कल ऐसे ही मेरे हाथ विज़िटिंग कार्डों वाला फोल्डर लग गया ---वैसे तो आज के ई-युग में इस की तरफ़ लपकने की ज़रूरत ही कहां महसूस होती है ! एक कार्ड पर नज़र गई --- केशव गोपीनाथ भंडारी – यह शख्स मेरे साथ हास्पीटल अटैंडेंट के तौर पर बंबई में काम किया करता था और यह कार्ड उस ने मुझे लगभग पंद्रह साल पहले अपनी सेवा-निवृत्ति के समय दिया था।
मैंने झट से बंबई का नंबर लगाया ---बस आगे 2 लगा लिया --- घंटी बजी ---उधर से पूछने पर मैंने बताया की भंडारी से बात करनी है। तो, फोन उठाने वाले ने आवाज़ लगाई कि पापा, आप का फोन है। भंडारी के फोन पर आने के बाद मैंने कहा, भंडारी बाबू, राम-राम -----उस ने पूछा कौन। मैंने कहा --- भंडारी, काम पुड़ता मामा। वह यह बात बहुत बार बताया करता था ---- यह मराठी भाषा का एक जुमला है जिस का अर्थ है ---- काम पड़ने पर लोग किसी को भी मामा बना लेते हैं !! 10-15 मिनट उस से बातें होती रहीं --- मुझे और उसे बहुत ही अच्छा लगा। लेकिन, एक छोटे से विज़िटिंग कार्ड का कमाल देखिये कि उस ने हमारी पुरानी यादें हरी कर डालीं।
वैसे यह विज़िटिंग कार्ड वाला फोल्डर मैंने उठाया इसलिये था कि मैंने इस की सफ़ाई करनी थी – यह बंबई लोकल की तरह खचाखच भरा हुआ था। मेरे पास कुछ और कार्ड थे जिन्हें इस फोल्डर में जगह देनी ज़रूरी थी ---वही डार्विन वाली बात हो गई --- survival of the fittest ! अर्थात् जो लोग काम के लगेंगे वही इस फोल्डर में टिक पायेंगे और बाकी कार्ड रद्दी की टोकरी के सुपुर्द हो जायेंगे।
आज सुबह मैंने डेढ़-दो सौ के करीब कार्ड रद्दी की टोकरी में फैंक दिये --- और यह काम मेरे को बहुत आसान लगा। यह काम करते हुये सोच रहा था कि अकसर बहुत से लोगों के साथ हमारे संबंध कितने ऊपरी सतह पर ही होते हैं --- और ऐसे कार्डों को फोल्डर से निकाल कर बाहर फैंकते वक्त एक क्षण के लिये भी सोचना ही नहीं पड़ता। ये कार्ड विभिन्न कंपनियों आदि के साथ, उन के डीलर्ज़ के थे --- जब ये कार्ड किसी से लिये होंगे या जब किसी ने इन्हें दिया होगा तो शायद इंटरएक्शन ही कुछ इस तरह का हल्का-फुल्का रहा होगा कि कभी खास संपर्क बाद में रखा ही नहीं गया।
कुछ कार्ड इस लिये भी सुपुर्दे ख़ाक हो गये क्योंकि उन की जगह पर उन्हीं लोगों के नये अपडेटेड कार्ड मुझे मिल चुके थे --- और कुछ कार्ड ऐसे थे जो ट्रेन में सफ़र करते वक्त विज़िटिंग-कार्ड एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत प्राप्त हुये थे, इसलिये सालों तक इन को रखे रखने की भी कोई तुक नहीं थी।
जब मैं उस फोल्डर को उलटा-पुलटा कर रहा था तो रह रह कर यही विचार मन में आता जा रहा था कि जो कार्ड डस्ट-बिन में फैंक दिये वे तो सही जगह पर पहुंच गये हैं लेकिन जो बचे हुये कार्ड हैं इन में से हरेक कार्ड के पीछे एक अच्छी खासी स्टोरी है। और यही स्टोरियां ही मैं लिख कर साझी करना चाह रहा हूं।
जब मैं ये विज़िटिंग कार्ड फैंक रहा था तो कुछ कार्ड फैंकते हुये मुझे दुविधा सी हो रही थी कि फैंकूं या पड़ा रहने दूं ---- बस, फिर उस समय जो ठीक समझा कर दिया ---लगता है कि जब ऐसे मौके पर दुविधा हो तो उस कार्ड को रखे रखना ही मुनासिब है ।
