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सोमवार, 18 अप्रैल 2016

बिन पानी सब सून...

बचपन में सातवीं आठवीं कक्षा तक हम लोग पैदल ही स्कूल आते जाते थे...पंद्रह बीस मिनट का रास्ता था..कोई शाबाशी वाली बात भी नहीं और ना ही कोई शर्म महसूस करने वाली बात है..क्योंकि उस दौर में अधिकतर बच्चे ऐसे ही जाते थे...आज के कुछ बच्चे घर के सामने मोड़ से स्कूल की ए.सी बस पकड़ते हैं लेकिन उन का बस्ता उठाने के लिए घर का रामू साथ चलता है..किधर पानी पर कुछ लिखने लगा हूं और किधर चला जा रहा हूं..

हम लोग जब स्कूल से घर की तरफ़ लौट रहे होते थे तो हमें आधे रास्ते में एक प्याऊ का इंतज़ार रहता था...हमारे देखते देखते ही बना था..लेकिन वहां पर एक बहुत बुज़ुर्ग पानी िपलाया करता था...हर समय...एक बार और भी लिखने योग्य है कि बचपन में बच्चे तो खुद फकीर हुआ करते हैं...यही बीस, पच्चीस, पचास पैसे टोटल हुआ करते थे सुबह स्कूल जाते समय, लेकिन इतनी अकल तो ज़रूर थी कि अकसर उस प्याऊ पर पानी पीने के बाद गिलासों के पास अकसर पांच या दस पैसे अकसर चुपचाप रख दिया करते थे...यह बात आज भी बड़ा सुकून देती है...उसी प्याऊ के आसपास ही एक दो भुट्टा बेचने वाले और एक बैल को घुमा कर गन्ने का रस बेचने वाला हुआ करता था...जैसे पैसे जेब में होते वैसे ही कुछ न कुछ ले लिया करते थे...

हमारी तीन चार लड़कों की यही ब्रेक-जर्नी हुआ करती थी...उस के बाद हमारी अगली यात्रा शुरू हुआ करती थी..इत्मीनान से ...यहां तक सिर पर चढ़ाने के लिए हमारे पास टोपियां तक नहीं होती थीं...शायद बाज़ार में मिलती ही नहीं थीं...मां रोज़ाना कहती कि सिर पर गीला रूमाल या छोटा तोलिया रख कर चला करो...लेिकन इतने समझदार हम कब से होने लगे!...उस बात को एक कान से डाल कर दूसरे से निकाल दिया करते! वैसे तो एक काला चश्मा दिला दिया गया था लेिकन उसे लगाने में शर्म महसूस होती थी ....पता नहीं क्यों, लेकिन कभी इस काले चश्मे का शौक भी तबीयत से पूरा हो ही नहीं पाया...अब कसर निकाल रहा हूं शायद, काला चश्मा नज़र वाले नंबर का बनवा लिया है ...

अच्छा हो गई भूमिका...

हां, तो पीने वाले पानी की बात कर रहा था...यह लखनऊ की ही बात नहीं है, सब जगह ही लगभग एक जैसे हालात हैं...पिछले साल मैं एक दिन यहां के एक बाज़ार में टहल रहा था तो मैंने देखा कि एक दुकानदार ने सौ पचास पानी के छोटे छोटे पाउच भी रखे हुए थे..एक एक दो दो रूपये में बिक रहे थे..

कुछ दिन पहले एक चौराहे पर खस्ता कचौड़ी खाते हुए यह देखा कि अगर किसी ने पानी पीना है तो उसे पानी के पाउच के अलग से चुकाने होंगे...


पानी का पाउच कल्चर अब आम सी बात हो गई है ...आज शाम एक बिज़ी चौराहे पर इस पानी बेचने वाले को देखा..दो दो रूपये में ठंडे पानी की थैलियां बेच रहा था...कोई बात नहीं, मेहनत कर के थोड़ी बहुत कमाई कर रहा है बंदा, और वैसे भी सस्ते में आने जाने वालों को एक सुविधा मिली हुई है...ध्यान दीजिए कि पानी के पाउच वे वाले नहीं जो मैं और आप आज कल ब्याह शादियों में पीते हैं...वे सील होते हैं...लेकिन यह पानी एक साधारण सी पतली पन्नी में बिकता है, उसे रोकने के लिए ऊपर धागा लपेटा होता है ...पीने के लिए यहां एक प्रथा है, धागा कोई नहीं खोलता, पन्नी के निचले हिस्सो को थोड़ा फाड़ कर मुहं से लगा लिया जाता है.. 😎😎
यह भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो ही जाए कि देश में २०१६ में पानी का एक पाउच दो रूपये में बिकता था...
कुछ और ज्यादा िलखने को मन नहीं कर रहा ...सारी दुनिया सुबह से लेकर शाम तक ज्ञान बांटने की होड़ में लगी हुई है, मैं भी...अपने आप को दूसरे से श्रेष्ठ बताने, दिखने, कहने में कोई कोर-कसर नहीं रखी जाती ... है कि नहीं।

बचपन के उन सुखद दिनों का असर कहूं या कुछ कहूं....मुझे भी किसी प्याऊ पर बैठ कर पानी पिलाने का बहुत मन करता है ...अब सोचने वाली बात है कि मुझे रोक कौन रहा है!....बहुत बार लगता है कि ये सब काम करने हैं ज़रूर...किसी दिखावे के लिए नहीं, न ही किसी से वाहवाही लूटने के लिए....इसी बात से तो नफ़रत है, बस तन-मन-धन से इस के बारे में कुछ करने की तमन्ना है।

मुझे बहुत बार लगता है कि जितनी भे ये धार्मिक, अध्यात्मिक संगठन होते हैं किसी भी शहर में इन के पास पब्लिक की गाढ़ी कमाई का बहुत सा पैसा होता है ..और इन्होंने जगहें भी शहर के व्यस्त इलाकों में ले रखी होती हैं, क्या यें इस तरह के ठंड़े पानी के प्याऊ नियमित नहीं चला सकते...कुछ चलाते तो हैं, लेिकन बड़ी खस्ता हालत में दिखते हैं ये प्याऊ...

क्या लिखूं और इस के बारे में ....अचानक दो चार पहले सिंधी नववर्ष वाले दिन एक प्रोग्राम में गया हुआ था..राज्यपाल राम नाईक सिंधी समाज की प्रशंसा करते हुए यह कह रहे थे कि इस की यह खासियत है कि ये जहां जाते हैं वहीं के माहौल में घुल मिल जाते हैं ...उन्होंने कहा जिस तरह से पानी का कोई रंग नहीं होता...लेकिन जिस में मिला दो लगे उस जैसा...

वैसे यह शोर फिल्म का गीत भी उसी दौर का ही है ..जब हम लोग ९-१० की आयु के थे...१९७२ के जमाने में....

जाते जाते सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा लगा लें कि अाज मेरे कितने ही व्हाट्सएप ग्रुप पर कितने ही लोगों ने दिलीप कुमार को अल्ला को प्यारा हुआ बता दिया ...फिर कुछ लोगों ने तुरंत उन्हें जिंदा कर दिया..यह सिलसिला सारा दिन चलता रहा 😄.......ईश्वर, अल्लाह, गॉड इस महान हस्ती को उम्रदारज़ करे...आमीन!


मंगलवार, 19 जुलाई 2011

पानी रे पानी ....तेरा रंग कैसा !

