग ही बिल्कुल सीधी सादी होगी तो उस पैकिंग पर दी जाने वाली सेहत संबंधी चेतावनियों का असर भी ज़्यादा पड़ेगा ...और पैकेट पर ट्रेड-वेड मार्क न होने से यह जो Surrogate Advertising का गंदा खेल चल निकला है उस पर भी काबू पाया जा सकेगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बात को जोर से कहना शुरू कर दिया है कि तंबाकू के विरूद्ध छिड़ी जंग में इस की पैकिंग का बहुत महत्व है। और जैसे विभिन्न देश तंबाकू के ऊपर तरह तरह का शिकंजा कस रहे हैं, परचून में बिकने वाले तंबाकू की पैकिंग (retail package) प्रोडक्ट्स और प्रोफिट के बीच एक अहम् लिंक बन चुकी है। इसलिये अन्य देशों से यही गुज़ारिश की जा रही है कि वे भी अपने लोगों की सेहत के लिये प्लेन-पैकेजिंग को ही शुरू करें।

अनुमान है कि भारत में 35 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में तंबाकू का सेवन करते हैं। तंबाकू के उत्पादों पर ऩईं ग्राफिकल चेतावनियों का मामला दिसंबर 2011 तक तो ठंडे बस्ते में ही पड़ा हुआ है। काश, इस के साथ कुछ ऐसा पैकिंग को बिल्कुल फीका, नीरस करने का भी कुछ आदेश आ जाए.... कोई बात नहीं, दुआ करने में क्या बुराई है!

बहुत बार ऐसा भी होता है कि पैकिंग जिस रंग में होगी, उस से ही लोग अनुमान लगा लेते हैं कि यह उन की सेहत के लिये कैसा है, जैसे कि सिगरेट पैकेट के ऊपर हल्के रंग होने से उपभोक्ता समझने लग जाते हैं कि यह प्रोडक्ट भी हल्का-फुल्का ही होगा, इसलिए सेहत के लिये भी कुछ खास खराब नहीं होगा।

लेकिन आस्ट्रेलिया ने ऐसा शिकंजा कसा है इन शातिर मार्केटिंग शक्तियों पर कि वहां पर उन्होंने यह भी तय कर दिया है कि कौन से कलर पैकेट की सभी साइड़ों के लिये इस्तेमाल किये जाएंगे और उन की फिनिश कैसी रहेगी। ...... Great job, Australia! … an example that world should follow!! …

भारत में भी इस तरह के पैकिंग नियम बनाये जाने की सख्त ज़रूरत है लेकिन यह ध्यान रहे कि कहीं चबाने वाला तंबाकू इन नियमों की गिरफ्त से न बच पाए क्योंकि वह भी इस देश में एक खतरनाक हत्यारा है।

पैकिंग से दो बातों का ध्यान आ रहा है ... अमृतसर में डीएवी स्कूल हाथी गेट के पास ही एक तंबाकू वाली दुकान थी .. हम लोग पांचवी छठी कक्षा में उस के सामने से गुज़रते थे तो हमारी हालत खराब हो जाय़ा करती थी ... हमें यह भी नहीं पता होता था कि यहां बिकता क्या है, बस बड़े बड़े गोल गोल काले धेले (यह पंजाबी शब्द है, मुझे पता नहीं हिंदी में इसे क्या कहते हैं) दिखा करते थे ..और हमें वहां से गुज़रते वक्त अपने नाक पर रूमाल रखना पड़ता था। बाद में चार पांच साल बाद पता चला कि यहां तो तंबाकू बिकता है ..हम लोग उस दुकान के आगे से ऐसे बच के निकलते थे जैसे वह अफीम बेच रहा हो ....बस, ऐसे ही तंबाकू की जात से ही नफ़रत हो गई। आज सोचता हूं तो समझ में आता है वह तंबाकू हुक्का पीने वाले खरीद कर ले जाते होंगे।

और दूसरी बात, लगभग दस साल पहले जोरहाट आसाम में एक नवलेखक शिविर में शिरकत करने गया .. वहां पर गुटखे के पैकेट सड़कों पर ऐसे बिछे देखे जैसे किसे ने चमकीली चटाई बिछा दी हो ...और पैकिंग बहुत आकर्षक ...मैंने वहां बिकने वाले लगभग 40-50 ब्रांड के गुटखे खरीदे ...उन की पैकिंग पर एक स्टडी की ... प्रकाशित भी हुई थी .... पैकिंग इतनी शातिर, इतनी चमकीली की गुटखे पर लिखी चेतावनी की तरफ़ पहले तो किसी का ध्यान जाए ही नहीं और अगर चला भी जाए तो कोई उसे पढ़ ही न पाए.... किसी किनारे में छुपा कर लिखा हुआ.... और अधिकांश पैकेटों पर इंगलिश में। काश, कोई इनको भी पैकिंग की सही राह दिखाए ......चलिये, आज आस्ट्रेलिया ने पहल तो की है, देखते हैं आगे आगे होता है क्या !!
कभी इधर भी नज़र मारिए ...
तंबाकू का कोहराम

बिना डाक्टर की पर्ची के दवाईयां न बेचने पर इतना बवाल!

कुछ दिन पहले मैं एक खबर की चर्चा कर रहा था जिस से पता चला था कि इंदौर में डाक्टर दो पर्चीयां बनाया करेंगे –एक मरीज़ के पास रहेगी और दूसरी कैमिस्ट अपने पास रख लिया करेगा। लेकिन आज सुबह पता चला कि दिल्ली में भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा है जिस की वजह से वहां कैमिस्टों ने खासा बवाल मचा रखा है।

कैमिस्टों का कहना है कि दिल्ली में यह जो ओटीसी दवाईयों के ऊपर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव है, यह उन के लिए बहुत कठिन काम है। ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के बारे में उन का कहना है कि उन की जितनी कुल दवाईयां बिकती हैं उन का 60 प्रतिशत तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां ही तो होती हैं...ऐसे में कैमिस्ट का एक वर्ष तक उन सभी डाक्टरी नुस्खों को संभाल के रखना संभव नहीं है।

न्यूज़ में यह भी लिखा है कि कुछ 16 ऐसी दवाईयां जिन्हें बेहद आपातकालीन परिस्थितियों (life-threatening conditions) में ही इस्तेमाल किया जाता है जैसे कि कैंसर एवं दिल के रोग से संबंधित किसी एमरजैंसी के लिये – इन को भी केवल अस्पताल में स्थित दवाई की दुकानों में ही बेचे जाने का प्रस्ताव है। पढ़ तो मैंने यह लिया लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आया कि अगर ऐसा कुछ सरकार कर रही है तो इस में आखिर बुराई क्या है!

हां, कैमिस्ट एसोशिएशन का यह भी मानना है कि इस तरह की व्यवस्था हो जाएगी तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शुरू हो जाएगी।

चलिए खबर में लिखी बातों की बात तो हो गई...अब ज़रा मैं भी आपसे दो बातें कर लूं।

ऐसा है कि जितना स्वास्थ्य दुनिया में लोगों को इन ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों ने खराब किया है, शायद ही किसी अन्य दवाई ने किया है। बस नाम पता होना चाहिए...जिस की जो मर्जी होती है कोई भी सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक कैमिस्ट से खरीद कर लेना शुरू कर देता है ....बीमारी का पता नहीं, आम मौसमी खांसी जुकाम के लिये भी ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लेना आम सी बात है। ऐसी दवाईयों का पूरा डाक्टर की सलाह से न करना भी आज विश्व के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती है। घटिया, नकली दवाईयां, तरह तरह की हर जगह होने वाली सैटिंग ... खुले ऐंटीबॉयोटिक के नाम पर अजीबो गरीब साल्ट बेचे जाना एक आम सी बात हो गई है... ऊपर से यह जैनरिक और एथिकल दवाईयों का पंगा ... जैनरिक दवाईयां ---जिन के उदाहरणतयः प्रिंट तो रहेगा 60 रूपये की दस कैप्सूल की स्ट्रिप –लेकिन आप के कैमिस्ट से संबंधों के अनुसार वह 30 की मिले, 18 की मिले या आठ रूपये की ही मिल जाए.....................यह एक ऐसा एरिया है जिसे मैंने पिछले 10 वर्षों से जानना चाहिए लेकिन हार कर जब कुछ भी कोई ढंग से बता ही नहीं पाता (या बताना चाहता ही नहीं?) तो मैंने भी घुटने टेक देने में ही समझदारी समझी।

आलम यह है कि मुझे 25 साल इस व्यव्साय में बिताने के बाद आज तक यह पता नहीं है कि जैनरिक दवाई को एथिकल दवाई से कैसे पहचान सकते हैं। एथिकल दवाईयों जैसे ही नाम में आती हैं जैनरिक दवाईयां --- अब पता नहीं इस राज़ को कौन खोलेगा!

