लखनऊ में सब्जियां अच्छी मिलती हैं, आम भी अच्छे मिलते हैं, जून-जुलाई के महीने में तो भरमार होती है आमों की..... हर तरफ़ ये आम ही आम दिखते हैं बाज़ारों में।
मैं अकसर कईं बार सोचा करता हूं जिस तरह की सब्जियां या आम यहां दिखते हैं अगर ये बंबई जैसे शहरों में भेजे जाएं तो किसानों या व्यापारियों को काफ़ी मुनाफ़ा हो सकता है।
पता नहीं लखनऊ के कितने आम बंबई पहुंचते हैं या नहीं, लेकिन आज दैनिक जागरण से यह पता तो चल ही गया कि किस तरह से लखनऊ से बंबई दिल्ली जाने वाली पुष्पक एक्सप्रेस में कछुओं की तस्करी रूकने का नाम ही नहीं ले रही।
दो साल में एक हज़ार से ज्यादा कछुए लखनऊ जंक्शन पर पकड़े जा चुके हैं। सोचने वाली बात यह है कि अगर हज़ार पकड़े गये हैं तो कितने हज़ार (या फिर लाख..) तो मुंबई पहुंच चुके होंगे।
परसों इसी गाड़ी के जनरल कोच में २८६ कछुए लावारिस हालत में एक बोरे में बरामद किये गये। इन्हें बाद में चिड़ियाघर में छोड़ दिया गया।
लावारिस तो कहने को हुआ......जिस का होगा, अब वह कैसे कहे कि यह उस का है। वह पट्ठा भाग खड़ा हुआ होगा। सूत्रों का कहना है कि छोटे कछुओं को होटलों में सप्लाई करने के लिए मुंबई ले जाया जाता है।
पता नहीं ये तस्कर क्या करते होंगे इन कछुओं का, लेकिन यह इतना आसान सा षड़यंत्र भी नहीं लगता कि यहां से गये और वहां होटलों में बिक गये। ज़रूर कुछ न कुछ काला रहस्य तो होगा इस कारोबार के पीछे।
मुझे अच्छे से ध्यान में नहीं आ रहा....याद भी बिल्कुल नहीं आ रहा ...लेकिन धुंधला सा याद है कि कहीं पढ़ा था कि ये कछुए विदेशों में बहुत ज़्यादा दामों में बिकते हैं........इन्हें कुछ अनाप-शनाप दवाईयां भी बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, मुझे ऐसा ध्यान आ रहा है।
इन जीवों का बंबई जाने पर क्या हश्र होता है ..क्या नहीं होता, लेकिन एक बात तो बहुत अहम् है कि इतने सारे कछुओं को जब उन को प्राकृतिक आवास (natural habitat) से उठा लिया जाता है तो यह पर्यावरण के संतुलन (ecological balance) को गड़बड़ाने का एक अन्य साधन ही है।
इस तरह से चुराये गये कछुओं का क्या होता है, कुछ आप ने भी कहीं पढ़ा-सुना हो तो कमैंट में लिखियेगा।
मैं अकसर कईं बार सोचा करता हूं जिस तरह की सब्जियां या आम यहां दिखते हैं अगर ये बंबई जैसे शहरों में भेजे जाएं तो किसानों या व्यापारियों को काफ़ी मुनाफ़ा हो सकता है।
पता नहीं लखनऊ के कितने आम बंबई पहुंचते हैं या नहीं, लेकिन आज दैनिक जागरण से यह पता तो चल ही गया कि किस तरह से लखनऊ से बंबई दिल्ली जाने वाली पुष्पक एक्सप्रेस में कछुओं की तस्करी रूकने का नाम ही नहीं ले रही।
दो साल में एक हज़ार से ज्यादा कछुए लखनऊ जंक्शन पर पकड़े जा चुके हैं। सोचने वाली बात यह है कि अगर हज़ार पकड़े गये हैं तो कितने हज़ार (या फिर लाख..) तो मुंबई पहुंच चुके होंगे।
परसों इसी गाड़ी के जनरल कोच में २८६ कछुए लावारिस हालत में एक बोरे में बरामद किये गये। इन्हें बाद में चिड़ियाघर में छोड़ दिया गया।
लावारिस तो कहने को हुआ......जिस का होगा, अब वह कैसे कहे कि यह उस का है। वह पट्ठा भाग खड़ा हुआ होगा। सूत्रों का कहना है कि छोटे कछुओं को होटलों में सप्लाई करने के लिए मुंबई ले जाया जाता है।
पता नहीं ये तस्कर क्या करते होंगे इन कछुओं का, लेकिन यह इतना आसान सा षड़यंत्र भी नहीं लगता कि यहां से गये और वहां होटलों में बिक गये। ज़रूर कुछ न कुछ काला रहस्य तो होगा इस कारोबार के पीछे।
मुझे अच्छे से ध्यान में नहीं आ रहा....याद भी बिल्कुल नहीं आ रहा ...लेकिन धुंधला सा याद है कि कहीं पढ़ा था कि ये कछुए विदेशों में बहुत ज़्यादा दामों में बिकते हैं........इन्हें कुछ अनाप-शनाप दवाईयां भी बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, मुझे ऐसा ध्यान आ रहा है।
इन जीवों का बंबई जाने पर क्या हश्र होता है ..क्या नहीं होता, लेकिन एक बात तो बहुत अहम् है कि इतने सारे कछुओं को जब उन को प्राकृतिक आवास (natural habitat) से उठा लिया जाता है तो यह पर्यावरण के संतुलन (ecological balance) को गड़बड़ाने का एक अन्य साधन ही है।
इस तरह से चुराये गये कछुओं का क्या होता है, कुछ आप ने भी कहीं पढ़ा-सुना हो तो कमैंट में लिखियेगा।