आज दुनिया में पानी के लिये बड़े लफड़े हो रहे हैं और कहते हैं कि आने वाले समय में देशों की लड़ाईयां पानी के लिये हुआ करेंगी। पीने वाले पानी की तो बहुत सी समस्या है।

मुझे ध्यान आ रहा है कि जो मैं लगभग सात-आठ साल पहले कोंकण रेलवे रूट पर यात्रा कर रहा था तो एक स्टेशन पर नीचे उतरा और देखा कि नल के पास एक नोटिस लगा हुआ था—आप को यहां से पानी की बोतल खरीदने की कोई ज़रूरत नहीं है, इस नल में जो पानी है उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के तयशुद्दा मानकों की कसौटी पर भली भांति टैस्ट किया गया है और इसे आप बेझिझक पीने के लिये इस्तेमाल कर सकते हैं!!

और ऐसा नोटिस कोंकण रेलवे के उस स्टेशन पर ही नहीं दिखा ...पता चला कि ऐसे नोटिस उस रेलवे के सभी स्टेशनों पर लगे हुये हैं। काश, सभी सार्वजनिक जगहों पर इस तरह के बोर्ड दिखें ताकि पब्लिक का भरोसा बना रहे।

बचपन में ध्यान है जब ये पानी की रेहड़ी वालों ने पांच पैसे में पानी का एक गिलास बेचना शुरू किया तो अजीब सा लगता था ...फिर दस पैसे, फिर पच्चीस, और देखते ही देखते अब यह एक रूपये में बिकता है ..हां, शायद अब नींबू भी डाल दिया जाता है उसमें। लेकिन ये ठेले वाले इस पानी को किन जगहों से लाते हैं उस पर भी एक प्रश्नचिंह समय के साथ लग गया है।

अब आलम यह है कि बाहर किसी रेस्टरां, किसी फूड-स्टाल पर कहीं भी पानी पीने की इच्छा ही नहीं होती। साल भर लोग पानी से पैदा होने वाली बीमारियों का शिकार होते रहते हैं, कुछ मर भी जाते हैं ..विशेषकर छोटे बच्चों एवं बड़े-बुज़ुर्गों के लिये जल से पैदा होने वाले रोग जानलेवा भी सिद्ध हो सकते हैं।

कुछ दिन पहले टीवी पर आपने भी देखा होगा किस तरह से कानपुर में गंगा को बेहद प्रदूषित किया जा रहा है.. लेकिन वहां ही क्यों, हर जगह हम लोग इन नदियों का भयंकर शोषण किये जा रहे हैं, उन्हीं नदियों की पूजा करते हैं और उन्हें में ही .......क्या कहें, हर जगह जल-प्रदूषण के प्रभाव दिखने लगे हैं। पंजाब में इतने कीट-नाशक इस्तेमाल हो रहे हैं जो फिर जा कर जमीन में मिल जाते हैं ..... कि कुछ शहरी इलाके ऐसे हैं जहां पर कैंसर और कईं असाध्य रोगों के रोगियों की लाइनें लगी हुई हैं। सब चीख-चिल्ला रहे हैं... लेकिन इस का समाधान हो क्या रहा है?
समाधान क्या है, वह 10-12 रूपये वाली बोतल हरेक के हाथ में थमा दें......क्या यह संभव है इस देश में..... पता नहीं कभी किसी सार्वजनिक स्थान पर इस बोतल से पानी पीते हुये बहुत अजीब सा लगता है ... सामने ही कोई बीमार सा दिखने वाला वृद्द, कोई गर्भवती मां अपनी गोद में उठाए बच्चे को तो वही पंचायती टूटी से पानी पिला रही होती है और हमें अपनी जान इतनी प्यारी कि हम उस 12 रूपये वाली बोतल के अलावा बाहर से कहीं भी पानी पी ही नहीं पाते ...........क्या करें, मजबूरी है, जब जब भी बाहर से पानी पिया है ...दो चार दिन बाद खाट ही पकड़ी है।

मुझे यह भी ठीक नहीं लगता जो लोग कह देते हैं कि नहीं, नहीं, कभी बाहर पानी पी लेना चाहिये .....या घर के बाहर तो पानी बाहर का ही पीना होता है ... उस से इम्यूनिटि कायम रहती है.... इस बारे में तो बस यही है कि मजबूरी के नाम पर हरेक बंदा किसी भी जगह से पानी पीने के लिये तैयार हो जाता है। मैं कहता हूं कि घर के बाहर मुझे मिनरल वॉटर के अलावा कोई पानी नहीं चलता.. लेकिन चंद ही घंटों में अगर कुछ ऐसे हालात हो जाएं कि बोतल मिले नहीं और प्यास बर्दाश्त नहीं हो तो मैं भी उस टब से भी पानी मिलने से गनीमत समझूंगा जिस में सब लोग डिब्बा डुबो डुबो कर पिये जा रहे हैं।

पीने वाले पानी की समस्या विषम है... पता नहीं मैंने कुछ साल पहले कहीं पढ़ा था कि ऐसी टैक्नोलॉजी आ गई है या आने वाली है कि आप किसी रेस्टरां में बैठे हैं, पानी का गिलास सामने आते ही आप उस में एक पेन-नुमा यंत्र कुछ लम्हों के लिये डालें ...और पानी हो गया पीने लायक।

पानी के बारे में बहुत सजग रहने की ज़रूरत है ... दो तीन पहले मैं बीबीसी पर देखा कि वैज्ञानिक आजकल crowd-sourcing के द्वारा पानी की गुणवत्ता लेने की फिराक में हैं। क्राउड-सोरिंग से मतलब यह है कि जब किसी टैस्टिगं के लिये किसी कर्मचारी की बजाए पब्लिक ही इस में सक्रिय भाग लेने लगे ... इसे ही क्राउड-सोरसिंग कहते हैं।

पानी के बारे में होता यही है कि हम लोग किसी स्रोत से पानी की टैस्टिंग के लिये वहां से पानी को लैब में भेजते हैं ...फिर कुछ दिनों बाद रिपोर्ट आती है ....और अगर रिपोर्ट आती है कि यह तो पानी पीने लायक था ही नहीं तो इस का क्या फायदा हुआ ... हज़ारों लाखों ने तो तब तक उस पानी से अपनी बुझा कर बीमारी को मोल ले लिया होगा। इसलिये हमारी टैस्टिंग में बहुत सी खामियां हैं।

हां, तो मैं जिस बीबीसी रिपोर्ट की बात कर रहा था उस में बताया गया है कि water-canary नाम से एक ओपन-सोर्स है जिस के द्वारा हम किसी भी जगह से पानी लेते हैं...तुरंत उस यंत्र में एक लाइट जग जाती है हरी या लाल.... यह बताने के लिये की यह पीने योग्य है कि नहीं। उसे यह GPS से जुड़ा हुआ यंत्र तुरंत उस जानकारी को ट्रांसमिट कर देता है। लेकिन, प्रश्न वही कि फिर आगे क्या ? ---आगे यही कि जिस एरिया से पीने के पानी की प्रदूषित होने के समाचार बार बार आएंगे वहां पर मानीटरिंग को और भी पुख्ता किया जाएगा, क्लोरीनेशन को और प्रभावशील ढंग से किया जाएगा, और भी इस तरह की व्यवस्था की खबर ली जा सकेगी।