अच्छा, यह जो इन कैमिस्ट ऐसोसिएशनों का कहना है कि इस से ऐंटीबॉय़ोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शूरू हो जाएगी ... मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगता .. जिन्हें सही में इस तरह की दवाईयां चाहिए होंगी उन को तो कभी भी इन को प्राप्त करने में कोई कठिनाई आयेगी नहीं और जिन्हें केवल काल्पनिक, रोगों के लिये, अपनी मरजी से ही इस तरह की दवाईयां चाहिए उन के लिये ऐसी कालाबाज़ारी कल की बजाए आज शुरू हो जाए तो बेहतर होगा..... कम से कम इस तरह की दवाईयां कम ही तो खरीद पाएंगे ...इसलिये इन्हें खाया भी कम ही जाएगा जिस से वे सारी दुनिया का भला ही करेंगे।

यह जो मैं बार बार लिख रहा हूं कि बिना कारण इस तरह की ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां न खा कर भला कैसे कोई सारे विश्व का भला कर सकता है? ¬¬¬ ---दरअसल समस्या यह है कि ऐसी महत्वपूर्ण दवाईयों के अंधाधुंध उपयोग से बहुत सी महत्वपूर्ण दवाईयां जीवाणु मारने की क्षमता खोने लगी हैं --- जीवाणुओं पर अब इन का असर ही नहीं होता --- (Drug Resistance) … जिस की वजह से बीमारी पैदा करने वाले जीवाणु ढीठ होते जा रहे हैं .. यह एक भयंकर समस्या है .... सोचिए जब पैनसिलिन नहीं था तो किस तरह से मौतें हुया करती थीं . किस तरह से टीबी की दवाईयां आने से पहले टीबी होने का मतलब मौत ही समझा जाता था।

जो भी सरकार इस तरह के नियम बना रही है बहुत अच्छी कर रही है.... इस तरह के फैसले बड़ी सोच विचार करने के बाद, विशेषज्ञों की सहमति से लिये जाते हैं... इसलिये इन पर कोई भी प्रश्नचिंह लगा ही नहीं सकता। सरकार का दायित्व है कि उस ने सारी जनता के हितों की रक्षा करनी है ---अब अगर कुछ लोग अनाप शनाप दवाईयां खाकर कुछ इस तरह के बैक्टीरिया उत्पन्न करने में मदद कर रहे हैं जिन के ऊपर दवाईयां असर ही नहीं करेंगी तो फिर कैसे चलेगा, सरकारों ने तो यह सब कुछ देखना है।

जितना लिख दिया था लिख दिया मैंने ---लेकिन इतना तो तय है कि जितने मरजी नियम आ जाएं ... यह जो लोग अपनी मरजी से दवाई खरीद कर खाने के आदि हो चुके हैं, ये बाज नहीं आने वाले, ये कैसे भी जुगाड़बाजी कर के मनचाही दवाईयां खरीद ही लेते हैं ....इस के अनेकों कारण हैं।

इससे दुःखद बात क्या हो सकती है कि अधिकांश अस्पतालों में कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी ही नहीं है ....और अगर कहीं कहीं है भी तो डाक्टरों को ही उस का नहीं पता .....क्या कहा, पता होगा! --- मुझे तो कभी नहीं लगा ...जिस तरह से सादे खांसी जुकाम के लिये धड़ाधड़ महंगे से महंगे, सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लिखी जा रही हैं, उस के बाद भी कैसे मान लूं कि कहीं पर भी कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी है।

Source : Chemists plan to protest OTC ban

एम्स ने खरीदा 28 करोड़ का चाकू

इस चाकू का नाम का ...गामा चाकू (Gamma Knife)… कहने को तो चाकू है लेकिन न ही तो इस में कोई ब्लेड है और न ही इस से कुछ कट लगाया जाता है। एम्स में यह चाकू 14 वर्षों के बाद आया है और इस की कीमत 28 करोड़ रूपये है ..वहां पर पहले एक गामा नाईफ़ 1997 में खरीदा गया था। आखिर इस चाकू से होता क्या है....इस चाकू का इस्तेमाल मस्तिष्क के आपरेशन करने के लिये किया जाता है लेकिन कोई कट नहीं, कोई चीरा नहीं ...फिर कैसे हो पाता है फिर यह आप्रेशन।

दरअसल इस गामा नाईफ से एक ही बार में, हाई-डोज़ विकिरणें (high-dose radiation) मस्तिष्क के बीमार भाग पर डाली जाती हैं ताकि उस का सफाया किया जा सके---यह बिल्कुल एक आटोमैटिक प्रक्रिया होती है और बस एक बटन दबाने से ही सारा काम हो जाता है। समय की बचत तो होती ही है और इस से बहुत से मरीज़ों का इलाज किया जा सकता है।

सर्जरी से संबंधित सभी कंप्लीकेशन से तो मरीज़ बच ही जाता है, साथ ही जल्द ही अस्पताल से उसे छुट्टी भी मिल जाती है और शीघ्र ही अपने काम पर भी लौट जाता है। एक मरीज़ के लिये एम्स में इस का खर्च 75000 हज़ार रूपये आता है .. यह उस खर्च का एक तिहाई है जो किसी मरीज़ को इस इलाज के लिये प्राइव्हेट अस्पताल में खर्च करना पड़ता है।
Source : Quick surgeries at AIIMS

बिना टीके, बिना चीरे, बिना टांके के भी हो रही है सुन्नत

दो-अढ़ाई वर्ष पहले सुन्नत/ख़तना (Male circumcision) करवाने के बारे में एक लेख लिखा था जिस में इस के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई थी ...सुन्नत/ख़तना के बारे में क्या आप यह सब जानते हैं? सुन्नत करवाने से संबंधित विभिन्न पहलू अच्छे से उस लेख में कवर किये गये थे।

मुझे ध्यान आ रहा है ..एक बार एक बिल्लू बारबर से मैं कटिंग करवा रहा था ..वहां बात चल रही थी उस की किसी के साथ कि वह पिछले 25-30 वर्षों में सैंकड़ों बच्चों का ख़तना कर चुका है। यही तो सारी समस्या है ...विभिन्न कारणों की वजह लोग अपने बच्चे का खतना नाईयों आदि से करवा तो लेते हैं लेकिन यह बेहद रिस्की काम है .... न ही तो औज़ारों को स्टेरेलाइज़ (जीवाणुमुक्त) करने का कोई विधान इन के यहां होता है, और न ही ये इस तरह का काम करने के लिए क्वालीफाई ही होते हैं.....बस वही बात है नीम हकीम खतराए जान....चलिये जान तो खतरे में शायद ही पड़े लेकिन इन से इस तरह के सर्जीकल काम करवाने से भयंकर रोग ज़रूर मिल सकते हैं।

तो चलिए, लगता है आने वाले समय में यह लफड़ा ही दूर हो जाए... बिना आप्रेशन, बिना चीरा, बिना टीका, बिना टांके के सुन्नत करवाने की खबर आज सुबह देखी ... सोच रहा था कि यह कैसी खबर हुई, यह कैसे संभव है लेकिन खबर बीबीसी की साइट पर थी तो विस्तार से इसे जानने की इच्छा हुई...New Device Makes Circumcision safer and cheaper.

तो, आप भी यहां इस ऊपर दिये गये लिंक पर जाकर इसे देख सकते हैं कि किस तरह से बिना किसी चीरे के कितनी निपुणता से युवाओं की सुन्नत की जा रही है। कंसैप्ट यही है कि एक रिंग की मदद से शिश्न (penis) के अगली लूज़ चमड़ी (prepuce) की ब्लड-सप्लाई में अवरोध पैदा कर के उस के स्वयं ही झड़ने का इंतजाम किया जाता है इस नई टैक्नीक में...... लेकिन यह काम क्वालीफाई चिकित्सक द्वारा ही किया जाता है।

अगर यह टैक्नीक विकासशील देशों में भी आ जाए तो इस तरह का आप्रेशन करवाने वाले लोगों को बहुत सुविधा हो जाएगी। लेकिन इस समाचार से ऐसा लगता है कि यह टैक्नीक किशोरावस्था या युवावस्था के लिये तो उपर्युक्त है लेकिन शिशुओं के लिये यह उपयोगी नहीं है।

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

टीबी के ब्लड-टैस्टों में हो रहा इतना गड़बड़-झाला

पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में ऐसे बहुत से केस देखने-सुनने को मिले जिस में कहा जाता रहा कि टीबी का रोग तो था ही नहीं, बस बेवजह टीबी की दवाईयां शुरू कर दी गईं...और दूसरे किस्से ऐसे जिन में यह आरोप लगते देखे कि टीबी की बीमारी तो डाक्टरों से पकड़ी नहीं गई, ये मरीज़ को और ही दवाईयां खिलाते रहे और जब टीबी का पता चला तो यह इतनी एडवांस स्टेज तक पहुंच चुकी थी कि कुछ किया न जा सका।

अभी दो-चार वर्षों से मैं जब सुना करता था कि टीबी के निदान (डायग्नोसिस) के लिये अब महंगे ब्लड-टैस्ट होने लगे हैं जिन्हें इलाईज़ा टैस्ट भी कहते हैं ...Elisa Tests – Blood tests for Tuberculosis. मुझे इन के बारे में सुन कर यही लगता था कि चलो, जैसे भी अब थोड़ा पैसा खर्च करने से टीबी का सटीक निदान तो हो ही जाया करेगा। ये टैस्ट वैसे तो प्राइव्हेट अस्पतालों एवं लैबोरेट्रीज़ में ही होते हैं ...लेकिन कुछ सरकारी विभाग अपने कर्मचारियों को इस तरह के टैस्ट बाज़ार से करवाने पर उस पर होने वाले खर्च की प्रतिपूर्ति कर दिया करती हैं --- reimbursement of medical expenses.

