1981 का जून का महीना मुझे अच्छी तरह से याद है, उस समय मुझे पीलिया हुआ था----तब हमें कोई पता नहीं था कि यह अकसर हैपेटाइटिस (लिवर की सूजन) की वजह से होता है और इस के कईं कारण हो सकते हैं --जैसे कि हैपेटाइटिस ए, बी, सी, अथवा ई। टैस्ट करवाना तो दूर, किसी डाक्टर से बात करना भी दूर की बात थी ---इन डाक्टरों से डर ही इतना लगता था.... बस, सुने सुनाये अनुभवों के आधार पर इलाज चला रहा था।
बस, पीने के लिये गन्ने एवं मौसंबी का रस ही लिया जा रहा था और शायद ग्लुकोज़ पॉवडर भी--- रोटी बिल्कुल बंद थी। लेकिन आलूबुखारे मुझे खूब खिलाये जा रहे थे। अच्छी तरह से याद है कि मां-बाप की जान निकली हुई थी -- विशेषकर यह सुन कर कि पीलिया में तो लहू पानी बन जाता है। और मुझे अच्छे से याद है कि उन दिनों मेरी कितनी ज़्यादा सेवा की गई।
किसी डाक्टर से सलाह मशविरे का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता था--- बस, घर के पास हफ्ते में दो दिन किसी आयुर्वैदिक कॉलेज की वैन आती थी जो पांच रूपये में मरीज़ों का उपचार करती थी। उस में डाक्टर तो नहीं था, लेकिन जो भी था---वह बात बहुत अजीब ढंग से करता था। मुझे याद है मेरी मां ने उन्हीं दिनों के दौराना उस से एक बार यह पूछ था --- क्या इसे रोटी-सब्जी दे सकते हैं? और मुझे उस इ्ंसान का जवाब आज भी याद है ----"अगर तो इस की आपने जान बचानी है तो इसे रोटी सब्जी मत देना।" मरी़ज की तो छोडि़ये, आप यह समझ ही सकते हैं कि इतने कठोर शब्द सुन कर एक मां के दिल पर क्या गुजरेगी ? वैसे, इस की दवाई से कोई "आराम" भी नहीं आ रहा था, इसलिये उस दिन के बाद उस का इलाज भी बंद कर दिया गया।
जब 15 दिन के करीब हो गये, तो मेरी पिता जी एक दोस्त के साथ तरनतारन नाम जगह पर गये --- वे वहां से किसी से कोई जड़ी-बूटी लाये --जिसे एक दो दिन पानी में उबाल कर पिया गया ---और तुरंत ही पीलिया "ठीक" हो गया।
सोच रहा हूं कि आज मैं क्या इतना बड़ा हो गया कि उस जड़ी-बूटी देने वाले, लाने वाले या पिलाने वाले पर कोई टिप्पणी करूं -----थोड़ी बहुत कभी चिकित्सा विज्ञान को पढ़ने की एक कोशिश कर तो लेता हूं लेकिन फिर भी एक बात तो मेरे ज़हन में घर की हुई है कि जिस समय जिस तरह की परिस्थितियां होती हैं, हम वैसा ही करते हैं। किसी को भी इस के लिये दोष नहीं दिया जा सकता।
वैसे तो इस तरह की चमत्कारी दवाईयों की चर्चा पहले भी कर चुका हूं। लेकिन आज एक बार फिर से यह दोहराना चाहूता हूं जड़ी-बूटीयां भी हैं तो वरदान लेकिन अगर किसी जानकार, आयुर्वैदिक विशेषज्ञ की देख रेख में ली जाएं तो .....वरना कुछ जड़ी-बूटीयां हमारे शरीर में भयंकर रोग पैदा कर सकती हैं जो कि जानलेवा भी हो सकते हैं।
उदाहरण के लिये बात करते हैं ---- खत के पत्तों की (khat leaves) .....[Catha edulis]...अब पूर्वी अफ्रीका एवं अरेबियन पैनिनसुला के एरिया में इस के पत्तों को चबाने का रिवाज सा है। इसे वहां के लिये बस यूं ही मौज मस्ती के लिये चबाते हैं क्योंकि इसे चबाने से उन्हें बहुत अच्छा लगता है, मज़ा आ जाता है, मस्ती छा जाती है।