क्लोरीनेशन से ध्यान आया – 15 साल पहले मेरे गांव में बाढ़ आई – कुछ दिनों बाद जब हम लोग घर वापिस आए तो पानी बिल्कुल मटमैला आ रहा था ... यह बोतलें वोतलें कहां से मिलतीं ...फिर ध्यान आया कि क्लोरीन की गोलियां डाल कर इसे ही पिया जाए ....यकीन मानिए मैंने बीसियों दुकानों से पूछा ...मुझे क्लोरीन की गोलियां कहीं से नहीं मिलीं......हार कर हम लोग उस मटमैले पानी को ही उबाल कर पीते रहे।

कईं बार लगता है इस देश की बेहद विषम समस्याएं हैं .... कोई सुझाव देते हुए भी डर लगता है ...किसी को घर में कोई इलैक्ट्रोनिक यंत्र लगवा कर पानी शुद्ध कर लेने की सलाह देते हुये भी झिझक महसूस होती है....बहुत से लोगों को तो ऐसा कहने की हिम्मत ही नहीं होती ......क्या पता कोई पलट के कह दे ....डाक्टर, रोटी ज़रूरी है या वह यंत्र। फिर भी, जैसा भी पानी हम पी रहे हैं उस की सही तरह से हैंडलिंग के द्वारा भी हम लोग पानी से होने वाले रोगों से काफी हद तक बच सकते हैं।

लेख लिख लिया ...फिर भी लगा समय बेकार कर दिया .... खाली खाली सा लग रहा है ...न ही तो मैं समस्या को पूरी तरह से ब्यां कर पाया और न ही किसी समाधान का हिस्सा ही बन पाया..... इसलिये केवल थ्यूरी ही लिख कर आप से छुट्टी ले रहा हूं।

रविवार, 9 मई 2010

इतने ज़्यादा लोग दस्त रोग से परेशान क्यों हैं?


ज़्यादातर चिकित्सालयों के वार्ड आज कल उल्टी-दस्तरोग-मलेरिया आदि से परेशान रोगियों से भरे पड़े हैं। दस्त रोग की गलत इलाज से जितनी चांदी ये झोलाछाप डाक्टर कूट रहे हैं शायद ही किसी ने इतनी लूट मचाई हो, इन का धंधा ही लोगों की गरीबी, अज्ञानता एवं मजबूरी पर फल-फूल रहा है।

पता नहीं मुझे बड़ी चिढ़ सी होती है कि वैसे तो हम लोग बड़ी बड़ी हांकते हैं लेकिन ज़मीनी असलियत यह है कि उल्टी दस्त रोग, मलेरिया, डेंगू , वायरल बुखार को तो हम कंट्रोल कर नहीं पा रहे हैं। इसलिये मैं चिकित्सा विज्ञान में हो रहे नये नये आविष्कारों के बारे में पढ़ता हूं तो मुझे उन के बारे में ज़्यादा कभी इच्छा ही नहीं हुई। अपने लोग इतने आम रोगों से जूझ रहे हैं, मर रहे हैं और हम इस पर लेख लिखते रहे हैं कि अब महिलायों के लिये भी वियाग्रा आने वाली है और पुरूषों के लिये वियाग्रा से भी बढ़ कर एक टैबलेट का परीक्षण चल रहा है जो उन में शीघ्र-पतन की समस्या का निवारण करेगी।

हालात जो भी हैं, हम या हमारे आस पास के लोग कितने ज़्यादा या कम पढ़े लिखे हैं, हमारी क्या आर्थिक स्थिति है, हम कौन सा पानी पीते हैं, हम क्या झोलाछाप डाक्टरों के हत्थे चढ़ते हैं कि नहीं, हमें घटिया दवाईयां थमा दी जाती हैं -----ये तो कभी न खत्म होने वाले मुद्दे हैं लेकिन कुछ बातें हैं जिन्हें अगर हम लोग हर वक्त कुछ भी खाते पीते वक्त ध्यान में रखें तो इस रोग के रोगों से काफी हद तक अपना बचाव कर सकते हैं।

---हाथ साफ़ करने की आदत --- साफ़ सुथरे पानी से कुछ भी खाने से पहले अच्छी तरह से हाथ धोना हमें बहुत से रोगों से बचा लेता है। यह बात तो छोटी सी लगती है लेकिन यकीन मानिये, यह आदत इतनी आम नहीं है जितनी लगती है। बहुत नज़दीक से लोगों को देखने से पता चलता है कि इस तरह की आदतें बचपन से ही पड़ जाएं तो बेहतर है वरना तो बस.....।

--- आप जिस पानी को पी रहे हैं वह कैसा है ?

मुझे यह देख कर बहुत हैरानगी होती है कि हम लोग घर के बाहर कहीं भी पानी पीने में ज़रा भी गुरेज़ नहीं करते। किसी भी दुकान में जाएं और उन का आदमी ट्रे में पानी लेकर आ गया और हम ने पी लिया ---- ऐसा क्यों भाई? वह पानी कहां से आ रहा है, उस की हैंडलिंग कैसी हो रही है, यह तो नहीं कि ठंड़ा है और हमें प्यास लगी है तो भगवान का नाम लेकर पी लिया। मेरे विचार में यह ठीक नहीं है।

किसी भी दुकान में ही क्यों, किसी भी रेस्टरां में भी हम लोग पानी पीते वक्त कुछ भी नहीं सोचते--- और किसी भी सार्वजनिक स्थान पर, किसी भी दफ्तर में बस पानी पीते वक्त इतना ध्यान रखना चाहिये कि इस की क्वालिटी क्या है।
आप को मेरी बातों से लग रहा है कि डाक्टर तो लगता है चाहता है कि हम लोग हर वक्त 12-14 रूपये वाली पानी की बोतलें ही खरीदते रहें। मेरे व्यक्तिगत विचार में ये 10-15 रूपये की पानी की बोतलें खरीदना हम लोगों की बदकिस्मती है कि हम लोगों ने बहुत से क्षेत्रों में तो बहुत तरक्की कर ली , लेकिन वह किस काम की अगर हम लोग अपने लोगों को साफ, स्वच्छ, सुरक्षित, बीमारीमुक्त जल ही मुहैया नहीं करवा पाये।

मैं भी यह बोतलें खरीदता हूं क्योंकि मैं बाहर कहीं भी पानी पी लेता हूं तो फिर कईं कईं दिन बीमार पड़ा रहता हूं, इसलिये मैं बाहर कहीं भी पानी नहीं पीता और केवल बोतल का पानी ही इस्तेमाल करता हूं। मुझे ये बोतलें खरीदते वक्त अपने आप में बहुत घटियापन महसूस होता है क्योंकि अकसर इन दुकानों पर महिलायें व बच्चे एक एक रूपये की भीख मांग रहे होते हैं, पास ही की एक सार्वजनिक टूटी से बीसियों लोग गर्मागर्म पानी पी रहे होते हैं और सामने ही कहीं कोई कचरे के ढेर से कोई खाने के लिये कुछ ढूंढ रहा होता है, ऐसे में क्या बताएं कि ये बोतलें खरीदते वक्त क्या बीतती है ------ बस, उस समय वही लगता है कि साला मैं तो साहब बन गया!!