मैं इस टैस्ट के बारे में यही सोचा करता था कि एक गरीब आदमी को अगर ये टैस्ट चाहिये होते होंगे तो वे इस का जुगाड़ कैसे कर पाते होंगे, लगभग पिछले एक वर्ष से यही सोचता रहा कि डॉयग्नोसिस तो हरेक ठीक होना ही चाहिये ---यह तो नहीं अगर किसी के पास पैसे नहीं हैं इस टैस्ट को करवाने के लिये तो वह बिना वजह टीबी की दवाईयां खाता रहे या फिर बीमारी होने पर भी दवाईयां न खा पाए क्योंकि कुछ भी पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता।

ये हिंदोस्तानी लोग पूजा पाठ बहुत करते हैं ना ....और कोई इन की सुने ना सुने, लेकिन ईश्वर इन की बात हमेशा सुन लेते हैं। इस केस में भी यही हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह चेतावनी दी है कि ये जो टीबी की डॉयग्नोसिस के लिये जो ब्लड-टैस्ट भारत जैसे देशों में हो रहे हैं, इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

भरोसा नहीं किया जा सकता – यह क्या? डब्ल्यू.एच-ओ को यह चेतावनी जारी करने के लिये इसलिये विवश होना पड़ा क्योंकि इन एलाईज़ा किटों के द्वारा जितने भी टीबी के लिये ब्लड-टैस्ट किये जा रहे हैं...उन में से लगभग 50 प्रतिशत –जी हां, पचास प्रतिशत केसों में रिज़ल्ट गलत आते हैं ...इस का मतलब यह है कि इन टैस्टों को करवाने वाले कुछ लोग तो ऐसे हैं जिन्हें यह बीमारी न होते हुये भी उन की टैस्ट रिपोर्ट पॉज़िटिव (false positives) आएगी और उन की टीबी की दवाईयां शुरू कर दी जाएंगी। और कुछ बदकिस्मत लोग ऐसे होंगे (होंगे, होंगे क्या, होते हैं, WHO जब खुले रूप में यह कह रही है तो कोई शक की गुंजाइश ही कहां रह जाती है!) जिन को यह रोग होते हुये भी उन का रिज़ल्ट नैगेटिव (false negatives) आता है ....परोक्ष रूप से उन्हें दवाईयां दी नहीं जातीं और उन का रोग दिन प्रति दिन बढ़ता जाता है ...संभवतः जिस का परिणाम उन के लिये जानलेवा सिद्ध हो ही नही सकता, होता ही है।

टीबी के लिये होने वाले इन ब्लड-टैस्टों की पोल तो आज विश्व स्वास्थ्य संगठन में खोली जिस के लिये सारा विश्व इन का सदैव कृतज्ञ रहेगा... पूरी छानबीन, संपूर्ण प्रमाणों के आधार पर ही इस तरह की चेतावनी जारी की जाती है और यहां तक कहा गया है कि इन पर प्रतिबंध लगाये जाने की ज़रूरत है।

मुझे सब से ज़्यादा दुःख जो बात जान कर हुआ वह यह कि इस तरह की टैस्ट की किटें तो उत्तरी अमेरिका एवं यूरोप में तैयार किया जाता है लेकिन उन का इस्तेमाल भारत जैसे विकासशील देशों में किया जाता है ... ऐसा क्यों भाई? …यह इसलिये कि वहां पर इस तरह के टैस्टों के ऊपर नियंत्रण एकदम कड़े हैं, कोई समझौता नहीं ...यहां तक कि अमेरिकी एफ डी ए (फूज एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन) ने इस तरह के टैस्टों को अप्रूव ही नही किया ....इसलिये जिन देशों में जहां इस तरह की व्यवस्था बिल्कुल ढीली ढाली है, वहां ये टैस्ट बेधड़क किये जाते रहे हैं ....और भारत भला फिर कैसे पीछे रह जाता लेकिन लगता है आज डबल्यू एच ओ के कहने पर अब हमारा नियंत्रण दस्ता भी हरकत में आयेगा और शायद इन टैस्टों पर प्रतिबंध लगाने की प्रक्रिया शुरू हो जाए...काश, ऐसा जल्द ही हो जाए।

मैं सोच रहा था ...ये जो तरह तरह के घोटाले होते हैं इन पर तो हम चर्चा करते थकते नहीं लेकिन इन मुद्दों का क्या....कितने वर्षों तक इस तरह के टैस्ट होते रहे जिन के नतीज़े भरोसेमंद थे ही नहीं, जिन की वजह से तंदरूस्त लोग टीबी की दवाईयां खाते रहे होंगे और कुछ लोग टीबी से ग्रस्त होते हुये भी रिपोर्ट ठीक ठीक होने पर जिन्होंने इस की दवाई न लेकर अपना रोग साध्य से असाध्य कर लिया होगा और एक तरह से टैस्ट करवाना ही तो जानलेवा सिद्ध हो गया।

अच्छा मुझे यह बतलाईये, यह जो यू.के है यह यूरोप ही में ही हैं ना ..... देखिये मैं पहले ही बता चुका हूं कि मुझे जिस ने भी मुझे मैट्रिक में ज्योग्राफी में पास किया, मैं उस का सारी उम्र उस महात्मा का ऋणी रहूंगा.... हां, तो खबर दो-तीन महीने पहले थी कि जो लोग यूके में बाहर से आते हैं उन का टीबी चैकअप ब्लड-टैस्ट के द्वारा किया जाना चाहिये क्योंकि उन की स्क्रीनिंग जो एक्स-रे से होती है, उस की वजह से कईं केस मिस हो जाते हैं क्योंकि उस रिपोर्ट में लिखा था कि ये एक्स-रे केवल सक्रिय टी बी (active TB) को ही पकड़ पाते हैं।

और एक बात ...कुछ पंक्तियां विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा जारी किये गये एक दस्तावेज से लेकर आप के समक्ष रख रहा हूं ...हु-ब-हू ... यह इस दस्तावेज़ के पेज़ नं.6 पर लिखी गई हैं......

“ India is the country with the greatest burden of TB, nearly 2 million incident cases per year. Conservatively, over 10 million TB suspects need diagnostic testing for TB each year. Findings from a country survey done for the Bill & Melinda Gates Foundation showed that the market for TB serology in India exceeds that for the sputum smears and TB Culture; six major private lab. Networks (out of hundred) perform more than 500,000 TB Elisa Tests each year, at a cost of approx. 10 US Dollars per test or 30 Dollars per patient (for 3 simultaneous tests). Overall an estimated 1.5 million TB Elisa Tests are performed every year in the country, mostly in private sector.
(Commericial Serodiagnostic Tests for diagnosis of Tuberculosis--- WHO Policy Statement 2011…Page 6)

सोच रहा हूं मैंने यहां यह लिख कर कौन सा तीर मार लिया ---सौ दो सौ पाठक पढ़ लेंगे ...और फिर भूल जाएंगे ... लेकिन जिन लोगों तक इस आवाज़ को पहुंचने की ज्यादा ज़रूरत है, उन तक भला यह सब कैसे पहुंचे, अब विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट को तो आम आदमी खंगालने से रहा ...ज्यादा से ज्यादा वह किसी न्यूज़ चैनल पर खबरें देख-सुन लेगा ...और एक बात, एक न्यूज़-चैनल को इस का पता चल गया लगता है क्योंकि आज दोपहर खाना खाते समय मेरे कानों में कुछ आवाज़ पड़ तो रही थी कि विदेशों में लोग टीबी के निदान (diagnosis) के लिये डीएनए टैस्ट करवाते हैं...........यह एक बहुत महंगा टैस्ट होता है शायद दो हज़ार रूपये में होता है ...अब इस से पहले कि लोगों तक इलाईज़ा टैस्टों पर प्रतिबंध लगाने की ख़बरें पहुंचे क्यों ना पहले ही से जाल बिछा कर रखा जाए, है कि नहीं?