लेकिन वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि इन खत के पत्तों में कैथीनॉन (cathinone)नामक कैमीकल होता है जो हमारे शरीर में प्रवेश करने के बाद कैथीन एवं नॉरइफैड्रीन (cathine & norepherine) नामक पदार्थ पैदा करते हैं जिन का प्रभाव मानसिक रोगों में दी जाने वाली दवाईयों जैसा होता है। इतना ही नहीं, इस को निरंतर चबाने से तो लिवर बिल्कुल खराब हो जाता है जिस से जान भी जाने का अंदेशा बन जाता है।
Credit ..http://www.flickr.com/photos/adavey/
वैसे तो अमेरिका में इस बूटी पर प्रतिबंध है लेकिन गुपचुप तरीके से यह उत्तरी अमेरिका में ब्रिटेन के रास्ते पहुंच ही जाती है। यूके में हर सप्ताह खत के सात टन पत्तों का आयात किया जाता है।
मौज मस्ती के लिये इतनी हानिकारक जड़ी-बूटी को चबा जाना, और वह भी इतने पढ़े लिखे , विकसित देशों के बंदों द्वारा ---- मुझे तो ध्यान आ रहा है अपने देश के छोटे छोटे नशेड़ियों का जो ऐसे ही झाड़ियों में बैठ कर हाथों पर कुछ पत्ते रगड़ कर कुछ करते तो रहते हैं ----और जो लोग भांग का इस्तेमाल करते हैं, उन के शरीर पर भी इस के कितने बुरे प्रभाव पड़ते हैं, इन सब से तो आप लोग पहले ही से भली भांति परिचित हो।
कईं बार सोचता हूं कि जो मैं लिखता हूं इसे नेट इस्तेमाल करने वाले खास लोगों से ज़्यादा बिल्कुल आम लोगों तक पहुंचने की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है, मेरी तमन्ना भी है कि लेख तो तभी सार्थक होता है जब यह किसी पाठक के मन को उद्वेलित करे, उसे बीड़ी मसलने पर, हमेशा के लिये गुटखा फैंकने पर, ..................ऐसा कुछ भी करने के लिये सोचने पर मजबूर कर दे जिस से उस के एवं उस के आसपास के लोगों के जीवन में कुछ सकारात्मक परिवर्तन आ सके। देखते हैं, क्या होता है?
बस, पीने के लिये गन्ने एवं मौसंबी का रस ही लिया जा रहा था और शायद ग्लुकोज़ पॉवडर भी--- रोटी बिल्कुल बंद थी। लेकिन आलूबुखारे मुझे खूब खिलाये जा रहे थे। अच्छी तरह से याद है कि मां-बाप की जान निकली हुई थी -- विशेषकर यह सुन कर कि पीलिया में तो लहू पानी बन जाता है। और मुझे अच्छे से याद है कि उन दिनों मेरी कितनी ज़्यादा सेवा की गई।
किसी डाक्टर से सलाह मशविरे का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता था--- बस, घर के पास हफ्ते में दो दिन किसी आयुर्वैदिक कॉलेज की वैन आती थी जो पांच रूपये में मरीज़ों का उपचार करती थी। उस में डाक्टर तो नहीं था, लेकिन जो भी था---वह बात बहुत अजीब ढंग से करता था। मुझे याद है मेरी मां ने उन्हीं दिनों के दौराना उस से एक बार यह पूछ था --- क्या इसे रोटी-सब्जी दे सकते हैं? और मुझे उस इ्ंसान का जवाब आज भी याद है ----"अगर तो इस की आपने जान बचानी है तो इसे रोटी सब्जी मत देना।" मरी़ज की तो छोडि़ये, आप यह समझ ही सकते हैं कि इतने कठोर शब्द सुन कर एक मां के दिल पर क्या गुजरेगी ? वैसे, इस की दवाई से कोई "आराम" भी नहीं आ रहा था, इसलिये उस दिन के बाद उस का इलाज भी बंद कर दिया गया।
जब 15 दिन के करीब हो गये, तो मेरी पिता जी एक दोस्त के साथ तरनतारन नाम जगह पर गये --- वे वहां से किसी से कोई जड़ी-बूटी लाये --जिसे एक दो दिन पानी में उबाल कर पिया गया ---और तुरंत ही पीलिया "ठीक" हो गया।