क्या व्यवस्था है दोस्तो कि जिस के पास पैसे हैं वह तो सुरक्षित जल पी ले, वरना जो भी पिये, हम क्या करें?
बहुत बार कहता रहता हूं कि आजकल घरों में जल शुद्धिकरण के लिये इलैक्ट्रोनिक संयंत्र लगाना हम सब के लिये एक ज़रूरत है----अच्छा अगली बार कभी आप जब बाहर किसी ऐसी जगह से पानी पीने लगें तो उस के आस पास लगे संयंत्र में ये भी देखिये कि क्या वह चालू हालत में है कि नहीं, बहुत सी जगहों पर बाहर कहां किसे इतनी चुस्ती, फुर्ती या प्रेरणा है कि वह यह देखे कि इस की नियमित सर्विसिंग हो रही है कि नहीं, ऐसे में यह पानी किस तरह का होगा, आप समझ ही सकते हैं।

कोशिश रहनी चाहिये कि घर से निकलते वक्त पानी साथ ही लेकर चलें, अब वही बात है ना कि एक-दो बोतल तो आदमी उठा ले, इतनी गर्मी का मौसम है, कोई 10-15 लिटर वाला कैंटर तो उठा कर लेकर जाने से रहा ---ऐसे में कोई क्या करे? मेरे पास भी इस का कोई समाधान नहीं है, आप के पास हो तो टिप्पणी में लिखियेगा।

कईं साल पहले जब मैं सुनता था कि जो लोग घर के इलैक्ट्रोनिक संयंत्र से शुद्ध किया हुआ पानी पीने की आदत डाल लेते हैं, बस उन का तो हो गया काम --- वे बाहर कहीं भी एक बार भी पानी पी लेंगे तो उन का पेट खराब होना और तबीयत बिगड़ना लाजमी है। इस का कारण बताया जाता था कि इन लोगों में इम्यूनिटी ही नहीं विकसित हो पाती।

लेकिन मैं इस से बिल्कुल सहमत नहीं हूं ---मैं यह कह कर कोई सनसनी नहीं फैलाना चाहता लेकिन यह सच्चाई है कि अब पानी की वह हालत नहीं है कि केवल इम्यूनिटि डिवैल्प करने के लिये हम बिना शुद्ध किया हुआ पानी पी लें और यह सोचें कि कुछ नहीं होगा -----इसलिये अब कहीं भी पानी पीते वक्त ध्यान से सोचें तो बात बने।

शादी, ब्य़ाह और पार्टीयां ---- दस्त रोग की बात हो रही है और आज कर होने वाले ये शादी ब्याह उत्सव इस तरह की बीमारी फैलाने वाले अड्डे से लगने लगे हैं। पानी की तो दुर्दशा है ही। लेकिन जो पनीर, दही, रायता, विभिन्न तरह के पेय, आइसक्रीम, बर्फ के गोले, शरबत, वहां इस्तेमाल होने वाली बर्फ़---जितना इन सब से बच कर रह सकते हैं, उतना ही बेहतर होगा। बात सोचने वाली यह है कि डाक्टर, अगर इस तरह के उत्सवों से इतनी सारी बढ़िया बढ़िया चीज़ों से दूर ही रहना है तो फिर हम लोग और खास कर ये बच्चे लोग वहां करने क्या जा रहे हैं ?
इस के बारे में मैं भी सोचूंगा।

गर्मी के मौसम में बाहर खाना भी एक आफ़त है ----घर में पांच सदस्य हों, नौकर चाकर भी हों लेकिन फिर भी आप देखते ही हैं कि घर की महिलाओं की सारा दिन आफ़त सी हुई रहती है। ऐसे में होटलों, ढाबों और रेस्टरां में थोड़े थोड़े पैसों की दिहाड़ी पर काम करने वाले कितनी स्वच्छता रख पाएंगे, यह भी सोचने की बात है ?

इतना कुछ लिखने के बाद मैं यह सोच रहा हूं कि आप भी सोचने लगेंगे कि डाक्टर, तेरी बात अगर मानें तो घर से बाहर यूं ही कहीं भी पानी नहीं पीना, चालू खुली बिक रही आइसक्रीम नहीं खानी, शादी-ब्याह में भी मुंह नहीं खोलना, बाहर खाना भी नहीं खाना......................यह जीना भी कोई जीना है

सच की आवाज़ देना मेरी ज़िम्मेदारी है --- जो देखता हूं, जो अनुभव करता हूं उसे पाठकों के सामने रखना मेरा नैतिक दायित्व है, लेकिन उसे पढ़ कर अपना निर्णय लेना आप का अधिकार है।

जब भी इतने सारे दस्त-उल्टी रोग से परेशान मजबूर लोगों को देखता हूं तो इतना दुःख होता है कि ब्यां नहीं कर पाता ----एक बात और भी तो है ना कि अगर किसी नीम-हकीम के हत्थे न भी चढ़ें और किसी क्वालीफाई चिकित्सक के दवा-दारू से ठीक भी हो जायें लेकिन अगर खाने पीने की आदतें न बदलीं, तो वापिस किसी झोलाछाप के हत्थ चढ़ने में कहां देर लगती है?

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

साफ़-सुथरा पानी पीना हो तो ....

कल मैं माउंट-आबू की सब से ऊंची जगह गुरू-शिखर पर था.....वहां पर दत्तात्रेय महाराज की तपोभूमि पर उन का मंदिर बना हुया है......वहां का नज़ारा बहुत मनोरम है.....वहां से नीचे नज़र मारने पर धुंध के कारण और कुछ तो दिखा नहीं लेकिन बिलकुल पास ही सैंकड़ों पानी की खाली बोतलें जरूर दिख गईं। अब अगर हम ध्यान करेंगे तो पायेंगे कि आखिर इस तरह के नॉन-बॉयोडीग्रेडेबल कचरे का क्या होगा......हम इन प्राकृतिक जगहों का नज़ारा देखने तो गये लेकिन बदले में इन्हें क्या दे कर आ गये.........!!

जब मैं बिलकुल छोटा था तो हम लोग सफर में एक पानी की सुराही साथ लेकर चला करते थे.....कुछ लोग पानी की मशक टाइप ले कर चला करते थे....जिसे वे ट्रेन की खिड़की के साथ टांग दिया करते थे। उस के बाद प्लास्टिक की बोतलें चल पड़ी.....जिन में पानी बहुत ज़्यादा गर्म हो जाया करता था। फिर बारी आई उन एक-दो लिटर की बोतलों की जिन में आज कल बच्चे पानी स्कूल ले कर जाते हैं। लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि लोग अब उसे भी नहीं उठाते.....अब तो बस उन दस-दस रूपये वाली बोतलों की ही चांदी है। जहां पर भी देखो, वहां बिखरी पड़ी होती हैं।

मैं अकसर सोचता हूं कि अगर पब्लिक इन बोतलों को खरीद कर पी रही है तो उस में उस का क्या दोष है.....क्या करे कहीं तो अब खाली बोतल फैंकी ही जायेगी ना........लेकिन इस से हम कितना कचरा इक्ट्ठा कर रहे हैं....सोच कर ही सिर चकराने लगता है। लेकिन इस में हम सब लोग जिम्मेदार हैं।
कचरे से बात चली तो ध्यान आ रहा है बड़ोदरा की एक हेयर-ड्रेसर की दुकान का....वहां बोर्ड लगा हुआ था कि डिस्पोज़ेबल रेज़र का इस्तेमाल करवाने पर दस रूपये एक्स्ट्रा देने होंगे.....यह दो चार दिन पहले की ही बात है और यह डिस्पोज़ेबल रेज़र मैंने उस दिन पहली बार ही सुना और देखा था।