अरे यार, डीएनए टैस्ट की बात कैसे यहां छेड़ दी ... इस पर तो वैसे ही इतना बवाल खड़ा हुआ है ... यह तो एक राष्ट्रीय मुद्दा बना हुआ है लेकिन वह टैस्ट टीबी की जांच के लिये नहीं मांगा जा रहा , वहां माजरा कुछ और ही है ... एक युवक कह रहा है कि एक राजनीतिज्ञ उस का पिता है, इसलिये उस का डीएऩए टैस्ट करने की गुहार लगा रहा है लेकिन नेता जी कह रहे हैं कि उन्हें टैस्ट करवाने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।

चलिये, चर्चा यहीं खत्म करें ...............Thanks, WHO for calling for ban on such blood tests. Tons of thanks, indeed.

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

इंडोनेशिया में दाईयां भी करती हैं दादागिरी

आज एक खबर देख कर पता चला किस तरह से इंडोनेशिया में दाईयां दादागिरी पर उतर आती हैं... इन का स्टाईल तो भाई बंबई के हफ्ता-वसूली करने वाले भाई लोगों जैसा ही लगा ...एक औरत की उदाहरण से यह सारी बात बीबीसी की इस स्टोरी में बताई गई है।

हां तो कैसी दादागिरी इन दाईयों की? – अगर कोई महिला बच्चे को जन्म देने के पश्चात् इन दाईयों की फीस नहीं चुका पातीं तो ये उस के बच्चे को मां को देती ही नहीं ---उसे अपने पास ही रख लेती हैं। और कुछ केसों में तो ये उन बच्चों को आगे बेच भी देती हैं....और जो कर्ज़ इन्होंने महिला की डिलिवरी करने के एवज़ में लेना होता है, वह इसलिये बढ़ता रहता है क्योंकि उस में बच्चे के पालन-पोषण का खर्च भी जुड़ने लगता है। हुई कि न घोर दादागिरी ? --- Indonesian babies held hostage by unpaid midwives.

एक महिला अपनी दास्तां ब्यां कर रही है ... इस रिपोर्ट में वह बता रही है कि गर्भावस्था के दौरान उस का अल्ट्रासाउंड हुआ नहीं, इसलिये प्रसव के दौरान ही पता चला कि उस ने तो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया है ... लेकिन अस्पताल वाले दो बच्चों को डिलिवर कराने के लिए डबल फीस मांगने लगे ...उस दंपति के पास पांच सौ डालर जितनी रकम थी नहीं .... तो क्या था, वही हुआ जिस का डर था!!

बच्चे को क्लीनिक वालों ने अपने कब्जे में रख लिया ...और वह दंपति अस्पताल की दोगुनी फीस जमा करने का जुगाड़ करने लगे... और जब पैसे इक्ट्ठे हो गये तो दाई के पास गये तो पता चला कि बच्चा तो आगे बिक चुका है। खैर, किसी सामाजिक कार्यकर्त्ता की सहायता से बच्चा तो वापिस मिल गया।

खबर देख कर यही लग रहा था कि दुनिया में क्या क्या हो रहा है, यार, इस हिसाब से अपना देश तो बहुत बेहतर हुआ ....मतलब दाईयों की दादागिरी तो नहीं है कम से कम.... लेकिन नवजात शिशुओं की यहां वैसे ही कितनी समस्याएं हैं इस पर एक लेख लिखने की कितने दिनों से सोच रहा हूं .... लेकिन इस विषय पर लिखते समय मन टिकता नहीं ....टिके भी कैसे, जिस दिन से कोलकाता में एक साथ 18 नवजात् शिशुओं के मरने की खबर सुनी है, बहुत बुरा महसूस हो रहा है।

बुरा महसूस इसलिये भी होता है कि किसी नामी-गिरामी महंगे अस्पताल में तो किसी की डिलीवरी के समय महिला डाक्टर के अलावा बच्चों का विशेषज्ञ(Paediatrician) तो क्या, नवजात् बच्चों का विशेषज्ञ (Neo-natologist) भी मौजूद रहता है और जनता जनार्दन को किस तरह से दाईयों के हत्थे चढ़ने पर मजबूर होना पड़ता है ....और कईं बार तो अस्पतालों की चौखट पर ही माताएं बच्चे जन देती हैं.... आप इस से कैसे इंकार कर सकते हैं क्योंकि ऐसी खबरें अकसर मीडिया में कभी कभी दिख ही जाती हैं..... जो भी है, गनीमत है कि मेरे भारत महान् में दाईयों की ...गर्दी (नहीं, यार, दादागिरी ही ठीक है) नहीं चलती ....लेकिन क्या पता कुछ कुछ चलती भी हो, लोग तो वैसे ही कहां कुछ बोलते हैं!!

पानी रे पानी ....तेरा रंग कैसा !

आज दुनिया में पानी के लिये बड़े लफड़े हो रहे हैं और कहते हैं कि आने वाले समय में देशों की लड़ाईयां पानी के लिये हुआ करेंगी। पीने वाले पानी की तो बहुत सी समस्या है।

मुझे ध्यान आ रहा है कि जो मैं लगभग सात-आठ साल पहले कोंकण रेलवे रूट पर यात्रा कर रहा था तो एक स्टेशन पर नीचे उतरा और देखा कि नल के पास एक नोटिस लगा हुआ था—आप को यहां से पानी की बोतल खरीदने की कोई ज़रूरत नहीं है, इस नल में जो पानी है उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के तयशुद्दा मानकों की कसौटी पर भली भांति टैस्ट किया गया है और इसे आप बेझिझक पीने के लिये इस्तेमाल कर सकते हैं!!

और ऐसा नोटिस कोंकण रेलवे के उस स्टेशन पर ही नहीं दिखा ...पता चला कि ऐसे नोटिस उस रेलवे के सभी स्टेशनों पर लगे हुये हैं। काश, सभी सार्वजनिक जगहों पर इस तरह के बोर्ड दिखें ताकि पब्लिक का भरोसा बना रहे।

बचपन में ध्यान है जब ये पानी की रेहड़ी वालों ने पांच पैसे में पानी का एक गिलास बेचना शुरू किया तो अजीब सा लगता था ...फिर दस पैसे, फिर पच्चीस, और देखते ही देखते अब यह एक रूपये में बिकता है ..हां, शायद अब नींबू भी डाल दिया जाता है उसमें। लेकिन ये ठेले वाले इस पानी को किन जगहों से लाते हैं उस पर भी एक प्रश्नचिंह समय के साथ लग गया है।

अब आलम यह है कि बाहर किसी रेस्टरां, किसी फूड-स्टाल पर कहीं भी पानी पीने की इच्छा ही नहीं होती। साल भर लोग पानी से पैदा होने वाली बीमारियों का शिकार होते रहते हैं, कुछ मर भी जाते हैं ..विशेषकर छोटे बच्चों एवं बड़े-बुज़ुर्गों के लिये जल से पैदा होने वाले रोग जानलेवा भी सिद्ध हो सकते हैं।

कुछ दिन पहले टीवी पर आपने भी देखा होगा किस तरह से कानपुर में गंगा को बेहद प्रदूषित किया जा रहा है.. लेकिन वहां ही क्यों, हर जगह हम लोग इन नदियों का भयंकर शोषण किये जा रहे हैं, उन्हीं नदियों की पूजा करते हैं और उन्हें में ही .......क्या कहें, हर जगह जल-प्रदूषण के प्रभाव दिखने लगे हैं। पंजाब में इतने कीट-नाशक इस्तेमाल हो रहे हैं जो फिर जा कर जमीन में मिल जाते हैं ..... कि कुछ शहरी इलाके ऐसे हैं जहां पर कैंसर और कईं असाध्य रोगों के रोगियों की लाइनें लगी हुई हैं। सब चीख-चिल्ला रहे हैं... लेकिन इस का समाधान हो क्या रहा है?
समाधान क्या है, वह 10-12 रूपये वाली बोतल हरेक के हाथ में थमा दें......क्या यह संभव है इस देश में..... पता नहीं कभी किसी सार्वजनिक स्थान पर इस बोतल से पानी पीते हुये बहुत अजीब सा लगता है ... सामने ही कोई बीमार सा दिखने वाला वृद्द, कोई गर्भवती मां अपनी गोद में उठाए बच्चे को तो वही पंचायती टूटी से पानी पिला रही होती है और हमें अपनी जान इतनी प्यारी कि हम उस 12 रूपये वाली बोतल के अलावा बाहर से कहीं भी पानी पी ही नहीं पाते ...........क्या करें, मजबूरी है, जब जब भी बाहर से पानी पिया है ...दो चार दिन बाद खाट ही पकड़ी है।

