हमारे देश में कितने लोग हैं जो आम-सी दिखने वाली ( नोट करें दिखने वाली) तकलीफ़ों के लिये डाक्टर के लिये जाते हैं.....इस के पीछे छिपे कारणों में हम इस समय नहीं जाते कि ऐसा क्यों होता है.....लेकिन आम तौर पर बुखार, जुकाम, दस्त आदि के लिये अकसर लोग क्या करते हैं ?....अपनी जानकारी के अनुसार जिस भी किसी उपयुक्त दवा का नाम पहले से पता है, उसे ही पास वाले कैमिस्ट से मंगवा लेते हैं।
दवा कैमिस्ट ने कौन सी दी है ......किस कंपनी की दी है.....इस के बारे में अधिकतर लोगों को कुछ पता वता होता नहीं है। तो, दवा शुरू कर दी जाती है.....भगवान भरोसे ठीक हो गये तो ठीक है, वरना देखा जायेगा।
मैं पिछले सप्ताह दस्त रोग/ पेचिश से परेशान था.....मुझे पता था कि पानी की ही गड़बड़ी है, खैर दो-तीन दिन यूं ही देखा ....यही सोचा कि बाहर आकर अकसर ऐसा हो ही जाता है। लेकिन जब दो-तीन दिन बाद भी ठीक ना हुआ तो मैंने दस्त के लिये एक दवा जो मेरे पास मौजूद थी वह लेनी शुरू कर दी लेकिन उस दवाई को लेते मुझे दो दिन हो गये तो भी मुझे जब कोई फर्क नहीं पड़ा तो मुझे यकीन हो गया कि हो ना हो, यह दवा ही चालू है, घटिया किस्म की है।
मैं कैमिस्ट के पास जा कर एक बढ़िया किस्म की दवाई ले आया .....वैसे मैं नाम-वाम तो अपनी पोस्टों में लिखता नहीं हूं....लेकिन इस का लिख ही रहा हूं......बस इच्छा हो रही है सो लिख रहा हूं.....कंपनी से मुझे कुछ लेना-देना है नहीं। इस दवाई का नाम था....Tiniba 500mg …..यह लगभग पैंतालीस रूपये का दस टेबलेट का पत्ता आता था ...इस में Tinidazole 500mg ( टिनीडाज़ोल 500मिग्रा.) होता है। यह मुझे दिन में दो-बार 12-12 घंटे के अंतराल के बाद खानी है । हां, तो मैं यह बताना चाहता था कि इस की एक –दो खुराक लेने के बाद ही मुझे बिल्कुल फर्क पड़ गया। हां, लेकिन इसे पांच दिन खा कर पूरा कोर्स तो करना ही होगा और इस के साथ साथ पानी के बारे में विशेष ध्यान तो रखना ही होगा।
मेरा यह सारी स्टोरी लिखने का मतलब केवल इतना है कि कितने लोग इस तरह से दवा अपनी मर्जी से चेंज कर सकते हैं। कहने का मतलब है कि हम लोग तो चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़े हैं, अगर एक आम सी समस्या के लिये एक प्रचलित दवाई काम नहीं कर रही है तो सब से पहले तो इस का अर्थ यही निकलता है कि हो ना हो , दवाई में ही कोई गड़बड़ है। और यह सच भी है....आज कल दवाईयों के फील्ड में इतनी गड़बड़ है कि क्या कहें.....एक ही साल्ट की एक टेबलेट पांच रूपये में तो दूसरी किसी कंपनी की वही टेबलेट पचास रूपये में बिक रही होती है। यह बिल्कुल सच्चाई है।
और एक ही साल्ट की इन दोनों दवाओं के दाम में इतने ज़्यादा फर्क का कारण अकसर यही बताया जाता है कि एक जैनेरिक है और एक एथिकल है। इन में असली अंतर क्या है, यकीन मानिये मैं लगभग पिछले आठ-दस सालों से इस का जवाब ढूंढ नहीं पाया हूं। जब भी कोई सीनियर डाक्टर, मैडीकल रिप्रज़ैंटेटिव अथवा कोई पहचान वाला कैमिस्ट मिलता है तो इस का जवाब तो देता है लेकिन मैं आज कल पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुआ हूं।