खैर, बात चल रही है....पानी की ......पीने वाले प्रदूषित पानी की तो इतनी ज़्यादा समस्या है कि आए दिन हमारे आस पास ही कोई न कोई इस के बुरे-प्रभावों की चपेट में आया होता है। लेकिन हम लोग हर बात को इतना लाइटली लेने के आदि से हो चुके हैं कि सोचते हैं कि ज़्यादा वहम काहे का करना.....पानी ही तो है, सारी जनता यही ही तो पी रही है....कुछ नहीं होगा।

लेकिन कुछ कैसे ना होगा....बहुत कुछ होगा और बहुत कुछ हो रहा है ....पानी एवं खाद्य पदार्थों के दूषित होने की वजह से लाखों लोग हर साल अपनी जान गंवा देते हैं। हमें कुछ बेसिक बातों का ध्यान तो रखना ही चाहिये......यकीन मानिये, कईं बार पानी मड़्ड़ी सा दिख रहा है तो भी हम लोग इसे बड़ा केजुएली सा लेते हुये एक गिलास पी ही लेते हैं। किसी रेस्टरां में तो अकसर ऐसा होता ही है। बरसात के दिनों में पानी गंदा सा दिख रहा है और बास आ रही है फिर भी हम लोग बिना ज़्यादा फिक्र किये हुये उसे पी ही जाते हैं।

प्रदूषित पानी पी कर गड़बड़ तो होनी ही है और बेशक होती ही है। लेकिन इस में होता क्या है.......अकसर लोग अपनी मनपसंद कोई टेबलेट या कैमिस्ट की मनपसंद टेबलेट एक-आध दिन ले लेते हैं और जैसे ही सिंपटम्स खत्म होते दिखते हैं, दवाई लेनी बंद कर देते हैं। एक तो शायद दवाई ठीक ली नहीं, ( क्वालिटी की तो बात न ही करें तो ठीक है), और ऊपर से पूरा कोर्स लिया नहीं और उस से भी ऊपर यह कि उसी तरह का पानी लगातार पिया जा रहा है कि इस की वजह से अकसर लोग तरह तरह की पेट की क्रॉनिक-बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं।

इतनी जगहों पर देखता हूं कि एक्वा-गार्ड तो लगा हुआ है लेकिन उन की सर्विस करवाना किसी को याद नहीं है, पता नहीं कितने साल पहले सर्विस हुई होगी......लेकिन फिर भी बिना किसी सोच-विचार के हम लोग उसी स्रोत से पानी पिये जा रहे हैं।

मेरे विचार में तो पानी की गुणवत्ता पर हमेशा ध्यान देना ही होगा........सीधी सी बात है कि अगर पानी बिलकुल साफ,क्लीयर नहीं है तो यह समझिये कि वह बीमारियों की खान है, उसे मत पीजिये.....अकसर बरसात के मौसम में ऐसा होता है। इसलिये कम से कम इसे उबाल तो लीजिये। चाहे पीने के पानी को उबालना कितना भी कंबरसम क्यों न लगे, लेकिन इस के सिवा कोई चारा भी तो नहीं है।

बाहर कही भी जाये तो अपने साथ घर से ही उबाला हुया पानी अथवा एक्वागार्ड का पानी ही साथ लेकर चलें.......लेकिन बाहर से किसी भी नल से, किसी भी प्याऊ से यूं ही अपनी बेपरवाही का प्रगवाटा करते हुये कभी भी पानी न पियें...........यह कोई मैं किताबी बातें नहीं लिख रहा हूं.......जिन बातों को अपने ऊपर भुगत चुका हूं और भुगतने के बाद बहुत बहुत महंगी सीख ले चुका हूं......उसे ही आप के साथ शेयर कर रहा हूं। अगर पानी पास नहीं है अथवा उबले हुये पानी का प्रबंध नहीं हो सकता तो केवल और केवल बोतल वाला पानी ही खरीद कर पियें.....क्या करें, और कोई समाधान है ही नहीं !!

गंदे, दूषित पेय जल की तो समस्या इतनी विकट है कि सोच रहा हूं कि वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाइज़ेशन को एक बहुत बड़ा इनाम घोषित करना चाहिये ....कुछ इस तरह के आविष्कार के लिये कि किसी कैमिकल की एक बूंद हम लोग एक गिलास पानी में डाले और 10 सैकिंड में वह पीने लायक हो जाये।

पानी की क्वालिटी के बारे में इतना कुछ लिखा जा रहा है कि .........ये जो बोतलें भी मिलती हैं....दो-तीन साल पहले मीडिया में बहुत आ रहा था कि इन में कीटनाशकों के अवशेष मिले हैं.......लेकिन बात वही है कि कीटनाशकों से लैस वस्तुओं को खाना....( पानी, कोल्ड-ड्रिंक्स, सब्जी-भाजी, दालें, अनाज आदि) तो हमारी किस्मत का हिस्सा बन ही चुका है........लेकिन कईं तो इस तरह की बोतलें दिखती हैं, इन के नये नये नाम आ गये हैं.....कि पता ही नहीं चलता कि इन में मौजूद पानी ठीक ठाक भी होगा या नहीं........इसलिये इन बोतलें की खरीद के समय भी बढ़िया एवं स्थापित कंपनियों वाली पानी का बोतलों को ही तरजीह देना ठीक होगा।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2008

पानी साफ ही तो है.......क्या फर्क पड़ता है !



केवल इतना कह देने से ही नहीं चल पायेगा कि हमारे शहर में तो सीधा फलां-फलां नदी का ही पानी आता है, साफ़-स्वच्छ दिखता है ....इसलिये पानी के बारे में कभी इतना सोचा नहीं, अब कौन इस पानी-वानी की शुद्धता के चक्कर में पड़े। लेकिन यह सरासर एक गलत-फहमी ही है। क्योंकि जो पानी हमें साफ़-स्वच्छ दिखता है....उस में तरह तरह की कैमीकल एवं बैक्टीरीयोलॉजिकल अशुद्दियां हो सकती हैं जो हमें तरह तरह के रोग दे सकती हैं। आज जिस तरह से हवा-पानी-वातावरण प्रदूषित हैं, ऐसे में हमें पीने वाले पानी के बारे में भी अपना यह मांइड-सैट बदलना ही होगा।


पानी का क्वालिटी के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिये। तो क्या बोतल वाली पानी ही घर में भी शुरू कर दिया जाये ?.....ना तो इस की शायद इतनी ज़रूरत है और ना ही यह 99 प्रतिशत लोगों( कहने की इच्छा तो 99.9 प्रतिशत लोगों की हो रही है) के वश की बात है।


अकसर एक बात मुझे बहुत सुनने में मिलती है कि लोग एक्वागार्ड का पानी इसलिये नहीं पीते ....क्योंकि उन्हें लगता है कि अब पानी भी इतना शुद्ध पीना शुरू कर देंगे तो शरीर की इम्यूनिटी क्या करेगी ...........उसे भी तो कोई काम दे कर रखना है.....ऐसा ना हो कि ऐसा पानी पीने से हमारे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता ही खत्म हो जाये।