यह साफ़-सफाई करते वक्त मैं यही सोच रहा था कि अगर मेरे इस फोल्डर में अपने किसी बचपन के दोस्त का कार्ड मिल जाता तो मैं देखता कि उसे मैं कैसे फैंक पाता – पता नहीं जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती है तो हमारे संबंधों में इतना फीकापन क्यों आ जाता है --- कालेज से ज़्यादा अपने स्कूल के संगी-साथी अज़ीज लगते हैं, प्रोफैशन से जुड़े लोगों से कहीं ज़्यादा अपने कालेज के दिनों के हमसफर क्यों इतना भाते हैं , .........बस, इस तरह अगर हम यूं ही आगे चलते जायेंगे तो पायेंगे कि हम लोगों की कितनी जान-पहचान तो बस ऐसे ही कहने के लिये ही होती हैं ---- जैसे जैसे उम्र बढ़ती है इस में फीकापन इसलिये आता है क्योंकि हम मुनाफ़े और नुकसान का टोटल मारना शुरू कर देते हैं --- इस से मेरे को यह फायदा होगा और इस से कुछ नहीं होगा -----बस, यही हमारी समस्याओं की जड़ है। हम क्यों नहीं बच्चों की तरह हो जाते ---- जब मैंने डेढ़-दो सौ कार्ड अपने छठी में पढ़ रहे बेटे को कूड़ेदान में फैंकने के लिये दिये तो उस ने मुझे यह कह कर चौंका दिया ----पापा, ये सब मैंने अभी अपने पास रखूंगा, ये मेरे काम के हैं, बाद में बताऊंगा----ये कह कर उसने वे सभी मेरे डिस्कार्ड किये हुये कार्ड अपनी स्टडी-टेबल की दराज में रखे और अपना स्कूल का बैग उठा कर बाहर भाग गया । मैं हमेशा की तरह यही सोचने लगा कि यार, हम लोग कब बच्चों की तरह सोचना बंद कर देते हैं, पता नहीं हम लोग बड़े होकर, बड़ों की तरह सोच कर , बड़ों की तरह कैलकुलेटिंग होने से आखिर क्या हासिल कर लेते हैं !!
मैंने झट से बंबई का नंबर लगाया ---बस आगे 2 लगा लिया --- घंटी बजी ---उधर से पूछने पर मैंने बताया की भंडारी से बात करनी है। तो, फोन उठाने वाले ने आवाज़ लगाई कि पापा, आप का फोन है। भंडारी के फोन पर आने के बाद मैंने कहा, भंडारी बाबू, राम-राम -----उस ने पूछा कौन। मैंने कहा --- भंडारी, काम पुड़ता मामा। वह यह बात बहुत बार बताया करता था ---- यह मराठी भाषा का एक जुमला है जिस का अर्थ है ---- काम पड़ने पर लोग किसी को भी मामा बना लेते हैं !! 10-15 मिनट उस से बातें होती रहीं --- मुझे और उसे बहुत ही अच्छा लगा। लेकिन, एक छोटे से विज़िटिंग कार्ड का कमाल देखिये कि उस ने हमारी पुरानी यादें हरी कर डालीं।
वैसे यह विज़िटिंग कार्ड वाला फोल्डर मैंने उठाया इसलिये था कि मैंने इस की सफ़ाई करनी थी – यह बंबई लोकल की तरह खचाखच भरा हुआ था। मेरे पास कुछ और कार्ड थे जिन्हें इस फोल्डर में जगह देनी ज़रूरी थी ---वही डार्विन वाली बात हो गई --- survival of the fittest ! अर्थात् जो लोग काम के लगेंगे वही इस फोल्डर में टिक पायेंगे और बाकी कार्ड रद्दी की टोकरी के सुपुर्द हो जायेंगे।