अब एक ही साल्ट की दवा एक तो पांच रूपये में और दूसरी पचास रूपये में बिके और यह कह दिया जाए कि एक तो जैनेरिक है और दूसरी एथिकल है.........चूंकि जैनेरिक में कंपनी को टैक्स वगैरा की काफी बचत हो जाती है, विज्ञापनबाजी पर ज़्यादा खर्च नहीं करना पड़ता, ........इसलिये इस जैनेरिक दवाईयों को कंपनी सस्ते में बेच पाती है। लेकिन मुझे कभी भी पता नहीं कभी भी यह बात क्यों हज़्म नहीं होती ( नहीं...नहीं, दस्त की वजह से नहीं, वह तो अब थैंक-गॉड ठीक है) ......मुझे हमेशा यही सवाल कचोटता रहता है कि क्या इस की क्वालिटी बिल्कुल वैसी ही होगी.....पता नहीं मुझे क्यों ऐसा लगता है। जिस से भी पूछा है ,वही कहता है कि हां, हां, बिलुकल वैसी ही होती है जैसे एथिकल ब्रांड की होती है।
चलिये यह चर्चा तो चलती रहेगी। बिलकुल ठीक उसी तरह से जिस तरह से हमारे देश में सेल्फ-मेडीकेशन चलती रहेगी यानि लोग अपनी ही समझ अनुसार, अपने ही ज्ञान अनुसार दवाईयां खरीद खरीद कर खाते रहेंगे। इसलिये कुछ बातें यहां रेखांकित करने की इच्छा सी हो रही है।
मेरे कहने से कोई भी सेल्फ-मेडीकेशन खत्म करने वाला नहीं है। लेकिन इतना तो हम कर ही सकते हैं कि बिलकुल आम सी समस्याओँ के लिये अपने फैमिली डाक्टर से मिल कर बढ़िया कंपनी की दवाईयों के नाम एक फर्स्ट-एड के तौर पर ही सही किसी डायरी में लिख कर रखें........और जब भी ये दवाईयां बाज़ार से खरीदें तो इस का बिल बिना झिझक ज़रूर लें।
हमारे देश में अपने आप ही दवा खरीद कर ले लेना बहुत ही प्रचलित है। मैं आज ही किसी अखबार में पढ़ रहा था कि अमेरिका के हस्पतालों में हर साल एक लाख चालीस हज़ार ऐंटीबायोटिक दवाईयों के रिएक्शन के केस पहुंचते हैं। अब हम लोग खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर अमेरिका में ये हालात हैं जहां पर हर बात पर इतना कंट्रोल है, लोग अच्छे-खासे पढ़े लिखे हैं, बिना डाक्टरी नुस्खे के दवा मिलती नहीं..........तो फिर हमारे यहां पर क्या हालत होगी। पता नहीं इन घटिया किस्म की चालू दवाईयों के कितने किस्से बेचारे लोगों की कब्र में उन के साथ ही हमेशा के लिये दफन हो जाते होंगे।
अब आप इमेजन करिये.........एक टीबी मरीज बाजार से खरीद कर दवा खा रहा है, लेकिन उस की टीबी ठीक नहीं हो रही तो उस का डाकटर क्या करेगा.....उस की दवाईयों की खुराक बढ़ायेगा ....नहीं तो दवाईयां चेंज करेगा, ......यह सब कुछ करने पर भी अगर बात नहीं बनेगी तो उस के केस को Drug-resistant tuberculosis अर्थात् ऐसी टीबी जिस पर दवाईयां असर नहीं करती, डिक्लेयर कर देगा। और फिर उस का इलाज शुरू कर दिया जायेगा। कहने का भाव केवल इतना ही है कि टीबी जैसे रोगों के लिये कुछ चालू किस्म की घटिया दवाईयां मरीज़ की ज़िंदगी से खिलवाड़ करती हैं, यह अकसर हम लोग अखबारों में पढ़ते रहते हैं।
मैं बहुत बार सोचता हूं कि आदमी करे तो क्या करे................वही बात है कि दवा का जब नाम आये तो कभी भी किसी किस्म का समझौता नहीं करना चाहिये, यह बहुत ही लाजमी है, बेहद लाजमी है, इस के इलावा कोई भी रास्ता नहीं है, दवाई बढ़िया से बढ़िया कंपनी की जब भी ज़रूरत पड़े तो ले कर खानी होगी.......वरना अगर किसी के बच्चे का बुखार दो-तीन दिन से ऐंटीबायोटिक दवाई खिलाने के बाद भी नहीं उतर रहा तो उस की हालत पतली हो जाती है.......एक एक मिनट बिताना परिवार के लिये पहाड़ के बराबर लगता है।
ऐसे में क्या आप को नहीं लगता कि नकली दवाईयां बेचने वाले, स्टाक करने वाले, और इन्हें बनाने वाले भी उजले कपड़े के पीछे छुपे (काला धंधा गोरे लोग) खतरनाक आतंकवादी ही हैं। बस, अभी तो इतनी ही बात करना चाह रहा था......आशा है कि आप मेरी इस पोस्ट के सैंट्रल आइडिये को समझ ही गये होंगे।