वैसे एक बात बता दूं कि आज के दौर में ऐसी सोच बिल्कुल बेबुनियाद ही नहीं...बल्कि खतरनाक भी है। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों के इलावा दूसरे लोगों को तो यह पता ही नहीं कि आज कल पानी का प्रदूषण किस स्तर पर पहुंचा हुया है। और रही बात शरीर की इम्यूनिटी खत्म होने का डर............इस देश में रहते हुये उस की तो आप चिंता ना करें क्योंकि उस इम्यूनिटी को पूरी लिमिट पर काम करने के बहुत मौके मिलते रहते हैं। और जहां तक पानी की बात है....ठीक है, आप घर में शुद्ध पानी पी लेंगे, ऑफिस में एक्वागार्ड का पानी पी लेंगे...लेकिन फिर भी हम लोग कितनी ऐसी जगह में जाते हैं जैसे किसी के घर, किसी के ऑफिस में....वहां पर जाकर ऐसे वैसे पानी को पीने से मना करना शिष्टाचार के नियमों का हनन लगता है ....सो, ऐसे मौकों पर हम जो कुछ भी मिलता है...चाहे वह कैसा भी हो और किस ढंग से परोसा जा रहा है....हम बहुत कुछ अनदेखा कर के दो-घूंट भर लेने में ही बेहतरी समझते हैं। तो, अपनी इम्यूनिटी को थोड़ा काम सौंपने के लिये बस कुछेक ऐसे ही मौके ठीक हैं.....इस से ज्यादा हम उस से काम लेना चाहेंगे तो अकसर वह भी हाथ खड़े कर के कह देती है..कि यह पड़ा तेरा सिस्टम, अब तूने जो लापरवाहियां की हैं, उन्हें तू ही निपट.....मैं तो आज से 15-20 दिन के लिये छुट्टी पर जा रही हूं क्योंकि जब टायफायड और हैपेटाइटिस ए (पीलिया ) जैसे रोग तूने बुला ही लिये हैं तो मुझे थोड़े दिनों की छुट्टी दे, थोड़े दिन तू भुगत ले....मैं फिर आती हूं, ऐसा कह के इम्यूनिटी अकसर अपने घुटने टेक देती है।


यह जो मैं शिष्टाचार की बात ऊपर कह चुका हूं...इस का भी जितना कम से कम उपयोग हो वही बेहतर है। चलिये, मैं ऐसी कुछ परिस्थितियों में क्या करता हूं बता देता हूं ....शायद किसी का फायदा हो जाये.....बिना किसी लाग-लपेट के अपने अनुभव बांटना अब मेरी तो आदत सी ही हो गई है....


-मैं जब भी किसी भी दुकान पर जाता हूं वहां पानी नहीं पीता हूं( जब तक कि कोई घोर एमरजैंसी ही ना हो)....बस ऐसे ही कुछ भी कह कर टाल जाता हूं कि बस पांच मिनट पहले ही चाय पी है.....( लेकिन ऐसे झूठ बोलने पर कभी अफसोस भी नहीं हुया)।

रैस्टरां वगैरा में भी पानी जितना अवाय्ड हो सके करता हूं , ऐसे ही दो-तीन घूंट पी लेने तक ही सीमित रहता हूं। वैसे अकसर हम लोग कहीं भी ऐसी जगह जायें पानी अपना ही साथ ले कर चलते हैं।

अपने आफिस में भी मैंने पानी कभी नहीं पिया...हां, गर्मी के मौसम में एक बोतल अपने साथ ज़रूर रखता हूं।


बस, बात केवल इतनी ही है कि हमें इस के बारे में थोडा अवेयर रहना होगा............मैं तो अपने मरीज़ों से भी यही कहता हूं कि अब इन एक्वागार्डों वगैरा का इस्तेमाल कोई लग्ज़री नहीं रह गया, ये बिजली की तरह ही ज़रूरी हो गये हैं ....इसलिये जो भी लोग इन को अफोर्ड कर सकते हैं वे इन्हें ज़रूर लगवा लें।


माफ कीजियेगा....मैंने इस पोस्ट दो बार इस एक्वागार्ड का नाम ले लिया है.....ऐसे प्रोड्क्टस के नाम लेना मेरे प्रिंसीपल्स के खिलाफ है.......मेरा इस कंपनी से कुछ लेना-देना नहीं है....मैं तो बस इसे पानी शुद्ध करने के इलैक्ट्रोनिक संयंत्र की जगह ही इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि अकसर लोग इतनी शुद्ध भाषा समझते नहीं है..तो आप लोग अपनी इच्छा अनुसार किसी भी अच्छी कंपनी का यह संयंत्र तो अपने यहां लगवा ही लें। और जहां तक संभव हो ऐसे पानी को ही अपने वर्क-प्लेस पर ले जायें....अब पता नहीं जितना यह सब कुछ लिख देना आसान है उतना आप लोगों के लिये यह प्रैक्टीकल भी है कि नहीं......पर यह है बहुत ही महत्वपूर्ण !!


एक बात मैंने और बहुत नोटिस की है कि बहुत सारी जगह पर ये एक्वागार्ड तो लगे होते हैं लेकिन उन की मेनटेनैंस पर लोग ध्यान नहीं देते, उन का एएमसी नहीं करवाते जिसके तहत कंपनी सालाना आठ-नौ रूपये में इस की मुरम्मत का सारा जिम्मा लेती है और दो-एक बार कार्बन वगैरा भी चेंज करवाती है......इन संयंत्रों का फायदा ही तभी है जब ये परफैक्ट वर्किंग आर्डर में काम कर रहे होते हैं....नहीं तो क्या फायदा !! इसलिये इस सालाना 800-900 रूपये के खर्च को भी हमें सहर्ष सहन कर लेना चाहिये....अपने सारे परिवार की सेहत की खातिर.....यकीन मानिये, शायद उतने से ज़्यादा तो तरह तरह की पानी से पैदा होने वाली मौसमी बीमारियों की वजह से डाक्टर के भरने वाले बिल में कटौती आ जायेगी।


लेकिन हां, अगर कोई किसी भी कारणवश यह मशीन नहीं लगवा रहा, तो उसे कम से कम पानी उबाल कर ही पीना चाहिये। यह बहुत ज़रूरी है।


और रही बात पानी के साफ दिखने वाली....जब जब भी इस बात पर भरोसा किया है धोखा ही खाया है। कुछ महीने पहले हम लोग कुल्लू-मनाली गये.....रास्ते में जहां भी रूके वहां पर खूब पानी पिया....वहां मनाली पहुंच कर भी अपने रेस्ट-हाउस का ही पानी पीते रहे.....क्योंकि सब ने यही कहा कि यहां तो पानी सब से शुद्ध है....सीधा पहाड़ों से ही आ रहा है.......लेकिन पता तब चला जब वहां से वापिस आते ही सारे का सारा परिवार पेट दर्द, ग्रैस्ट्रोएँटराइटिस और बुखार से एक हफ्ता पड़ा रहा.....तब मन ही मन निश्चय किया कि अगर बाहर घूमने में तीस हज़ार रूपये खर्च कर आते हैं तो आखिर तीन सौ रूपये में पानी की बोतलें खरीद कर पीने में क्या हर्ज़ है.........बस, क्या कहूं.......कि यह मिडिल क्लास मांइड-सैट भी कभी कभी penny- wise but pound-foolish वाली सिचुयेशन में जा फैंकता है।


जाते जाते , एक ही बात कि पानी की शुद्धता से कोई समझौता नहीं ......चाहे दिखने में साफ दिखे, फिर भी उस में हज़ारों जीवाणु आप के शरीर में जाकर उत्पाद मचाने की तैयारी में हो सकते हैं।


अगर कुछ बच गया होगा तो आप की फीडबैक के बाद लिख देंगे।



5 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

डॉ. साहब, आप की सब बातों से सहमति है। मूल बात तो यह कि पानी जो आप पिएं वह स्वच्छ और जीवाणु रहित होना चाहिए। अगर आप के पाइप में पानी पीने योग्य आ रहा है तो अतिरिक्त साधन की आवश्यकता नहीं है। फिर भी हम चाहेंगे कि मानव शरीर जो प्रत्येक समस्या का हल स्वयं खोजने की क्षमता रखता है। उस क्षमता का ह्रास नहीं हो। मानव शरीर की इस क्षमता के बारे में अवश्य ही लिखें। यह मेरा अनुरोध है।

भुवनेश शर्मा said...