मुझे यह भी ठीक नहीं लगता जो लोग कह देते हैं कि नहीं, नहीं, कभी बाहर पानी पी लेना चाहिये .....या घर के बाहर तो पानी बाहर का ही पीना होता है ... उस से इम्यूनिटि कायम रहती है.... इस बारे में तो बस यही है कि मजबूरी के नाम पर हरेक बंदा किसी भी जगह से पानी पीने के लिये तैयार हो जाता है। मैं कहता हूं कि घर के बाहर मुझे मिनरल वॉटर के अलावा कोई पानी नहीं चलता.. लेकिन चंद ही घंटों में अगर कुछ ऐसे हालात हो जाएं कि बोतल मिले नहीं और प्यास बर्दाश्त नहीं हो तो मैं भी उस टब से भी पानी मिलने से गनीमत समझूंगा जिस में सब लोग डिब्बा डुबो डुबो कर पिये जा रहे हैं।

पीने वाले पानी की समस्या विषम है... पता नहीं मैंने कुछ साल पहले कहीं पढ़ा था कि ऐसी टैक्नोलॉजी आ गई है या आने वाली है कि आप किसी रेस्टरां में बैठे हैं, पानी का गिलास सामने आते ही आप उस में एक पेन-नुमा यंत्र कुछ लम्हों के लिये डालें ...और पानी हो गया पीने लायक।

पानी के बारे में बहुत सजग रहने की ज़रूरत है ... दो तीन पहले मैं बीबीसी पर देखा कि वैज्ञानिक आजकल crowd-sourcing के द्वारा पानी की गुणवत्ता लेने की फिराक में हैं। क्राउड-सोरिंग से मतलब यह है कि जब किसी टैस्टिगं के लिये किसी कर्मचारी की बजाए पब्लिक ही इस में सक्रिय भाग लेने लगे ... इसे ही क्राउड-सोरसिंग कहते हैं।

पानी के बारे में होता यही है कि हम लोग किसी स्रोत से पानी की टैस्टिंग के लिये वहां से पानी को लैब में भेजते हैं ...फिर कुछ दिनों बाद रिपोर्ट आती है ....और अगर रिपोर्ट आती है कि यह तो पानी पीने लायक था ही नहीं तो इस का क्या फायदा हुआ ... हज़ारों लाखों ने तो तब तक उस पानी से अपनी बुझा कर बीमारी को मोल ले लिया होगा। इसलिये हमारी टैस्टिंग में बहुत सी खामियां हैं।

हां, तो मैं जिस बीबीसी रिपोर्ट की बात कर रहा था उस में बताया गया है कि water-canary नाम से एक ओपन-सोर्स है जिस के द्वारा हम किसी भी जगह से पानी लेते हैं...तुरंत उस यंत्र में एक लाइट जग जाती है हरी या लाल.... यह बताने के लिये की यह पीने योग्य है कि नहीं। उसे यह GPS से जुड़ा हुआ यंत्र तुरंत उस जानकारी को ट्रांसमिट कर देता है। लेकिन, प्रश्न वही कि फिर आगे क्या ? ---आगे यही कि जिस एरिया से पीने के पानी की प्रदूषित होने के समाचार बार बार आएंगे वहां पर मानीटरिंग को और भी पुख्ता किया जाएगा, क्लोरीनेशन को और प्रभावशील ढंग से किया जाएगा, और भी इस तरह की व्यवस्था की खबर ली जा सकेगी।

क्लोरीनेशन से ध्यान आया – 15 साल पहले मेरे गांव में बाढ़ आई – कुछ दिनों बाद जब हम लोग घर वापिस आए तो पानी बिल्कुल मटमैला आ रहा था ... यह बोतलें वोतलें कहां से मिलतीं ...फिर ध्यान आया कि क्लोरीन की गोलियां डाल कर इसे ही पिया जाए ....यकीन मानिए मैंने बीसियों दुकानों से पूछा ...मुझे क्लोरीन की गोलियां कहीं से नहीं मिलीं......हार कर हम लोग उस मटमैले पानी को ही उबाल कर पीते रहे।

कईं बार लगता है इस देश की बेहद विषम समस्याएं हैं .... कोई सुझाव देते हुए भी डर लगता है ...किसी को घर में कोई इलैक्ट्रोनिक यंत्र लगवा कर पानी शुद्ध कर लेने की सलाह देते हुये भी झिझक महसूस होती है....बहुत से लोगों को तो ऐसा कहने की हिम्मत ही नहीं होती ......क्या पता कोई पलट के कह दे ....डाक्टर, रोटी ज़रूरी है या वह यंत्र। फिर भी, जैसा भी पानी हम पी रहे हैं उस की सही तरह से हैंडलिंग के द्वारा भी हम लोग पानी से होने वाले रोगों से काफी हद तक बच सकते हैं।

लेख लिख लिया ...फिर भी लगा समय बेकार कर दिया .... खाली खाली सा लग रहा है ...न ही तो मैं समस्या को पूरी तरह से ब्यां कर पाया और न ही किसी समाधान का हिस्सा ही बन पाया..... इसलिये केवल थ्यूरी ही लिख कर आप से छुट्टी ले रहा हूं।

सोमवार, 18 जुलाई 2011

ड्रग्स खिलाने-पिलाने-सुंघाने के बाद होने वाले बलात्कार

अकसर हम लोग इलैक्ट्रोनिक मीडिया में देखते ही रहते हैं कि विभिन्न शहरों में सारी सारी रात चलने वाली रेव-पार्टीयों के दौरान पुलिस ने छापा मारा और वहां से ड्रग्स भी मिले। और अकसर ऐसा होता है कि जब ड्रग्स की बात चलती है तो हम यही सोच लेते हैं कि होंगी ये वही ड्रग्स जो इंजैक्शन की मदद से नशा करने वाले लेते हैं ...हम ऐसा सोचते हैं कि नहीं?

एक दिन खबर दिखती है ...और फिर हमेशा के लिये गायब....कारण बताने की क्या ज़रूरत है, सब जानते ही हैं।
लगभग दस दिन पहले मैं मैडलाइऩ-प्लस पर मैडीकल समाचार देख रहा था ... वहां पर एक खबर दिखी की कैटामीन ड्रग के इस्तेमाल से इस का नशा करने वाले लोगों में पेशाब से संबंधित कईं पेचीदगीयां हो जाती हैं... यहां तक की urinary incontinence अर्थात् पेशाब अपने आप निकलने जैसे नौबत भी आ जाती है...पेशाब रोक पाने के ऊपर कंट्रोल सा खत्म हो जाता है।

हां तो मैंने इस खबर को इतना तूल दिया नहीं ...कारण यही कि मुझे यह लगा कि यह तो अमीर देशों के बड़े लोगों की बड़ी बातें हैं, इस का भारत जैसे देश से कोई इतना लेना देना नहीं ....और मैं आगे कुछ और पढ़ने में व्यस्त हो गया। यहां यह बताना ठीक होगा कि कैटामीन नामक दवाई है जो आप्रेशन के पहले अनसथीसिया (anaesthesia – निश्चेतण) करने के काम आती है। मुझे याद है हम ने भी इस दवाई के प्रभाव में कईं आप्रेशन होते देखे हैं। वही तस्वीर मन में थी कि कौन इस तरह की दवाई (जो कि विशेषज्ञ ही इस्तेमाल करते हैं आप्रेशन के लिये) को दुर्प्रयोग करने का जोखिम लेता होगा।

लेकिन कल ही की बात है कि मैंने जब इन्हीं सब ड्रग्स के नाम टाइम्स ऑफ इंडिया के रविवारीय परिशिष्ट देखते हुये एक आर्टीकल में देखे – A Party Evil तो मुझे बेहद हैरानगी हुई कि अपने देश में भी ये सब दवाईयां कुछ नाइट-क्लबों, पबों आदि में किस बिंदास अंदाज़ में इस्तेमाल की जा रही हैं।

चलिये, इन दवाईयों के नामों के चक्कर में क्या पड़ना, बस इतना ही काफ़ी है कि इस तरह की ड्रग्स को डेट-रेप ड्रग्स कहा जाता है। लड़का-लड़की कहीं बाहर घूमने गये ---नाइट-क्लब, डिस्को, पब आदि में या किसी रेव-पार्टी के दौरान किसी तरह से इस तरह की दवाईयां लड़की की ड्रिंक्स (hard drink or soft drink) में मिला दी जाती हैं ....उस ड्रग के प्रभाव से लड़की बिल्कुल बदहवास सी, बेसुध सी, न बेसुध ना होश में वाली स्थिति... बेहाल सी महसूस करने लगती है, यादाश्त कमज़ोर होने लगती है और फिर जब तक उस दवा का असर रहेगा उस के साथ क्या क्या हुआ उसे कुछ भी ध्यान न होगा ....और अगर कुछ पता भी हो तो वह शर्म की वजह से किसी से कुछ कहेगी भी नहीं। और इस दवाई के प्रभाव में लड़कियां अपने आप को इतना कमज़ोर-बेबस सा हो जाती हैं कि वे चाह कर भी किसी तरह का विरोध नहीं कर पातीं--- और बस शैतान का काम आसान!!

