अभी मैं न्यू-यार्क टाइम्स की साइट पर यह रिपोर्ट पढ़ रहा था -- Daily Pill Greatly Lowers AIDS Risk, Study Finds. शायद आप को भी ध्यान होगा कि आज से 20-25साल पहले एक फैशन सा चला था कि मलेरिया रोग से बचने के लिये हर सप्ताह एक टैबलेट ले लें तो मलेरिया से बचे रहा जा सकता है – इस फैशन का भी जम कर विरोध हुआ था, उन दिनों मीडिया भी इतना चुस्त-दुरूस्त था नहीं, इसलिये अपने आप को समझदार समझने वाले जीव कुछ अरसा तक यह गोली खाते रहे...लेकिन बाद में धीरे धीरे यह मामला ठंडा पड़ गया। आजकल किसी को कहते नहीं सुना कि वह मलेरिया से बचने के लिये कोई गोली आदि खाता है।
एक बात और भी समझ में आती है कि जब किसी एचआईव्ही संक्रमित व्यक्ति पर काम करते हुये किसी चिकित्सा कर्मी को कोई सूई इत्यादि चुभ जाती है तो उसे भी एचआईव्ही संक्रमण से बचने के लिये दो महीने पर कुछ स्ट्रांग सी दवाईयां लेनी होती हैं ताकि वॉयरस उस के शरीर में पनप न सके –इसे पोस्ट post-exposure prophylaxis – वायरस से संपर्क होने के बाद जो एहतियात के तौर पर दवाईयां ली जाएं।
लेकिन आज इस न्यू-यार्क टाइम रिपोर्ट में यह पढ़ा कि किस तरह इस बात पर भी ज़ोरों शोरों से रिसर्च चल रही है कि जिस लोगों का हाई-रिस्क बिहेवियर है जैसे कि समलैंगी पुरूष –अगर ये रोज़ाना एंटी-वायरल दवाई की एक खुराक ले लेते हैं तो इन को एचआईव्ही संक्रमण होने का खतरा लगभग 44 फीसदी कम हो जाता है। और ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर समलैंगिक पुरूषों में रोज़ाना दवाई लेने से खतरा कम हो सकता है तो फिर अन्य हाई-रिस्क लोगों जैसे की सैक्स वर्करों, ड्रग-यूज़रों (जो लोग ड्रग्स—नशा -- लेने के लिये एक दूसरे की सूई इस्तेमाल करते हैं) में भी रोज़ाना यह दवाई लेने से यह खतरा तो कम हो ही जायेगा। अभी इस पर भी ज़ोरों-शोरों से काम चल रहा है।
मैं जब यह रिपोर्ट पढ़ रहा था तो यही सोच रहा था कि इस तरह का धंधा भी देर-सवेर चल ही निकलेगा कि एचआईव्ही से बचने के लिये स्वस्थ लोग भी रोज़ाना दवाई लेनी शुरू कर देंगे। लेकिन सोचने की बात है कि यह दवाईयां फिलहाल इतनी महंगी हैं कि इन्हें खरीदना किस के बस की बात है? एक बात और भी तो है कि भारत जैसे बहुत से अन्य विकासशील देशों में जो लोग एचआईव्ही से पहले से संक्रमित है उन तक तो ये दवाईयां पहुंच नहीं पा रही हैं, ऐसे में समलैंगिकों, सैक्स वर्करों और सूई से नशा करने वालों की फिक्र ही कौन करेगा ?
रिपोर्ट पढ़ कर मुझे तो ऐसा भी लगा जैसे कि लोगों के हाई-रिस्क को दूर करने की बजाए हम लोग उन्हें एक आसान सा विकल्प उपलब्ध करवा रहे हैं कि तुम अपना काम चालू रखो, लेकिन एचआईव्ही से अपना बचाव करने के लिये रोज़ाना दवाई ले लिया करो। इस रिपोर्ट में तो यह कहा गया है कि यह दवाईयां सुरक्षित हैं, लेकिन दवाई तो दवाई है ---अगर किसी को मजबूरन लेनी पड़ती हैं तो दूसरी बात है, लेकिन अगर हाई-रिस्क बिहेवियर को ज़िंदा रखने के लिये अगर ये दवाईयां ली जाने की बात हो रही है तो बात हजम सी नहीं हो रही। आप का क्या ख्याल है?