आपने जो कुछ भी लिखा है मैं उस सब का पालन करता हूं....फिर भी बीमारियां घेर ही लेती हैं.

Gyandutt Pandey said...

लगता है उबाला और फिर छाना पानी बेस्ट है।

राज भाटिय़ा said...

चोपडा जी , मे कई बार हेरान होता हु जब कभी टी बी पर देखता हु की हमारे देश मे नदियो मे सीधा फ़ेकट्रीयो, कारखानो, ओर शहर के नाले का पानी आता हे, ओर रही सही कसर लोग गन्दगी डाल कर पुरी कर देते हे, जब की यही पानी सभी ने पीना हे,लेकिन फ़िर भी जानबुझ कर करते हे, नेता भी यही पानी पीते हे फ़िर भी नदियो को गन्दा करने वालो को कुछ नही कहते, पेसा ले कर चुप हो जाते हे,जब मोत सामने खडी हो गी तो यह पेसा भी काम नही आये गा,कया सच मे हम तरक्की कर रहे हे ???

Zololkis said...

SECURITY CENTER: See Please Here

शनिवार, 22 मार्च 2008

आज विश्व जल दिवस है..............अ..च्..छा..........तो ?


इस दिन अखबारों में इस के बारे में खूब चिल्ला-चिल्ली होती है। वैसे मैंने भी हिंदी के एक अखबार में इस से संबंधित एक विज्ञापन देख कर सुबह सुबह ही एक रस्म-अदायगी कर छोड़ी थी। लेकिन अब लेटे लेटे कुछ विचार आ रहे हैं जिन्हें अपनी स्लेट पर बेफिक्र हो कर लिख रहा हूं।

विचार आ रहा है कि तरह तरह के बहुत कुछ दावे हम लोग विभिन्न फोरमों पर सुनते रहते हैं कि पानी के क्षेत्र में हम लोग कुछ समय पहले कहां थे और अब देखो कहां के कहां आ गये हैं। सोच रहा हूं कि सचमुच ही कहां से कहां आ गये हैं.....विचार आया कि बचपन से शुरू कर के देख तो लूं कि आखिर हम ने इस दिशा में आखिर कितने परचम लहरा दिये हैं.....

स्कूल में पानी ...... सोच रहा हूं हम लोगों को कहां स्कूल में पानी ले कर जाने की ज़रूरत पड़ती थी !...बस, स्कूल में लगे हैंड-पंप से पानी भी पी लिया करते थे और एक दूसरे के ऊपर थोड़ा बहुत छिड़क कर रोज़ाना होली का आनंद भी लूट लिया करते थे ...जब फिर बड़े स्कूल में गये तो एक बहुत बड़ी पानी की टैंकी से अपनी ज़रूरत पूरी कर लिया करते थे जिस के नीचे 10-12 टूटियां लगी रहती थीं। और अब देखो, हमारे बच्चों को भारी भरकम बस्ते (हम तो भई इन्हें बस्ते ही कहते थे !) के साथ ही साथ इस पानी की बोतल का बोझ उठाने की भी चिंता सताये रहती है। और गर्मी के दिनों में तो अकसर यह बोतल भी कम पड़ जाती है। तो, अपने मन से पूछ रहा हूं कि क्या इस को विकास मान लूं कि छोटे बच्चों को अपनी सेहत के लिये पानी भी उठा कर ले जाने को विवश होना पड़ रहा है। लेकिन बच्चे भी क्या करें और इन के मां-बाप भी क्या करें.......हम ने तो प्राकृतिक संसाधनों का शोषण ही इतना कर दिया है कि क्या कहूं !

हाटेल में पानी .......जब भी बचपन में हम कभी होटल वगैरह या शादी-पार्टी (कहो तो उंगलियों के पोरों पर गिन कर रख दूं !!)..में जाते थे तो पानी पीने से पहले किसी तरह का सोचना थोड़े ही पड़ता था। लेकिन अब जब होटल में जाते हैं तो अकसर पानी की बोतल घर से उठा कर ले जाते हैं। और जब यह बोतल नहीं होती और छोटे बेटे की पानी पीने की इच्छा होती है तो वह झिझकते हुये पूछता है कि पापा, यह वाला पानी पी लूं..............तो हमें भी उतनी ही झिझक के साथ कहना ही पड़ता है कि बेटा, देखना एक-दो घूंट ही पीना, बस अब घर चल ही रहे हैं। तो क्या बच्चों को इस तरह से पानी पीने से भी जब डराया जा रहा है , ऐसे में इसे विकास मान लूं !

विवाह-शादियों का नज़ारा तो देखिये....बारातियों की सेवा के लिये अब तो प्लास्टिक के गिलास भी आते हैं....चाहे पहले बार चखी ( फ्री-फंड में !).....महंगी अंग्रेज़ी शराब के नशे में धुत अस्त-व्यस्त सी गुलाबी पगड़ी डाल कर झूमता हुया, तंदूरी चिकन की एक टंगड़ी को अपने गुटखे से रंगे हुये दांतों से छीलते हुये दुल्हे का मौसा उस पानी के गिलास का एक ही घूंट भरेगा , लेकिन सुबह तो इस तरह के सैंकड़ों प्लास्टिक के गिलास उस बैंकेट हाल के साथ लगते नाले को ब्लाक नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे.................समझ में नहीं आ रहा कि पानी परोसने के इस नये अंदाज़ को क्या विकास मान लूं !

वो दस रूपये वाली पानी की बोतल खरीदने को विकास मान लूं ?...........ट्रेन में दूध के लिये बिलखता किसी का नन्हा मुन्ना बच्चा रो-रो कर जब हार जाता है लेकिन उसे दूध नसीब नहीं होता, तो वह आखिर हार कर अपनी बिल्कुल कमज़ोर सी मां की सूखी छाती पर जब टूट पड़ता है और पास ही में मेरे जैसा कोई बाबू जैंटलमैन उस दस रूपये की पानी की बोतल को ज़रूरत न होने पर भी इसलिये बड़े ठाठ से पी रहा होता है कि यार, स्टेशन आ रहा है और इसे पिये बिना कैसे फैक दूं...... तो क्या इसे विकास मान लूं......................नहीं, नहीं , धिक्कार है ऐसी पानी की बोतल पर जिस पर खर्च किये पैसे से एक बच्चे का पेट भर सकता था।
वैसे तो जब देश में पेय-जल की समस्या पर हो रहे सैमीनारों के दौरान स्टेज पर इस तरह के पानी की दर्जनों बोतलें नज़र आने पर जो विचार मेरे मन को उद्वेलित करते हैं उन का मैं यहां पर जिक्र नहीं करना चाहूंगा..........फिर कभी देखूंगा....अभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।
पीछे कितना आ रहा था कि इन पानी की बोतलों में यह है ,वो है, कीटनाशकों के अवशेष हैं.....लेकिन क्या इन की बिक्री में कोई कमी दिख रही है, मुझे तो नहीं लगता। यही तो वास्तविक विकास है , और क्या !!