युवा पाठकों को इन सब खतरों से सजग करने के लिये टाइम्स ऑफ इंडिया का यह आर्टीकल बिल्कुल ठीक है। लफड़ा इन दवाईयां का सब से बड़ा यह भी है कि न तो इन का कोई रंग होता है, न ही कुछ इन की गंध ही होती है और न ही इन का कोई स्वाद ही होता है, इसीलिये जब कोई शैतान इन को किसी ड्रिंक्स में मिला कर किसी लड़की को पिला देता है तो उसे इस का पता ही नहीं चल पाता।

एक दो बातें उस आर्टीकल में यह भी लिखी हुई थीं कि लड़कियों को चाहिये कि इस तरफ़ ध्यान दें कि अपनी ड्रिंक्स को ऐसी जगहों पर अकेले मत छोड़ें और अगर वाश-रूम में भी जाएं तो अपनी ड्रिंक को खत्म कर ही लें....और तो और किसे के साथ अपनी ड्रिंक्स शेयर न करें.... और भी एक बात कि अगर ऐसी जगहों पर कोई ऐसा मित्र साथ हो जो ड्रिंक्स न लेता हो तो ठीक है। बात कुछ जमी नहीं ...मुझे भी ठीक लगी नहीं ... इतना अविश्वास हो अगर किसी के ऊपर लेकिन फिर उस के साथ नाइट-लाइफ का अनुभव लेना है तो फिर तो कभी भी कुछ भी हो सकता है क्योंकि शातिर किस्म के लोगों की सोच ऐसे लेख लिखने वालों से फॉस्ट चलती है।

हां, तो कैटामीन से बात शुरू की थी .. अभी हाल ही में मुंबई से साढ़े तीन करोड़ की यह दवाई पकड़ी गई है ... आप्रेशन करने से पहले तो इस का टीका लगाने की एक विशेष विधि/मॉनीटरिंग होती है .. लेकिन इस का खुराफाती इस्तेमाल करने के लिये कैसे भी इस को इंजैक्ट कर दिया जाता है ...यहां तक कि इसे snort –सुंघवा दिया जाता है और असर होने लगता है।

यह लेख लिखते समय यही ध्यान आ रहा है कि हम लोग जा कहां रहे हैं......सब कुछ ज़्यादा ही फॉस्ट नहीं हो गया? ...और इसीलिये हादसे ही हादसे दिखते रहते हैं। यह लेख भी देखने योग्य है कि किस तरह से मौज-मस्ती के लिये इस तरह से किया जाने वाला ड्रग्स का दुरूपयोग एड्स जैसे रोगों को भी आमंत्रण दे सकता है।

रविवार, 17 जुलाई 2011

एड्स के इलाज के लिये छिपकली?

अकसर हम यह देख कर परेशान हो जाते हैं कि हमारे देश में तरह तरह की भ्रांतियां हैं, टोने-टोटके, झाड़ा, तांत्रिकों-वांत्रिकों का चक्कर है, लेकिन अन्य देशों की अपनी शायद और भी विषम समस्यायें हैं। खबर है कि फिलिपींस में छिपकलियों से एड्स जैसे रोगों का इलाज करने की कोशिश की जाती है। बस, ऐसा वहां की आम जनता को विश्वास सा है कि इस से एड्स, दमा, टीबी, कैंसर एवं नपुंसकता जैसे रोग ठीक हो जाते हैं।

यह गुमराह करने वाली प्रथा कुछ देशों में इस हद तक है कि फिलिपींस से छिपकलियों को बाहर देशों जैसे कि मलेशिया, चीन एवं दक्षिणी कोरिया में एक्सपोर्ट किया जाता है। लगभग 300ग्राम की एक छिपकली के लगभग 1160 डालर तक मिल सकते हैं और इस तरह के धंधे नेट के ऊपर भी हो रहे हैं।

रिपोर्ट में आप देख सकते हैं कि इन देशों में पुरातन काल से इस तरह की एक धारणा बन चुकी है कि छिपकली का इलाज सैक्स-इच्छा एवं पावर (aphrodisiac) बढ़ाने के लिये एवं नपुंसकता का इलाज करने के लिये किया जाना उचित है ... इस के लिये छिपकलियों को सुखा कर उन का पावडर बना लिया जाता है।

लेकिन इस तरह की बेबुनियाद उपचार पद्धतियों की आज की प्रगतिशील चिकित्सा पद्धति में कोई जगह नहीं है, इस से लाभ तो कोई हो नहीं सकता लेकिन इन चक्करों के चक्कर में उचित इलाज की देरी से बीमारी से होने वाले नुकसान बढ़ जाते हैं। अब, दमे की बात करें तो इस के लिये साधारण सा इलाज आज की प्रामाणिक चिकित्सा पद्धतियों में उपलब्ध है, ऐसे में इन सब के झमेले में पड़ने से अपना कीमती समय नष्ट करने वाली बात है।

ध्यान आ रहा है कि ये सब झमेले अन्य देशों के ही नहीं हैं, अपने देश में इतने घरेलू गोरखधंधे हैं जिन का अभी तक हम लोगों को ढंग से पता ही नहीं है, लेकिन फिर भी बात चल निकली है तो आगे जाएगी.... ज्ञान की ज्योत जलाते चलें.........कभी तो कुछ तो असर होगा।
Source ....
Phillipines warns agaisnt geckos as AIDS treatment

शनिवार, 16 जुलाई 2011

पेट का साइज़ कम कर के हो रहा है मोटापे का उपचार



पेट का साइज कम करवा कर मोटापा कम करने का क्रेज़ ज़ोर पकड़ रहा है –अभी कुछ दस दिन पहले ही टाइम्स ऑफ इंडिया में एक रिपोर्ट थी, आपने भी देखी होगी – Scalpel helps teen fight flab. इस में बताया गया था कि किस तरह से सर्जरी के द्वारा पेट का साइज़ कम करवा कर, लगभग दो-अढ़ाई लाख रूपये खर्च कर के लोग अपने बच्चों को मोटापे से निजात दिलाने का जुगाड़ कर रहे हैं।

सब से पहले तो थोड़ा यह देख लें कि यहां यह जिस पेट को कम करने की बात हो रही है यह है क्या...यह वह पेट नहीं है जिस पर हाथ फेर कर लोग कहते हैं ...पापी पेट! नहीं, यह पेट जिस का साइज सर्जरी से कम करने की बात की जा रही है यह शरीर में एक थैली की तरह का अंग है जिस में हमारा खाना जाता है ... फंडा यही है कि जब सर्जरी के द्वारा इस का साइज़ ही कम दिया जाए ताकि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ... जब इस में खाने की कैपेसिटि ही कम होगी तो इंसान कम ही तो खायेगा, कहीं बांध के थोड़ा रख लेगा।

हां, तो जिस सर्जरी की बात हो रही है पेट के साइज को कम करने की इसे बेरिएटरिक सर्जरी (bariatric surgery) कहते हैं और भारत के मुंबई जैसे महानगरों में ऐसे केसों की संख्या बढ़ने लगी है – 2008 में 1200, 2009 में 2200 और अब 2010 के आंकड़ें 3000 केस बताते हैं ... ये आंकड़े मेरे नहीं है, टाइम्स की स्टोरी में दिये गये हैं जिस का लिंक ऊपर दिया गया है।

एक बात समझ में नहीं आई –इस रिपोर्ट में लिखा है लैंसट नामक मैडीकल जर्नल में छपा है कि लगभग 5 में से एक भारतीय पुरूष और 6 में से एक से ज़्यादा भारतीय महिलायें ओव्हरवेट (मोटे) हैं... और साथ ही लिखा है कि कुछ शहरी इलाकों में तो 40 प्रतिशत जनसंख्या इस मोटापा रोग से पीड़ित हैं।

लेकिन चंद मिनटों बाद जब मेरी नज़र रिटर्ज़ की साइट पर पड़ी तो मुझे बड़ी हैरानगी हुई ...नीचे लिखा तो है विश्व स्वास्थ्य संगठन के सौजन्य से ये आंकड़े हैं लेकिन उस में मुझे भारत का नाम सब से नीचे देख कर पहले तो चिंता सी हुई लेकिन जब ठीक से पढ़ा तो समझ आई कि इस के अनुसार तो भारत में मोटापे की दर सब से कम है....इस इमेज में आप इसे देख सकते हैं। इस में आप यह भी देख सकते हैं कि किस तरह से अनुमान लगाया गया है कि अगले तीन वर्ष में मोटापा कम करने वाली दवाईयों का बाज़ार कितने अरबों-खरबों का हो जाएगा।



चलो, यार, इन आंकड़ों के चक्कर में ज़्यादा क्या पड़ना.....यह तो हमें दिख ही रहा है ना कि देश तो मोटा हो ही रहा है.... कोई शक ही नहीं है इस में ...बच्चों को भी यह रोग छोटी अवस्था से ही अपनी चपेट में लेना शुरू कर रहा है—thanks to the junk and fast foods , lack of physical activity, over-indulgence in TV and net leading to “couch potatoes”.