रिपोर्ट पढ़ते पढ़ते यही ध्यान आ रहा था कि आज विश्व की समस्त विषम समस्याओं का हल क्यों भारत के पास ही है? इन सब बातों का सही इलाज अध्यात्म ही है, और कोई दूसरा पक्का उपाय इस तरह की विकृतियों को दूर करने का किसी के पास तो है नहीं। यह क्या बात है , समलैंगिक पुरूष हाई-रिस्क में चाहे लगे रहें, नशा करने वाले नशे में लिप्त रहें लेकिन एचआईव्ही संक्रमण से बचने के लिये रोज़ाना दवाई ले लिया करें---यह भी कोई बात हुई। एक तो इतनी महंगी दवाईयां, ऊपर से इतने सारे दूसरे मुद्दे और बस यहां फिक्र हो रही है कि किस तरह से उसे संक्रमण से बचा लिया जाए। बचा लो, भाई, अगर बचा सकते हो तो बचा लो, लेकिन अगर उस की लाइन ही बदल दी जाए, उस की सोच, उस की प्रवृत्ति ही बदल दी जाए तो कैसा रहे ----- यह चाबी केवल और केवल भारत ही के पास है।
एक बात और भी समझ में आती है कि जब किसी एचआईव्ही संक्रमित व्यक्ति पर काम करते हुये किसी चिकित्सा कर्मी को कोई सूई इत्यादि चुभ जाती है तो उसे भी एचआईव्ही संक्रमण से बचने के लिये दो महीने पर कुछ स्ट्रांग सी दवाईयां लेनी होती हैं ताकि वॉयरस उस के शरीर में पनप न सके –इसे पोस्ट post-exposure prophylaxis – वायरस से संपर्क होने के बाद जो एहतियात के तौर पर दवाईयां ली जाएं।
लेकिन आज इस न्यू-यार्क टाइम रिपोर्ट में यह पढ़ा कि किस तरह इस बात पर भी ज़ोरों शोरों से रिसर्च चल रही है कि जिस लोगों का हाई-रिस्क बिहेवियर है जैसे कि समलैंगी पुरूष –अगर ये रोज़ाना एंटी-वायरल दवाई की एक खुराक ले लेते हैं तो इन को एचआईव्ही संक्रमण होने का खतरा लगभग 44 फीसदी कम हो जाता है। और ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर समलैंगिक पुरूषों में रोज़ाना दवाई लेने से खतरा कम हो सकता है तो फिर अन्य हाई-रिस्क लोगों जैसे की सैक्स वर्करों, ड्रग-यूज़रों (जो लोग ड्रग्स—नशा -- लेने के लिये एक दूसरे की सूई इस्तेमाल करते हैं) में भी रोज़ाना यह दवाई लेने से यह खतरा तो कम हो ही जायेगा। अभी इस पर भी ज़ोरों-शोरों से काम चल रहा है।
मैं जब यह रिपोर्ट पढ़ रहा था तो यही सोच रहा था कि इस तरह का धंधा भी देर-सवेर चल ही निकलेगा कि एचआईव्ही से बचने के लिये स्वस्थ लोग भी रोज़ाना दवाई लेनी शुरू कर देंगे। लेकिन सोचने की बात है कि यह दवाईयां फिलहाल इतनी महंगी हैं कि इन्हें खरीदना किस के बस की बात है? एक बात और भी तो है कि भारत जैसे बहुत से अन्य विकासशील देशों में जो लोग एचआईव्ही से पहले से संक्रमित है उन तक तो ये दवाईयां पहुंच नहीं पा रही हैं, ऐसे में समलैंगिकों, सैक्स वर्करों और सूई से नशा करने वालों की फिक्र ही कौन करेगा ?
रिपोर्ट पढ़ कर मुझे तो ऐसा भी लगा जैसे कि लोगों के हाई-रिस्क को दूर करने की बजाए हम लोग उन्हें एक आसान सा विकल्प उपलब्ध करवा रहे हैं कि तुम अपना काम चालू रखो, लेकिन एचआईव्ही से अपना बचाव करने के लिये रोज़ाना दवाई ले लिया करो। इस रिपोर्ट में तो यह कहा गया है कि यह दवाईयां सुरक्षित हैं, लेकिन दवाई तो दवाई है ---अगर किसी को मजबूरन लेनी पड़ती हैं तो दूसरी बात है, लेकिन अगर हाई-रिस्क बिहेवियर को ज़िंदा रखने के लिये अगर ये दवाईयां ली जाने की बात हो रही है तो बात हजम सी नहीं हो रही। आप का क्या ख्याल है?
रिपोर्ट पढ़ते पढ़ते यही ध्यान आ रहा था कि आज विश्व की समस्त विषम समस्याओं का हल क्यों भारत के पास ही है? इन सब बातों का सही इलाज अध्यात्म ही है, और कोई दूसरा पक्का उपाय इस तरह की विकृतियों को दूर करने का किसी के पास तो है नहीं। यह क्या बात है , समलैंगिक पुरूष हाई-रिस्क में चाहे लगे रहें, नशा करने वाले नशे में लिप्त रहें लेकिन एचआईव्ही संक्रमण से बचने के लिये रोज़ाना दवाई ले लिया करें---यह भी कोई बात हुई। एक तो इतनी महंगी दवाईयां, ऊपर से इतने सारे दूसरे मुद्दे और बस यहां फिक्र हो रही है कि किस तरह से उसे संक्रमण से बचा लिया जाए। बचा लो, भाई, अगर बचा सकते हो तो बचा लो, लेकिन अगर उस की लाइन ही बदल दी जाए, उस की सोच, उस की प्रवृत्ति ही बदल दी जाए तो कैसा रहे ----- यह चाबी केवल और केवल भारत ही के पास है।