पानी शुद्धिकरण ...एक अच्छा-खासा उद्योग.................बचपन में नानी के यहां जाते थे तो हैंड-पंप का मीठा पानी पी कर मजा करते थे। थोड़े बड़े हुये तो देखा कि मां पानी की टूटी के ऊपर मल-मल के कपड़े की एक लीर बांध देती है ताकि मिट्टी रूक जाये और सांप वगैरह न आ जाये........थोड़े और बड़े हुये तो देखा कि एक फिल्टर सा पानी को स्टोर करने के लिये इस्तेमाल किया जाने लगा है......कुछ समय बाद शायद उस में लगी कैंडल्स के साथ भी प्राबलम होने लगी तो एक छोटा सा फिल्टर पानी की टूटी पर लगाने वाला ही 100-150 रूपये का चल निकला। बचपन में तो पानी के शुद्धिकरण के बारे में कभी सुना ही न था...बस एक बार याद है कि बड़े भाई को दस्त लगे थे तो, हमारे सामने रह रहे एक झोला-छाप नकली डाक्टर (तब पता नहीं था कि कौन असली और कौन नकली होता है, हमारा बचपन गांव जैसे माहौल में ही बीता है !)…..ने एक टीका लगा कर यह निर्देश दे दिया था कि पप्पू (मेरा बड़ा भाई ) को दो-तीन दिन पानी उबाल कर ही देना होगा।

वैसे सोचता हूं कि कितना आसान है मरीज़ों को इस तरह की सलाह दे देना कि पानी उबाल कर पी लेना.....लेकिन क्या यह इतना प्रैक्टीकल आइडिया है?......चूंकि मैं अपनी ही स्लेट पर लिख रहा हूं और ठीक-गलत की किसी तरह की परवाह किये बिना सब कुछ लिख रहा हूं कि मुझे कभी भी यह आइडिया प्रैक्टीकल लगा ही नहीं। हां, जब तक घर में कोई बीमार है तो समझ में आता है कि घर की गृहिणी यह एक्स्ट्रा काम खुशी खुशी कर लेगी...........लेकिन जिस तरह के ज़्यादातर लोगों के हालात हैं , परिस्थितयां हैं , ऐसे में मुझे इस तरह की किसी को सलाह हमेशा के लिये दे देना भी एक धकौंसलेबाजी ज़्यादा लगती है। लेकिन जो लोग यह पानी उबाल कर पीने की अपनी आदत निभा पा रहे हैं , वे बधाई के पात्र हैं............और उन्हें हमेशा यह आदत कायम रखनी चाहिये क्योंकि पानी को उबाल कर पीना बहुत फायदेमंद है।

वैसे तो मुझे इन क्लोरीन की गोलियों की भी एक आपबीती याद है। हमारे शहर में 1995 में बाढ़ आ गई.....मैं और मेरी मां हम जब एक-डेढ़ महीने बाद वापिस अपने घर पहुंचे तो वहां पर यह बात की बहुत चर्चा थी कि पानी में क्लोरीन की गोलियां डाल कर पीना होगा ताकि कीटाणुरहित जल का ही सेवन किया जाये। लेकिन सारा शहर छान लेने पर भी जब वे नहीं मिलीं तो हम ने उस मटमैले पानी को उबाल कर ही कितने दिनों तक इस्तेमाल किया ।
लेकिन अब मैं अपने मरीज़ों को इतना ज़रूर कहता हूं कि आप में से जो लोग भी अफोर्ड कर सकते हैं वे कोई भी इलैक्ट्रोनिक संयंत्र रसोई-घर में ज़रूर लगवा लें...क्योंकि यह अब किसी तरह की भौतिक सम्पन्नता का प्रतीक रह कर एक ज़रूरत ही बन चुका है। चूंकि ये अभी भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं.....लगभग पांच हज़ार की मशीन और लगभग एक हज़ार रूपये की सालाना एएमसी.......इसलिये जब रतन टाटा ने नैनो कार के दर्शन करवाये तो उन्होंने आम आदमी के लिये एक जल-शुद्धिकरण यंत्र बाज़ार में उतारने की बात कही तो मुझे बहुत अच्छा लगा। मुझे नैनो से भी ज़्यादा खुशी इस यंत्र की होगी..।

अब छोड़े इन बातों को इधर ही, इन बातों को खींचने की तो कोई लिमिट है ही नहीं, जितना खींचेंगे खिंचती चली जायेंगी। तो , मैंने भी अपने अंदाज़ में विश्व जल दिवस मना लिया है। मैंने आज सुबह सुबह घऱ में कल ही लाये गये नये मटके से पानी ग्रहण कर लिया है। मेरी प्यास तो उस लंबी सी डंडी वाले स्टील के बर्तन से मटके से निकला पानी ही बिना मुंह लगाये पी कर ही बुझती है। एक साल में लगभग 8-9 महीने जब तक कि मटके के ठंडे पानी से दांत में सिहरन नहीं उठने लग जाती , तब तक तो मैं तो भई इसी तरह से ही पानी पीने का आदि हूं। हां, वो बात अलग है कि मटके में पानी उस इलैक्ट्रोनिक संयंत्र द्वारा शुद्ध किया ही डाला जाता है। सोचता हूं कि इस जालिम मटके के पानी की महक में भी क्या गज़ब की बात है कि बंदे को मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू भी साथ में हर बार उस की माटी की याद दिलाती है जिससे उस के शरीर की प्यास ही नहीं रूह की प्यास भी मिटती दिखती है। अब मुझे लगता है कि फिलासफी झाड़ने पर उतरने लगा हूं..............इसलिये पोस्ट को तुरंत पब्लिश करने में ही समझदारी है।

7 comments:

sunita (shanoo) said...

होली आपको बहुत-बहुत मुबारक हो...

दिनेशराय द्विवेदी said...

डॉक्टर साहब। आप की आदतें और सोच इस पोस्ट में बिलकुल मेरी जैसी हैं। आप की इस पोस्ट से पूरी सहमति है।
होली पर हार्दिक शुभ कामनाएं!

परमजीत बाली said...

आप को होली की बहुत-बहुत बधाई।

Gyandutt Pandey said...

हमारे एक सीनियर अफसर थे। रेलवे बोर्ड के सदस्य। उनके लिये बोतल बन्द पानी ले जाना मना था। वे फिल्टर या अक्वागार्ड के पानी का प्रयोग करते थे। किसी भी स्टेशन पर वाटर फिल्टरेशन प्लाण्ट का पूरी गम्भीरता से निरीक्षण करते थे। क्लोरीनेशन और उसकी आवृति पर पूरा जोर देते थे।
मेरे विचार से उनके जैसी सोच की जरूरत है वाटर मैनेजमेण्ट मेँ।

PD said...

होली की सुभकामनाऐं..

Sanjeet Tripathi said...

होली मुबारक डॉ साहेब!!

Vikas said...

अच्छा लेख है.पानी का भी बाज़ारीकरण हो गया है.कभी सोचा नही था की पानी खरीदना होगा और खरीदना भी हुआ तो चार बोतलों मे से चुनना होगा की कौन सा ज़्यादा अच्छा पानी है.