आज सुबह मैंने डेढ़-दो सौ के करीब कार्ड रद्दी की टोकरी में फैंक दिये --- और यह काम मेरे को बहुत आसान लगा। यह काम करते हुये सोच रहा था कि अकसर बहुत से लोगों के साथ हमारे संबंध कितने ऊपरी सतह पर ही होते हैं --- और ऐसे कार्डों को फोल्डर से निकाल कर बाहर फैंकते वक्त एक क्षण के लिये भी सोचना ही नहीं पड़ता। ये कार्ड विभिन्न कंपनियों आदि के साथ, उन के डीलर्ज़ के थे --- जब ये कार्ड किसी से लिये होंगे या जब किसी ने इन्हें दिया होगा तो शायद इंटरएक्शन ही कुछ इस तरह का हल्का-फुल्का रहा होगा कि कभी खास संपर्क बाद में रखा ही नहीं गया।
कुछ कार्ड इस लिये भी सुपुर्दे ख़ाक हो गये क्योंकि उन की जगह पर उन्हीं लोगों के नये अपडेटेड कार्ड मुझे मिल चुके थे --- और कुछ कार्ड ऐसे थे जो ट्रेन में सफ़र करते वक्त विज़िटिंग-कार्ड एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत प्राप्त हुये थे, इसलिये सालों तक इन को रखे रखने की भी कोई तुक नहीं थी।
जब मैं उस फोल्डर को उलटा-पुलटा कर रहा था तो रह रह कर यही विचार मन में आता जा रहा था कि जो कार्ड डस्ट-बिन में फैंक दिये वे तो सही जगह पर पहुंच गये हैं लेकिन जो बचे हुये कार्ड हैं इन में से हरेक कार्ड के पीछे एक अच्छी खासी स्टोरी है। और यही स्टोरियां ही मैं लिख कर साझी करना चाह रहा हूं।
जब मैं ये विज़िटिंग कार्ड फैंक रहा था तो कुछ कार्ड फैंकते हुये मुझे दुविधा सी हो रही थी कि फैंकूं या पड़ा रहने दूं ---- बस, फिर उस समय जो ठीक समझा कर दिया ---लगता है कि जब ऐसे मौके पर दुविधा हो तो उस कार्ड को रखे रखना ही मुनासिब है ।
यह साफ़-सफाई करते वक्त मैं यही सोच रहा था कि अगर मेरे इस फोल्डर में अपने किसी बचपन के दोस्त का कार्ड मिल जाता तो मैं देखता कि उसे मैं कैसे फैंक पाता – पता नहीं जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती है तो हमारे संबंधों में इतना फीकापन क्यों आ जाता है --- कालेज से ज़्यादा अपने स्कूल के संगी-साथी अज़ीज लगते हैं, प्रोफैशन से जुड़े लोगों से कहीं ज़्यादा अपने कालेज के दिनों के हमसफर क्यों इतना भाते हैं , .........बस, इस तरह अगर हम यूं ही आगे चलते जायेंगे तो पायेंगे कि हम लोगों की कितनी जान-पहचान तो बस ऐसे ही कहने के लिये ही होती हैं ---- जैसे जैसे उम्र बढ़ती है इस में फीकापन इसलिये आता है क्योंकि हम मुनाफ़े और नुकसान का टोटल मारना शुरू कर देते हैं --- इस से मेरे को यह फायदा होगा और इस से कुछ नहीं होगा -----बस, यही हमारी समस्याओं की जड़ है। हम क्यों नहीं बच्चों की तरह हो जाते ---- जब मैंने डेढ़-दो सौ कार्ड अपने छठी में पढ़ रहे बेटे को कूड़ेदान में फैंकने के लिये दिये तो उस ने मुझे यह कह कर चौंका दिया ----पापा, ये सब मैंने अभी अपने पास रखूंगा, ये मेरे काम के हैं, बाद में बताऊंगा----ये कह कर उसने वे सभी मेरे डिस्कार्ड किये हुये कार्ड अपनी स्टडी-टेबल की दराज में रखे और अपना स्कूल का बैग उठा कर बाहर भाग गया । मैं हमेशा की तरह यही सोचने लगा कि यार, हम लोग कब बच्चों की तरह सोचना बंद कर देते हैं, पता नहीं हम लोग बड़े होकर, बड़ों की तरह सोच कर , बड़ों की तरह कैलकुलेटिंग होने से आखिर क्या हासिल कर लेते हैं !!