सोच रहा हूं कि आज मैं क्या इतना बड़ा हो गया कि उस जड़ी-बूटी देने वाले, लाने वाले या पिलाने वाले पर कोई टिप्पणी करूं -----थोड़ी बहुत कभी चिकित्सा विज्ञान को पढ़ने की एक कोशिश कर तो लेता हूं लेकिन फिर भी एक बात तो मेरे ज़हन में घर की हुई है कि जिस समय जिस तरह की परिस्थितियां होती हैं, हम वैसा ही करते हैं। किसी को भी इस के लिये दोष नहीं दिया जा सकता।
वैसे तो इस तरह की चमत्कारी दवाईयों की चर्चा पहले भी कर चुका हूं। लेकिन आज एक बार फिर से यह दोहराना चाहूता हूं जड़ी-बूटीयां भी हैं तो वरदान लेकिन अगर किसी जानकार, आयुर्वैदिक विशेषज्ञ की देख रेख में ली जाएं तो .....वरना कुछ जड़ी-बूटीयां हमारे शरीर में भयंकर रोग पैदा कर सकती हैं जो कि जानलेवा भी हो सकते हैं।
उदाहरण के लिये बात करते हैं ---- खत के पत्तों की (khat leaves) .....[Catha edulis]...अब पूर्वी अफ्रीका एवं अरेबियन पैनिनसुला के एरिया में इस के पत्तों को चबाने का रिवाज सा है। इसे वहां के लिये बस यूं ही मौज मस्ती के लिये चबाते हैं क्योंकि इसे चबाने से उन्हें बहुत अच्छा लगता है, मज़ा आ जाता है, मस्ती छा जाती है।
लेकिन वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि इन खत के पत्तों में कैथीनॉन (cathinone)नामक कैमीकल होता है जो हमारे शरीर में प्रवेश करने के बाद कैथीन एवं नॉरइफैड्रीन (cathine & norepherine) नामक पदार्थ पैदा करते हैं जिन का प्रभाव मानसिक रोगों में दी जाने वाली दवाईयों जैसा होता है। इतना ही नहीं, इस को निरंतर चबाने से तो लिवर बिल्कुल खराब हो जाता है जिस से जान भी जाने का अंदेशा बन जाता है।
Credit ..http://www.flickr.com/photos/adavey/
वैसे तो अमेरिका में इस बूटी पर प्रतिबंध है लेकिन गुपचुप तरीके से यह उत्तरी अमेरिका में ब्रिटेन के रास्ते पहुंच ही जाती है। यूके में हर सप्ताह खत के सात टन पत्तों का आयात किया जाता है।
मौज मस्ती के लिये इतनी हानिकारक जड़ी-बूटी को चबा जाना, और वह भी इतने पढ़े लिखे , विकसित देशों के बंदों द्वारा ---- मुझे तो ध्यान आ रहा है अपने देश के छोटे छोटे नशेड़ियों का जो ऐसे ही झाड़ियों में बैठ कर हाथों पर कुछ पत्ते रगड़ कर कुछ करते तो रहते हैं ----और जो लोग भांग का इस्तेमाल करते हैं, उन के शरीर पर भी इस के कितने बुरे प्रभाव पड़ते हैं, इन सब से तो आप लोग पहले ही से भली भांति परिचित हो।
कईं बार सोचता हूं कि जो मैं लिखता हूं इसे नेट इस्तेमाल करने वाले खास लोगों से ज़्यादा बिल्कुल आम लोगों तक पहुंचने की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है, मेरी तमन्ना भी है कि लेख तो तभी सार्थक होता है जब यह किसी पाठक के मन को उद्वेलित करे, उसे बीड़ी मसलने पर, हमेशा के लिये गुटखा फैंकने पर, ..................ऐसा कुछ भी करने के लिये सोचने पर मजबूर कर दे जिस से उस के एवं उस के आसपास के लोगों के जीवन में कुछ सकारात्मक परिवर्तन आ सके। देखते हैं, क्या होता है?
अरे, यदा कदा भांग तो हम भी पी जाते हैं। कभी इस का भी विश्लेषण कर दें।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंnice info, thanks.
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