मैंने जब ऊपर वाली पेट को कम करने वाली खबर पढ़ी थी तो यही सोच रहा था कि अन्य कईं तरह के क्रेज़ अलग अलग समय पर उत्पन्न हो जाते हैं --- कहीं यह भी एक नया क्रेज़ न उभर आए --- अब अगर मां-बाप ही युवाओं की इस तरह की सर्जरी के लिये जिद्द करने लगेंगे तो आखिर चिकित्सक कहां तक उन्हें ऐसा करवाने से रोक पाएंगे?

ऐसी सर्जरी होती तो है लेकिन morbid obesity के लिये अर्थात् उस तरह के मोटापे के लिये जहां मोटापा इतना बढ़ चुका है कि बंदा अपनी चलने-फिरने के भी योग्य नहीं है, अपनी दैनिक-क्रियाएं करने में सक्षम नहीं रहा ....ऐसे केसों में उन के चिकित्सक ऐंडोक्राईनॉजिस्ट विशेषज्ञ के साथ सलाह-मशविरा कर के सर्जरी का निर्णय लेते हैं।

इस पोस्ट को विराम देते देते ध्यान आ रहा है कि अमेरिका में एक न्यूज़ रिपोर्ट ने बवाल मचा रखा है जिस में यह छपा था कि जो बच्चे बहुत ज़्यादा मोटे हैं, इस की वजह से जिन के बीमारी से ग्रस्त होने की आशंका बुहत ज़्यादा होगी उन्हें सरकार को उनके मांबाप से अलग कर के अपने पास रख कर उन का लालन-पालन करना होगा --- लेकिन ऐसा हो नहीं पायेगा ---लोगों ने खूब हो-हल्ला किया इस बात पर ..... लेकिन इस से एक आइडिया तो कम से कम हम हिंदोस्तानियों को मिल ही गया कि अब गब्बर के ज़माने को बीते बहुत साल हो गये – अब तो बच्चों को दाल-भाजी-रोटी खिलाने के लिये बस इतना ही काफ़ी है --- चुपचाप यह खाना खा ले, अगर चिप्स-बर्गर-नूडल खा खा के मोटा हो गया तो सरकार उठा कर ले जायेगी...।

पता नहीं इस लेख को समाप्त करते समय क्यों उन जबरदस्ती नसबंदी वाले दिनों की याद आ गई ...समझने वाले समझ गये जो न समझे वो अनाड़ी हैं ।

इस ब्लॉग के बहुत से अन्य लेखों में मोटापे कम करने वाली दवाईयों और अन्य तरह तरह के इलाजों के बारे में बहुत से लेख पहले भी लिखे जा चुके हैं... थोड़ी मेहनत करिये...लिंक जान बूझ कर नहीं दे रहा हूं क्योंकि थोड़ी मेहनत करेंगे तो सेहत के लिये भी अच्छा रहेगा।

नकली दवाईयों की फैक्टरी पकड़ी गई


आज की दा हिंदु में खबर छपी है कि फरीदाबाद में एक नकली दवाईयों की फैक्टरी पकड़ी गई है ... और लाखों रूपये की नकली दवाईयां बरामद की गई हैं। आतंकवादी घटनाओं से जितना सारा देश हिल जाता है उतना इस तरह की खबरों को सुनने से क्यों नहीं हिलता .... मेरे विचार में दोनों ही बातें बेहद शर्मनाक है। आतंकी तो पीठ में छुरा घोंपने जैसी बात करते हैं, लेकिन ये जो अपने ही सफेदपोश जिन्हें समाज अपना ही कहता है, ऐसा धंधा करने वाले लोग आतंकियों की श्रेणी में कब आएंगे?

किसी भी सरकारी अस्पताल में हाल-बेहाल घंटों इंतज़ार करने वाले मरीज़ों के चेहरों को याद भी नहीं करते ऐसा धंधा करने वाले लोग – वे लोग घंटों डाक्टर की इंतज़ार में भूखे-प्यासे इंतज़ार करते रहते हैं कि डाक्टर उन के मरीज़ को देखेगा, बढ़िया सी दवाई लिखेगा ...कोई बात नहीं अच्छी कंपनी की दवाई खरीद लेंगे कैसे भी ..अपना मरीज़ ठीक होना चाहिए। लेकिन मैं जिस खबर की बात कर रहा हूं उस में मशहूर कंपनियों की दवाईयों के नकली बनाए जाने की बात कही गई है।

यही सोच रहा हूं कि आम आदमी आखिर मरे तो मरे कहां, अगर आतंकी हमलों से बच भी गया तो बेचारा इन नकली दवाईयों की वजह से कोई सफेदपोश, संभ्रांत आतंकी उसे मार गिरायेगा। सोच रहा हूं पहली बार तो इस तरह की दवाईयां पकडी नहीं गई ...हम लोग लगातार नियमित तौर पर ये सब भंडे फूटते देखते सुनते रहते हैं लेकिन आगे के आंकड़े पता करने की बात है ---उन का आगे जा कर बना क्या, कितनो को सज़ा हुई .....कितनो को कोई ऐसा सबक मिला कि उन्होंने ऐसे धंधों से तौबा कर ली।

बात यह नहीं है कि इतने लाखों की दवाईयां पकड़ी गईं----लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ये नकली दवाओं का धंधा करने वाले मौत के सौदागर पता नहीं कितने वर्षों से इन धंधों में लिप्त रहते हुये कितने हज़ारों-लाखों लोगों की ज़िंदगी से खिलवाड़ करते रहे .... यह तो तय है कि इन की नकली दवाईयों से हज़ारों-लाखों ज़िदगीयां खत्म तो हुई ही होंगी ...लेकिन उस बात का हिसाब कौन रखेगा। यह भी तय है कि बिना किसी साक्ष्य के पिछली करतूतों को किस सफ़ाई से ढक दिया जाएगा।

नकली दवाई का धंधा ... माफ़ कीजिए, यह नाम सुनते ही इस तरह का धंधा करने वाले शैतानों की मानसिकता के बारे में सोच कर घिन्न आने लगती है। एक उदाहरण देखिये ---आज कल यह Drug Resistance अर्थात् जब किसी बीमारी के जीवाणुओं पर कोई दवा असर करना बंद कर देती है, उसे हम कह देते हैं कि ये ढीठ हो गये हैं.... इसे ही ड्रग-रिसिस्टैंस कहते हैं ... सब से बड़ा मुद्दा है आज चिकित्सकों के सामने टीबी की बीमारी के इलाज में टीबी की दवाईयों का काम न कर पाना। है ना, यह तो आप भी यहां वहां देखते सुनते ही हैं।

अब देखिए..गरीब मज़दूर, टीबी हुई ...पहले तो सरकार को कितना प्यार से समझाना बुझाना पड़ता है कि खा ले दवाईयां ठीक हो जाएगा, चलो जी उस ने कहीं से मुफ्त में लेकर या कहीं से कैसे भी जुगाड़ कर के मार्कीट से दवाईयां ले भी लीं .. लेकिन अगर दवाईयां किसी शैतान की फैक्टरी से निकली नकली या घटिया किस्म की दवाईयां हैं, तो उस की स्थिति में सुधार नहीं होगा, तो चिकित्सकों के पास और कोई चारा नहीं होगा, और स्ट्रांग दवाईयां दी जाने लगेंगी, लेकिन अगर वे भी नकली-घटिया हैं तो उस गरीब को कोई मौत के मुंह से बचा के तो दिखाए।

यह तो एक उदाहरण थी .. किसी भी बीमारी के लिये यह कल्पना कीजिए कि ऐसी वैसी दवाईयां क्या कोहराम मचाती होंगी....शूगर में, ब्लड-प्रैशर में, किसी इंफैक्शन में ... किसी भी स्थिति में यह दवाईयां मरीज़ों की हालत बद से बदतर ही करती हैं। मैं आप से पूछता हूं कि ऐसा धंधा करने वाले आतंकी क्यों नहीं है।

आज सुबह पेपर में देखा कि अमिताभ ने बंबई बम विस्फोटों के संदर्भ में लोगों से कहा है कि आप सब अब पुलिस की तरह ही अपना रवैया रखो --- अर्थात् फूंक फूंक कर कदम रखो .... सोच रहा हूं कहने सुनने के लिये बातें अच्छी लगती हैं, बुद्धिजीवि सोच है.....काश, इन नकली दवाईयों के लिये भी कुछ समाधान सामन आ जाए ... एक छोटा सा सुझाव यह है कि कोई भी दवाई खरीदते समय उस का बिल ज़रूर लिया करें... ऐसा करना अपने आप में ऐसे धंधों को न पनपने देने की एक रोकथाम ही है। चालू किस्म की दवाईयां, बस अड्डों में जो बसों में जो बिल्कुल सस्ती दवाईयां बेचते होंगे, वे क्या बेचते होंगे, इस में अब कोई शक नहीं होना...............और यह तो है कि यह नकली दवाईयों के धंधे का कोढ़ इतना फैल चुका है कि इस की कल्पना भी करना कठिन है।

कल्पना करिये तो बस इस बात की अगर दमे के अटैक के समय दी जाने वाली दवाई नकली निकले, हार्ट अटैक में दिया जाने वाला टीका मिलावटी हो, बच्चे के निमोनिये के टीके नकली हैं, आप्रेशन के वक्त बेहोश करने वाली दवाई नकली हो, गर्भवती औरत को रक्त बढ़ाने के लिये दी जाने वाली दवाईयां घटिया हों.................................सिर दुःखता है न सोच कर.... दुःखना ही चाहिये, यह पाठकों की मानसिक सेहत की निशानी है, अगर सिर दुःखेगा तो ही आप और हम सजग रहेंगे, जितना हो सकेगा पूरे प्रयास करेंगे कि ऐसी दवाईयों से बचा जा सकें (?????) ..हर दवाई का बिल लें, यहां वहां से खुली दवाईयां, टैबलेट न लें..... इस के अलावा एक आम करे भी तो क्या करे.............ध्यान आ रहा है कि बड़ी बड़ी मशहूर कंपनियों की दवाईयों को अगर इन नकली फैक्टरियों ने मिट्टी पलीत कर दी है तो ये जो झोलाछाप, गांवों-कसबों-शहरों में बैठे नीम हकीम ये जो खुली दवाईयां खिलाये जा रहे हैं, यह क्या खिला रहे होंगे, सोचने की बात है!!

कोई नहीं, इतनी टेंशन लेने की बात नहीं है, थोड़ी दार्शनिक सोच रखेंगे तो ही यहां जी पाएंगे---जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो हुआ अच्छा ही हुआ और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा...........तो फिर चिंता काहे की, यही बातें आप वाले सत्संग में भी बार बार दोहराई जाती हैं ना .......... शुभकामनाएं।

बुधवार, 13 जुलाई 2011

हैपेटाइटिस सी लाइलाज तो नहीं है लेकिन ...

आज जब मैं विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट देख रहा था तो पता चला कि 28जुलाई 2011 विश्व हैपेटाइटिस दिवस है। साथ में हैपेटाइटिस सी के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध करवाई गई थी।

अकसर ऐसे ही सुनी सुनाई बात को ध्यान में रखते हुये किसी से भी कोई पूछे कि हैपेटाइटिस सी किस रूट से फैलता है तो यकायक किसी भी पढ़े लिखे इंसान का यही जवाब होगा जिस रूट से हैपेटाइटिस बी फैलता है उसी रूट से ही यह भी फैलता है –देखा जाए तो कुछ हद तक ठीक भी है लेकिन जब कोई बात विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट पर है तो उस की विश्वसनीयता तो एकदम पक्की है ही।

WHO की साइट पर यह लिखा है ... It is less commonly transmitted through sex with an infected person and sharing of personal items contaminated with infectious blood. अर्थात् यह रोग हैपेटाइटिस सी यौन संबंधों के द्वारा इतना ज़्यादा नहीं फैलता।

लेकिन फिर भी हैपेटाइटिस सी अन्य देशों की तरह हमारे लिये भी एक बडा मसला बनता जा रहा है।

जब से यह रक्त चढ़ाने से पहले इस की हैपेटाइटिस सी के लिये भी जांच होती है तब से इस रूट से तो हैपेटाइटिस सी के किसी व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करने के चांस कम ही हैं। लेकिन गंदी, संक्रमित सिरिंज सूईंयों के द्वारा यह रोग संचारित होता रहता है।

इस तरह की सूईंयों का इस्तेमाल ये नीम हकीम और गांव-कसबों में बैठे झोलाछाप चिकित्सक लोग करते आ रहे हैं ... ये कुछ भी तो नहीं समझते कि ये पब्लिक को कितनी बड़ी बीमारी दिये जा रहे हैं... अकसर मैं सोचता हूं कि इस तरह की बीमारियां इन लोगों के द्वारा जो किसी को दे दी जाती हैं क्या ये मर्डर नहीं है। लेकिन इन तक कभी कोई पहुंचता ही नहीं पाता क्योंकि सिद्ध कौन करे कि फलां फलां को उस ने यह टीका लगाया था, इसलिये उस की मौत हो गई।

और दूसरे यह जो नशे लेते हैं ये एक दूसरी की इस्तेमाल की गई सिरिंजो, सूईंयों का इस्तेमाल करते हैं और हैपेटाइटिस सी, बी और एचआईव्ही जैसे रोगों को मोल ले लेते हैं।

कईं बार मैंने मेलों में देखा है ये जो टैटू आदि लोग गुदवा लेते हैं इन मशीनों के द्वारा भी यह रोग फैलता है। और आज के युवाओं को तो तरह तरह की पियरसिंग (body piercing) करवाने का खूब क्रेज़ है, इसलिये कौन देखता है कैसी मशीन इस्तेमाल की जा रही है. और तो और एक्यूपैंचर के इलाज के दौरान भी अगर अगर ठीक सूईंयां इस्तेमाल नहीं की जातीं, तो भी यह रोग फैल सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट में लिखा हुआ है कि जिन लोगों में यह इंफैक्शन हो जाती है उन में से 60से 70 प्रतिशत लोगों में यह क्रॉनिक (chronic) रूप ले लेती है अर्थात् उन का लिवर एक लंबी चलने वाली बीमारी का शिकार हो जाता है ... 5 से 20 प्रतिशत मरीज़ों में लिवर-सिरहोसिस (liver cirrhosis) हो जाता है .. अर्थात् लिवर सिकुड़ जाता है, उस में गांठे पड़ जाती हैं, और यूं कह लें वह फेल हो जाता है और अन्ततः 1 से 5 प्रतिशत लोगों की लिवर सिरहोसिस अथवा लिवर के कैंसर से मौत हो जाती है।

लेकिन आज चिकित्सा विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि हैपेटाइटिस सी का इलाज भी संभव है ---नये नयी नयी ऐंटी-वॉयरल दवाईयां आ चुकी हैं लेकिन इस के लिये मरीज़ को टैस्ट तो करवाना होगा, जल्द इलाज भी तो शुरू करवाना ही होगा.......लेकिन ये सारी की सारी बातें मुझे तो किताबी लगती हैं ....न तो अधिकतर लोग टैस्ट करवा ही पाते हैं, और अगर करवा भी लेते हैं तो महंगा इलाज कौन करवाये ---क्या नशे की सूईंयां आपस में शेयर करने वाले ये सब कर पाने में समर्थ होते होंगे, क्या गांव के मेलों में ज़मीन पर बैठ कर टैटू गुदवाने वाले ये सब काम कर पाते होंगे................आंकड़े कुछ भी मुंह फाड़ फाड़ कर बोलें, लेकिन वास्तविकता किसी से भी छुपी नहीं है।

मैं सोचता हूं क्यों इन नीमहकीमों को जो इस तरह के धंधे करते हैं, संक्रमित सूईंयों से भोली भाली जनता को बीमारी ठोकते रहते हैं, जो मेलों में ये टैटू वैटू का धंधा करते हैं इन पर क्यों शिकंजा नहीं कसा जाता....हम गन्ने का गंदा रस बेचने वाले का तो ठेला बंद करवा देते हैं लेकिन ये यमदूत के एजेंट खुले आम अपना गोरखधंधा जमाये रखते हैं।

अब आता हूं इस पोस्ट के शीर्षक की तरफ़ कि हैपेटाइटिस सी का इलाज तो है लेकिन कितने लोग इस सुविधा का लाभ उठा पाते होंगे --- क्या आप किसी ऐसे शख्स को जानते हैं जो यह इलाज करवा पाया ?....कहने का मतलब है कि अधिकतर लोग जो इन रोगों से संक्रमित होते हैं वैसे ही अभाव की ज़िंदगी जी रहे होते हैं, उन की अनेकों दैनिक मुश्किलों की तरह से यह भी एक अन्य मुश्किल है... न कभी टैस्ट न कभी इलाज....जब लिवर बिल्कुल जवाब दे देता है, बेचारे मर जाते हैं ....लेकिन कसूर किसी का कोई नहीं कहता ....सब कहते हैं बस पीलिया हुआ था, मर गया .....बहुत तकलीफ़ में था, बस मुक्ति मिल गई ....।

Further Reading
Hepatitis C -- WHO site